December 06, 2017

भोग, कर्म, बोध, मैत्री और सहजता

भोग, कर्म, बोध, मैत्री और सहजता
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संसार में किसी से भी संबंध / लगाव / जुड़ाव उपरोक्त बहानों या कारणों से होता है ।
इसे कहते हैं ’पात्रे समिता’, जैसे कौए और कुत्ते, गौएँ और भेड़-बकरियाँ, और समूह में रहनेवाले जीव-विशेष, जो समय के साथ एक-दूसरे के मित्र या प्रतिद्वन्द्वी भी हो जाते हैं । राजनीति इसका सबसे बड़ा प्रत्यक्ष उदाहरण है । व्यापार, व्यवसाय, धार्मिक संगठन, संस्थाएँ आदि भी इसका अपवाद नहीं हैं । भले ही उनके उद्देश्य और आदर्श कितने ही श्रेष्ठ क्यों न प्रतीत होते हों जब व्यक्तिगत स्वार्थ पर आँच आती है, या प्रतिष्ठा / अहं का प्रश्न पैदा हो जाता है तो संस्था अनेक समूहों / गुटों में बँट जाती है । जिनके आदर्श और उद्देश्य भले ही एक जैसे दिखाई देते हों, भीतर ही भीतर उनकी भिन्न-भिन्न व्याख्या वे अपने ढंग से करते हैं । यहाँ तक कि राज्य का क़ानून भी इसका अपवाद नहीं हो सकता । क़ानून से अधिक शक्ति उसकी व्याख्या में है और व्याख्या करनेवाले व्याख्या से भी अधिक शक्तिशाली होते हैं ।
सामान्य जन हो या विशिष्ट ’elite', ’संभ्रान्त’ सबके अपने-अपने समूह होते हैं और एक ही व्यक्ति एक से अधिक समूहों से भिन्न-भिन्न कारणों से जुड़ा होता है । ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि पूरा समाज और प्रत्येक व्यक्ति भी अत्यन्त विखण्डित-चित्त है और एक-दूसरे से जुड़ाव तात्कालिक ज़रूरत और अस्थायी महत्व का होता है ।
जब आप फ़िल्म देखने जाते हैं, खाने-पीने के लिए होटल, रेस्त्राँ या कैफ़े में जाते हैं, बस या ट्रेन में सफ़र करते हैं काम पर जाते हैं, काम से लौटते हैं, परिवार के साथ या मित्रों या अपरिचित लोगों के साथ होते हैं, या शाम को देसी शराब की दुकान पर जाते हैं तो वही विखंडित-चित्त मनुष्य अपने ही जैसे लेकिन फिर भी अपने से बहुत अलग क़िस्म के लोगों के साथ होता है ।
आज की स्थिति में यह तथ्य इतना ही या इससे भी कहीं अधिक फ़ेसबुक और अन्य सोशल-नेट्वर्किंग-साइट्स पर भी लागू होता है । वहाँ भय, आशंका, लोभ, आकर्षण, धोखा खाने और देने के लिए और अधिक कारण तथा  सुविधाएँ हैं । और कोई ख़ुद को दूध का धुला होने का दावा कर ही नहीं सकता क्योंकि इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता ।
समाज का यह पूरा विन्यास कुल मिलाकर सामाजिकता के दायरे में ’भोग’ की समानता के अधिकार के उपभोग की स्वतन्त्रता पर निर्भर है ।
दूसरी ओर कर्म के लिए होनेवाला जुड़ाव कुछ भिन्न है । आप दफ़्तर या कार्य-स्थल पर अपना कार्य करते हुए लोगों के संपर्क में आते हैं और वहाँ भी कुछ लगाव पैदा हो जाते हैं जो लगाव और फिर संबंध बनते हुए रिश्ते-नाते जैसे हो जाते हैं, जिनमें अनकहे वादे, क़समें, अपेक्षाएँ छिपी तो होती हैं या फिर जान-बूझकर या अनजाने ही उन्हें छिपाया भी जाता है, क्योंकि ’पासवर्ड’ के अलावा भी हर व्यक्ति की कुछ न कुछ ऐसी नितान्त निजि बातें होती हैं जिन्हें दूसरों से साझा किया भी नहीं जाना चाहिए ।
इस प्रकार कोई भी जुड़ाव किसी माध्यम से होता है, परिस्थिति भी ऐसा ही एक माध्यम होती है ।
ऐसा विखंडित-चित्त मनुष्य बच्चे जैसा सरल-चित्त हो पाए इसकी संभावना कितनी है?
जब तक मैं अपने भीतर अस्पष्ट, दुविधा में हूँ तब तक क्या मैं खुद की या किसी दूसरे की वास्तविक मदद कर सकता हूँ ?
क्या मदद करने के लिए किसी विचार, सिद्धान्त या आदर्श का  सहारा लेना यही नहीं दर्शाता कि ऐसी मदद अनायास अन्तःस्फ़ुरित प्रेम से प्रेरित न होकर किसी अप्रत्यक्ष स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए (और उसकी आदत हो जाने के कारण) की जा रही है? क्या वहाँ भी आपके मन में संशय और दुविधा नहीं होते? सड़क पर खड़ी गाय को रोटी देने के कार्य में भले ही ऐसा संशय या दुविधा न होते हों, लेकिन भिखारी को कुछ देने की स्थिति में क्या संशय या दुविधा सर नहीं उठाते? तब आप किसी विचार, सिद्धान्त, दर्शन आदि से अपना कर्तव्य भले ही तय कर लें किंतु आपका चित्त क्या उस दुविधा से वैसे ही उबर पाता है जैसे आपकी कोई व्यक्तिगत चिन्ता मिटने पर हुआ करता है?
यदि आप इतने ही सरल चित्त हैं तो आपका अस्तित्व ही मैत्री है । तब आप अनायास ही सबकी सहायता करते हैं । तब आप सफलता अथवा असफलता को महत्व न देते हुए गरीब या संपन्न होते हुए, अनपढ़ या सुशिक्षित, उच्च, मध्यम, या निम्न सामाजिक हैसियत वाले होकर भी सहृदय होते हैं । तब आप विखण्डित-चित्त नहीं होते, लेकिन ऐसा होने का दावा भी नहीं करते । तब आप ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते । तब आप जहाँ होते हैं अपने आसपास के लोगों तक शान्ति और सौहार्द्र फैलाते हैं , भले ही प्रत्यक्षतः आप ऐसा कुछ करते हुए न भी दिखाई देते हों ।
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