March 23, 2019

नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं

रामायण या गीता ?
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरित-मानस लिखा जो वैसे तो वाल्मीकि-रामायण का ही लोकभाषा में किया गया एक रूपान्तरण है और यद्यपि इसे संस्कृत में ही लिखने की कामना से उनका प्रयास प्रारंभ हुआ होगा, ऐसा अनुमान इसलिए किया जा सकता है, क्योंकि हर काण्ड के आरंभ में तथा और भी अनेक स्थानों में उन्होंने संस्कृत भाषा में पद्य लिखे हैं । वैसे श्री ब्रह्माण्डपुराण में वर्णित 'अध्यात्म-रामायण' में भी वाल्मीकि-रामायण के ही कथा तथा उपदेश संस्कृत में ही हैं, और स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी स्वीकार किया है कि उनके द्वारा रचित ग्रन्थ श्रीरामचरित-मानस की प्रेरणा उन्हें इन्हीं दोनों ग्रंथों से प्राप्त हुई है, इसलिए या किसी और प्रेरणा से उन्होंने इसे लोकभाषा में ही लिखा होगा । इससे यही सिद्ध होता है कि वे इसे संस्कृत में भी अवश्य लिख सकते थे और यदि ऐसा होता तो वह भी एक अद्भुत रचना होती किन्तु यह हमारा सौभाग्य ही है कि उन्होंने इसे अवधी-मिश्रित हिंदी में लिखा ।
इसे पढ़ते हुए मुझे प्रायः पूज्य श्रीसमर्थ स्वामी रामदास रचित 'दासबोध' याद आता है, और यद्यपि 'दासबोध' को मैंने बहुत बाद में पढ़ा, लेकिन यह भी अनुभव हुआ कि जैसा भाषा-शिल्प और शिल्प-वैभव इन दोनों ग्रंथो में है वह अवश्य ही समान है ।
गोस्वामी तुलसीदासजी जिस प्रकार अचानक भाषा के गियर बदल देते हैं उससे भी यही सिद्ध होता है कि संस्कृत पर उनका अधिकार था और संस्कृत में लिखना उनके लिए उतना ही सरल स्वाभाविक रहा होगा, जितना कि उस प्रचलित अवधी-मिश्रित हिंदी / हिन्दवी भाषा में, जिसमें उन्होंने श्रीरामचरित-मानस लिखा ।
एक उदाहरण अरण्यकाण्ड से :
श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ।
पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ।
मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ।
निसिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ।
अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ।
हर हृदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ।
संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ।
भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ।
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ।
अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ।
भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ।
अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः।
अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल  विपुल विभंजन नामः ।
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ।
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संस्कृत के पंडितों को इसमें संभवतः व्याकरण तथा छंद के नियमों का उल्लंघन दृष्टिगत हुआ होगा जो उनके गोस्वामी तुलसीदासजी के प्रति ईर्ष्याजनित विद्वेष से पैदा हुआ होगा, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि गोस्वामी तुलसीदासजी के संस्कृत भाषा के ज्ञान में कोई कमी या त्रुटि थी।
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अब सवाल आता है कि हमें क्या पढ़ना चाहिए ? ज़ाहिर है कि आज की प्रचलित हिन्दी भाषा की तुलना में रामायण, श्रीरामचरितमानस या गीता तीनों की ही भाषाएँ किसी हद तक कठिन और भिन्न हैं । और इन दोनों ग्रंथों के अनुवाद पढ़ने में वह आनंद नहीं प्राप्त होता, जो कि मूल ग्रन्थ को पढ़ने से होता है इसलिए इस पर ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है कि इन्हें पढ़ने के पीछे हमारा दृष्टिकोण क्या है । एक धर्मद्वेषी जो किसी भी राजनीतिक विचारधारा का हो इसे उसी दृष्टिकोण से पढ़ेगा जो उसके राजनीतिक विचार ने उसे दिया होगा ।
पुराणपंथी, पितृसत्तात्मक, स्त्री-विरोधी, दलितविरोधी  इत्यादि कहकर इन ग्रंथों की निंदा की जायेगी और अपनी विद्वत्ता की धाक बैठाई जायेगी । कोई 'इतिहास' की दृष्टि से इसमें वर्णित सामाजिक तथा सांस्कृतिक परंपराओं का मज़ाक उड़ाते हुए इन्हें शोषण-आधारित व्यवस्था का समर्थक सिद्ध करेगा।  
लेकिन यदि कोई इन ग्रंथों का इस दृष्टि से अध्ययन करेगा कि इनमें विभिन्न प्रकार के स्त्री-पुरुषों के स्वभाव और चरित्र का कैसा वर्णन है और उनमें से मैं स्वयं किसके सर्वाधिक समान हूँ, तो उसे दिखलाई पड़ेगा कि न केवल मनुष्य बल्कि पशु, पक्षी, देवता, राक्षस, यहाँ तक कि वृक्ष आदि से भी अपनी समानता इन ग्रंथों में वह देख सकेगा ।
एक दृष्टिकोण यह भी हो सकता है कि मैं इन विविध 'पात्रों' / 'चरित्रों' में से एक या एकाधिक को अपने  'आदर्श' की तरह स्वीकार कर सकूँ और उस कसौटी पर खरा उतरने के लिए आवश्यक योग्यता उपलब्ध करूँ, इसके लिए प्रयास करूँ ।
दोनों ही दृष्टियों से इन ग्रंथों का अध्ययन किया जा सकता है । कोई भी पुरुष राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, दशरथ, कुबेर, इन्द्र, गौतम, अगस्त्य, वसिष्ठ, भृगु, बालि, सुग्रीव, अंगद, हनुमान, गुह, रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद, विभीषण, खर-दूषण, त्रिशिरा, जटायु, संपाति, नल-नील आदि से अपना तादात्म्य देख सकता है, या इनमें से किसी में अपना 'आदर्श' (आइडियल रोल-मॉडल) देख सकता है और तय कर सकता है कि उसे क्या / कैसा होना है ।
इसी तरह कोई भी स्त्री भी अहल्या, अरुन्धती, सीता, कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा, मंदोदरी, शूर्पणखा, तारा, रूमा (सुग्रीव की पत्नी), सुरसा, लंकिनी, त्रिजटा आदि में अपना 'आदर्श' (आइडियल रोल-मॉडल) देख सकती है, और तय कर सकती है कि उसे क्या / कैसा होना है ।
जाकी रही भावना जैसी ....
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यहाँ तक

इतने दिनों तक
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साल 2009 में किसी शुभ दिन ब्लॉग लिखना शुरू किया था । बहुत से प्रयोग किए लेकिन प्रायः उद्देश्य यही होता था कि कोई नई बात लिखूँ । swaadhyaaya, aakaashgangaa, geetaasandarbha, ramanavinay जैसे ब्लॉग में कोई प्रयोजन या सूत्र अवश्य था / है, और अपनी सुविधा के अनुसार मुख्य रूप से हिन्दी, अंग्रेज़ी तथा कभी कभी संस्कृत या मराठी भाषा का प्रयोग मैंने किया । उमंग और उत्साह में कभी कभी तमिळ का भी महत्त्व और ज़रूरत अनुभव हुए ।
किसी पाठक से जुड़ना, किसी का मनोरंजन करना या ब्लॉग-विधा का कोई व्यावसायिक उपयोग करना शायद ही कभी मेरा ध्येय रहा हो । साहित्य की दृष्टि से मैं नहीं कह सकता कि मैं किस कोटि का साहित्यकार हूँ किन्तु इस बारे में सोचना भी अनावश्यक प्रतीत होता है। किसी को कोई शिक्षा या उपदेश देना तो कल्पना में भी संभव नहीं है, अगर कभी कितने 'views' मेरे ब्लॉग के हैं यह देखता हूँ तो बस उत्सुकतावश ही, न कि इसलिए कि उससे मुझे ख़ुशी या निराशा हो ।
swaadhyaaya, aakaashgangaa, geetaasandarbha, ramanavinay जैसे ब्लॉग किसी हद तक सुगठित हैं ऐसा लगता है, लेकिन शेष चार Hindi-ka-blog, romantic...., vinayvaidya, tatha Playform काफी अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित हैं ऐसा कहा जा सकता है ।
यहाँ इनका उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी महसूस होता है क्योंकि मेरे swaadhyaaya ब्लॉग के पाठकों की संख्या जिस तेज़ी से पिछले और इस वर्ष बढ़ी है उससे मेरा अनुमान है कि शायद उसमें रोचकता का कोई अंश है, -पाठकों की इसमें दिलचस्पी भी है ।
 swaadhyaaya ब्लॉग में जी भर कर लिखने का मौक़ा मिला और बेहिचक कहना चाहूँगा कि अभी उसमें मैं और भी बहुत से पोस्ट्स लिख सकता हूँ । पर मैं न तो किसी का दिल दुखाना चाहता हूँ न किसी से कोई बहस या चर्चा । इसलिए एक अच्छी से पोस्ट लिखने के बाद उस ब्लॉग में अब संभवतः और आगे कुछ नहीं लिखना है ।लेकिन लिखने का उत्साह अभी बरक़रार है तो सोचता हूँ कि जब तक blogger ज़िंदाबाद है, तब तक कभी कभी बाक़ी के ब्लॉग्स में अवश्य कुछ लिखा जा सकता है।                      

March 17, 2019

असली नाम

इक अजनबी हसीना से यूँ मुलाक़ात हो गई ।
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वैसे उसका असली नाम क्या था मैं नहीं जान सका पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है ? वैसे भी किसे अपने खुद का भी असली नाम पता होता है? हर किसी को कोई नाम दिया जाता है और यदि वह उसे बदल भी ले तो भी वह नाम असली है इसका क्या सबूत हो सकता है? यह हो सकता है कि आप कोई दस्तावेज़ भी दिखा सकें लेकिन इससे यह कैसे साबित होगा कि यह आपका असली नाम है? हम अक्सर इस भ्रम में इतनी बुरी तरह जकड़े रहते हैं कि हमारे नाम पर कोई अजनबी भी कोई अच्छी या बुरी टिप्पणी करे तो हम प्रभावित हुए बिना नहीं रहते । कुछ देर बाद ही हमें समझ में आता है कि जिसके बारे में टिप्पणी है, वह हम नहीं, कोई और हमारा हमनाम है ।
भाषा के संबंध में अपने अनुसंधान के दौरान मेरा किसी 'फौज़िया हसन' से संपर्क हुआ । शायद वह अरबी-फ़ारसी की कोई साहित्यकार / अदीब हैं  । बात करने पर पता चला यह उसका अदीबी नाम है। लगा कि उसका कोई दूसरा -असली(?) नाम कुछ और है । इसके बाद लम्बे समय तक मेरी उससे मुलाक़ात नहीं हुई ।  फिर एक दिन अचानक उससे मिलना हुआ । तब पता चला कि उर्दू के अपने शौक़ के चलते उसका यह 'तख़ल्लुस' था ।
और जैसी कि अदीबों की फ़ितरत होती है, वे दूसरे उन लोगों से मिलना-जुलना पसंद करते हैं, जिन्हें वे बहुत बड़ा मानते हैं या जिन्हें वे प्रभावित करना चाहते हैं । यह कमोबेश दो पहलवानों की एक-दूसरे के बीच होनेवाली दिलचस्पी जैसा है । दोनों एक दूसरे के क़द्रदां और प्रतिस्पर्धी भी होते हैं ।
मेरे मन में अनायास कौतूहल हुआ कि क्या वह मुसलमान है?
यह सोचना कितना अजीब है कि कोई मुसलमान या हिन्दू, सिख, ईसाई, यहूदी या पारसी हो सकता है ।
कोई हिन्दी-भाषी, अंग्रेज़ी-भाषी, चीनी या अरबी भाषा बोलनेवाला हो सकता है, हिन्दुस्तानी, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी या जापानी, रूसी, जर्मन वग़ैरह भी हो सकता है, कोई स्त्री या पुरुष, बच्चा, जवान या बूढ़ा हो सकता है लेकिन कोई मुसलमान या हिन्दू, सिख, ईसाई, यहूदी या पारसी कैसे हो सकता है ? क्या ये उसके रहन-सहन के तौर-तरीकों के आधार पर उसका कामचलाऊ परिचय देनेवाले शब्द, शब्द-संकेत या नाम ही नहीं होते  ? क्या नाम एक पहचान भर नहीं है? यदि 'लतीफ़' का असली नाम (?) कुछ और, जैसे कि 'मोहन' या 'मोहम्मद' हो तो इससे उसके रंग-रूप, उम्र, मातृभाषा, आस्तिक या नास्तिक होने के बारे में क्या पता चलता है? लेकिन 'फौज़िया हसन' के बारे में जानकर यह सवाल मन में क्यों आता है कि क्या वह मुसलमान है? और उसकी कविता (जिसे वह 'शायरी' कहती है), पढ़ते हुए तुरंत समझ में आता है कि उर्दू भाषा से उसका बस भावनात्मक संबंध है । पर मैं यह सोचकर चिंतित हो उठता हूँ कि उर्दू से उसका यह प्रेम उसे कहाँ ले जाएगा ! क्या उर्दू से उसका यह प्रेम किसी उर्दूभाषी तथाकथित 'अदीब' से प्रेम का कारण नहीं बन सकता ? क्या मुंशी प्रेमचन्द या कैफ़ी आज़मी उर्दू के साहित्यकार नहीं थे ? शायद अमृता प्रीतम और मीनाकुमारी भी । सवाल उनके हिन्दू या मुसलमान होने का उतना नहीं है जितना कि इसका कि जब कोई अपने-आपको हिन्दू या मुसलमान कहते कहते अचानक कट्टर धर्मांध हिन्दू या कट्टर धर्मांध मुसलमान हो जाता है तब क्या उसका इस ओर ज़रा सा भी ध्यान होता है कि क्या  'हिन्दू' या 'मुसलमान' भी धर्म का असली नाम हो सकता है? क्या धर्म का कोई असली नाम है भी ? और एक नाम अगर दे भी दिया जाए, तो क्या उस नाम से धर्म की असली पहचान साबित की जा सकेगी ?
बहरहाल मैंने अपने भाषा-अनुसंधान के माध्यम से विवेचना की ।
मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि 'फ़ौज' अंग्रेज़ी 'force' का सज्ञाति (cognate) है और 'force' का ही समानार्थी है ''fort'; -और 'fort' भी पुनः संस्कृत 'वर्त' का अपभ्रंश है । जैसे संस्कृत 'विद'-जाननेवाला से अंग्रेज़ी / Latin 'fide और अरबी-फ़ारसी 'फिदा' / 'faith' होता है, वैसे ही 'वर्त' (संस्कृत - वर्तते) से 'fort' का आगमन समझा जा सकता है ।
Affidavit ऐसा ही एक शब्द है जिसका मूल 'अव-विद-वित्' में आसानी से देखा जा सकता है । 
इसी तरह सिन (इजिप्शियन देवी चन्द्रमा, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में 'सिनीवाली' अमावास्या के सन्दर्भ में प्राप्य है।) से बना हसन, हासन, हुस्न, मोहसिन, अहसान, जो सभी 'सुंदरता' के पर्याय हैं । ऐतिहासिक भूलों से सिन का अंग्रेज़ी पर्याय (sin) 'पाप' हो गया क्योंकि इजिप्शियन देवी सिन की मूर्ति की पूजा मूर्तिभंजकों की दृष्टि में 'पाप' था ।
इसके बाद फौज़िया हसन से मेरी मुलाक़ात कभी नहीं हुई । 'गूगल सर्च' किया तो पता चला कि इस नाम की दो महिलाओं में से एक तो पाकिस्तानी सिंगर हैं और दूसरी मालदीव में रहनेवाली ।
फौज़िया हसन के बारे में इससे ज़्यादा मुझे कुछ नहीं पता ।
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