January 30, 2019

'हिंदुत्व' की पहचान

स्वान्तःसुखाय 
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शायद 2017-18 में वाल्मीकि रामायण पढ़ा था।
तुलसी-रामायण बचपन में कभी दो-तीन बार आधा-अधूरा पढ़ा था। हाँ, सुंदरकांड ज़रूर कई दिनों / महीनों तक नियम से पढ़ा था। लेकिन बाद में आर्य समाज के संस्थापक श्री दयानन्द सरस्वती का 'सत्यार्थ-प्रकाश' पढ़ने के बाद और 'सरिता' 'मुक्ता' 'चम्पक' छाप कुछ सतही अधकचरी बौद्धिकतायुक्त चीज़ें पढ़ने के बाद 'हिंदुत्व' से 'मोहभंग' हो गया था। यह ज़रूरी नहीं कि वैचारिक 'जानकारी' बहुत हो जाने से मनुष्य भ्रम से मुक्त हो पाए ही। विचार और वैचारिक सिद्धांत / निष्कर्ष अवश्य ही जब एकाएक असत्य प्रतीत हो जाते हैं तो मनुष्य में रातों रात 'आमूल परिवर्तन' हो जाता है, या कहें कि एक भी छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी घटना मनुष्य को इस तरह झकझोरकर रख दे सकती है कि पल भर में उसे लगने लगता है कि वह किस बुरी तरह भ्रमित था। विडम्बना यह है की भ्रमग्रस्त मनुष्य इससे भी अनभिज्ञ होता है कि वह भ्रमग्रस्त है, और भ्रम के टूटने के बाद ही उसे यह स्पष्ट हो पाता है। उदाहरण के लिए जब मुझे यह स्पष्ट हुआ कि 'हिंदुत्व' की पहचान मूलतः एक वैचारिक मान्यता है और इस मान्यता के सहारे संगठित होनेवाला समुदाय बिना इस पहचान को स्थापित किए और भी अधिक बेहतर ढंग से उन शक्तियों को टक्कर दे सकता है जिन्हें 'हिंदुत्व-विरोधी' कहा जाता है तो मुझे लगा कि अंग्रेज़ों और विदेशियों ने जानबूझकर 'हिंदुत्व' का स्वाभिमान हममें स्थापित किया और उसे हवा दी ताकि इस बहाने भारत की सनातन पहचान को 'हिंदुत्व' की पहचान तक सीमित कर दिया जाए, तो इससे पहले मैं  'हिंदुत्व' को 'राष्ट्रवाद' का पर्याय होने के भ्रम से ग्रस्त था। और किसी दिन जब यह स्पष्ट हुआ कि कोई भी शब्द अपने-आप में सुनिश्चित अकाट्य-अटल सत्य नहीं हो सकता, और यह तो इस पर निर्भर करता है कि उस शब्द का क्या तात्पर्य ग्रहण किया जाता है। इसलिए भी एक ही 'शब्द' के असंख्य अर्थ ग्रहण किए जाते हैं और अनावश्यक विवाद पैदा होते हैं।     
ज़ाहिर है कि 'हिन्दू' / 'हिंदुत्व' शब्द  वेद-उपनिषद् पुराण और अन्य किसी प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थ में भी नहीं है और यही कारण है कि हमें बार बार इसे नए सिरे से परिभाषित करना पड़ता है और "सनातन-धर्म ही 'हिंदुत्व' है" ऐसा बार बार कहना पड़ता है। 'हिन्दू' / 'हिंदुत्व' को महत्त्व दिए जाते ही बौद्ध, जैन, सिख आदि परंपराएँ एकाएक 'हिंदुत्व' से पृथक प्रतीत होने लगती हैं और फिर हम
"हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई"
की एकता सिद्ध करने लगते हैं।
इस प्रकार अनायास मुस्लिम-ईसाई जैसी विदेशी परंपराओं को भी 'हिंदुत्व' के साथ-साथ 'धर्म' religion की मान्यता प्राप्त हो जाती है। जबकि तथ्य यह है कि 'धर्म' का जो स्थान और तात्पर्य सनातन-धर्म के ग्रंथों में है मुस्लिम-ईसाई जैसी विदेशी परंपराओं में 'धर्म' का स्थान और तात्पर्य इससे बहुत अलग है। इसके लिए हमें उनके ग्रंथों में धर्म के समानार्थी शब्द ढूंढने होंगे और यह बहुत ही कठिन है।
एक बार मैंने 'Facebook' पर प्रश्न किया था : 'धर्म' के लिए अंग्रेज़ी का कौन सा शब्द उपयुक्त हो सकता है? तो मुझे इसका कोई संतोषप्रद उत्तर प्राप्त न हो सका था।   
हमारे बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी इस सरल से तथ्य को न तो देख पाते हैं और न देखना चाहते हैं।
क्या 'धर्म' और religion समानार्थी हो सकते हैं?
और यही कारण है कि आज़ादी के 72 साल बाद भी हमारे बुद्धिजीवी 'सेक्युलरिज़्म' 'कम्युनिज़्म' आदि विदेशी शब्दों की चकाचौंध में अंधे होकर देश में जिस किसी भी प्रकार से हो सके सनातन-धर्म की क्षति करने और विदेशी 'विचारों' का प्रचार प्रसार करने में जी-जान से जुटे हुए हैं।
एक बहुत बड़ी संख्या उन बुद्धिजीवियों की भी है जो स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद या महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर उनकी तरह सब 'धर्मों' में अन्तर्निहित एक सत्य को महसूस करते हैं लेकिन उनमें छिपे उन 'असत्यों' को दर-किनार कर देते हैं जो परस्पर विरोधी हैं और मूलतः सत्य के साथ मिश्रित होकर परंपरा से स्थापित 'धर्म' का हिस्सा बने हुए हैं।
व्यक्तिगत रूप से मुझे 'हिंदुत्व' की इस पहचान से कोई आपत्ति नहीं है किंतु इसका लाभ उन्हीं शक्तियों को होता है जो इस प्रकार 'हिंदुत्व' को 'संकीर्ण' और 'जातिवादी', कहकर इसका उपहास करने से नहीं चूकतीं। इस प्रकार हम अपनी सारी ऊर्जा उनसे संघर्ष में ही खर्च करते रहते हैं। राजनीति भी इसका अपवाद नहीं है।  बहुत से 'हिन्दुओं' को भी लगने लगता है कि 'हिन्दू-धर्म' कट्टर जातिवादी, पुरातन-पंथी और भेद-भाव का समर्थक है। 'वर्ण-व्यवस्था' को जातिगत का पर्याय और भेदभाव समझ लिया जाता है। इसी प्रकार 'हिन्दू धर्म' के सनातन मूल्यों पर भी राजनीति के माध्यम से वार किए जाते हैं।  जैसे मंदिरों और स्त्रियों या विभिन्न वर्णों की 'धार्मिक स्वतन्त्रता' को मुद्दा बनाया जाता है। और इसमें अपने-आपको ऊपरी तौर से 'हिन्दू' कहनेवाले किन्तु वस्तुतः सनातन-धर्म से विद्वेष करनेवाले भी भरपूर हिस्सा बँटाते हैं।
सबरीमला हो या शिंगणापुर का शनि-मंदिर, सनातन-धर्म की स्थापित परंपराओं को भेदभावपरक कहकर तोड़ा जाता है।
'हिंदुत्व' के नाम पर, या 'हिंदुत्व' की निंदा करते हुए भी किस प्रकार तथाकथित 'आध्यात्मिक' व्यक्तियों ने समाज में स्थान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है 'साईं-बाबा' इसका एक बड़ा उदाहरण है। 'हिन्दुओं' के तमाम मंदिरों में 'साईं-बाबा' के भक्तों ने उनकी भी 'मूर्ति' स्थापित कर दी है या अलग से उनका ही मंदिर बना दिया है।
अभी कुछ समय पहले माननीय प्रधानमंत्रीजी शिर्डी गए थे -'मत्था टेकने' !
क्या इस्लाम के अनुयायी 'मूर्ति-पूजा' को स्वीकार करेंगे?
इस प्रकार 'साईं-चरित्र' 'हिंदुत्व' के अनुकूल या प्रतिकूल है क्या इस पर 'हिन्दू' कभी गौर करेंगे?
सबको 'धार्मिक-स्वतंत्रता' है किन्तु क्या सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी नहीं है?
और स्वतंत्र अभिव्यक्ति से किसी की मान्यताओं पर आघात भी हो सकता है।
तब उन मान्यताओं के पक्ष-विपक्ष में विवाद पैदा होता है।
तर्क के बाण दोनों पक्षों से चलाये जाते हैं और हर कोई 'इतिहास' की व्याख्या अपने पक्ष को सही सिद्ध करने और विरोधी को परास्त करने के लिए करने लगता है। इस युद्ध का प्रारंभ है अंत नहीं। किन्तु यदि युद्ध प्रारंभ होने से पहले अगर कुछ ऐसा हो सके कि सन्धि (treaty) के बजाय असत्य का निराकरण कर दिया जाए तो परस्पर विद्वेष की संभावना भी ख़त्म हो सकती है। किंतु इसके लिए 'आग्रह' नहीं 'सत्याग्रह' ज़रूरी है।
'हिंदुत्व' एक शब्द है जो एक ओर 'धर्म' अर्थात् सनातन-धर्म के अनुयायियों को भ्रमित करता है तो दूसरी ओर 'धर्म' नाम से प्रचलित धर्म-अधर्म मिश्रित परंपराओं को उनके अपने 'मतवादों' के पक्ष में एक ऐसा हथियार भी दे देता है, जो भारत की सनातन संस्कृति के लिए अत्यंत घातक है।             
'साईं-बाबा' से या उनके भक्तों / अनुयायियों से, 'मिशनरियों' या जेहादियों से भी न तो मेरा कोई द्वेष है न लगाव, किन्तु उस परंपरा को भारत भूमि में स्थापित करना और उसका प्रचार-प्रसार करना वेद-विरुद्ध है ऐसा मुझे ज़रूर लगता है ।  इस बारे में पूज्य शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानंदजी तथा पुरी के पूज्य शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंदजी सरस्वतीजी के दृष्टिकोण को गंभीरता से समझा जाना भी बहुत आवश्यक है।
उपरोक्त पोस्ट इसलिए भी लिखा क्योंकि इससे मेरी दुविधा को व्यक्त कर सकूँ।
हमारे देश के संविधान ने प्रजातंत्र और गणतंत्र को शासन की बुनियाद स्वीकार किया है।
स्पष्ट है कि 'धर्म' गौण हो गया और 'धर्म', 'अधर्म', 'धर्म-निरपेक्षता', सर्वधर्म-समत्व आदि शब्द बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों द्वारा परिभाषित और विवेचित किए गए।
सनातन-धर्म की 'विधि' तथा परंपरा यह रही है कि राजतंत्र (politics) पर 'धर्म' का शासन हो।
द्वापर-युग के अंत में जब महाभारत युद्ध हुआ उसी समय से यह क्रम न सिर्फ विलुप्त बल्कि विपरीत हो गया और राजतंत्र / अधर्म -धर्म को शासित करने लगा। और इसलिए इस युद्ध को भगवान् श्रीकृष्ण भी रोक नहीं सके।
और यही कारण है कि धरती रसातल में जा रही है। जैसा कि आजकल नेता लोग प्रायः
"मेरी बात को गलत समझा गया।"
कहकर 'यू-टर्न' ले लिया करते हैं, मैं उस तरह यू-टर्न नहीं ले सकता क्योंकि मैं नितांत 'अ-राजनीतिक' व्यक्ति हूँ। और न तो मेरी-आपकी-सबकी यह दुनिया मैंने अकेले बनाई है, न मैं अकेले इसे बदल, बना, बिगाड़ या मिटा सकता हूँ।
फलश्रुति :
इस पोस्ट से मेरी दुविधा अवश्य समाप्त हो गयी यह लाभ मुझे मिला।
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January 29, 2019

monologue / एकालाप

2019
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प्रारंभ हुए एक मास होने जा रहा है।
आज कुछ ऐसा लगा कि नए साल में नियमित रूप से इस ब्लॉग में कुछ नया लिखूँ :
कुछ 'स्वतंत्र' जिसे monologue / एकालाप भी कहा जा सकता है।
क्योंकि वैसे भी मैं जो कुछ लिखता हूँ वह किसी और के लिए नहीं लिखता।
इसलिए अगर किसी को मेरा लिखा रोचक लगे या न लगे, वह भी पढ़ने-न-पढ़ने के लिए 'स्वतंत्र' है ही !
क्योंकि मुझे किसी बारे में किसी से कोई बहस / उपदेश नहीं करना है।
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संकल्प को उठने दो,
द्वंद्व को खोने दो,
फिर जो होता है,
अनायास उसे होने दो।
चलते रहो, बहते रहो,
शब्द सेतु, छन्द नौका है,
शब्द है बहती पवन,
छन्द जैसे कि एक झोंका है,
कभी सेतु पर चलकर,
कभी झोंकों के सहारे से,
जीवन की इस सरिता में,
अज्ञात और चिर-नूतन,
अलक्षित लक्ष्य को आने दो।
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January 26, 2019

उद्भव और प्रादुर्भाव

धर्म, अधर्म और मतवाद
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अपेक्षाकृत गंभीर और अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर वैसे तो मैं प्रायः अपने स्वाध्याय ब्लॉग में ही लिखने का साहस करता हूँ, और वहाँ हिंदी में भी लिखता हूँ, किंतु यह दुविधा अक्सर होती है कि उन पोस्ट्स को वहाँ पोस्ट करूँ या यहाँ। मैं अपने-आपको किसी विशिष्ट चौखट में परिभाषित नहीं कर सकता। मुझे लगता है कि मैं भी उन असंख्य ब्लॉगर्स में से एक हूँ जिनका प्रादुर्भाव पिछले दो दशकों में नेट पर हुआ है।
मेरे 'स्वाध्याय ब्लॉग' में मैंने उद्भव को emergence और प्रादुर्भाव को accidental कहा है।
धर्म मूलतः प्रकृति का स्वभाव है और इसलिए यद्यपि विभिन्न सजीव तथा निर्जीव वस्तुओं के संबंध में उस वस्तु की विशिष्ट प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति होता है किंतु उसके साथ अधर्म भी वैसे ही उपजता है जैसे गेहूँ के साथ भूसा। और स्वयं प्रकृति धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक शुभ-अशुभ से अछूती रहती है।  यदि प्रकृति को समष्टि कहा जाए तो इस प्रश्न का उद्भव होता है कि क्या प्रकृति की सत्ता किसी सजीव वस्तु जैसी 'चेतन' समष्टि है या किसी निर्जीव वस्तु जैसी (जड) 'अचेतन' समष्टि ?
पुनः इस प्रश्न का उद्भव होता है कि क्या 'एक' अथवा 'अनेक' का विशेषण 'समष्टि' पर लागू होता है? प्रश्न पूछनेवाला स्वयं 'समष्टि' का अंश है, 'समष्टि' है, या 'समष्टि' उसका अंश है? समष्टि अपने आपमें संपूर्ण Sovereign स्वायत्तता / Autonomy है जिससे भिन्न, परे और बाहर 'दूसरा' कुछ नहीं होता।  यदि समष्टि प्रकृति ऐसी समूची स्वायत्तता है तो उसे 'जाननेवाला' उससे भिन्न, परे अथवा बाहर कैसे हो सकता है? इस प्रकार वह 'जाननेवाला' बोध / भान भी उस समष्टि में स्वाभाविक रूप से अन्तर्निहित है। और वह बोध / भान द्वैतपरक नहीं है इसलिए जानना 'जानकारी' न होकर उस सत्ता का ही दूसरा  पहलू / पक्ष है। जैसे दीपक और प्रकाश एक ही तथ्य के दो पक्ष होते हैं, वैसे ही 'होना' और 'जानना' उसी समष्टि के दो पहलू हैं। इसे ही वेदान्त में 'सत्' तथा 'चित्' कहा जाता है क्योंकि यह बोध / भान उस बोध / भान / ज्ञान से इस अर्थ में भिन्न प्रकार का है जो किसी सजीव प्राणी में पाया जाता है। वेदान्त-दर्शन में इसे ब्रह्म के उदाहरण से इस प्रकार स्पष्ट किया जाता है :
ब्रह्म सजातीय, विजातीय, तथा स्वगत, -इन भेदों से रहित है।
सजातीय का अर्थ है एक ही जाति में भिन्न प्रकार का होना - जैसे वृक्षों में आम, खजूर, या पीपल के वृक्ष परस्पर भिन्न होते हैं।
विजातीय का अर्थ है भिन्न जातियाँ जैसे वनस्पति, पशु, पक्षी, जलचर, आदि परस्पर भिन्न होते हैं।
स्वगत का अर्थ है अपने ही अंतर्गत - जैसे शरीर के विभिन्न अंग एक दूसरे से भिन्न प्रकार के होते हैं।
ब्रह्म का ही एक पर्याय है 'समष्टि'।
'समष्टि' भी पुनः तीन स्तरों पर हो सकती है :
व्यक्त स्तर आधिभौतिक रूप में स्थूल पञ्चमहाभूतों तथा तीन गुणों से युक्त स्थूल प्रकृति।
प्रच्छन्न स्तर पर चेतना / वृत्ति के रूप में मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार के रूप में जीव की अन्तःप्रकृति / सूक्ष्म प्रकृति ।
कारण स्तर पर बीज रूप में अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार) तथा काल, स्थान, भान और स्मृति इन आठ की 'कारण-समष्टि'।
दूसरी रीति से :
अष्ट-वसु - वसु देवता विशेष हैं जिनका स्वरूप मूल वर्णों की विवेचना से इस प्रकार है :
व् -- व्यापकता के अर्थ में,
अ -- प्रारम्भ के अर्थ में,
स् -- समता, सृष्टि , समाहार के अर्थ में,
उ -- उत्पत्ति, उद्भव के अर्थ में।
इस प्रकार उपरोक्त चार वर्ण ही पुनः सांख्य के (4 x 3 x 2 ) = 24 तत्व भी हो सकते हैं।
['प्रत्यभिज्ञाहृदयं' में यद्यपि इन आठ की विवेचना किसी और प्रकार से की गयी है।]   
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पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न भौगोलिक स्थानों पर जीव अपने अस्तित्व के लिए विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार प्रवृत्ति-विशेष (स्वभाव-धर्म) से प्रेरित होता है इसलिए  अस्तित्व को बनाए रखने के इस संघर्ष में कोई कोई सरलतम उपाय के रूप में क्रूरता तथा कठोरता को ही आवश्यक मान बैठता है। प्रकृति से ही इस प्रकार जीव दुष्ट हो जाता है और इस दुष्टता का प्रादुर्भाव उसमें अपने-पराये की भेद-बुद्धि पैदा करता है। 
गीता अध्याय 17 :
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संस्थिता।
ममात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।18
तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।19
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि। 
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।20
(यदि रुचि हो तो इन श्लोकों की अधिक विवेचना के लिए मेरे गीता पर लिखे गए ब्लॉग्स देख सकते हैं।)
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इस प्रकार संसार में विभिन्न 'मतवादों' का 'प्रादुर्भाव' होता है, जिनमें शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म कम-ज़्यादा मिले जुले होते हैं।
आज की स्थिति में विडम्बना यह है कि इन विभिन्न मतवादों (मत वालों) की परंपरा, रूढ़ियों और विचार को religion कहकर 'धर्म' की संज्ञा दे दी गयी है। इस प्रकार आक्रामकता तथा आतंक को भी 'धर्मसंगत' समझा और युक्तिसंगत ठहराया जाने लगा है, और 'धार्मिक-स्वतंत्रता' को 'मानवाधिकार' कहकर उस रूप में अधर्म के पक्ष में हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
सोचने की बात है कि आज के समय में विश्व में एकमात्र सबसे बड़ी मूल समस्या यदि कोई है तो वह है जनसंख्या का विस्फोट और तब इतनी बड़ी संख्या को रहने और जीने के लिए जिन संसाधनों की आवश्यकता है उनका निरंतर अधिक व्यय होने से कमी होना, उनका अभाव अधिक गंभीर होना। जनसंख्या विस्फोट बड़े मानव-समूहों को दूसरों के स्थानों पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित करता है और 'अपने' समुदाय की दूसरों से भिन्न पहचान स्थापित करना और उसे बनाए रखना दूसरे समुदायों, राष्ट्रों पर आक्रमण के लिए आधार बनाता है।
प्रकृति चेतन हो या न हो, मनुष्य तथा सभी जीवों के जन्म, विकास और अंततः समाप्ति का एकमात्र कारण है। तथाकथित 'विज्ञान' / science भले ही बहुत शोध और अनुसंधान से मनुष्य की आयु बढ़ा ले किन्तु उसे रोगों और मृत्यु से नहीं बचा सकता। इसका अर्थ यह नहीं कि विज्ञान की प्रगति को रोक दिया जाए, इसका अर्थ केवल यह है कि जब तक प्राकृतिक रूप से जनसंख्या-नियंत्रण के उपाय नहीं खोजे और अपनाए जाते, मनुष्य सुखपूर्वक नहीं जी सकता।  धर्म ही मनुष्य को सुखपूर्वक जीने के लिए स्थायी उपाय और अवलम्बन हो सकता है।  'मतवाद' और परंपराएँ  धर्म के स्वरूप को बहुत हद तक बिगाड़कर मनुष्य के लिए अंतहीन दुःख और क्लेश ही पैदा करती हैं।
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January 04, 2019

अन्नदाता

अनेकान्त 
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जैन और वैदिक ग्रंथों में वर्णन है कि किस प्रकार सनातन काल से ऋषि-मुनियों और तपस्वियों को संसार की अनित्यता से वैराग्य होता रहा है और उस नित्य ध्रुव तत्व की जिज्ञासा से मुमुक्षा उत्पन्न होने पर वे उस चिरंतन के स्वरूप का चिंतन करते हुए अंततः उसे उपलब्ध कर लेते थे।
यहाँ एक दुरूह प्रश्न उठ खड़ा होता है।
वह चिरंतन तत्व किसी प्रयास से प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि समस्त प्राप्ति और भोग जिस अहंकार के लिए, उसके होने के सन्दर्भ में ही अर्थ रखते हैं, वह अहंकार ही उस तत्व को जानने में एकमात्र अवरोध है। उस तत्व को 'परमात्मा' कहना भी एक युक्तिवाद है क्योंकि वह सब का एकमात्र व्यक्त और अव्यक्त कारण और अधिष्ठान है। उसे 'ईश्वर' कहने पर भी वह अज्ञात और अज्ञेय ही होता है।  क्योंकि वह बुद्धिगम्य और इन्द्रियगम्य, भावगम्य और अनुभवगम्य नहीं है।
किंतु फिर भी उन ऋषि-मुनियों और तपस्वियों ने जिस प्रक्रिया से उस तत्व का साक्षात्कार किया उस प्रक्रिया को दूसरों के समक्ष रखने का प्रयास किया।
इस प्रयास को वेद, पुराण और इतिहास इन तीन शैलियों (genre) में व्यक्त रूप  दिया गया।
ये तीनों शैलियाँ मनुष्य विशेष की मानसिकता और बौद्धिक तथा आध्यात्मिक परिपक्वता के अनुसार उसे स्वयं ही उस तत्व को समझने और ग्रहण करने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से मार्गदर्शन देती हैं।
कर्म से या अकर्म से, विकर्म या धर्म से, जिस किसी भी प्रकार से उस तत्व की आकांक्षा और प्राप्ति मनुष्य को हो सके, इसके लिए ये ग्रन्थ अवश्य ही अतीव महत्वपूर्ण हैं।  हाँ यदि हम बहस पर अटक जाएँ तो वे जाने-अनजाने अहंकार को ही बढ़ाते हैं यह कहना अनुचित न होगा। और अहंकार ही तो मूल समस्या और अवरोध है !
जैसा कि गीता के अध्याय 4 के श्लोक 17 में उल्लेख है :
मनुष्य मात्र क्षण भर के लिए भी कर्म से रहित नहीं होता।
गीता के अध्याय 3 के श्लोक 8 के अनुसार :
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।
अर्थात् तुम्हें चाहिए कि तुम्हारे लिए जो उचित कर्म नियत किया गया है उसे करने के लिए तत्पर रहो।  क्योंकि कर्म करना, कर्म न करने से अर्थात् आलस्य और प्रमाद की अपेक्षा श्रेष्ठ है। और फिर, जीवन चलाते रहने के लिए, आजीविका के लिए भी तो मनुष्य को कर्म करना ही होता है।
चूँकि मनुष्य मात्र अपने गुण और कर्मों (संस्कारों) से ही विशेष प्रकार के कार्य में प्रवृत्त होता है इसलिए वर्ण और अवर्ण के आधार पर न भी देखें तो भी मनुष्य अपने शुभ अथवा अशुभ कर्मों के अनुसार ही उनके फलों का भागी होता है और फिर भी किस कर्म का फल कब प्राप्त होगा इस बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, इसलिए भी मनुष्य को आकांक्षा-रहित होकर निष्काम भाव से कर्म करते रहना चाहिए।
गीता के ही अध्याय 5  के श्लोक 5 में कहा गया है :
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।
अर्थात् वह परम तत्व जिसे उन ऋषियों मुनियों और तपस्वियों ने पाया, उसे कर्म (अर्थात् व्यावहारिक रूप) से भी पाया जाता है और बुद्धि के परिपक्व, ऋजु और सूक्ष्म होने पर विवेक-वैराग्य के जाग्रत होने पर भी वह साक्षात् जाना जाता है।  इस प्रकार संक्षेप में उसे सांख्य और कर्म दोनों युक्तियों से पाया जा सकता है।
सामान्यतः हर मनुष्य में कर्तृत्वभाव प्रकृतिप्रदत्त ही होता है इसलिए उसे कर्म करते हुए धीरे धीरे निष्काम कर्म कैसे किया जाए इस स्थिति तक जाने के लिए कहा जाता है। किंतु किसी किसी मनुष्य में खोज की प्रवृत्ति इतनी प्रबल होती है कि वह प्रत्येक कर्म के मूल में 'कर्ता' कौन / क्या है इसे समझने के लिए उत्सुक होता है।  अपनी खोज में वह पाता है कि :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकार-विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।
(गीता अध्याय 3, श्लोक 27)
अर्थात् सभी कर्म प्रकृति के द्वारा ही गुणों के माध्यम से संचालित होते रहते हैं।  किंतु अहंकार से मोहित बुद्धियुक्त मनुष्य अपने-आपको स्वतंत्र कर्ता मान बैठता है।
सांख्य-विवेक प्राप्त होने पर मनुष्य इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हो जाता है कि ऐसा स्वतंत्र कर्ता कहीं नहीं है, और यद्यपि कर्म स्पष्ट दिखाई देता है, उसका कारण (प्रकृति को भी) स्वयं जड होने से कर्ता नहीं कहा जा सकता।  इस प्रकार 'कर्म' केवल विचार है जो होता दिखाई देता है और पुनः विलीन हो जाता है, -और तभी जाना जाता है जब कोई उसका विचार करता है।
इसीलिए सामान्य मनुष्य को भी उन ऋषियों मुनियों और तपस्वियों ने त्याज्य और निषिद्ध कर्म न करने की शिक्षा दी। जैसे कृषि।
वेन के पुत्र पृथु ने सर्वप्रथम धरती को हल चलाकर खेती का प्रारम्भ किया।
इस प्रकार गाय को, जो पहले केवल दूध के लिए पाली जाती थी और फिर गोवंश की वृद्धि के लिए उपलब्ध उसके बछड़े को बैल बनाकर कृषि कार्य में लगाया गया। यह प्रकृति के प्रति हिंसा थी।
इसलिए कृषि को पाप तक कहा गया।
किंतु जब एक बार मनुष्य ने प्रकृति पर निर्भर रहना त्याग दिया तो प्रकृति भी वर्षा के क्रम में अनिश्चयपूर्ण व्यवहार करने लगी। तब उस सनातन वेद धर्म का उदय हुआ जिसने यज्ञ आदि द्वारा 'इंद्र' को प्रसन्न कर वर्ण-व्यवस्था को स्थापित किया। यह व्यवस्था वैसे तो सनातन है किंतु इसकी अपनी मर्यादा है। उस मर्यादा का निर्वाह जब तक किया जाता है, यह अपेक्षाकृत सुस्थिर मानव-सभ्यता का आधार होती है।
यह तो रहा प्राचीनतम इतिहास।
इस प्रकार भारत में गाँवों और नगरों की सभ्यता और संस्कृति कृषि-आधारित थी।
अंग्रेज़ों का भारत पर शासन शुरू होने के बाद धीरे-धीरे कृषि में 'उन्नत तकनीक' के नाम पर पहले यंत्र आए और इस प्रकार 'बैल' को अनुपयोगी बना दिया गया।  गोमांसभोजी विदेशियों के लिए तो यह एक और मौक़ा था जिससे भारत में गोवंश उनके लिए एक सस्ता था।
फिर आए कल-कारखाने जिनमें नदियों का पानी बेतहाशा इस्तेमाल किया गया और इन कल-कारखानों का कचरा उन नदियों के प्रदूषण को बढ़ाने लगा।  फिर बिजली पैदा करने के लिए बड़े बड़े बाँध बनाए गए जिनसे जमीन जलराशि का स्वाभाविक प्रवाह बाधित हुआ।  जमीन के नीचे जहाँ भूमिगत अस्थिर परतें (tectonic plates थीं उन पर बड़े बांधों का दबाव पड़ने से lithosphere (यह पूरी सतह) की संरचना इस हद तक प्रभावित हुई कि धरती पर भूकंप-प्रवण क्षेत्रों की संख्या बढ़ गयी।  कोयना नदी पर स्थित बाँध या टिहरी परियोजना इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । विकास किस कीमत पर ?
भौतिक-विज्ञान के तथाकथित विकास के नाम पर चिकित्सा क्षेत्र में अनुसंधान और प्रयोगों से एक ओर मनुष्य की औसत आयु में वृद्धि  हुई वहीँ अनेक नए कारणों से प्राकृतिक और मानव के क्रिया-कलापों से दुर्घटनाओं आदि से मनुष्य और दूसरे प्राणियों का जीवन अधिक असुरक्षित हो गया।
किसान जो अन्नदाता है, इस पूरे विकास की मार से सर्वाधिक प्रभावित हुआ क्योंकि उसने प्राकृतिक खेती और पशुधन को साधन न समझकर उपभोग की वस्तु समझ लिया।  गाय, भेड़, बकरी आदि की लाभप्रदता आर्थिक दृष्टि से कम महत्त्व की हो गई।  खेती और जंगल दोनों भूमि के प्रकृतिप्रदत्त नैसर्गिक संसाधन हैं और खेती और जंगलों के विनाश के साथ शहरी सभ्यता के विस्तार और जनसंख्या-विस्फोट के कारण, विज्ञान और तकनीक की चकाचौंध से अंधी हुई आँखों के कारण मनुष्य अब यह देख भी नहीं पाता कि विकास के नाम पर वह केवल विनाश के ऐसे भंवर में पड़ चुका है जिससे बचने का कोई उपाय और आशा नहीं।
हम सोचते हैं कि चमत्कारिक आविष्कारों के द्वारा हम अधिक संपन्न और सुखी हो सकते हैं जो कोरा भ्रम है, क्योंकि यह स्वाभाविक नहीं है।  केवल कृत्रिम उत्तेजनाओं और उत्सुकताओं को इन नित नए आविष्कारों से तात्कालिक प्रसन्नता प्रायः होती है किंतु मन को वह शांति नहीं मिल सकती जो सरल नैसर्गिक जीवन जीने से मिलती है। हाँ वहाँ जन्म भी है, रोग भी है, मृत्यु भी है और सांसारिक रूप में भौतिकता की मर्यादा भी है किंतु जीवन के लिए उतना ही पर्याप्त और आवश्यक है।
किसान जब तक और जहाँ तक जितना अधिक प्रकृति से जुड़ा है, वह और उसका पूरा समाज भी तब तक उतना ही अधिक समृद्ध, संपन्न, सुखी हो सकता है।
लेकिन विकास की दौड़ में लोभ और भय से अभिभूत किसान को और मानव सभ्यता को भी यदि आत्महत्या से बचाना है तो प्रकृति की ओर लौटना, यंत्रों और वैज्ञानिक आविष्कारों का बहिष्कार ही एकमात्र उपाय है। विज्ञान का अध्ययन ज्ञान के संवर्धन के लिए हो इससे क्या ऐतराज हो सकता है लेकिन जब लोभ या भय से उस ज्ञान का दुरुपयोग किया जाता है तो वह अंततः विनाशकारी ही होता है। यह विज्ञान की मर्यादा है।
मुझे नहीं पता यह लेख कितने लोगों के गले उतरेगा !  वास्तव में इस संसार को बदलने या सुधारने का दायित्व और क्षमता अकेले मुझमें ही कैसे हो सकती है? पर, इसके लिए दुःखी होने से बचना भी तो मेरे बस में नहीं है !
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