June 08, 2017

लिखना

लिखना
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क्या लिखना रोग (disease) या व्यसन (addiction) होता है?
यदि लिखना किसी उद्देश्य का साधन है तो यह मौलिक नहीं हो सकता । तब वह उद्देश्य ही मौलिकता को नष्ट कर देता है । यह उद्देश्य या तो कोई आदर्श या राजनैतिक, सामाजिक लक्ष्य होता है, या व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा जिसके माध्यम से प्रतिष्ठा, धन, सत्ता / शक्ति को पाने की अभीप्सा लेखक को लिखने हेतु प्रेरित करती है । तब वह अभ्यास से शैली को सुधार-सँवारकर विषय के अनुरूप यद्यपि मोहक, उत्तेजक, भावोद्दीपक, सुन्दर प्रतीत होनेवाला, गंभीर और क्लिष्ट लेखन करने में सिद्धहस्त भी हो सकता है किंतु उसमें मौलिकता कहीं नहीं होती । एक कहानी-लेखक जानने लगता है कि कहानी की बुनियादी शर्त है ’मोड़’ (turn and twist) । क़मोबेश यही बात कविता पर भी लागू हो सकती है । ’चौंकाना’ या भावुकता के अतिरेक से किसी को प्रभावित करना न तो कला है, न साहित्य । दुर्भाग्य से आज का अधिकांश लेखन इसी प्रकार का है । और यह किसी भी भाषा के साथ हो रहा है । मौलिकता का एक उदाहरण है ’copyrighting’ जिसमें किसी ’विचार’ को किसी उत्पाद के प्रचार के लिए ’निर्मित’ और प्रयुक्त किया जाता है किंतु वहाँ भी मौलिकता बिकाऊ होती है जो शायद और अधिक अनैतिक, बुरा / गलत है । यहाँ तक कि वह शायद प्रतिभा का दुरुपयोग है । यही बात संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला आदि पर भी लागू होती है । कला जब ’उपभोग’ की वस्तु (consumer good commodity) हो जाती है तो उसमें मौलिकता का तत्व वैसे भी गौण हो जाता है ।
दो दिन पहले मैं you tube पर Rajya Sabha T.V. का video 'Special Report' 'गुमनाम है कोई-  भाग 1 तथा 2) देख रहा था जिसमें फ़िल्मों के संगीतकारों की कृतियों का प्रदर्शन किया गया था । अवश्य ही बहुत श्रम के साथ उन्होंने ’संगीत’ को नई ऊँचाइयाँ दीं । एक विशेषज्ञ भारतीय संगीत के ’linear’ तथा पाश्चात्य संगीत के ’harmonic’ होने के अंतर को स्पष्ट कर रहे थे ।
यह ठीक है कि प्रयोग के द्वारा संगीत-रचनाओं (compositions) में ’नए’ प्रभाव लाए जा सकते हैं और उस स्तर पर कलाकारों की प्रतिभा का सम्मान भी होना चाहिए, किंतु क्या उसमें ’मौलिकता’ है?
यही प्रश्न ’लिखने’ पर भी लागू होता है ।
क्या कहानी, कविता या उपन्यास, फ़िल्म, पैंटिंग, स्कल्पचर (शिल्प) पहले अमूर्त रूप में रचनाकार के हृदय / मस्तिष्क में ही नहीं होते जो अभिव्यक्त होने के लिए आतुर होते हैं? क्या गुरुदत्त ने  किसी 'लक्ष्य' को लेकर फिल्में बनाईं ? लक्ष्य तो बाद में समीक्षकों द्वारा आरोपित कर दिए जाते हैं  । मौलिकता किसी समीक्षा या लक्ष्य की मोहताज़ नहीं होती । यहाँ तक कि 'लक्ष्य' और 'समीक्षा' से रचना को प्रभावित होने देना तक सृजन का विपर्यय है  ।
क्या यही बात 'लिखने' पर भी नहीं लागू होती ?   
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