January 26, 2019

उद्भव और प्रादुर्भाव

धर्म, अधर्म और मतवाद
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अपेक्षाकृत गंभीर और अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर वैसे तो मैं प्रायः अपने स्वाध्याय ब्लॉग में ही लिखने का साहस करता हूँ, और वहाँ हिंदी में भी लिखता हूँ, किंतु यह दुविधा अक्सर होती है कि उन पोस्ट्स को वहाँ पोस्ट करूँ या यहाँ। मैं अपने-आपको किसी विशिष्ट चौखट में परिभाषित नहीं कर सकता। मुझे लगता है कि मैं भी उन असंख्य ब्लॉगर्स में से एक हूँ जिनका प्रादुर्भाव पिछले दो दशकों में नेट पर हुआ है।
मेरे 'स्वाध्याय ब्लॉग' में मैंने उद्भव को emergence और प्रादुर्भाव को accidental कहा है।
धर्म मूलतः प्रकृति का स्वभाव है और इसलिए यद्यपि विभिन्न सजीव तथा निर्जीव वस्तुओं के संबंध में उस वस्तु की विशिष्ट प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति होता है किंतु उसके साथ अधर्म भी वैसे ही उपजता है जैसे गेहूँ के साथ भूसा। और स्वयं प्रकृति धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक शुभ-अशुभ से अछूती रहती है।  यदि प्रकृति को समष्टि कहा जाए तो इस प्रश्न का उद्भव होता है कि क्या प्रकृति की सत्ता किसी सजीव वस्तु जैसी 'चेतन' समष्टि है या किसी निर्जीव वस्तु जैसी (जड) 'अचेतन' समष्टि ?
पुनः इस प्रश्न का उद्भव होता है कि क्या 'एक' अथवा 'अनेक' का विशेषण 'समष्टि' पर लागू होता है? प्रश्न पूछनेवाला स्वयं 'समष्टि' का अंश है, 'समष्टि' है, या 'समष्टि' उसका अंश है? समष्टि अपने आपमें संपूर्ण Sovereign स्वायत्तता / Autonomy है जिससे भिन्न, परे और बाहर 'दूसरा' कुछ नहीं होता।  यदि समष्टि प्रकृति ऐसी समूची स्वायत्तता है तो उसे 'जाननेवाला' उससे भिन्न, परे अथवा बाहर कैसे हो सकता है? इस प्रकार वह 'जाननेवाला' बोध / भान भी उस समष्टि में स्वाभाविक रूप से अन्तर्निहित है। और वह बोध / भान द्वैतपरक नहीं है इसलिए जानना 'जानकारी' न होकर उस सत्ता का ही दूसरा  पहलू / पक्ष है। जैसे दीपक और प्रकाश एक ही तथ्य के दो पक्ष होते हैं, वैसे ही 'होना' और 'जानना' उसी समष्टि के दो पहलू हैं। इसे ही वेदान्त में 'सत्' तथा 'चित्' कहा जाता है क्योंकि यह बोध / भान उस बोध / भान / ज्ञान से इस अर्थ में भिन्न प्रकार का है जो किसी सजीव प्राणी में पाया जाता है। वेदान्त-दर्शन में इसे ब्रह्म के उदाहरण से इस प्रकार स्पष्ट किया जाता है :
ब्रह्म सजातीय, विजातीय, तथा स्वगत, -इन भेदों से रहित है।
सजातीय का अर्थ है एक ही जाति में भिन्न प्रकार का होना - जैसे वृक्षों में आम, खजूर, या पीपल के वृक्ष परस्पर भिन्न होते हैं।
विजातीय का अर्थ है भिन्न जातियाँ जैसे वनस्पति, पशु, पक्षी, जलचर, आदि परस्पर भिन्न होते हैं।
स्वगत का अर्थ है अपने ही अंतर्गत - जैसे शरीर के विभिन्न अंग एक दूसरे से भिन्न प्रकार के होते हैं।
ब्रह्म का ही एक पर्याय है 'समष्टि'।
'समष्टि' भी पुनः तीन स्तरों पर हो सकती है :
व्यक्त स्तर आधिभौतिक रूप में स्थूल पञ्चमहाभूतों तथा तीन गुणों से युक्त स्थूल प्रकृति।
प्रच्छन्न स्तर पर चेतना / वृत्ति के रूप में मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार के रूप में जीव की अन्तःप्रकृति / सूक्ष्म प्रकृति ।
कारण स्तर पर बीज रूप में अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार) तथा काल, स्थान, भान और स्मृति इन आठ की 'कारण-समष्टि'।
दूसरी रीति से :
अष्ट-वसु - वसु देवता विशेष हैं जिनका स्वरूप मूल वर्णों की विवेचना से इस प्रकार है :
व् -- व्यापकता के अर्थ में,
अ -- प्रारम्भ के अर्थ में,
स् -- समता, सृष्टि , समाहार के अर्थ में,
उ -- उत्पत्ति, उद्भव के अर्थ में।
इस प्रकार उपरोक्त चार वर्ण ही पुनः सांख्य के (4 x 3 x 2 ) = 24 तत्व भी हो सकते हैं।
['प्रत्यभिज्ञाहृदयं' में यद्यपि इन आठ की विवेचना किसी और प्रकार से की गयी है।]   
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पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न भौगोलिक स्थानों पर जीव अपने अस्तित्व के लिए विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार प्रवृत्ति-विशेष (स्वभाव-धर्म) से प्रेरित होता है इसलिए  अस्तित्व को बनाए रखने के इस संघर्ष में कोई कोई सरलतम उपाय के रूप में क्रूरता तथा कठोरता को ही आवश्यक मान बैठता है। प्रकृति से ही इस प्रकार जीव दुष्ट हो जाता है और इस दुष्टता का प्रादुर्भाव उसमें अपने-पराये की भेद-बुद्धि पैदा करता है। 
गीता अध्याय 17 :
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संस्थिता।
ममात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।18
तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।19
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि। 
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।20
(यदि रुचि हो तो इन श्लोकों की अधिक विवेचना के लिए मेरे गीता पर लिखे गए ब्लॉग्स देख सकते हैं।)
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इस प्रकार संसार में विभिन्न 'मतवादों' का 'प्रादुर्भाव' होता है, जिनमें शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म कम-ज़्यादा मिले जुले होते हैं।
आज की स्थिति में विडम्बना यह है कि इन विभिन्न मतवादों (मत वालों) की परंपरा, रूढ़ियों और विचार को religion कहकर 'धर्म' की संज्ञा दे दी गयी है। इस प्रकार आक्रामकता तथा आतंक को भी 'धर्मसंगत' समझा और युक्तिसंगत ठहराया जाने लगा है, और 'धार्मिक-स्वतंत्रता' को 'मानवाधिकार' कहकर उस रूप में अधर्म के पक्ष में हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
सोचने की बात है कि आज के समय में विश्व में एकमात्र सबसे बड़ी मूल समस्या यदि कोई है तो वह है जनसंख्या का विस्फोट और तब इतनी बड़ी संख्या को रहने और जीने के लिए जिन संसाधनों की आवश्यकता है उनका निरंतर अधिक व्यय होने से कमी होना, उनका अभाव अधिक गंभीर होना। जनसंख्या विस्फोट बड़े मानव-समूहों को दूसरों के स्थानों पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित करता है और 'अपने' समुदाय की दूसरों से भिन्न पहचान स्थापित करना और उसे बनाए रखना दूसरे समुदायों, राष्ट्रों पर आक्रमण के लिए आधार बनाता है।
प्रकृति चेतन हो या न हो, मनुष्य तथा सभी जीवों के जन्म, विकास और अंततः समाप्ति का एकमात्र कारण है। तथाकथित 'विज्ञान' / science भले ही बहुत शोध और अनुसंधान से मनुष्य की आयु बढ़ा ले किन्तु उसे रोगों और मृत्यु से नहीं बचा सकता। इसका अर्थ यह नहीं कि विज्ञान की प्रगति को रोक दिया जाए, इसका अर्थ केवल यह है कि जब तक प्राकृतिक रूप से जनसंख्या-नियंत्रण के उपाय नहीं खोजे और अपनाए जाते, मनुष्य सुखपूर्वक नहीं जी सकता।  धर्म ही मनुष्य को सुखपूर्वक जीने के लिए स्थायी उपाय और अवलम्बन हो सकता है।  'मतवाद' और परंपराएँ  धर्म के स्वरूप को बहुत हद तक बिगाड़कर मनुष्य के लिए अंतहीन दुःख और क्लेश ही पैदा करती हैं।
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