November 28, 2015

किंगफ़िशर और मछेरे


दो कविताएँ 
किंगफ़िशर,
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वे मारते हैं पर,
हवा में ।
वे मारते हैं डुबकी,
पानी में ।
पकड़ लाते हैं,
चोंच में ।
साँस लेने के लिए तड़फ़ती,
एक मछली।
और फ़िर दूसरी नाश्ते के बाद,
थोड़ी देर से ।
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मछेरे
वे फ़ैलाते हैं जाल,
पानी में,
समेटते हैं जाल,
हौले-हौले,
पकड़ लाते हैं,
जाल में.
साँस लेने के लिए तड़फ़ती,
बहुत सी मछलियाँ ।
और फ़िर दूसरी,
इन्हें बेचने के बाद ।
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November 27, 2015

नागलोक -2

नागलोक -2 
(कल्पित)
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उस विशाल वट-वृक्ष के नीचे,
मनोराज्य की भूमि के,
सहस्रों योजन के विस्तार में,
उनका लोक, था अवस्थित ।
जनमेजय को देखते ही,
उसकी आहट पाकर ही,
वे कंपित-गात्र हो जाते,
और पूरी त्वरा से वहँ से भाग निकलते ।
जनमेजय की शक्ति के वृत्त में,
भूल से भी आ जाने पर,
उनकी सारी शक्ति छीन ली जाती थी ।
और वे बरबस,
उस अग्नि-कुण्ड की ओर खिंचते चले जाते,
जहाँ जनमेजय का नाग-यज्ञ हो रहा था,
अहर्निश ।
विनता का पुत्र, वैनतेय ही,
कालान्तर में हुआ था जनमेजय ।
जनम् एजयसि त्वं,
माता विनता ने उससे कहा ।
अतस्त्वं जनमेजयो!
हर जीव तुम्हें देखकर भय से काँपता है,
इसलिए तुम्हारा नाम हुआ,
जनमेजय!
वह नित्य जागृत रहता ।
उसे नागों से कोई द्वेष या वैर नहीं था ।
वे तो उसके यज्ञ की समिधा भर थे ।
वह नित्य जागृत रहता ।
उसकी गति सर्वत्र, सूक्ष्म से सूक्ष्म,
और दूर से भी दूर तक थी ।
विष्णु उस पर आरूढ़ होते,
इसीलिए आज्ञा का संकेत पाते ही,
वह तत्क्षण उन्हें उनके गंतव्य तक ले जाता ।
वह भौतिक-शास्त्र की वह ’संभावना’ था,
जिस पर आरूढ़,
परमाणु के सूक्ष्मतम कण में प्रविष्ट विष्णु,
किसी दिशा में अन्तर्धान होते हुए दिखलाई देते हुए भी,
अगले ही पल, किसी सर्वथा अनपेक्षित,
किसी बिलकुल अप्रत्याशित दिशा में,
पुनः आविर्भूत हो उठते,
जिसका अनुमान वैज्ञानिक नहीं लगा सकता था ।
जब विष्णु विश्राम करते,
तो वैनतेय भी खड़े-खड़े,
जागृत-निद्रा में विश्राम पाता ।
जब जनमेजय के रूप में वैनतेय का जन्म हुआ,
तो एकमात्र लक्ष्य था उग्र तप ।
और इसलिए निराहार रहते हुए,
वह ज्ञानाग्नि में विचार की आहुति देता ।
ये विचार वही थे जो अपनी स्थूल-देह में नाग थे,
जो अपनी सूक्ष्म, प्राण-देह में विचार,
जो अपनी कारण-देह में भावनाएँ थे ।
जनमेजय ने नाग-यज्ञ आरंभ किया,
और वे आने लगे,
झुण्ड के झुण्ड,
बन रहे थे समिधा ।
हाँ कुछ इने-गिने विशालकाय नागराज ही,
बचे रह गए थे उस भूमि पर ।
वे दौड़कर गए श्रीहरि की शरण में ।
श्रीहरि ने अभयदान दिया,
जब मैं विश्राम करता हूँ,
तो वह भी विश्राम करता है ।
इसलिए तुम मुझे शैया दो !
तब नागराज शेष ने प्रसन्नतापूर्वक,
अर्पित की श्रीहरि को,
अपनी सेवाएँ,
और सुखपूर्वक जीने लगे फिर से,
नागलोक के निवासी ।
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November 10, 2015

आज की कविता : कितने सपने,

आज की कविता !
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उस दीपावलि,
इस दीपावलि,
हर दीपवलि,
कितने सपने,
कितने सुख-दुःख,
हमने जिए,
जलते रहे,
बुझते रहे,
पिघलते रहे,
बहते रहे,
साथ-साथ,
फिर भी तुम,
पूछती हो,
दिए लिये??
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भ्रू-माहात्म्य


आज की कविता : भ्रू-माहात्म्य 
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भ्रू-रहित ये नेत्र जिनका भ्रू-विलास संदिग्ध है,
देखते जिसको भी वह जडीभूत भयमुग्ध है,
भयग्रस्त इस संसार में हर-एक है डरा-डरा
हर-एक हर पल जी रहा जैसे कि हो मरा मरा ॥
भ्रूकुटी हो तीक्ष्ण या मृदु जैसे सुतीक्ष्ण की,
भ्रूकुटी एकाग्र हो या काँपती ज्यों दीप की,
भ्रूकुटी सुषुप्त हो जैसे कि हो वह सीप की,
योग की समाधि में मग्न अन्तरीप की ।
भ्रू-भंगिमा नटी मुद्रा, भ्रू-भंगिमा अनुरंजिनी
भ्रू-भंगिमा उल्लास चञ्चल, भ्रू-भ्ंगिमा अनुरागिणी,
भ्रू-भंगिमा यदि शान्त हो तो चित्त हो समाधि में
भ्रू-भंगिमा ही यदि नहीं तो सार क्या संसार में ?
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November 07, 2015

आज की कविता / 07/11/2015

आज की कविता / 07/11/2015
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ध्वनि-ध्वज शिखा-पताकाएँ,

ध्वनि-ध्वज शिखा-पताकाएँ,
हर दिन कंपित प्रतिपल चञ्चल,
ऊष्मप्राण ऊर्जितगातमन,
ऊषारुणवेला में सूर्यस्नात,
लहराती रहती हैं साँझ तक,
मुक्तमनोत्स्फूर्तचित्त,
डोलता फिरता हुआ,
तितलियों की छ्ँह छूने,
फैलाकर दोनों हाथ,
और फिर थकित प्राण,
लेकर अपना मुख म्लान,
सो जाता उनींदा सा,
क्रोड में यामिनी के,
सो जाती शिखा-पताकाएँ,
समेटकर उत्सव-उल्लास,
ध्वनि-ध्वज शिखा-पताकाएँ,
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November 03, 2015

आज की कविता / वो एक अहसास!

आज की कविता 
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वो एक अहसास! 
देह थकती है ख़याल थकता है,
साँस थकती है दिमाग़ थकता है,
कभी कभी दोनों न थकें तो भी,
कोई होता है जो कि थकता है ।
यह थकान दिलो-ज़िस्म से परे,
यह थकान जो है दुनिया से जुदा,
कभी कभी गो महसूस हुआ करती है,
यह महसूसना कभी नहीं थकता । 
कभी तो हस्ती में इस थकान से मैं,
होता हूँ वाक़िफ़ कभी नहीं होता,
कभी तो होती है नुमाँ रुख-ब-रुख,
कभी कभी इसका ग़ुमां नहीं होता,
किसे हुआ है कभी और कभी किसे होगा,
जिसे भी होगा जहाँ से अलहदा होगा ।
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