February 23, 2015

त्रासदी जीवन की!

त्रासदी जीवन की!
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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(मेरी मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी कविता,
"Tragedy of life"
का हिंदीरूपान्तर)
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जब हम जन्म लेते हैं,
और जी रहे होते हैं,
जब हमारे भीतर से उमगता है जीवन,
और होता है रूबरू,
हमारे बाहर के जीवन  से,
 तो हालाँकि दोनों ही,
एक ही जीवन के दो चेहरे होते हैं,
उस भीतरवाले के,
और उस बाहरवाले के बीच,
एक खेल शुरू होता है,
और परवान चढ़ता है.
आईने में उभरती,
अनेक छवियों के बीच,
वह भी जीवन ही है.
और हालाँकि,
ये सभी छवियाँ जीवन ही की होती हैं,
उनमें से हर छवि,
अपने-आपको एक व्यक्ति-विशेष,
और बाकी सबको 'एक संसार' समझती है .
जब हम जन्म लेते हैं,
यह छवि, -यह व्यक्ति,
मरने से डरता है,
जबकि वह जीवन,
जो हमारे भीतर,
हमारी अपनी छवि बनता है,
न तो कभी जन्मा होता है,
और न कभी जनता है,
-किसी मृत्यु को.
और इसकी सीधी सी वज़ह,
सिर्फ यह होती है,
कि मृत्यु हो जाने पर,
कोई मृत्यु को नहीं जान सकता,
और न ही कोई मृत्यु को,
मृत्यु होने से पहले कभी .
किन्तु फिर भी इंसान,
इंसान की तरह,
'अपने' संसार' में,
रोज़ रोज़ जागते और सोते हुए,
मृत्य को सच मान बैठता है.
अपने को एक व्यक्ति मानकर.
और हालांकि,
ऐसा कोई 'संसार' दर-असल कहीं नहीं होता,
जैसा कि भूल से,
व्यक्ति मान बैठता है,
जैसा कि अपनी कल्पनाओं और अनुभूतियों से,
उनकी स्मृतियों के धागों से,
असंख्य रूप-रंगों, और डिज़ाइनों में,
अनेक आकारों-प्रकारों में,
बुन लिया करता है,
और कर लेता है यकीन,
स्मृति से उपजी अपनी उस,
स्वरचित दुनिया को पूरा सच.
भूल जाता है,
कि ऐसी कोई दुनिया,
यक़ीनन कहीं नहीं है,
और न हो सकती है.
न तो मृत्यु, और न ही,
किसी ख्वाहिश का पूरा न हो पाना,
या अपने भीतर कुछ मर जाना,
कोई त्रासदी है जीवन की,
अगर कोई है, या हो सकती है,
तो बस यही एक त्रासदी है,
कि हम भूल जाते हैं,
और फिर याद भी नहीं कर पाते,
कि न तो हमारा कभी कोई जन्म हुआ था,
और न किसी रोज़ हम मर जाएंगे!
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© 



  








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