January 18, 2020

राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग

राष्ट्रीय संवत्
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नेपाल का राष्ट्रीय सम्वत विक्रम सम्वत के सामान है।
भारत का राष्ट्रीय (शक) सम्वत क्यों विक्रम-सम्वत के अनुरूप है?
इसका एक प्रधान कारण यह प्रतीत होता है कि भले ही राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग (Calendar) को 'शक' से संबद्ध कर उसे भारतीयता के आवरण में प्रस्तुत किया गया है, वह मूलतः इसे ही ध्वनित करता है कि भारत का इतिहास ईसा के बाद शुरू होता है। 'शक' इसीलिए प्रयुक्त किया गया ताकि भारतीय लोगों को यह अपने इतिहास से संबंधित प्रतीत हो।
रोचक तथ्य यह है कि विक्रम सम्वत का प्रारम्भ ईसा पूर्व 53 वर्ष पहले हुआ।
इस प्रकार भारत के राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग (कैलेंडर) को शक-सम्वत से जोड़कर एक तीर से दो चिड़ियाओं का शिकार किया गया।
रोचक तथ्य यह भी है कि नेपाल में यह सम्वत भारत के स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आने से भी पहले से प्रचलित था।
नेपाल के शासक 'बीर बिक्रम' का नाम तो सुप्रसिद्ध है ही।
फिर विक्रम जो विक्रमादित्य था और जिसके नाम से यह सम्वत प्रारम्भ हुआ उसे यदि नेपाल आज भी अपना राष्ट्रीय सम्वत मानता है तो भारत को इसे राष्ट्रीय सम्वत मानने से परहेज क्यों है?
क्या यह विचारणीय विषय नहीं है?
विक्रम अर्थात् विक्रमादित्य न सिर्फ भारत का ऐतिहासिक बल्कि साहित्यिक, सांस्कृतिक, लोक-संस्कृति का पात्र भी है। विक्रमोर्वशीयम् कालिदास का प्रसिद्ध संस्कृत नाटक है जिसे 5 अंकों में लिखा गया था।
इस नाटक में उर्वशी की विद्यमानता इसका सूचक है कि भारत का इतिहास न सिर्फ लौकिक बल्कि पौराणिक संदर्भों से संबद्ध है।   
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January 12, 2020

"Vinay! How was the Gandaki River.?"

त्रिवेणी घाट 
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स्कन्द-पुराण अवंतिका-खण्ड के अनुसार क्षाता नदी महाकाल वन क्षेत्र में क्षिप्रा नदी से मिलती है।
संभवतः यही क्षाता नदी कालान्तर में खान नदी हो गयी है (क्योंकि ऐसा वर्णन स्कन्द-पुराण में देखा जा सकता है।)
पहले क्षाता नदी नर्मदा में मिलती थी, किन्तु बाद में नर्मदा से विलग हो गयी, और क्षिप्रा की दिशा में बहने लगी। क्षिप्रा उत्तरवाहिनी है, जबकि नर्मदा पश्चिमवाहिनी।
इसी क्रम में जिस स्थान पर वर्त्तमान में क्षिप्रा और क्षाता का संगम हुआ, वहीं स्थित शनि-विग्रह (तथा नवग्रह) मंदिर का उल्लेख भी इस पुराण में है।
इस प्रकार क्षिप्रा का उद्गम वही स्थान है जिसके समीप क्षिप्रा नाम का कस्बा स्थित है।
देवास से साँवेर जाते हुए यह स्थान बीच में आता है।
गूगल मैप्स पर मैंने 'गुरुकुल' का वर्णन (review)लिखा था।
तब गूगल मैप्स ने पूछा था :
"Vinay! How was the Gandaki River.?"
गूगल-मैप्स कुछ समय से खान नदी को गण्डकी / Gandaki नाम से दर्शा रहा है।
स्पष्ट है कि जैसे प्रयागराज में यमुना गंगा से मिलती है, उसी तरह गण्डकी क्षिप्रा से।
संस्कृत 'गम्' धातु से गण्डकी तथा गंगा दोनों की व्युत्पत्ति की जा सकती है।
दुर्भाग्य से हमने पिछले १०० वर्षों में खान नदी को नाले में बदल दिया।
इसी प्रकार यमुना को भी मलिन कर दिया।
यदि गंगा, यमुना, क्षिप्रा और गण्डकी में शहरों-बस्तियों का कचरा और गंदगी न बहाया जाता तो आज हमें सिंहस्थ, मकर-संक्रांति, सोमवती और शनिश्चरी अमावस्या जैसे पर्वों पर नर्मदा का पानी क्षिप्रा में छोड़ने की ज़रुरत न होती।
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January 10, 2020

एक वीरान शहर

आज की कविता 
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मौत एक वीरान शहर,
जहाँ कोई नहीं रहता।
हालाँकि हर कोई यहाँ,
आता है किसी दिन !
लौटकर इसकी कोई,
चर्चा नहीं करता !
ऐसे ही तमाम लोग,
बसा करते हैं यहाँ,
जिनकी याद और ज़िक्र,
करता है ज़माना,
पर कैसा है वो शहर,
किसने कहाँ जाना ?
मौत एक वीरान शहर,
जहाँ कोई नहीं रहता।
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January 08, 2020

प्रवर अव अवतरणीय

Power of Attorney 
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मनुष्य द्वारा बोली और लिखी जानेवाली भाषाएँ कहाँ से आईं?
इस बारे में प्रथम उल्लेख श्री देवी अथर्वशीर्ष तथा दूसरा तैत्तिरीय उपनिषद् में प्राप्त होता है।
हिब्रू बाइबल के अनुसार Adamic Language सर्वप्रथम मानव-भाषा थी।
Tower of Babel का संबंध अवश्य ही बेबीलोन सभ्यता से है।
किसी पुराने पोस्ट में मैं लिख चुका हूँ कि किस प्रकार बेबीलोन भव्य-लोकं का सज्ञात / सजात / cognate हो सकता है। इसी सिद्धान्त के आधार पर प्रायः सभी भाषाओं के विभिन्न शब्दों की व्युत्पत्ति उनके अर्थसाम्य और ध्वनि-साम्यता / उच्चारणसाम्यता / लिपिसाम्यता के आधार पर मूलतः किसी संस्कृत शब्द में देखी जा सकती है।
कम से कम अरबी और अंग्रेज़ी तथा जर्मन और ग्रीक भाषा के ऐसे अनेक शब्दों का मूल इस प्रकार कोई संस्कृत शब्द है ऐसा अनुमान (hypothesis) करना विचारणीय है।
मैंने स्वयं इस सिद्धान्त की कसौटी पर इन भाषाओं के सैकड़ों शब्दों का सामञ्जस्य किसी संस्कृत शब्द में पाया है इसलिए मुझे लगता है कि मेरा यह अनुमान (hypothesis) परीक्षणीय है।
विस्तार में न जाते हुए केवल एक उदाहरण के रूप में, मैं इस पोस्ट के शीर्षक की विवेचना करना चाहूँगा।
मेरी दृष्टि में इसकी तुलना संस्कृत भाषा के 'प्रवर अव अवतरणीय' से की जा सकती है।
ध्वनि-साम्य और अर्थ-साम्य की दृष्टि से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 'power' शब्द जहाँ  'प्रवर' का सज्ञात / सजात / अपभ्रंश / cognate है, वहीँ 'of' शब्द संस्कृत 'अव' उपसर्ग का।
विज्ञान, ज्योतिष (Astronomy), विधान / Law, धर्म / Religion तथा चिकित्सा-शास्त्र Medical Science में ऐसे ढेरों शब्द हैं, जिन्हें ग्रीक, लैटिन अथवा Aramaic से उद्भूत माना जाता है। और केवल इन-गिने नहीं बल्कि बहुतायत से। किन्तु यदि उनके लिए उनके समानार्थी संस्कृत शब्द से उनकी तुलना करें तो संस्कृत भाषा का महत्त्व और उपयोगिता और प्रासंगिकता स्पष्ट हो जाएँगे।  यह प्रश्न तब गौण हो जाएगा की क्या संस्कृत ही वह भाषा थी जिसका उल्लेख Tower of Babel की कथा में किया गया है।     
आज अचानक
"Power of Attorney"
शब्द के लिए हिंदी में कौन सा उपयुक्त शब्द हो सकता है, इस बारे में विचार किया तो इस ओर ध्यान गया।
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January 01, 2020

क्रमिक मृत्यु

कपड़ों से पहचाना जाना !
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भीषण शीत लहर से देश के विभिन्न हिस्से अस्त-व्यस्त और त्रस्त हैं।
साधन-सुविधा-संपन्न तो किसी भी कीमत पर इस ठण्ड से न केवल अपना बचाव कर सकते हैं, बल्कि वे इसका लुत्फ़ भी उठा सकते हैं । आइस-हॉकी या आइस-स्केटिंग खेल सकते हैं, अचानक हिम-स्खलन या भू-स्खलन के शिकार हो सकते हैं लेकिन (उनके लिए) एडवेंचर ही तो जीवन है।
दूसरी ओर साधनहीन जैसे तैसे अपने ढंग से बुद्धि का इस्तेमाल कर ठंड से सुरक्षा का इंतज़ाम कर रात बिता देते हैं। निर्धनों के पास बुद्धि का धन / साधन तो होता ही है, जबकि तथाकथित सुविधाभोगी संपन्न लोगों के पास यह साधन भी प्रायः नहीं होता। भीषण ठंड या गर्मी से, एक्सीडेंट से, भूख से या बहुत और ऊटपटांग खाकर बीमार होकर मर जाना शायद अपना अपना भाग्य है। साधन जो प्राणों को बचाने लिए, उपभोग तथा भोग विलास के लिए इकट्ठे किए जाते हैं, वे ही कभी प्राण ले भी लेते हैं।
भारत में शीतलहर, तो ऑस्ट्रेलिया में जंगलों की आग !
धन-दौलत से संपन्न लोगों की पहचान सुखी की तरह की जाती है, और कोई बुद्धिमान भी उचित अनुचित तरीकों से धन का अम्बार लगाकर गर्व से भर सकता है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि तमाम सुखों और नित्य प्राप्त होनेवाली उत्तेजनाओं, विचित्र अनुभवों, लालसाओं की तृप्ति होने से वह अजर अमर हो जाता हो।
क्या धन-दौलत की सहायता से मनुष्य को रोग, व्याधि, भय तथा आशंकाओं से छुटकारा मिल जाता है? लेकिन धनवानों के मन में ऐसा प्रश्न उठता ही नही।
जिस प्रकार कष्ट मनुष्य को कभी-कभी असंवेदनशील बना दिया करते हैं, वैसे ही सतत सुख भी उसे असंवेदनशील बना देते हैं। फिर वह महत्वाकांक्षाओं, धर्म, आदर्शों आदि के पीछे भागकर येन केन प्रकारेण जीवन की सार्थकता पाने का प्रयास करता है या काल्पनिक प्रश्नों के लिए जीवन का उत्सर्ग भी कर देता है, किन्तु क्या दुःखों से उसे छुटकारा मिल सकता है?
संवेदनशीलता में कष्ट भी हैं और कष्टों से मुक्ति भी।
असंवेदनशील होना दुःखों से पलायन करने में सहायक तो प्रतीत होता है, किन्तु अंततः और भी अधिक असंवेदनशील बनाने लगता है। यह क्रमिक मृत्यु है।
किसी आकस्मिक मृत्यु में मर जाना उतना बुरा /दुःखद नहीं है,जितना कि ऐसी क्रमिक मृत्यु में जीते रहना।---