December 31, 2019

मैंने सुना है... !

Happy New Year !
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एक लड़का, कुछ कुछ पागल सा,
उस पहाड़ी पर खड़ा है, जिसके शिखर पर कोई ध्वज लहरा रहा है।
नीचे उस रास्ते पर असंख्य लोग खड़े हैं जो शिखर तक जाने के लिए अनुशासन का पालन करते हुए कतारबद्ध खड़े हैं और अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
एक व्यक्ति अब उस लडके के पास पहुँच चुका है।
लड़का चिल्लाता है :
"उन्नीस, उन्नीस, उन्नीस .. "
"उन्नीस ....?"
वह व्यक्ति पूछता है।
"उधर देखो!" :
लड़का बोलता है।
वह व्यक्ति जब झाँककर रास्ते के किनारे की उस गहरी खाई की तरफ देखता है, जहाँ अनगिनत लोग चीख कराह रहे होते हैं,  तो लड़का एक जोर की लात मारकर उसे खाई में धकेल देता है।
"बीस, बीस, बीस, ... "
अब लड़का चिल्लाने लगा है।
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Welcome '20,
With All the best wishes.
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December 30, 2019

राम राम !

शीत का एक सर्द दिन,
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19 मार्च 2016 को उज्जैन छोड़ा था।
उसी दिन रात्रि 9:00 बजे नावघाट-खेड़ी पहुँचा।
5 अगस्त 2016 की सुबह नर्मदा किनारे का वह स्थान भी छोड़ा जहाँ पूरे चार माह 25 दिन रहा था।
बाद के एक हफ़्ते उसी छोटे से गाँव के एकमात्र बड़े से हॉस्पिटल में मेहमान था।
5 अगस्त को देवास आया और जहाँ साल भर से परफेक्ट कार सर्विस का वर्कशॉप है, उसके पिछले हिस्से में पूरे 3 साल 3 माह 23 दिन रहा।  24 नवंबर 2019 की शाम  वहाँ से उज्जैन आ गया हूँ।
अभी यहाँ से कहीं जाने का विचार नहीं है।
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कल साल का आख़िरी दिन है।
नया पोस्ट नए साल में।
राम राम !

 
  

December 27, 2019

विषवृक्ष

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय
विषवृक्ष
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संयोगवश भारत राष्ट्र के दोनों राष्ट्रगीत बांग्ला साहित्यकारों की लेखनी से लिखे गए हैं।
18 दिसंबर 2019 को नख-शल-वाद शीर्षक से एक छोटा पोस्ट लिखा, तो ख़याल आया कि किस प्रकार सूर्य-ग्रहण के समय चन्द्रमा सूरज को ढँक लेता है।
कुछ ऐसा ही लगता है अगर दोनों राष्ट्रगीतों के इन दोनों रचनाकारों के व्यक्तित्व की तुलना की जाए।
शायद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसी प्रकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के प्रभामंडल को ढँक लिया था।
और भारत के राष्ट्रगान के लिए 'जन-गण-मन' का चयन कर लिया गया।
साहित्यिक प्रतिभा की दृष्टि से बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय रवीन्द्रनाथ टैगोर से उन्नीस नहीं थे, किन्तु अपने राजनैतिक विचारों और आचरण के कारण उन्हें वह स्थान नहीं दिया गया जो दिया जाना चाहिए था।
उन्हें नोबेल-पुरस्कार दिए जाने का तो इसीलिए सवाल ही नहीं उठता था।
रवीन्द्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार दिए जाने के पीछे और भी कुछ कारण हो सकते हैं किन्तु अनेक ऐसे और भी महान भारतीय लेखक / साहित्यकार हैं जो उनके समान ही प्रतिभावान थे यद्यपि उन्हें इस पुरस्कार के लिए प्रस्तावित तक नहीं किया गया। शायद यह संयोग ही है।    
रवीन्द्रनाथ ने जो राष्ट्रगीत लिखा था उसके मुख्य प्रयोजन के बारे में हमेशा विवाद रहा है, और नख-शल-वादी विषवृक्ष की जड़ों से पोषित होनेवाली उसकी शाखाएँ आज भी इसका सम्मान करने में स्वयं को अपमानित अनुभव करती है।
फिर 'वन्दे-मातरम्' भी उनके लिए इतना ही, या शायद इससे भी अधिक अस्वीकार्य है।
शायद यह विवाद का विषय नहीं है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखे गए राष्ट्रगीत के मूल में उनका क्या प्रयोजन था, और इस गीत का चयन राष्ट्रगीत / राष्ट्रगान के लिए किया जाना कितना उचित था। किन्तु   
'वन्दे-मातरम्' के साथ साथ 'जन-गण-मन' को भी विवादास्पद बना दिया जाना अवश्य ही चिंता का विषय है।
जब तक नख-शल-वाद के इस विषवृक्ष का समूल उच्छेदन नहीं कर दिया जाता, भारत को सतत संघर्ष करते रहना होगा।
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'वन्दे-मातरम्' या 'बन्दे-मातरम्' की रचना सन् 1870 के आसपास हुई थी, 'जबकि जन-गण-मन' का प्रथम बार सन् 1911 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में पाठ किया गया था।
एक प्रश्न यह भी उठाया जा सकता है कि क्या गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को इसकी प्रेरणा 'वन्दे-मातरम्' से मिली होगी?     

December 25, 2019

जलधि लाँघ गए अचरज नाहीं !

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माँही 
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हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम की मुद्रिका (अनामिका में पहने जानेवाली अँगूठी) मुख में रखी और जलधि को लांघ गए इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
जब मन (हनुमान) राम नाम रूपी मुद्रा को मुख में धारण कर लेता है तो जल (मन) तथा उसके आगार (धि) अर्थात् बुद्धि का अतिक्रमण कर लेता है।
यः बुद्धेः परतस्तु सः ....
[इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43
-गीता अध्याय 3 ]
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धर्म / धर्मनिरपेक्षता, Religion & (Secularism)

क्या धर्म मन है?
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सभ्यता / संस्कृतियों का मनोवैज्ञानिक युद्ध 
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे
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क्या कर्म कुरुक्षेत्र है?
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फिर धर्म / Religion, धर्मनिरपेक्षता / Secularism,
सभ्यता (Civilization) संस्कृति (Culture) और राष्ट्रवाद (Nationalism) क्या है?
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December 24, 2019

बाल समय रवि भक्ष लियो तब,

बाल समय रवि भक्ष लियो तब,
तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
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ॐ हं हनुमते नमः
वैसे तो यू-ट्यूब पर ज्योतिष से संबंधित विडिओ कम ही देखता हूँ, लेकिन संयोगवश एक ऐसा वीडिओ देखने को मिला जो अवश्य ही प्रेक्षणीय लगा।
विशेष यह कि प्रस्तुतकर्ता ने जिस प्रकार भारत के सन्दर्भ में ग्रहों की गति के अनुसार भारत पर उसके प्रभाव की विवेचना की है, वह प्रशंसनीय है।
ग्रह-नक्षत्रों की प्रवृत्ति उनके आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सन्दर्भों के अनुसार स्थूल, सूक्ष्म और कारण स्तरों पर समझी और विवेचित की जा सकती है।
हनु का अर्थ इसमें बिजित दो वर्णाक्षरों 'ह' तथा 'न' के आधार पर देखा जा सकता है।
संस्कृत व्याकरण में ये दोनों प्रत्यय की तरह अनेक अर्थों में परस्पर स्वतंत्र दो शब्दों की तरह प्रयुक्त किए जाते हैं। कारण-स्तर पर 'हनु' इस प्रकार मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा का नाम है।
सूक्ष्म स्तर पर यह उस देवता का नाम है जो मुख्यतः प्राण-तत्व है और इसलिए :
सूक्ष्म-रूप धरि सियहिं दिखावा,
विकट रूप धरि  लंक जरावा,
भीम रूप धरि असुर संहारे,
तथा
ज्यों ज्यों सुरसा बदन बढ़ावा,
तासु दून कपि रूप दिखावा,
में श्री हनुमान जी के इसी लक्षणों का दर्शन होता है।
स्थूल आधिभौतिक स्तर से देखें तो वे राहु और शनि जैसे ग्रहों को भी पछाड़ देते हैं।
शनि सूर्य-पुत्र हैं, राहु सिंहिकागर्भसम्भूत हैं।
शनि छाया के पुत्र हैं, यम संज्ञा के पुत्र हैं।
इस प्रकार आध्यात्मिक अर्थ में दोनों क्रमशः कृत्रिम ज्ञान तथा चेतना-रूपी जीव के स्व-संवेदन रूपी ज्ञान के निदर्शक हैं। वहीँ राहु राक्षसरूपी तमोगुण का लक्षण है।
भारत के सन्दर्भ में यदि निकट अतीत, वर्त्तमान और निकट भविष्य में ग्रह-गति का अवलोकन करें तो बृहस्पति / गुरु  अस्त है।  बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं, जबकि गुरु ग्रह पृथ्वी की भाँति वह स्थूल पिंड है जो पृथ्वी की तरह सूर्य की परिक्रमा करता है।
पृथ्वी स्वयं भी अपने अक्ष पर सूर्य के प्रति सिर झुकाकर प्रदक्षिणा करती है।
पृथ्वी को अपने अक्ष पर प्रदक्षिणा / परिक्रमा करने में जहाँ पूरे चौबीस घंटे का समय लगता है, वहीँ गुरु को लगभग केवल दस घंटे का समय लगता है।
किन्तु दोनों ही सूर्य की प्रदक्षिणा / परिक्रमा भी करते हैं।
किसी देवता की परिक्रमा / प्रदक्षिणा करने का तांत्रिक अर्थ है उसे अपने दाहिनी ओर रखते हुए उसके चारों ओर चलना। दूसरी ओर प्रदक्षिणा का एक तरीका और भी है, और जो प्रायः इसके बाद किया जाता है, - वह है अपने स्थान पर खड़े होकर स्वयं के ही चारों और परिभ्रमण करना।  यह भी दो प्रकार से किया जा सकता है। किन्तु मुख्यतः इसे भी इस प्रकार किया जाता है कि शरीर के दाहिने हिस्से को केंद्र में रखा जाए और बाँए को परिधि पर। इसमें भी सूक्ष्म-कारण यही है कि मनुष्य का भौतिक (शारीरिक) हृदय यद्यपि शरीर के बाँए हिस्से में होता है, उसका आध्यात्मिक हृदय शरीर के दाहिने हिस्से में।  तात्पर्य यह कि जीवात्मा का स्थान यद्यपि शरीर के भौतिक (शारीरिक) हृदय में है, किन्तु परमात्मा का स्थान उसके आध्यात्मिक हृदय में होता है।
गीता में इस बारे में अध्याय 18 में कहा गया है:
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानां यन्त्रारूढानि मायया।।61
इस प्रकार प्राणी या तो माया के द्वारा परिभ्रामित हुआ संसार के चक्र में घूमता रहता है या अपनी ही आत्मा के चतुर्दिक घूमकर ईश्वर की प्रदक्षिणा कर सकता है।
श्री रमण महर्षि विशेष रूप से उपरोक्त सिद्धांत का वर्णन करते हैं की किस प्रकार ईश्वर को अपने ही भीतर पाया जा सकता है, और उसका संकेत करते हुए स्थूल भौतिक और आधिदैविक तथा आध्यात्मिक हृदय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।
पुनः हनुमान जी के सन्दर्भ में :
"बाल-समय रवि भक्ष लियो" का दर्शन इस अर्थ में भी किया जा सकता है कि मन, जो कि 'मैं' का ही समानार्थी और समलक्षण है, हनुमान (देवता-तत्व) है जो क्रमशः जागृत स्वप्न तथा सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं / लोकों  से गुजरता रहता है। वही मन जब अपने ही प्रकाशक (सूर्य) को ग्रस लेता है तो उसके तीनों लोकों में अन्धकार व्याप्त हो जाता है। इसी प्रकार स्थूल स्तर पर भी, जब राहु सूर्य को ग्रास लेता है तो जगत / संसार अंधकारमय हो जाता है।
चूँकि 26 दिसंबर 2019 को होनेवाले सूर्यग्रहण में बृहस्पति भारत में अस्त प्रतीत होंगे इसलिए यह ग्रहण भारत के लिए तथा विश्व में भी जहाँ जहाँ देखा जा सकेगा, वहाँ वहाँ अनिष्टप्रद होगा।
भारत में चल रहा दौर इसी का द्योतक है और आशा की जा सकती है कि बृहस्पति के उदय के बाद वर्तमान उपद्रव, अशांति, हिंसा आदि का यह दौर समाप्त हो जाएगा।
चूँकि बृहस्पति के साथ सूर्य और शनि पर भी राहु की दृष्टि है, इसलिए यह दौर राजनीतिक घटनाक्रम की दृष्टि से भी उथल-पुथल पैदा करेगा।
इस दृष्टि से यह संयोग अवश्य ही रोचक और बहुआयामी अनेक संकेत देता है।
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December 22, 2019

युगान्तर - कविता / 22 / 12 / 2019

अग्नि और जल 
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आग जल रही है,
जल गर्म हो रहा है,
वह जल हो रही है,
वह आग हो रहा है।
हवा बह रही है,
रेत उड़ रही है,
वह हवा हो रही है,
वह रेत हो रहा है।
वह जो कि पुरुष है,
वह जो कि स्त्री है,
वह पुरुष हो रही है,
वह स्त्री हो रहा है,
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युगान्तर
कविता / 22 / 12 / 2019
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आरंभ / आरम्भ

20 जनवरी 2009 
के दिन यह ब्लॉग आरम्भ किया था।
इसे आरंभ करते समय कल्पना नहीं थी कि दस वर्षों से अधिक तक यह क्रम चलता रहेगा।
आभार गूगल का !
नेट मेरे लिए कोई व्यावसायिक आवश्यकता नहीं है, इसलिए तब थोड़ी कोफ़्त होती है जब पूरे नेट को शुद्धतः व्यवसायपरक होता हुआ देखता हूँ। इस पूरे दशक में फेसबुक और ट्विटर पर भी कुछ वर्षों तक अभिव्यक्ति देता रहा। राजनीति, कला, धर्म, संस्कृति, सभ्यता, साहित्य को इस हद तक व्यवसायपरक और व्यवसाय-केंद्रित बना दिया गया है कि जो व्यक्ति केवल सृजनात्मक स्फूर्ति से प्रेरित होने से कुछ रचता है, अगर वह साधनहीन हो; -जिसकी रुचि पैसे कमाने के लिए ज़रा भी न हो तो इस धन-केन्द्रित सभ्यता, समाज, संस्कृति, व्यवस्था में उसके लिए सूचना के स्रोतों तक पहुँचना भी कठिन हो जाता है।
मुझे कभी कहीं से सहायता मिली तो ऐसे लोगों से जिनके बारे में मुझे कुछ पता तक नहीं था।
इसलिए बिना किसी स्वार्थ के नेट पर कार्य करते रह पाना संभव हो सका।
दूसरी ओर साधन-संपन्न वर्ग के वे लोग हैं चाहे राजनीति, फिल्मोद्योग, साहित्य आदि से जुड़े हों, या किसी सामाजिक सरोकार से, जिनके अनेक महान लक्ष्य, महत्वाकाँक्षाएँ, ध्येय, उद्देश्य होते हैं।
उनसे न तो मेरी स्पर्धा है न उनके बारे में मेरी कोई राय है।
बस इतना ज़रूर लगता है कि लिखता रहूँ, चाहे कोई इसे पढ़े या न पढ़े।
जो इसे पसंद न करेगा, उससे ऐसा आग्रह या अपेक्षा भी नहीं है।
शायद और कुछ समय (जब तक सुविधा है!) ब्लॉग लिखे जा सकते हैं !
मेरे अन्य एक ब्लॉग 'स्वाध्याय' की पाठक-संख्या वैसे तो बढ़ती जा रही है किन्तु मैं नहीं जानता कि वह कब तक रहेगा। क्योंकि लिखने के प्रति उत्साह धीरे धीरे कम होता जा रहा है।   
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December 21, 2019

एक और बुद्ध-कथा

ठहरा हुआ पानी 
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बामियान की पहाड़ियों में किसी समय अनेक बौद्ध विहार थे।
मूर्तिपूजकों ने भगवान बुद्ध की कुछ प्रतिमाएँ उन विहारों के समीप स्थापित कर रखीं थीं।
उस काल में भी वहाँ की जलवायु वैसी ही थी जैसी आज है।  अति शीत, अति आतप और अति वर्षा।
यद्यपि कुछ भिक्षु उस वातावरण में अधिक समय तक जीवित न रह पाते थे, लेकिन वहाँ रहनेवाले कुछ भिक्षुओं के शरीर जलवायु-सह्य (acclimatized) हो जाते थे।
त्यक्तजीवित उन विवेक-वैराग्य-संपन्न भिक्षुओं के जीवन में यदि कुछ था तो वह थी प्रतीक्षा।
ऐसे ही किसी समय भिक्षु अमितगुप्त उन बौद्ध प्रतिमाओं की पूजा किया करते थे जिन्हें भविष्य कभी किन्हीं मूर्तिभंजकों द्वारा तोप के गोलों से तोड़ दिया जाना था।
यह जानते हुए भी कि पृथ्वी के किसी सुदूर भविष्य में ऐसा होनेवाला है, बुद्ध के प्रति उनकी अविचलित निष्ठा को देखकर उनके एक शिष्य ने प्रश्न किया :
"भन्ते।  जब आपको यह अच्छी तरह विदित है कि ये प्रतिमाएँ किसी दिन तोड़ दी जानेवाली हैं तो फिर आप इस निष्ठापूर्वक उनकी पूजा कैसे कर पाते हैं ?"
तब अमितगुप्त ने कहा :
"तुम्हें याद है जब तुम प्रथम बार यहाँ आए थे, और मैंने तुमसे सामने की नदी से पीने के लिए जल लाने के लिए कहा था ?"
"हाँ, याद है।"
"तब तुम बिना जल लिए वापस आ गए थे और मुझसे तुमने कहा था कि अभी अभी वहाँ से पशुओं का एक झुण्ड पानी पीकर गुज़रा है इसलिए पानी गंदला और मैला हो गया है। तब आपने मुझसे और थोड़ी देर बाद पुनः वहाँ जाने और बहते हुए पानी के स्थिर होकर निर्मल हो जाने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा था।"
"क्या फिर पानी पुनः स्वच्छ नहीं हुआ था ?"
"हाँ भन्ते !"
"यह क्रम ऐसा ही है।  जगत नित्य मलिन और शुद्ध होता रहता है।
ये प्रतिमाएँ तोड़ दिए जाने के बाद पुनः निर्मित होंगी।
इन प्रतिमाओं को अपने बनने-टूटने का भान नहीं है, क्योंकि वे उस बुद्ध-चेतना में भली प्रकार से अवस्थित और प्रतिष्ठित हैं जिसका बनने-टूटने से कोई लेना-देना नहीं है।
राष्ट्र और सनातन-धर्म वही बुद्ध-चेतना है जो संसार-धर्म से; जगदधर्म से नितान्त अछूती है।
इसलिए अन्याय और दुष्टता का प्रतिरोध मत करो, प्रतिशोध अवश्य करो !"   
"प्रतिशोध ?"
"हाँ, प्रतिशोध का अर्थ है कि
'नित्य क्या है और अनित्य क्या है';
- इस बारे में निरन्तर शोध, सतत अनुसन्धान करते रहना,
तब तुम्हारे सामने बुद्ध-चेतना का सत्य प्रकट और स्पष्ट होगा।"
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December 16, 2019

कविता / 16/12/2019

हासिल 
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किसी भी हासिल से कभी मिला क्या है,
जो मिला भी है उससे भी पाया क्या है?
वो क़ामयाबियाँ और वो सिलसिले सारे,
आख़िर उन सबका भी सिला क्या है?
कितनी राहें, मरहले, मुश्क़िलें थीं,
कितने ही दोस्त थे, हमसफ़र कितने !
सब चले गए हैं, राह अपनी-अपनी,
किसी से शिकवा क्या गिला क्या है!
-- 

December 11, 2019

संवाद या विवाद ?

बहस के मायने 
--
कल एक पोस्ट लिखा था जिसमें बच्चों की किसी किताब का एक पृष्ठ प्रस्तुत किया था।
याद आई उस व्यक्ति की कहानी जिसे बतौर ज्ञानी प्रचारित किया जाता है।
वह भरी दोपहरी में जलती हुई लालटेन हाथ में लेकर सड़कों पर, बाज़ार और बस्ती में घूमता था।
वह पिछली पोस्ट के 'रामू' की तरह अंधा नहीं था।
अंधे को शिष्टाचारवश प्रज्ञाचक्षु कहा जाता है।
अंग्रेज़ी में 'प्रज्ञा' शब्द के लिए शायद 'sixth sense' कहा जा सकता है।
वैसे इसे 'Artificial Intelligence' (A.I.) भी कह सकते हैं किन्तु जहाँ 'Artificial Intelligence' (A.I.) यान्त्रिक बुद्धि होती है और स्मृति पर आधारित होती है; - वहीँ 'प्रज्ञा' किसी जीते-जागते मनुष्य का वह विवेक होता है, जो उसे नैतिक-अनैतिक की, शुभ-अशुभ की 'दृष्टि' देता है। यह दृष्टि शाब्दिक आवरण में व्यक्त किया जानेवाला कोई कोरा वैचारिक सिद्धांत या सूत्र (formula) नहीं होता।
गीता में कहा गया है :
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः।।
ततः परिमार्गितव्यं .......
आत्मा इतना सरल स्पष्ट सत्य है कि इससे कोई अनभिज्ञ नहीं हो सकता।
क्या कोई अपने-आप के अस्तित्व से इंकार करता है?
अगर करता भी हो तो भी यह इंकार भी उसके अस्तित्व की सत्यता को ही प्रमाणित करता है।
किन्तु आत्मा की यह वास्तविकता बुद्धि के आवरण से ढँकी होने से हर मनुष्य अपनी अपनी सतोगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी बुद्धि के अनुसार इस सत्य को जिस 'तथ्य' के रूप में ग्रहण करता है वह 'तथ्य' प्रायः सत्य का विरूपित चित्र ही होता है।
बुद्धि में होने वाले इस भ्रम के निवारण के लिए ही गीता या सनातन धर्म के अन्य शास्त्र वेद उपनिषद इत्यादि उस सत्य को जानने के लिए सम्यक शोध करने का उपदेश / सुझाव देते हैं।  उपदेश का अर्थ है संकेत। यह आदेश या बौद्धिक सिद्धांत नहीं होता क्योंकि बौद्धिक सिद्धांत पुनः बुद्धि की सीमा में होने से बुद्धि के गुण-दोषों से युक्त होता है, जबकि आदेश तो सरासर बाध्यतावश स्वीकार करना होता है और इसलिए दूसरे की 'स्वतन्त्रता' का हनन तक हो सकता है।
एक अंधा व्यक्ति हो या स्वस्थ आँखों वाला कोई व्यक्ति, चाहे वह दिन में भरी दुपहर में जलती लालटेन लिए बाज़ार और बस्ती में घूमता हो, लोगों में कौतूहल तो पैदा कर सकता है, लेकिन बस वही तक उसकी सीमा होती है। वह शायद ही लोगों की बुद्धि को प्रभावित या परिवर्तित कर सकता हो। क्योंकि यह विभिन्न लोगों की अपनी अपनी रुचि पर भी निर्भर करता है।
इसलिए तमाम बहसें प्रायः समय बिताने का एक तरीका होती हैं और बहस करनेवालों के अपने-अपने आग्रहों से प्रेरित होती हैं।
इस प्रकार स्वस्थ बहस जैसी कोई चीज़ प्रायः नहीं पाई जाती।
तमाम बहस के बाद भी बहस करनेवाले न तो किसी ऐसे नतीजे पर पहुँच पाते हैं, जो सबको दिल से स्वीकार हो, या उन पर थोपा न गया हो।
प्रज्ञाचक्षु दूसरी तरफ जानता है कि तमाम शास्त्र लालटेन होते हैं जिन्हें जलाए रखना होता है।
इस दृष्टि से तमाम शास्त्रों को लालटेन की तरह जलाया जाना भी जरूरी तो है ही !
(यहाँ 'जलाया जाना' का तात्पर्य है : प्रकाशयुक्त करना; - न कि आग के हवाले कर देना।)
इस प्रकार से शास्त्र को स्वयं ही समझना अधिक ज़रूरी है, दूसरे की लालटेन का प्रकाश किसी में बुद्धि तो शायद जगा सकता है लेकिन प्रज्ञा के जागृत होने के किए तो मनुष्य को स्वयं ही शोध, परिप्रश्न (investigation) ही करना होगा, न कि बहस। और ऐसे शोध में उसकी रुचि है भी या नहीं या कितनी है, यह तो उसे ही बेहतर पता होता है।
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December 10, 2019

त्रिवेणी घाट, उज्जैन

शनि-मन्दिर, 
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(बच्चों की किसी किताब का एक पृष्ठ) 
24 नवंबर को यहाँ आने के दो हफ़्तों बाद रुद्राक्ष होटल / रिसोर्ट की तरफ घूमने के लिए गया।
थोड़ा संकल्प तो ज़रूरी होता है किसी नए एडवेंचर के लिए।
रुद्राक्ष होटल से आगे इन्दौर रोड पर एक रास्ता पुल से होकर त्रिवेणी के पार इन्दौर की ओर जाता है, और दूसरा शनि-मन्दिर तक।  याद आया यह वही स्थान है जिसे कभी (और अभी भी) नवग्रह-मन्दिर भी कहा जाता था / है।
इसके ठीक पहले एक रोड चिंतामन गणेश की दिशा में जाता है और उसी मोड़ पर स्वामीनारायण टेम्पल है।
भूख लग रही थी, तो सामने दूसरी साइड पर सड़क-किनारे के एक रेस्टोरेंट में पोहे खाए।  चाय पी ।
पोहे खाने के बाद उस कागज़ पर निगाह पड़ी जिसमें पोहे दिए गए थे।
यथावत प्रस्तुत है। 
Let's Read
  Read this story and answer the questions given under it :
Ramu was a blind old man. One dark night he came out of his cottage and went along the road. He had a pitcher of water under his right arm and a lantern in his left hand.
A young man was coming from the other end of the road. He came to Ramu and shouted, Ramu you can't see, but you are carrying a lantern in your hand, why?
Ramu smiled and said, "Do not shout, young man. Listen to me. This light is not for me. It is for you and others. I go out every night with a lantern in my hand. So that people may see me and avoid knocking against me."
The young man was ashamed of his behavior and went away.
--
(a) Who said these words and to whom:
(i) "Do not shout young man. Listen to me."
(ii) "People may see me and avoid knocking against me."
(b) Answer these questions.
(i) Ramu came on the road. What did he have in his hands?"
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o#o#o#o#o#o#o#o#o#o#o#o#      33    o#o#o#o#o#o#o#o#o#o#o#o#o#
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आज इस कहानी के सन्दर्भ और निहितार्थ किसी हद तक बदल गए हैं और तमाम बहसें मुझे इसी कहानी की पुनरावृत्ति लगती हैं।
बहरहाल मुझे यह भी लगता है कि मैं ही कहानी का 'रामू' हूँ और 'यंग-मैन' भी हूँ, पर मेरे हाथ की लालटेन बुझी हुई है जिससे इन दोनों इंसानों की तरह, मैं स्वयं भी अनभिज्ञ हूँ !
--   
   

December 01, 2019

जहाँ मन नहीं होता ...

जहाँ कोई नहीं होता ...
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मेरे इस ब्लॉग में
"जब मन नहीं होता .."
कविता को बहुत अधिक बार देखा गया है।
इसी के क्रम में sequel की तरह एक कविता आज लिखी।
हिन्दी में लिखने का मन प्रायः होता है किन्तु जब कुछ ऐसा लिखा जाता है जो मेरी अपनी दृष्टि से बहुत उत्साह और प्रसन्नता देता है तो उसे स्वाध्याय में लिख देता हूँ। जो अपेक्षाकृत गंभीर या क्लिष्ट लगता है, उसे भी वहीँ लिख देता हूँ।  क्योंकि मुझे लगता है, इस ब्लॉग के पाठक मेरे स्वाध्याय ब्लॉग को अवश्य देखते होंगे। क्योंकि उसके views 259000 हो चुके हैं, जबकि इस hindi-ka-blog के केवल 69000 !
--
कविता / 1 दिसंबर 2019 
--
किसी गतिशीलता में क्या,
कोई मन नहीं होता?
किसी गतिशीलता में क्यों,
कोई मन नहीं होता?
किसी गतिहीनता में क्यों,
ऊबने लग जाता है मन,
लेकिन सो जाने पर क्यों,
कोई मन नहीं होता?
या फिर सो जाते ही क्या,
कोई मन नहीं होता?
या लग जाता है, तब क्या,
कोई मन नहीं होता?
उचट जाता है जब क्या,
कोई मन नहीं होता?
होता है निमग्न तब क्या,
कोई मन नहीं होता?
कहाँ से आता है यह मन,
कहाँ हो जाता है ओझल,
खोज तो लें, पर ऐसा क्या,
कोई मन नहीं होता?
जहाँ से आता है यह मन,
जहाँ पर फिर खो जाता है,
जहाँ होने पर फिर यह मन,
कभी ग़मगीन नहीं होता,
कहाँ है वह जगह सोचो,
अगर मन सोच सकता हो,
कहाँ है वह जगह लेकिन,
जहाँ कोई नहीं होता?
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November 29, 2019

कविता / 29/11/2019

आततायी समय
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अंगद के पाँव सा दृढ
आततायी समय सुस्थिर
कितना अजीब सत्य है !
और फिर भी व्यस्त है !1
हर तरफ कोलाहल,
हर तरफ अवसाद है,
हर तरफ निराशा है,
हर तरफ उन्माद है !2
और फिर भी हर कोई
ढूँढता है 'भविष्य' में,
कोई राहत सुकून कोई !
जैसे कि हो वह तयशुदा !3
कोई नहीं है पूछता यह,
क्या यह कोरा शब्द नहीं ?
जिसके आशय अनगिनत,
कौन सा होगा घटित ?4
आततायी समय हर पल,
बीतता ही जा रहा है,
आततायी समय सुस्थिर,
रीतता ही जा रहा है !!
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November 22, 2019

कविता आज की ... 22 /11 2019

तिलिस्म !
--
न मैं कोई, न तुम कोई,
कैसा यह तिलिस्म कोई !
अलहदा रूह से जिस्म कोई,
अलहदा जिस्म से रूह कोई !
ये दूरियाँ, ये नज़दीकियाँ,
फ़ासला, मुहब्बत, क़िस्म कोई !
बज़्म कोई महफ़िल कोई,
नज़्म कोई है, रस्म कोई !
नज़र कोई, नज़रनवाज़ कोई,
अश्क कोई है, और चश्म कोई !
रस्म इस्मत की, किस्मत की,
इल्म कोई है, और इस्म कोई !
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November 14, 2019

ऊब : कोई मौसम

तसल्ली (कविता) 
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कोई मौसम कभी ठहरता नहीं,
और ठहरे तो ऊब जाता है,
कोई सूरज कभी ठहरता नहीं,
शाम होते ही डूब जाता है !
और सोचो, किसी दिन ना डूबे?!
दिल ये सोचकर ही दहल जाता है !
क्या ये मौसम भी ऊबता है कभी?
या कि वह सिर्फ बदल जाता है,
और क्या आदमी बदलता है कभी?
या कि वह सिर्फ ऊब जाता है?
फिर क्यों अक्सर ये लगा करता है,
वक़्त क्या हर घड़ी बदलता है?
सवाल यह भी, वैसे भी उठता है,
सवाल से क्यों ये दिल बहलता है?
दिल बहलाता है या मचलता है,
ठहरता है या कि बस टहलता है,
क्या दिल है नया / पुराना / ताज़ा ?
क्या ये ठहरा है या वाकई बदलता है?
सवाल ये भी सिर्फ मौसमी है,
हवा के साथ ही यह उड़ जाएगा,
भला-बुरा ये ऊब का मौसम,
पालक झपकते बीत जाएगा !
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November 07, 2019

चल दोस्त दारू पीते हैं !

वाट लग गई है तो क्या,
चल ठाठ से जीते हैं,
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वर्ष 2002 में उत्तर में उत्तरकाशी तक, दक्षिण में चेन्नई / तिरुवन्नामलाई / पुद्दुचेरी, पूरब में पुरी तक तथा  वाराणसी, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) राउरकेला तक यात्राएँ की थीं। लौटते समय उज्जैन में तीन माह रुका था।  उस समय हर स्थान पर 8:00 p.m. के बड़े बड़े विज्ञापन चौराहों, रोड्स, स्टेशन आदि पर देख रहा था।
फिर समझ में आया कि यह शराब-तहज़ीब का पैग़ाम है।
"ताम्बूलं मनसा मया विरचितं
भक्त्या प्रभो स्वीकुरु !"
याद आया।
भगवान् श्री शंकराचार्य ने शिव-मानस-पूजा-स्तोत्र में यह उल्लेख किया है।
वैसे भी पान अर्थात् ताम्बूल-पत्र अनादि काल से भारतीय मुख में रचा बसा है, किन्तु ताम्र-वर्णी खदिर (कत्था) / catechu / इसके साथ खैर और चूने का प्रयोग, लौंग, इलायची, सुपारी आदि का योग इसके भिन्न भिन्न रूपों में किया जाता है।  पान के रस का प्रयोग कुछ आयुर्वेदिक औषधियों के साथ 'अनुपान' की तरह भी होता है।
भारत में इस पान के साथ तमाखू का प्रचलन मुग़लों के काल में प्रारम्भ हुआ और फिर इसके साथ साथ गांजे का सेवन होने लगा। हुक्का उसी काल में प्रचलित हुआ।
पान के पत्ते betel / வெற்றிலை से बना 'बीड़ी' जिसमें तमाखू का प्रयोग गरीब वर्ग करता था।
तमाखू में 'निकोटीन' वह रसायन है जो कॉफ़ी में 'कैफीन' या चाय में 'टैनिन' की तरह पाया जाता है।
इस प्रकार भारत भूमि पर तमाखू, चाय, कॉफ़ी का आगमन हुआ।
आयुर्वेद में प्रसंगवश विभिन्न प्रकार के मादक द्रव्यों और उनके प्रभावों का वर्णन है।  मुख्यतः इनका सेवन / प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता है / किया जाना चाहिए, न कि नशे के लिए।
गञ्जयति गांजा भञ्जयति भांगः
दारयति दारुः अपि नाशयति व्याधीः ।
इस प्रकार गांजा भांग तथा दारू यद्यपि विनाशकारी होते हैं, किन्तु इसीलिए व्याधियों का भी नाश करते हैं।
आयुर्वेदिक 'आसव' जैसे द्राक्षासव, कुमार्यासव आदि में यद्यपि 'आसवन' / distillation के द्वारा मदिरा कुछ अंशों में उत्पन्न होती है किन्तु वह तत्वतः उस  'आसवन' / distillation से प्राप्त शराब से बहुत भिन्न होती है जिसे सीधे ताड़ के रस से, अंगूर या गन्ने के रस के 'किण्वन' / fermentation से  'खींचा' जाता है।
द्राक्ष से शराब बनाने को जर्मन भाषा में 'drucken' कहा जाता है और ऐसी शराब बनानेवाले को 'Drucke' कहा जाता है। यह भी इसी 'दारू' का सज्ञात / cognate ही है।
बौद्ध धर्म के पंचशील-सिद्धान्त में से एक 'शील' है :
"मैं किसी किण्वित द्रव का सेवन नहीं करूँगा। "
क्योंकि किण्वन / किट्-वन की प्रक्रिया में द्रव में कीट / कृमि पैदा हो जाते हैं और उनकी हिंसा होती है।
कृमि से बना है वृमि जिससे बना है vermilion / सिन्दूर किन्तु सिन्दूर विष होता है जिसे विवाहित स्त्री हिन्दू धर्म में शायद इसलिए प्रयोग करने लगी ताकि आपत्काल में सतीत्व पर आँच आने पर तत्काल उसका सेवन कर सके।  कृमि से fermi / fermentation का साम्य दृष्टव्य है।
fermi से ही formic-एसिड H-COOH बनता है, और इसीलिए उसे यह नाम प्राप्त होता है।
Acid शब्द को संस्कृत के 'अव-शित' का सज्ञात / cognate कहना अनुचित न होगा।
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वाट लग जाने पर दारू के बहाने मनोरंजन करना या 'ग़म भुलाना' वैसा ही है जैसे संस्कृत में कहा गया है :
"मर्कटस्य सुरापानं ततो वृश्चिकदंशनं .... .
ज्वराविष्टस्य प्रेतबाधा, किं तत्र जीवितेन ।"
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October 26, 2019

आहटें

चाहतें और राहतें 
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जैसा कि पहले लिख चुका हूँ मेरा प्रायः पूरा ब्लॉग-लेखन केवल एक स्थान पर संजो रखने record के लिए सुविधा की दृष्टि से होता है। जब लगता है कि लिखने लायक कुछ नया है, तो ही लिखने का मन होता है। इसलिए लिखना एक चाहत (इच्छा) होती है, और वह चाहत कभी जितनी तेज होती है उससे कहीं अधिक तेजी से मन / ख़याल दौड़ता है, यहाँ तक कि मन में आई कोई बहुत महत्वपूर्ण बात लिखने से पहले ही खो जाती है।
और चूँकि लिखने की पहली वजह यही होता है इसलिए इस लिखे को कौन पढ़ता है, कोई पढ़ता भी है या नहीं, यह सवाल तो मन में कभी आता ही नहीं। दस साल पहले जब 'उन दिनों' लिखना शुरू किया था तब भी यही मानसिकता थी और आज भी यही है।
अख़बार या किसी पत्रिका में प्रकाशित होने के बारे में तो सोचता तक नहीं था क्योंकि हमेशा ऐसा लगता रहा कि जिन बातों को और जिन विषयों पर, मैं लिख रहा हूँ उनमें शायद ही किसी की कोई रुचि हो सकती है। हाँ, कभी-कभी जब लगता था कि ऐसा कुछ अनायास लिख सका हूँ, तो ज़रूर लगता था कि शायद कोई इसे पढ़ना पसंद कर सकेगा।
इस तरह लिखना चाहत से अधिक एक राहत भर रहा।
लिखने का सुख बस एक राहत भर रहा, जिसे हम मज़बूरी में स्वीकार कर लेते हैं।
किसी से 'जुड़ना' तो कभी सोचा ही नहीं था।
जुड़ना क्या सचमुच होता है?
हम या तो किसी ज़रूरत के लिए किसी से जुड़ते हैं या किसी माध्यम से जुड़े होने से उस माध्यम के बहाने किसी से जुड़ते हैं।  या तो हमें जो मिला होता है उसमें जो हमें सर्वाधिक आकर्षित करता है उससे जुड़ने लगते हैं, या जिसकी हमें ज़रूरत महसूस होती है उससे। 
लेखक और पाठक का संबंध कुछ ऐसा होता है जहाँ ऐसी कोई शर्तें शायद नहीं होतीं।  और जैसे और जहाँ भी इस तरह की शर्तें होती हैं वहाँ केवल तात्कालिक जुड़ाव होता है। हमारे तमाम सामाजिक, यहाँ तक कि पारिवारिक जुड़ाव भी इसी आधार से तय होते हैं। यह दोतरफा होता है।
यह जुड़ाव न सिर्फ व्यावहारिक बल्कि अपेक्षाकृत अधिक गहरे और मानसिक धरातल तक भी होने लगता है, क्योंकि इससे हमें सुरक्षा अनुभव होने लगती है। जैसे अपने पालतू कुत्ते या बिल्ली से हमारा जुड़ाव हो जाता है। परिवार और समाज भी ऐसा ही एक तरीका है जिसमें हमें न सिर्फ वर्तमान की, बल्कि काल्पनिक भविष्य की भी सुरक्षा महसूस होने लगती है। यहाँ तक कि हम भविष्य के इतने अधिक और परस्पर असामंजस्यपूर्ण  मानसिक चित्रों का कोलॉज बना लेते हैं कि उनकी विसंगतियों पर हमारा ध्यान तक नहीं जा पाता ।
किसी व्यक्ति, समूह, समुदाय, वर्ग, जाति, राष्ट्र, भाषा, आदर्श, राजनीति, साहित्य, संगीत, मज़हब, किताब, धर्म, विचार, सिद्धांत, शौक या रुचि से जुड़ाव में सुरक्षा मिलती हो या न मिलती हो, मिलती हुई दिखाई देने पर हम उन तमाम खतरों को नज़र-अंदाज़ कर देते हैं, जो उस प्रतीत होनेवाली तथाकथित सुरक्षा में हमारी आँखों से छिपे होते हैं।
सुरक्षा और सुरक्षा की चाह जीवन की बुनियादी ज़रूरतें हैं लेकिन चाह और चाहतें हमें सच्चाई को देख पाने में बाधक होती हैं। और तात्कालिक राहतें भी अक्सर एक छल हो सकती हैं, जिनसे हम अपने आपको धोखा देते रहते हैं।  जो वास्तव में ज़रूरी और किया जाना चाहिए उससे भागने के लिए हम इन चाह, चाहतों और राहतों का सहारा लेने लगते हैं।
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October 24, 2019

इबादत / यहाँ

आज की कविता
--
एकमेवोऽअद्वितीयो 
यहाँ कौन  क्या है,
किसी का किसी से,
भी रिश्ता ही क्या?1
ख़ुद से ही जब तक,
ख़ुद का नहीं है,
ख़ुदा से भी क्या?2
ख़ुदा से भी अपना,
उसका कहाँ कोई,
भी रिश्ता है क्या?3
ख़ुद से ही नहीं जब,
जहाँ से भी कोई,
भी रिश्ता है क्या?4
अलावा, ख़ुदा के,
कहाँ कोई दुनिया,
या है कोई क्या?5
क्या शै ये दुनिया,
क्या कोई खुद भी,
सोचा है क्या?6
फिर क्या ख़ुदा है,
फिर क्या ख़ुदाई,
देखा है क्या?7
कहाँ फिर जहन्नुम,
कहाँ फिर है जन्नत,
है जाना कहाँ ?8
ख़यालों की जन्नत,
ख़याली जहन्नुम,
होती है क्या?9
जब तक तू ख़ुद है,
ख़ुदा से जुदा है,
कहाँ है कहाँ ?10
जब तक ख़ुदी है,
तब तक है ख़ुद भी,
ख़ुदा है कहाँ ?11
ख़ुदी जब मिटी तो,
ख़ुद भी मिटा ही,
ख़ुदा है यहाँ।12
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October 12, 2019

जुड़ाव / बिखराव

निरपेक्ष-सापेक्ष 
--
कल रात्रि जब यहाँ क़रीब 9:00 से 9:30 के बीच का वक़्त था,
स्वीडन स्थित किसी पाठक ने इस ब्लॉग का अवलोकन किया।
वहाँ तब शायद संध्या के 4:00 से 6:00  के बीच का वक़्त रहा होगा।
जब  मेरे किसी ब्लॉग पर व्यूअर्स अचानक बढ़ जाते हैं तो मेरा ध्यान
इस तरफ जाता है। कल अचानक 87 page-views स्वीडन से ही इस
ब्लॉग के हुए ऐसा गूगल का कहना है।
पिछले 2 माह से अधिक समय से मेरे स्वाध्याय ब्लॉग के प्रतिदिन
500 से 1000 तक 'व्यूज़' दिखाई देते हैं। पाठक कितने होंगे, कहना
मुश्किल है।
फेसबुक अकाउंट डिलीट हुए एक साल हो रहा है।
twitter करीब दो साल पहले डिलीट कर चुका था।
सबसे बड़ी बात यह है कि किसी व्यक्ति-विशेष से जुड़ने / जुड़ाव की
आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। इसका यह अर्थ नहीं कि किसी से
अलगाव है।
शायद उदासीनता है।
सोशल साइट्स से पूरी तरह दूर हो जाने बाद भी लिखने का शगल इस
तरह हावी है कि ब्लॉग एक सुविधाजनक सहारा है।
मैं नहीं जानता कि मैं कितना सारार्थक, सार्थक, निरर्थक या व्यर्थ लिखता हूँ,
लेकिन जब कोई मेरे लिखे को पढ़ने लायक समझता है तो थोड़ा आश्चर्य तो
होता ही है। और कौतूहल तो हमेशा ही होता है।
शायद कोई सूत्र होता है, जो जुड़ाव की वजह होता हो।
इसीलिए अब 'labels' का उपयोग करने की भी ज़रूरत नहीं रही।
क्योंकि किसी का ध्यान आकर्षित करना मेरे लेखन का लक्ष्य भी नहीं है।
और इसलिए मेरे लेखन में किसी की अनायास दिलचस्पी हो, तो वह मेरे
पुराने पोस्ट्स भी देख ही सकता है। 'labels' का प्रयोग मुझे किसी हद तक
अनावश्यक आत्म-प्रचार जैसा लगता है।
-- 


 
   

October 09, 2019

होशियार ! ख़बरदार !

वहाबी और सहाफी 
--
वहाबी यहाँ भी हैं,
वहाबी वहाँ भी,
ख़बरदार रहना,
जहाँ हों, जहाँ भी !
सहाफ़ी यहाँ भी हैं
सहाफ़ी वहाँ भी,
ख़बरदार रहना,
जहाँ हों, जहाँ भी !
-- 

October 01, 2019

सोच बदलिए,

....
और,
जीवन में आगे बढ़िए !
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्ते पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
(ईशावास्य-उपनिषद्)
--
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष दैत्य-भाई थे।
हिरण्यकशिपु का अर्थ होता है स्वर्ण का तकिया।
कश अर्थात् निकष -- कसौटी, कोष, तिजोरी, संग्रह।
कशि-पु का अर्थ हुआ स्वर्ण की लालसा।
हिरण्य का अर्थ है स्वर्ण।
हि रणं यत् हिरण्यं तत् ..
के अनुसार जिसके कारण रण (युद्ध) होता है, वह (स्वर्ण) अवश्य ही रण है। 
हिरण्याक्ष का अर्थ हुआ जिसकी आँख स्वर्ण पर है।
पूषन् सूर्य का वह रूप है जिसमें पौष मास (दिसंबर तथा जनवरी माह) के आदित्य (सूर्य), पृथ्वी को अपनी रश्मियों से पोषित करते हैं। यही सूर्य स्वरूपतः अग्नि तथा यम हैं जो क्रमशः जीवन के लिए सहायक और जीवन तथा मृत्यु के नियंता के रूप में मृत्यु भी हैं। किन्तु वे इन तीनों रूपों में प्राणिमात्र के लिए कल्याण के लिए ही कार्य करते हैं।
पूषन् के आशीर्वाद से जीवन में मनुष्य को समृद्ध तथा ऐश्वर्य (संपत्ति तथा धन का स्वामित्व) प्राप्त होता है,
तो दूसरी ओर इसी स्वामित्व के साथ मनुष्य में गर्व तथा सुख की लालसा प्रबल होने लगते हैं ।
इस प्रकार सत्य का मुख एक आवरण से ढँका होता है, जिसे सामान्य मनुष्य नहीं देख पाता, -उसे इसकी कल्पना भी नहीं उठती। केवल अपनी या किसी दूसरे की मृत्यु आने पर ही कभी-कभी मनुष्य के सोच में बदलाव आता है, और जीवन में क्या पाया-खोया या क्या पाया-खोया जा सकता है, इस ओर उसका ध्यान जाता है।
हिरण्यकशिपु स्वर्ण  के तकिए पर सर रखकर सोता या उसे मसनद की तरह सहारा बनाकर बैठता था, ताकि कोई उसे चुरा न सके।
हिरण्याक्ष संसार में यत्र-तत्र स्थित स्वर्ण की खोज में लगा रहता था।
दोनों प्रायः अपने-अपने कर्तव्य की क्रमशः अदला-बदली करते थे।
इस प्रकार वे अपनी सोच तो निरंतर बदलते रहते थे और निरंतर आगे बढ़ते जा रहे थे।
इस बीच हिरण्यकशिपु को पुत्र-प्राप्ति हुई, तो उसने उसका नाम प्रह्लाद रखा।
आह्लाद तात्कालिक होता है,
प्रह्लाद अपेक्षाकृत स्थायी होता है।
जब हिरण्यकशिपु को पुत्र प्राप्त हुआ, तो उसे आह्लाद भी हुआ।
किन्तु यह सोचकर उसे भय हुआ कि मृत्यु अंततः उससे उसकी धन-संपत्ति और ऐश्वर्य (संपत्ति तथा धन का स्वामित्व) छीन लेगी।
इसलिए उसने तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और उनसे अपने लिए अमर होने का वरदान माँगा।
तब ब्रह्माजी ने कहा :
"मैं स्वयं भी इस दृष्टि से अमर नहीं हूँ कि अनंत काल तक बना रहूँ।
मैं स्वयं भी उपाधि-मात्र हूँ और वस्तुतः अमर तो श्री नारायण हरि हैं और तुम उनसे प्रार्थना कर यदि उन्हें प्रसन्न कर सको तो अमर होने का वरदान प्राप्त कर सकते हो।"
तब हिरण्यकशिपु के मन में श्री नारायण हरि से वैरभाव उत्पन्न हुआ।
फिर हिरण्यकशिपु ने ब्रह्माजी से वरदान माँगा कि कोई मनुष्य अथवा पशु उसे न मार सके,
उसकी मृत्यु न तो दिन के समय हो और न रात्रि के समय हो।
ब्रह्माजी ने हँसकर तथास्तु कहा और अंतर्धान हो गए।
उधर हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद के मन में भगवान् श्री नारायण हरि की अहैतुक कृपा होने से उनके प्रति अगाध भक्ति का उदय हुआ और हिरण्यकशिपु के मन में अपने पुत्र के प्रति इसीलिए वैरभाव बढ़ने लगा।
तब हिरण्याक्ष तो हिरण्यकशिपु की सारी धन-संपत्ति (स्वर्ण) छीनकर समुद्र में जाकर पाताल चला गया, 
किन्तु हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के यत्न में जुट गया।
एक दिन इसी प्रकार उसने क्रोध के आवेश में प्रह्लाद से कहा :
"आज मैं इस तलवार से तुम्हारा वध कर दूँगा, कहाँ हैं तुम्हारे भगवान् श्री नारायण हरि जो तुम्हारी रक्षा करेंगे?"
तब प्रह्लाद ने हँसकर उत्तर दिया :
"पिताजी आप मेरा वध करना चाहें तो मेरा शीश सहर्ष आपके सामने झुका हुआ है क्योंकि मेरे और त्रैलोक्य के एकमात्र परमेश्वर और स्वामी भगवान् श्री नारायण हरि सर्वत्र हैं, और आपमें तथा आपकी आज्ञा में, आपकी तलवार में भी हैं।"
तब हिरण्यकशिपु क्रोध से अंधा हो गया और महल के एक खम्भे की ओर संकेत कर प्रह्लाद से पूछा :
"क्या वे इस स्तम्भ में भी हैं ?"
तब प्रह्लाद ने सहजता से उत्तर दिया
- "अवश्य !"
तब हिरण्यकशिपु बोला :
"ठीक है, मैं इसका ही वध कर देता हूँ। "
जैसे ही उसने अपनी तलवार का एक आघात खम्भे पर किया, वैसे ही वह खम्भा बीच से टूट गया, और उसके मध्य से भगवान् श्री नारायण हरि  मनुष्य के धड़ पर सिंह के मुख और हाथ-पैरों को लेकर प्रकट हुए।
उस समय सूर्य अस्ताञ्चल को जा रहे थे। तब न दिन का समय था न रात्रि का समय था।
सिंह के मुख और हाथ-पैरों, तथा मनुष्य के धड़ के रूप में प्रकट भगवान् श्री नारायण हरि की नृसिंह आकृति न तो किसी पशु की थी, न किसी मनुष्य की।
प्रह्लाद ने देखा कि उसके पिता को उस नृसिंह-आकृति भगवान् श्री नारायण हरि ने अपनी गोद पर रखकर अपने तीक्ष्ण नखों से उसके पेट को विदीर्ण किया और उसकी आँतें बाहर निकालकर उन्हें चीर दिया।
तब प्रह्लाद ने भगवान् श्री नारायण हरि के रूप में आए यमराज की वन्दना कर अपने पिता की मृत्यु के अनन्तर उनकी आत्मा की सद्गति के लिए इस प्रकार से प्रार्थना की :
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह।
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि।।      
(ईशावास्य-उपनिषद्)
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इसे मैं अपने स्वाध्याय ब्लॉग में लिखना चाहता था, फिर सोच बदला और यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। जीवन तो स्वयं ही आगे ही आगे बढ़ता है इसलिए समय के साथ सोच बदलना तो स्वाभाविक ही है, लेकिन हमारा सोच किस प्रयोजन से प्रेरित है इस बारे में ध्यान देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यदि वह लोभ, भय या निरंतर सुख की कामना और किसी विशिष्ट क्षेत्र में सफलता के आकर्षण से प्रेरित है तो उससे आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है कि हम उन तमाम तथाकथित महान लोगों के जीवन पर गौर करें और देखेँ कि क्या केवल अत्यंत अधिक सुख, सफलता, समृद्धि आदि पा लेना ही जीवन का अंतिम और पर्याप्त एकमात्र ध्येय हो सकता है?
या हमें जीवन में कुछ और चाहिए, और वह कैसे और कहाँ से मिलेगा?  
--
(कल्पित)
  

September 23, 2019

कविता / 23.09.2019

मिलना / कविता 
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किसी भी शख़्स से कभी,
जब एक बार मिलता हूँ,
होता है वो पहला मिलना,
होता है आख़िरी मिलना।
और भूल जाता हूँ उसको,
पर कोई याद नहीं बनती,
यूँ कि पहचान नहीं बनती,
जैसे अपनी भी नहीं है मेरी।
क्या ये याद, ये पहचान भी,
सिर्फ हादसा ही नहीं होता?
जो अगर हो ही न कभी तो,
कोई पहचान भी नहीं होता।
उस अजनबी से फिर मिलना,
क्या अजीब दासताँ नहीं है ?
और, राहत है कितना सुकून,
कि उससे कोई वास्ता नहीं है।
फिर ज़रूरत कहाँ पहचान की,
कोई तय शक्ल भी इंसान की,
क्योंकि हर शक्ल उसकी सूरत है,
जो कि सूरत भी है ईमान की।
कोई दुश्मन नहीं जहाँ कोई,
ऐसा होता हो ग़र जहाँ कोई,
क्या ज़रूरत किसी ख़ुदा की,
ख़ुद की पहचान नहीं, जहाँ कोई।
--

 

September 20, 2019

Blasphemy

बलात्प्रेमी 
--
अपने भाषा-अनुसंधान में मुझे यह रोचक तथ्य मिला कि कैसे 'वल्क', 'वल्यते' से अंग्रेज़ी के 'value', 'evolve', 'वलित' से 'volt' और 'volt-face' की उत्पत्ति हुई।  इसी प्रकार 'लुच्'-- 'लोचयति'-- 'लोक' से VolksWagen नामक लोक-वाहन (van), vehicle को  नाम प्राप्त हुआ।
शायद इसी प्रकार 'ब्लॉग' / 'blog' शब्द प्रचलन में आया होगा।
वैसे संस्कृत भाषा में 'बलाका' कहते हैं वकपंक्ति को।
वक / बक कहते हैं बगुले नामक पक्षी को,
इसलिए बकवाद या बकवास दोनों मूलतः संस्कृत भाषा में भी अर्थ रखते हैं।
हिंदी में इन शब्दों का अर्थ होता है अनर्गल या अमर्यादित भाषण।
इस दृष्टि से कुछ राजनीतिज्ञों को 'blogger' की श्रेणी में रखना गलत न होगा।
और कुछ ब्लॉगर ट्वीट्स में भी ऐसा करते हैं।
केवल रोचक होने से ही सफलता या लोकप्रियता पा लेने को 'येन-केन-प्रकारेण' प्रसिद्ध होने का ही एक प्रयास कहा जा सकता है।
फूहड़ या अश्लील, द्विअर्थी तात्पर्य वाले वक्तव्य देना भी ऐसा ही है :
कभी शाम को आपने आकाश में बगुलों की ऐसी पंक्तियाँ देखी ही होंगी।
भ्रमवश कोई उन्हें हंसों की पंक्ति भी समझ सकता है। 
पर्याय से, imperatively; आसमान में चमकने वाली बिजली को भी बलाका कहा जाता है।
इसी तुलना से बलात् शब्द से दो अन्य शब्दों का साम्य दृष्टव्य है :
'blast' ( विस्फोट), और 'blasphemy' में पाया जानेवाला 'blas'.
'प्रेम' से fame और phem का साम्य भी दृष्टव्य है।
fame और 'प्रेम' भी एक दूसरे के पर्याय हो सकते हैं।
प्रेम की सिद्धि हो या न हो, प्रसिद्धि / बदनामी तो प्रायः हो ही जाती है।
'blasphemy' के लिए 'ईशनिंदा' शब्द का प्रयोग कहाँ तक स्वीकार्य है, यह सोचने की बात है।
चलते चलते :
सोचता हूँ:
"भाषा-अनुसंधान में 'साम्यवाद' का महत्त्व" विषय पर क्या कोई पोस्ट लिखी जा सकती है।
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September 14, 2019

14 सितम्बर 2019 / हिन्दी-दिवस

आज का दिन 
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हिन्दी-दिवस 14, सितम्बर 2019 की शुभकामनाएँ।
पिछले किसी पोस्ट में ग्रन्थ-लिपि के बारे में लिखा था।
यह उल्लेख किया था कि किस प्रकार मराठी और संस्कृत भाषाएँ जिस लिपि में लिखी जाती हैं उसी  देवनागरी लिपि में हिन्दी भी लिखी जाती है। और इससे तीनों ही भाषाएँ अधिक समृद्ध और प्रचलित हुई हैं।
इसी प्रकार अगर हिंदी-प्रेमी दूसरी सभी भारतीय भाषाओं को देवनागरी-लिपि में लिखने लगें तो उनके पाठक-वर्ग की वृद्धि ही होगी और वे भाषाएँ भी और अधिक बोली और समझी जाने लगेंगी।
अंग्रेज़ी के साम्राज्य को इसी तरह समाप्त किया जा सकता है।
यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि अंग्रेज़ी सभी भारतीय भाषाओं के प्रचलन के धीरे-धीरे कम होने की दिशा में अग्रसर है। इसके साथ यह भी संभव है कि केवल देवनागरी लिपि में ही अंग्रेज़ी को लिखे जाने का प्रयास किया जाए।
संक्षेप में : 
इस प्रकार अंग्रेज़ी पढ़ने-लिखने-बोलनेवाले अनायास इस लिपि के अभ्यस्त होने लगेंगे। यही बात उर्दू के लिए भी सत्य है। उर्दू का प्रचार-प्रसार भी इसे देवनागरी लिपि में लिखे जाने पर अधिक होगा।
किसी भी भाषा का प्रचार-प्रसार मुख्यतः तो उनके प्रयोग की आवश्यकता के ही कारण होता है, और किसी भी भाषा को समाज पर थोपा नहीं जा सकता। कोई भी मनुष्य जितनी अधिक भाषाएँ सीखने और इस्तेमाल करने लगता है, उसका मस्तिष्क उतना ही प्रखर और मेधावी होने लगता है।
भारतीय लोगों के पूरे विश्व में सर्वाधिक सफल होने का यही कारण है कि वे अंग्रेज़ी और किसी एक भारतीय भाषा के साथ साथ अनेक भाषाएँ जानते हैं। दूसरी ओर तमाम विदेशी जैसे रूसी, चीनी, जापानी आदि भी भारतीयों के मुकाबले इसीलिए पीछे रह जाते हैं क्योंकि अपनी भाषा के आग्रह के कारण वे अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाएँ सीखने में कम रूचि लेते हैं।  भारतीय भले ही बाध्यतावश अंग्रेज़ी सीखते हैं किन्तु अंग्रेज़ी के शब्द मूलतः संस्कृत से उसी प्रकार व्युत्पन्न किए जा सकते हैं जैसे कि तमाम भारतीय भाषाओं के शब्द किए जा सकते हैं। 
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September 13, 2019

खाना-ब-दोश

कविता / 13/09/2019 
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भटकता है दर-ब-दर, ख़ाना-ब-दोश,
ढूँढ़ता है अपना घर, ख़ाना-ब-दोश!
कोई घर अपनों का, और हो अपनों सा,
कोई घर सपनों का, हो ख़ाना-ब-दोश!
कहाँ से आया था, कुछ याद नहीं आता,
कहाँ मिलेगा फिर, यह भी नहीं है मालूम,
भटकता है दर-ब-दर, ख़ाना-ब-दोश,
ढूँढ़ता है अपना घर, ख़ाना-ब-दोश!
ये रूह जो भटकती है, ख़ाना-ब-दोश!
उस रूह का पता कहाँ ख़ाना-ब-दोश!
क्या वो महबूबा है किसी महबूब की?
क्या वो महबूब है किसी महबूबा का?
है ये कैसी जुदाई, है ये तनहाई कैसी?
जिसकी है ये इन्तिहा, ख़ाना-ब-दोश!
क्या ये जिस्म ही नहीं है क़ैदे-हयात? 
क्या ख़यालो-तसव्वुर भी नहीं हैं क़ैद?
क्या रिश्ते नाते सब, यहाँ के पल दो पल,
कसमें वादे मुहब्बतें, भी क्या नहीं हैं क़ैद?
ये क़ैद से क़ैद तक भटकते रहना हरदम,
भटकते रहना है कब तक यूँ ख़ाना-ब-दोश!
भटकता है दर-ब-दर, ख़ाना-ब-दोश,
ढूँढ़ता है रूह का घर, ख़ाना-ब-दोश!
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August 31, 2019

इज्यते

अरबी, उर्दू, फ़ारसी, हिब्रू, संस्कृत
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'गीता-सन्दर्भ' मेरा एक और ब्लॉग है जिसे आप मेरी profile पर देख सकते हैं।
अपने भाषा-अध्ययन के अनुभव से मैंने पाया कि जहाँ तक हो सके, किसी भी भाषा का अध्ययन किसी दूसरी भाषा के माध्यम से नहीं किया जाना चाहिए। हर भाषा का अपना एक विधान होता है जिसे तब अनायास ग्रहण कर लिया जाता है, जब हम उस भाषा को सुनकर और व्यवहार में उसके प्रयोग को देखकर धीरे-धीरे उसकी सूक्ष्मताओं पर ध्यान देने लगते हैं।
इसलिए किसी भी भाषा को बिलकुल नए सिरे से सीखना सबसे बेहतर है।  वास्तव में तो भाषा का व्याकरण सीखने की ओर बहुत बाद में, तब ध्यान देना ठीक है, जब प्रयोग में लाकर, हम भाषा को किसी हद तक सीख चुके होते हैं।
व्याकरण का इतना ही उपयोग है कि भाषा की शुद्धता की परीक्षा की जा सके।
मैंने इसी प्रकार से संस्कृत का अध्ययन किया।  मेरा दावा नहीं कि मेरा संस्कृत भाषा का ज्ञान व्याकरण के नियमों के अनुसार शुद्ध है।
संस्कृत व्याकरण के नियमों और विशेषताओं को समझने से पहले मैंने संस्कृत के ग्रंथों को उनके मौलिक रूप में पढ़ना प्रारम्भ किया। मुझे भाषा से प्रेम था, और उसका अर्थ का मेरे लिए गौण महत्त्व का था।
इसलिए संस्कृत की समझ मुझमें वैसे ही आई, जैसे अपनी मातृभाषा को सीखते समय हम उसके अर्थ पर अधिक ध्यान दिए बिना ही उसे समझने लगते हैं। यह मातृभाषा कोई भी हो, बहुत बाद में जाकर अर्थ की गूढ़ताओं पर हमारा ध्यान जाता है।
संस्कृत का यथेच्छ और पर्याप्त, संतोषप्रद ज्ञान होने के बाद ही मैंने उसकी सूक्ष्मताओं पर ध्यान दिया। यहाँ तक कि व्याकरण और छंद-शास्त्र का अध्ययन तक न करते हुए मैं श्लोकों को लिखने / रचने लगा, -और तब जाकर मुझे व्याकरण और छंद-शास्त्र को समझने की आवश्यकता अनुभव हुई।
इसी प्रकार मैंने अंग्रेज़ी का अध्ययन किया।
शायद मैं उर्दू, फ़ारसी, अरबी, हिब्रू आदि का भी अध्ययन ऐसे ही कर सकता था, किन्तु उस विषय में मेरी एक समस्या थी। मुझे बार बार अनुभव होता था कि भाषा हमारी चेतना (मानसिकता, मनोविन्यास) को प्रभावित करती है, और चेतना भी भाषा को उसी तरह प्रभावित करती है। इसमें कुछ संशय मेरे मन में इसलिए भी था कि जिन भाषाओं से मेरा थोड़ा-बहुत परिचय था, वे सभी बाईं से दाईं और लिखी जाती हैं - जैसे कि अंग्रेज़ी, हिन्दी, मराठी, बाँग्ला, यहाँ तक कि  तमिळ, मलयालम, कन्नड, तेलुगु आदि भी। रशियन, फ्रेंच, जर्मन, यहाँ तक कि ग्रीक भी।
चूँकि मानव-मस्तिष्क में तंत्रिकाएँ (nerves) क्रमशः बाएँ और दाएँ हिस्सों (lobes) से निकलकर हमारे शरीर के क्रमशः दाएँ तथा बाएँ अंगों में फैलती हैं इसलिए यह अनुमान लगाया जाना विसंगतिपूर्ण नहीं है कि बाईं से दाईं ओर लिखी जानेवाली भाषाओं को प्रयोग करनेवाले तथा दाईं से बाईं ओर लिखी जानेवाली भाषाओं को प्रयोग करनेवाले लोगों की चेतना और मानसिकता में अवश्य ही कोई विशेष फ़र्क होता होगा।
(इसे और अच्छे तरह समझने के लिए श्री V.S.Ramachadran के कार्य के बारे में जानना सहायक हो सकता है। )
सभी भाषाएँ स्वतंत्र रूप से, बिना किसी अन्य भाषा के माध्यम से सीखने के अपने अनुभव में मैंने पाया कि किसी भी भाषा की रचना (structure) को अधिक अच्छी तरह से जानने के लिए यह ज़रूरी है कि उसे सीधे ही प्रयोग में लाने का अभ्यास किया जाना अधिक उपयोगी है।
बहुत बाद में हम अवश्य ही अनुवाद के माध्यम से अपने भाषा-ज्ञान को समृद्ध और शुद्ध कर सकते हैं।
ऊपर गीता का सन्दर्भ इसी परिप्रेक्ष्य में है।
गीता पढ़ते हुए मेरा उन अनेक संस्कृत शब्दों से परिचय हुआ जिनमें सीधे ही किसी दूसरी भाषा के विभिन्न  शब्दों के स्वरूप और उसी अर्थ की झलक भी देखी जा सकती है, जो उन भाषाओं में उनका अर्थ है।
उदाहरण के लिए अस्मि, अस्मद्, युष्मत्, आदि से I am, you, आदि तथा वयं से we त्वं से Thou, du (जर्मन) उल्लेखनीय हैं। तत् से the और that, तत्र से there, ...  
इस प्रकार का विधान जर्मन और किसी हद तक फ़्रेंच में भी पाया जाता है, जहाँ मूल प्रातिपदिक पद से उसका विभक्ति रूप बनाया जाता है।
ऐसा ही अनुभव आज तब हुआ, जब मैं 'इज्यते' शब्द के बारे में अपने गीता-सन्दर्भ ब्लॉग के नए पोस्ट में लिख रहा था।  मुझे याद आया कि अरबी भाषा के इज़्ज़त और इजाज़त शब्दों का इस्तेमाल अरबी भाषा में उसी अर्थ में होता है, जैसा कि इसे संस्कृत में किया जाता है।
भाषाशास्त्र के विद्वान् कुछ भी कहें, मुझे लगता है कि एक भाषा का मूल किसी दूसरी भाषा में खोजना और सभी भाषाओं का स्रोत किसी एक प्राचीन भाषा में खोजना मूलतः भ्रामक है। भाषाओं में परस्पर कोई गहरा संबंध है, इसमें शक नहीं किन्तु ऐसी कोई भाषा खोजना जो सब भाषाओं का मूल हो, व्यर्थ का हठवाद ही अधिक है।
मेरी अपनी मातृभाषा मराठी से मुझे यह लाभ हुआ कि मैं यह समझ सका कि किसी भाषा को एक से अधिक लिपियों में लिखने पर भाषा समृद्ध ही होती है। स्पष्ट है कि देवनागरी को अपनाए जाने से मराठी का कोई नुक्सान कदापि नहीं हुआ। इसी प्रकार उर्दू को हिंदी में लिखे जाने से उर्दू अधिक समृद्ध होकर और भी पहली-फूली। उर्दू के लिए अरबी लिपि का आग्रह ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक हो सकता है, किन्तु इससे उर्दू की लोकप्रियता में कमी भी आती है। वास्तव में तमिल की भी यही स्थिति है।  जिन्हें तमिल आती है उन्हें तमिल के लिखित रूप और उच्चारण के बारे में कोई कठिनाई नहीं आती होगी, किन्तु यदि तमिल को उसकी ग्रन्थ-लिपि में भी लिखा जाए तो तमिल और भी समृद्ध ही होगी। इस प्रकार यह तमिल के लिए लाभ का ही सौदा होगा।  हाँ जिन्हें तमिल के प्रचलित रूप से संतोष है, वे इसका इस्तेमाल भी यथावत् करते रहें तो इससे धीरे-धीरे दूसरे भी ग्रन्थ-लिपि में रुचि लेकर उस ओर आकर्षित हो सकते हैं। 
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August 29, 2019

Karolina Goswami

भारतीयों और हिंदीभाषियों के लिए !
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बहुत समय से इंतज़ार था
कैरोलिना गोस्वामी
India in Detail
के हिन्दी चैनल
India in Detail Hindi  का !
स्वागत है !
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August 24, 2019

हेडलेस चिकन्स .... / Headless chickens .

एक कविता / आज की कविता
हेडलेस चिकन्स ....
(शीर्षक-रहित)
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रोजी-रोटी के लिए ज़रूरी,
सही-गलत, फिर धन्धा क्या?
सरपट दौड़े, सुस्त कभी,
तेज कभी, या मन्दा क्या?
करने की जब ठान ही ली,
अच्छा या फिर, गन्दा क्या ?
मज़बूरी के मारे हैं सब,
अल्ला क्या, और बन्दा क्या,
कभी तेज, कम रौशनी,
सूरज क्या, और चन्दा क्या ?
जब मरने की ठान ही ली,
फिर फ़ाँसी का फ़न्दा क्या ?
जिसके पर ही टूट गए,
उड़ता वह, परिन्दा क्या?
बीत गए दिन जिस डाली के,
आए वक़्त, आइन्दा क्या?
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24 अगस्त 2019,

August 11, 2019

Pakistan Occupied Kashmir

राजनीतिक इच्छा-शक्ति 
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देश के प्रथम प्रधान-मंत्री ने एक भयंकर भूल तब की थी जब बिना मंत्रिपरिषद की सलाह लिए, -बिना विपक्ष और संसद को विश्वास में लिए ही, पाकिस्तान की फौज द्वारा कबाइली हमले से भारतीय भूमि पर नाजायज़ कब्ज़ा कर लेने के बाद कश्मीर मामले को अनावश्यक रूप से यू.एन. में ले गए थे।
अब एक सुखद और शक्तिशाली सुझाव श्री सुब्रह्मण्यन स्वामी ने रखा है कि भारत, प्रथम प्रधानमंत्री श्री नेहरू द्वारा दाख़िल किए गए उस पिटीशन को विद्ड्रॉ कर इस पूरे प्रकरण को समाप्त कर सकता है !
और अभी श्री नरेंद्र मोदीजी के तेवर देखकर यह कार्य नामुमकिन नहीं लगता।
मोदी है तो मुमकिन है !
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पूरा कश्मीर हमारा है !    

August 06, 2019

देर आयद दुरुस्त आयद !

अन्ततः 
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सँभाल कर के रखी तौ पाएमाल हुई,
सड़क पे फ़ेंक दी तो ज़िन्दगी निहाल हुई ।
(स्व. दुष्यन्त कुमार)
अगर चाहती तो पहले की सरकार ज़रूर इसका श्रेय ले सकती थी, ...
अच्छा हुआ सरकार ने देशहित में धारा 370 को अन्ततः क़ुर्बान कर ही दिया !
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July 29, 2019

दिल्ली या देहली ?

नाम क्या है?
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संस्कृत भाषा में ’दिलीप’ श्रीराम के कुल में पैदा हुए रघुवंश के एक राजा का नाम था,
जो राजा रघु के पिता थे ।
जैसे महीप का अर्थ महीपति होता है, वैसे ही दिलीप का अर्थ दिलीपति है,
जो दलपति का प्रचलित रूप है।
इसे दलीयपति के रूप में भी देखा जा सकता है।
दलीयपति का प्रचलित संक्षिप्त रूप आगे चलकर 'दलीय' और फिर संभवतः,
'दलीय' से दिल्ली हुआ हो।   
नृप का अर्थ नृपति अर्थात् राजा होता है ।
दिल्ली का मूल नाम अतीत में,
राजा दिलीप की राजधानी के नाम के आधार पर ’दिलीपपुर’ रहा होगा,
क्योंकि राजा दिलीप की राजधानी तो अयोध्या थी ।
इससे हमें दिल्ली का नाम दिलीपपुर करने के लिए एक और ठोस आधार प्राप्त हो सकता है ।
अगर रामलला अयोध्या में हैं, तो दिल्ली दिलीपपुर क्यों नहीं हो सकता ?
संस्कृत में 'देहली' का अर्थ है : 'दहलीज' या देहरी।
इस प्रकार दिल्ली देश का प्रवेश-द्वार तो है ही।
इसे अंग्रेज़ी में 'Delhi' जाने से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 'देहली' ही आगे चलकर दिल्ली और अंग्रेज़ी में 'Delhi' के रूप में प्रचलित हुआ होगा।
दिल्ली या देहली ? 
इसलिए अगर इसका नाम बदलकर 'देहली' रखा भी जाता है तो,
अंग्रेज़ी में इसे,
 'Delhi' लिखे जाने के बजाय  'Dehli' या 'Dehali' के रूप में लिखा जा सकता है।
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July 27, 2019

मन की बात ...

सब का साथ, सबका विकास,
सब का विश्वास,  .... !
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जब एक दिन ब्लॉग लिखने का ख़याल आया तो लगा कि मेरे जैसे औसत आदमी के लिए 'मन की बात' कहने के लिए यह अच्छा प्लेटफॉर्म है।  अपनी बात लिख दो, जिसे पढ़ना हो पढ़े, न पढ़ना हो न पढ़े। उस दिन से आज तक कभी इसका महत्व नहीं प्रतीत हुआ कि कितने लोग इसे पढ़ते या पढ़ना पसंद करते होंगे।
वैसे भगवान की कृपा से जिंदगी जैसे-तैसे चल रही है, बाकी भी कट जाए दुआ कीजै !
औसत आदमी होने का फ़ायदा यह भी है कि आप दूसरों की चिंताओं, परेशानियों, समस्याओं की फ़िक्र करना छोड़ देते हैं।  क्योंकि फ़िक्र करने का तभी कोई मतलब है जब आप उन चिंताओं, परेशानियों, समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ कर सकें। बेवजह फ़िक्र करने के लिए वक़्त और इतनी फ़ुर्सत भी ज़रूरी है जो औसत ('आम' नहीं; क्योंकि 'आम' से मुझे आम आदमी पार्टी वाला 'आम' याद आता है और ग़लतफ़हमी न हो, इसलिए मैं 'औसत' शब्द इस्तेमाल करता हूँ।) वैसे ही 'आप' से भी मुझे वही 'आप' याद आता है जो 'आम आदमी पार्टी' का संक्षिप्त नाम है।
फिर मुझे शक होता है कि क्या 'सब' का वही मतलब होता है जो मतलब 'औसत' ('आम' नहीं) का होता है?
क्या 'सब' और 'औसत' समानार्थी हैं ? क्या 'सब का साथ, सबका विकास, ...सब का विश्वास, सबका .... !' का वही मतलब है जो कि 'हर-एक और प्रत्येक का साथ, हर-एक और प्रत्येक का विकास और हर-एक और प्रत्येक का विश्वास' का हो सकता है?
लेकिन, 'सब' तथा 'हर-एक और प्रत्येक' की प्रधान-मंत्री जैसे अति विशिष्ट और महत्वपूर्ण पद पर आसीन व्यक्ति से यह अपेक्षा होना भी बिलकुल स्वाभाविक है कि वह 'सब' तथा 'हर-एक और प्रत्येक' के बीच सही संतुलन स्थापित करने की भरसक कोशिश करे ।
इसमें शक नहीं कि यह एक बहुत कठिन और दुःसाध्य कार्य है किन्तु प्रधान-मंत्री के पास जनता द्वारा दी गईं जितनी शक्तियाँ हैं उनसे उनके लिए यह असंभव नहीं है। लेकिन इसके लिए उनके पास वक़्त की पाबंदी तो होती ही है, और 'फ़ुर्सत' तो उनके शब्दकोश से भी नदारद होता होगा।
(हालाँकि उनसे मेरी तुलना का सवाल ही नहीं, और यह भी सच है कि मेरे पास बहुत वक़्त और फ़ुर्सत भी है, लेकिन मेरी इतनी ताक़त कहाँ कि अपनी खुद की ही जिंदगी को भी ठीक से पटरी पर ला सकूँ !)   
शायद इसीलिए यह उक्ति फ़ेमस (वायरल) हुई होगी :
"मोदी है तो मुमक़िन है।"
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July 20, 2019

सवाल यह है कि ...

क्या मुसलमान मोदी पर यक़ीन करते हैं ?
क्या मुसलमानों को डरा रहे हैं ओवैसी ?
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सवाल यह नहीं है, कि मुसलमानों को मोदी पर यक़ीन है या नहीं,
सवाल यह है कि जब तक क़ुरान और इस्लाम में,
इस्लाम को न माननेवालों के लिए और उनसे संबंधित :
जिहाद, जज़िया, काफ़िर, दार-उल-हर्ब, धिम्मी,
जैसे घृणासूचक, अपमानजनक और निन्दात्मक शब्द मौजूद हैं,
तब तक सिर्फ़ हिन्दू ही नहीं, दूसरे सभी ग़ैर-मुस्लिम भी,
-मुसलमानों और इस्लाम की नीयत और इरादों पर कैसे यक़ीन कर सकते हैं ?
यही है शक की बुनियाद। इसलिए यह शक बेवजह तो नहीं है, और ज़्यादा अच्छा तो यही होगा कि इस्लाम और मुसलमान यह मौक़ा ही न आने दें कि उन्हें कोई आरोपों / शक के कटघरे में खड़ा भी कर सके ।  
लेकिन सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में आज यह सवाल उठने लगा है ।
जब तक आतंकवाद की बुनियाद क्या है यह तय नहीं किया जाता, आतंकवाद का संबंध किसी धर्म-विशेष से है या नहीं, यह भी तय नहीं हो सकता । इसलिए आतंकवाद का सामना भी तब तक असरदार तरीके से नहीं किया जा सकता । यही बुनियादी सवाल मुसलमानों (की नीयत और इरादों) पर सच्चा या झूठा शक पैदा होने की सबसे बड़ी वज़ह है, जिसे दूर किए जाने की जवाबदारी और ज़्यादा ज़रूरत भी सिर्फ़ इस्लाम की, और सिर्फ़   मुसलमानों की ही है । यह भी हो सकता है कि यह शक पूरी तरह बिलकुल ग़ैर-वाज़िब और बेबुनियाद हो, लेकिन इसे मिटाए जाने पर ही यह मुद्दा हमेशा के लिए हल हो सकता है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक यह मुद्दा उछाला जाता रहेगा।  कुछ देर के लिए अगर यह भी मान लिया जाए कि किसी दिन पूरी दुनिया इस्लाम के परचम तले आ जाएगी, -तो भी, क्या गारंटी है कि इसके बाद इस्लाम की अलग अलग व्याख्या करने वालों के बीच के आपसी सभी मतभेद और संघर्ष समाप्त हो जाएँगे ? क्या आज भी इस्लाम की अलग-अलग व्याख्याओं के बीच टकराहट नहीं है?
इसलिए यह सिर्फ इस्लाम के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के हित में ज़रूरी है कि इस शक को सही तरीके से मिटाया जाए।  जब तक ऐसा नहीं होता तब तक दूसरों के न चाहते हुए भी कुछ न कुछ लोग आतंकवाद को इस्लाम से जोड़कर देखते रहेंगे। और न चाहते हुए भी इसका हर्ज़ाना सभी को भुगतना पडेगा। 
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पहले बहुत बार सोचा कि इस पोस्ट को प्रकाशित न करूँ, फिर लगा कि ऐसा करना डर की वजह से अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने जैसा और दूसरों से उनका 'जानने का' हक़ छीनने जैसा भी होगा, इसलिए अब अंततः प्रस्तुत है।
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July 14, 2019

स्वस्तिवाचन

अमेरिकी संसद में संस्कृत 
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इस वीडियो में दो हिस्से हैं।
आशा है यह आपको ज़रूर पसंद आएगा।
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असतो मा सद्गमय।।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।। 
मृत्योर्माऽमृतं गमय।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः  ।।
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July 13, 2019

Thought-Process

विचार-विधान / विचार-प्रवाह
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अभिनेत्री पायल रोहतगी अपने विडिओ में 'Thought-Process' शब्द का प्रयोग अक्सर करती हैं।
ज़ाहिर है कि इस दौरान 'Thought-Process' का सहारा और इस्तेमाल तब भी ज़रूरी होता है, जब कोई  बिना इस शब्द को बोले भी अपनी बात कहता है ।
जिन विषयों पर वे अपने विचार व्यक्त करती हैं उनमें से अधिकाँश में मेरी दिलचस्पी नहीं है क्योंकि फिल्मों या फ़िल्म-टीवी आदि से मेरा संबंध बरसों से टूट चुका है। फ़िल्म-टीवी आदि जिन मुद्दों को अपनी गतिविधियों में महत्व देते हैं उनमें मेरी दिलचस्पी उतनी ही होती है जितनी सुबह के अख़बार में हो सकती है।
अख़बार में जैसे केवल हेड-लाइन्स, 'उठावना' / शोक-समाचार और editorials ही देखता हूँ, और लगभग सभी विज्ञापनों को नज़र-अंदाज़ कर देता हूँ मेरा वैसा ही व्यवहार नेट पर देखे जानेवाले न्यूज़-चैनल्स के साथ भी होता है। मेरी रुचि ब्लॉग लिखने / पढ़ने में, debates देखने-सुनने में अधिक है। ऐसा करना शायद मेरे लिए मेरे  मनोरंजन का ज़रिया भी हो सकता है। यद्यपि स्वयं मुझे किसी debate में भाग लेना पसंद नहीं।         
हर कोई वैसे तो केवल अपनी रुचि, ज़रूरत और काम की वेब-साइट्स गम्भीरतापूर्वक देखता है लेकिन कभी-कभी केवल कौतूहलवश भी ऐसी साइट्स चेक कर लेता है जहाँ उसे सीखने या जानने के लिए कुछ नया मिलने की संभावना दिखाई दे जाती है। इसीलिए कभी-कभी कुछ अलग भी देख लेता हूँ।
यही विचार-प्रक्रिया (Thought-Process) प्रायः आदतन हर किसी की होती है।
लेकिन इससे अधिक रोचक यह है कि हर किसी की विचार-प्रक्रिया (Thought-Process) किन्हीं सुनिश्चित विश्वासों, मान्यताओं, प्रयोजनों और आग्रहों की लीक से बँधे होते है। वे विश्वास, मान्यताएँ, आग्रह जिन पर वह और समाज भी 'धर्म' शब्द की मुहर लगाता है, 'धर्म' शब्द का आवरण चढ़ाता या लेबल लगाता है।    
यह भी कुछ कम आश्चर्यजनक नहीं है।
और इसी के चलते जहाँ लब्धप्रतिष्ठ या लुब्ध-प्रतिष्ठा बुद्धिजीवी / राजनीतिक पत्रकार अनेक विषयों पर न केवल भिन्न-भिन्न विषयों पर भिन्न-भिन्न विचार-विधानों, विचार-प्रवाहों और विचार-प्रक्रियाओं की एक-दूसरे से बहुत अलग अलग नदियों में नौकायन (navigation) करते हैं, वहीं उनके व्यक्तित्व की जटिलता, विषमता, रूढ़ता और दुरूहता स्वयं उन्हें ही, इस प्रकार दूसरों से अधिक भ्रमित किए रखती है ।
विचार-विधान (thought-structure) अपनी अपनी जानकारी, भाषा, और तर्कबुद्धि की मर्यादा से तय होता है, तो विचार-प्रवाह की दिशा अपने हितों, आशंकाओं, आकांक्षाओं और आशा-निराशाओं से तय होती है।
विचार-प्रवाह की नदी इन्हीं दो तटों के बीच बहती है जिसकी धारा में अनेक द्वीप ही नहीं अनेक दलदल या भँवर भी होते हैं। और एक ही नदी में परस्पर विरोधी, समानान्तर या विसंगत अनेक प्रवाह भी होते हैं।
जब तक दूसरों से किसी विषय पर विचारों का आदान-प्रदान होता रहता है तब तक वस्तुतः कोई संवाद घटित ही नहीं हो पाता। और हमें कभी ख़ुशी कभी ग़म वाली स्थिति का सामना करना पड़ता है।  कभी तसल्ली या आशा-निराशा भी हाथ लगती है, कभी-कभी मन उचट या ऊब जाता है लेकिन नौकायन (navigation) का मोह हमें अपनी पकड़ से छोड़ता नहीं।
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July 12, 2019

Organized Religion.

संगठित धर्म 
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वैसे तो प्रचलित अर्थ में जिसे हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में 'धर्म' कहा जाता, माना तथा समझा जाता है, उस 'Religion' की वास्तव में 'सनातन-धर्म' से कोई तुलना ही नहीं की जा सकती, क्योंकि 'सनातन धर्म' किसी परंपरा, मान्यता या विश्वास का नाम नहीं है।
फिर भी अनेक कारणों से हम उस अर्थ को ढो रहे हैं और ऐसे अनेक तथाकथित 'धर्मों' / religions के बीच सामञ्जस्य स्थापित करने का कठोर श्रम और विफल प्रयत्न करने में जी-जान से लगे हुए हैं। यह नितांत और सर्वथा असंभव कार्य भी है, इसलिए चाहकर या न चाहते हुए भी हम इसमें कभी सफल नहीं हो सकते।
अपने-आपको हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई मान लेने से कोई हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई होना केवल एक वैचारिक मान्यता है न कि ऐसा वास्तविक भौतिक यथार्थ जिसे किसी वैज्ञानिक कसौटी पार कसकर प्रमाणित किया जा सके।
किन्तु चूँकि राजनीति धर्म के बहाने हर मनुष्य को उसका अपना यूटोपिया चुनने का ख़याल देती है, अतः ऐसे अनेक धर्म धरती पर विद्यमान हैं जो परस्पर स्पर्धा में होते हैं।  और ऐसा प्रत्येक धर्म आशा करता है, अंततः एकमात्र वही विश्वविजयी होगा। जबकि सबसे बड़ी विसंगति और विडम्बना यही है कि इनमें से कोई भी धर्म किसी ऐसी स्थिर और ठोस बुनियाद पर खड़ा नहीं होता जो क्षण क्षण दरकती, बिखरती, टूटती और क्षरित न होती रहती हो। अपने-अपने यूटोपिया के अंतर्गत हर मनुष्य अपने आपको किसी छोटे या बड़े धर्म से जोड़ कर अपने समूह की सुरक्षा, विस्तार और दूसरों को पराजित करने की आकांक्षा से भरा हुआ, डरा हुआ और हारा हुआ है। यद्यपि समूह से जुड़ने में तात्कालिक तौर से शक्ति और सुरक्षा प्राप्त होती प्रतीत होती है किन्तु पलक झपकते ही वही भय और असुरक्षा में बदल जाती है।  ज़रूरी नहीं है कि किसी समूह में संगठित होने से आप अधिक शक्तिशाली और सुरक्षित हो ही जाते हों। क्योंकि दूसरे से आपको होनेवाला डर ही तो आपको संगठित होने के लिए प्रेरित करता है।  सरल शब्दों में; - यह भय का अंत नहीं बस समय खरीदने (time borrowing or buying) करने और स्वयं को भ्रमित किए रहने का ही एक तरीका है। अंततः तो आपको जीते-जी पराजित होना ही है, - या क्या आप सोचते हैं कि किसी दिन न किसी आपका धर्म ही अवश्य ही विजयी होगा, और शेष सभी दूसरे मिटकर समाप्त हो जाएँगे ? वैसे भी व्यक्तिगत रूप से तो  अंत में मृत्यु तो हर किसी की अवश्यम्भावी है ही। क्या मनुष्य के रूप में, - न कि हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई होने मात्र से, आप वाक़ई सुरक्षित और शक्तिशाली, निर्भय और निश्चिन्त हो सकते हैं ? कौन सी सुरक्षा आप खोज रहे हैं? वास्तव में आप परस्पर एक दूसरे से लगातार प्रतिस्पर्धा, आशंका, अविश्वास और डर में जी रहे हैं और सोचते हैं कि किसी वर्ग, जाति, संप्रदाय, धर्म, राष्ट्रीयता से जुड़कर, उससे अपनी अस्मिता को जोड़कर आप इस सबके बीच सुरक्षा और निश्चिंतता पा लेंगे। पूरी मनुष्य जाति की और हर मनुष्य की यह सामूहिक और वैयक्तिक मानसिकता है। और कोई यूटोपिया आपको तब तक इस मानसिकता से मुक्ति नहीं दिला सकता जब तक कि आप इस तथ्य को इसकी पूरी सच्चाई में नहीं देख लेते ।
सवाल किसी से लड़ने और किसी धर्म से जुड़कर संगठित होने का नहीं, बल्कि यह समझने का है कि किस प्रकार से मनुष्यमात्र में भय और असुरक्षा की भावना जन्म लेती है, और कोई भी धर्म क्या उसे इस भय और असुरक्षा से उबरने में सहायक होता है? यदि सहायक होता भी है तो किस कीमत पर? और, क्या आप वह कीमत चुकाने को तैयार हैं ?  
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July 07, 2019

साहस, दुस्साहस और निर्भयता

किंकर्तव्यविमूढ 
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मनुष्य (का मन) बँटा हुआ (विखंडित) है।
मनुष्य चाहे किसी भी देश, स्थान का हो, किसी भी भाषा को प्रयोग करता हो, पुरुष या स्त्री, गरीब या अमीर हो, शिक्षित या अशिक्षित, धार्मिक या अधार्मिक हो, आस्तिक या नास्तिक, सुसंस्कृत या असंस्कृत हो, धर्मगुरु या किसी धर्म का अनुयायी हो, देश या समूह / समाज का नेता हो या आमजन, किंकर्तव्यविमूढ़ है। यह किंकर्तव्य-विमूढता मानव जाति का स्थायी चरित्र है।
अधिकाँश लोगों को लगता है कि संसार को बदला जाना चाहिए, शोषण और अन्याय ख़त्म होना चाहिए और प्रत्येक मनुष्य को सुखी और स्वस्थ होना चाहिए, किन्तु इने-गिने लोग ही सोचते-समझते हैं कि वे समाज को और संसार को बदल सकते हैं। इनमें से कुछ लोग किन्हीं कारणों से इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने के प्रति इतने अधिक उत्कंठित होते हैं कि अपने तरीके बलपूर्वक भी दूसरों पर थोपने लगते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि उनमें से बहुत से, संसार को बदलकर कौन सा रूप दिया जाना है, इस बारे में बहुत स्पष्ट, सुनिश्चित और अत्यंत आश्वस्त होते हैं कि उनका तरीका ही अंततः सफल होगा। यह उनका अति-उत्साह ही होता है जिसे वे स्वयं ही लगातार बनाये रखते हैं।
इसमें सबसे बड़ी विसंगति यही है कि 'संसार' को 'बदलकर' वे उसे जो नया रूप देना चाहते हैं, वह रूप केवल उनकी कल्पना और विचार में ही होता है और कल्पना और विचार सदा अमूर्त होते हैं तथा क्षण-क्षण अपना रूप स्वयं ही बदल लेते हैं। आपकी कल्पना और विचार को कितने लोग जानते हैं? यहाँ तक कि जो कल्पना और विचार आपको एक समय अभिभूत कर लेता है, आकर्षित कर जिसे आप जीवन का एकमात्र ध्येय और प्राप्तव्य समझ बैठते हैं वही पल दो पल बाद स्वप्न सा तिरोहित हो जाता है जिसका कोई चिन्ह तक ढूँढ़ने से भी पुनः नहीं मिल पाता।
इसकी बजाय वे लोग जो 'संसार' को 'बदलने' के किसी स्वप्न से मोहित नहीं होते और किसी स्थूल भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं व्यावहारिक रूप से किसी हद तक अपने आपको कभी-कभी संतुष्ट और शायद 'सुखी' भी अनुभव करने लगते हैं।  हालाँकि यह संतोष और सुख भी क्षणिक होता है किन्तु इससे उन्हें जीवन में निरंतर 'आगे बढ़ते रहने' की प्रेरणा तब तक मिलती रहती है जब तक कोई अप्रत्याशित दुर्घटना या दुर्भाग्य उन्हें झकझोर नहीं देता। इसके बाद वे या तो फिर संभलकर उठ खड़े होते हैं किसी और नए उत्साह (आशा) से भरकर 'आगे बढ़ते रहने' के लिए प्रयत्न करने लगते हैं, या येन-केन-प्रकारेण सुखी-दुखी, चिंतित, निश्चिन्त, परेशान, भयभीत, यहाँ तक कि पागल तक हो जाते हुए अंततः समाप्त हो जाते हैं।
और जो बहुत इने-गिने जीवन में किसी स्तर पर 'सफल' भी हो जाते हैं उनके जीवन में भी एक ऐसा शून्य प्रायः उभर आता है जिसका वे न तो सामना कर पाते हैं, न करना चाहते हैं।  शायद उससे पलायन करने के लिए ही वे 'संसार' को बदलने के किसी प्रकल्प के भागीदार हो जाते हैं।  स्पष्ट है कि यह प्रायः अपने-आपको दी जानेवाली सांत्वना ही अधिक होता है न कि कोई 'साहसिक' संकल्प।
स्थितियाँ असह्य हो जाने पर सहसा साहसी हो जाना, और निर्भयता से स्थितियों का आकलन कर जो किया जाना अपेक्षित है उसे करने के लिए उद्यमशील होना दो परस्पर बहुत भिन्न बातें हैं। किसी आदर्श या धर्म के नाम पर मरने-मिटने या मारने-मिटाने का साहस तो दुस्साहस ही होता है। जबकि स्थिति को उसके यथार्थ स्वरूप में, उसकी सच्चाई में और निर्भयतापूर्वक देखने में, -इसे इस प्रकार से समझने के लिए, जिसमें किसी काल्पनिक आदर्श या धर्म की कोई भूमिका नहीं होती, उसके आकलन से क्या किया जाना अपेक्षित है, जिससे उसका उचित ढंग से सामना किया जा सके, अधिक सामर्थ्य की ज़रूरत होती है।
और प्रायः यह स्थिति से संबंधित प्रश्न और समस्या की व्यापकता से भी तय होता है। समस्या जितनी अधिक या कम व्यापक होगी उसे व्यापकता के उसी स्तर पर देखा जाना ज़रूरी है। किन्तु जब किसी समस्या को उसके व्यापक स्वरूप में देखा जाता है तो उसका कोई ऐसा समाधान ढूँढना प्रायः असंभव ही होता है जो व्यक्तिगत स्तर पर भी सर्वसम्मत हो सके।
इसका एक उदाहरण है धर्म की राजनीति।
पहले तो यही कि 'धर्म' का तात्पर्य प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने तरीके से तय करता है इसलिए ऐसा 'धर्म' अनेक प्रकार का अनेक रंग-रूपों में होता है और सामाजिक मान्यता ही होता है। इसलिए जब राजनीति इस विषय में कोई निर्णय करती है तो वह नकारात्मक ही होता है।
किन्तु ऐसे अनेक 'धर्मों' की परस्पर तुलना की जाना और उनके उन तत्वों की खोज करना जो सभी के लिए हानिकारक और घातक हैं और उन्हें प्रतिबंधित किया जाना तो अवश्य ही संभव है। जिन्हें हम रूढ़ि, परंपरा या रिवाज या रस्म कहें उनमें से भी कुछ अवश्य ही ऐसे होते हैं जो पूरे मानव समाज के लिए अन्यायपूर्ण होते हैं और 'धर्म' के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेद करते हैं।
व्यापकता की दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो कुछ इस्लामी देशों में हिन्दू, बौद्ध यहाँ तक कि यहूदी एवं ईसाई 'धर्म' का आचरण कानूनन अपराध है जबकि इन तीनों धर्मों में प्रकटतः ऐसी कोई शिक्षा नहीं दी जाती है कि इन्हें न माननेवाले को क़त्ल कर दिया जाना धर्मसंगत है। जबकि इस्लाम में अवश्य ही खुले तौर पर ऐसी शिक्षा दी जाती है।
ऐसी स्थिति में यही उचित है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसा
'समान नागरिक क़ानून'
[Universal and Uniform Civil Code],
जो व्यक्ति-व्यक्ति में भेद न करता हो लागू किया जाए, जिस पर किसी 'धर्म' या रूढ़ि, परंपरा या रिवाज या रस्म का वर्चस्व न हो।
'धर्म' की राजनीति करनेवाले इससे असहमत होंगे और इसके विरोध में दलील देंगे। इस प्रकार की दलील वैसे भी राष्ट्र-विरोधी होने से सबके लिए ग्राह्य नहीं होने से अस्वीकार्य ही है।
किसी तथाकथित धर्म-स्थल के स्वामित्व के प्रश्न पर भी इसी दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए और इतिहास की भूलों को दुहराया नहीं, उनका निराकरण कर उन्हें सुधारा भी जाना चाहिए।
सवाल बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की बजाय राष्ट्र और मनुष्यमात्र के हितों पर ध्यान देने का है।
सवाल तुष्टिकरण की ऐतिहासिक भूल को दुरुस्त करने का है जिससे भारत राष्ट्र टूटा और पुनः टूटने की कगार पर आ खड़ा हुआ है।
यह समय है इस्लाम नामक धर्म की उन शिक्षाओं पर प्रश्न उठाए जाने का, जिनके कारण अन्य धर्मावलांबियों पर अन्याय होता आया है। तुष्टिकरण की नीति, जिसने इस तुष्टिकरण के बहाने देश के विभिन्न समुदायों में परस्पर अविश्वास, घृणा, वैमनस्य और भय को बढ़ाया।
इसके लिए साहस चाहिए, -न कि दुस्साहस, विवेक चाहिए, -न कि कट्टरता।
जब तक इस्लाम में 'जेहाद', 'काफ़िर वाजिब-उल-क़त्ल', 'जिज़िया', 'धिम्मी', 'दार-उल-इस्लाम', 'दार-उल उलूम', 'दार-उल-हर्ब',  हदूद (ईश-निंदा क़ानून -'Blasphemy' -Law), जैसे शब्द (और आदर्श) हैं, तब तक इस्लाम को दूसरे धर्मों से समान कहना कहाँ तक ठीक है? क्या यह दूसरे धर्मों और मतों का अपमान नहीं है?
इसका यह अर्थ नहीं कि इस्लाम और उस मत के अनुयायियों पर बलपूर्वक उस तरह का प्रतिबन्ध लगा दिया जाए, -प्रतिबन्ध लगा दिया जाए, जैसा कि इस्लामिक देशों में दूसरे मतों पर लगाया गया है ।
बल्कि इससे पहले होना यह चाहिए कि इस्लाम और उसके मतावलंबी स्वयं ही अपने आपका, तथा अपने मत की शिक्षाओं का मानव-मात्र के हित को ध्यान में रखकर मूल्याँकन और आत्मावलोकन करें।
तलाक़ या हलाला जैसे प्रश्न तो अपेक्षाकृत गौण मुद्दे हैं। क्योंकि स्वयं इस्लामी देशों में भी इस बारे में अलग अलग क़ानून हैं।
क्या इस्लाम के विरोध के लिए ज़रूरी है कि हिन्दू या अन्य धर्मावलंबी 'संगठित' हों ही?
क्या इस्लाम या किसी भी मत में हो रहे किसी अन्याय का विरोध करना और उसे दूर करना ही सर्वाधिक ज़रूरी और पर्याप्त नहीं है?
क्योंकि जैसे ही किसी धर्म / मत के नाम पर संगठन बनाया जाता है परस्पर अविश्वास और वैमनस्य ही पैदा होता है जो और भी बढ़ता भी है।
इसलिए यहाँ सभी के लिए यही ठीक है कि राष्ट्रहित में जो उचित है उसे प्रथम स्थान देकर धर्म की राजनीति को बीच में लाए बिना ही परस्पर सौहार्द्रपूर्ण होकर इन प्रश्नों पर गौर करें।
यही वास्तविक साहस है।
यदि हम ऐसा नहीं कर सकते तो लगातार लड़ते-झगड़ते रहेंगे और मरकर जन्नत में जाएँ न जाएँ जीते-जी तो जहन्नुम में ही पड़े रहेंगे।
चलते-चलते :
बहरहाल श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी के इस विडिओ को देखने के बाद ही मुझे इसे लिखने की हिम्मत हुई।
पता नहीं मेरा यह पोस्ट धृष्टता है, साहस है, दुस्साहस है या निर्भयता !
लेकिन चूँकि इसे पोस्ट करना मुझे मेरा पावन कर्तव्य और अधिकार भी अनुभव हो रहा है,
इसलिए अंततः अब करने जा  रहा हूँ ताकि अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान कर सकूँ
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July 05, 2019

कुवलयापीड

जहदजहद -जहत्-अजहत्-न्याय 
कुवलयापीड हाथी था, जिसे कंस ने शराब पिलाकर मदमस्त कर श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने और मारने के लिए भेजा था ।
क्या यही कुवलयापीड बाद में कुबलाई खान तो नहीं हुआ?
ऐसी ही कथा बौद्ध-साहित्य में भी पाई जाती है जब कुवलयापीड नामक हाथी को भगवान् बुद्ध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया था लेकिन भगवान् बुद्ध के समीप पहुँचते-पहुँचते वह अत्यन्त विनम्र होकर उनके चरणों पर झुक गया ।
इसलिए कुबलाई खान अवश्य ही बौद्ध-सभ्यता से संबद्ध था ।
कुबलाई खान मंगोल-वंश का था और मुसलमान नहीं था यह तो तय है।
सवाल यह भी है कि बाबर मुग़ल अर्थात् मंगोल था लेकिन मुसलमान भी था, न कि बौद्ध।
इतिहास जिस प्रकार स्वयं ही स्वयं को प्रभावित करता है वह भी पुनः एक और इतिहास है।   
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July 04, 2019

मनु और शतरूपा

सातत्य और सत्य
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संसार का सातत्य, स्मृति से परे होता कहाँ,
कल्पना से परे क्या, होती है स्मृति की सत्यता?
चेतना में ही विषय-विषयी, दो भासमान हो रहे,
चेतना में ही है परस्पर है, दोनों की अखण्डता ।
चेतना वैसे सदा तो, निर्विषयी निर्विषय तथा,
विषय-विषयी के द्वन्द्व में, प्रतीत होती है व्यथा ।
विषय-विषयी से रहित, जब स्वयं को है जानती,
स्वयं को जब नहीं, किसी पहचान से पहचानती,
प्रकृति भी विषय-विषयी-क्रीड़ा का आभास है,
नित सनातन प्रेम पुरुष-प्रकृति का उल्लास है ।
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कविता, चेतना, पुरुष, प्रकृति, 

July 03, 2019

तेरे प्यार में ...

सिलसिला बेमियाद
-ज़िंदगी का 
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मेरी ज़िंदगी,
तेरे प्यार में,
मैं कहाँ-कहाँ से गुज़र गया!
किसी राह में,
किसी मोड़ पर,
कभी डर गया, कभी मर गया!
कभी मंज़िलों की आरज़ू,
कहीं रास्तों की जुस्तजू,
जीत-हार का तबील,
अपना ये सफ़र हुआ!
कहाँ हम कभी,
अलग थे दो?
कहाँ हम कभी,
हुए थे जुदा ?
ये जहाँ रहा,
दुश्मन सदा,
पर अपनी सबसे,
अलग अदा !
पार की सब मुश्किलें,
तोड़ दी जंजीरें सभी,
गो सफ़र ये ख़त्म,
हुआ है अब,
नहीं ज़िंदगी,
कभी होगी ख़त्म !
मेरी ज़िंदगी,
तेरे प्यार में,
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July 01, 2019

कविता / निर्वेद

कुछ नहीं मन !
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कुछ नहीं करना है,
कुछ नहीं कहना है,
कुछ नहीं सुनना है,
कुछ नहीं होना है !
फिर भी कुछ करना है,
फिर भी कुछ होना है,
फिर भी कुछ सुनना है,
बस वही, जो होना है !
कुछ करने का मन नहीं,
कुछ कहने का मन नहीं,
कुछ सुनने का मन नहीं,
फिर भी सब करना है !
वह जो होता है बिन चाहे,
और नहीं चाहकर भी जो,
उसी होने या न होने में,
मन को निर्लिप्त पड़े रहना है।
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कविता / निर्वेद 
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(गीता अध्याय 2,
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52
 पढ़ते हुए ... )
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June 29, 2019

धर्म, राष्ट्र और मानसिकता

ज़रूरत !
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धर्म एक घर है !
राष्ट्र एक मानसिकता है ।
या तो हम अपना धर्म इस प्रकार बदल लें कि सबका राष्ट्र एक हो,
या, हम अपनी राष्ट्रीयता इस प्रकार बदल लें कि सबका धर्म एक हो ।
किन्तु और बड़ी कठिनाई यह है कि हममें से कुछ न तो राष्ट्रीयता बदलने के लिए राज़ी हैं, न धर्म बदलने के लिए ।
और बाक़ी लोग राष्ट्रीयता और धर्म में से केवल एक को ही बदलना चाहते हैं ।
और विडम्बना यह कि राष्ट्रीयता को माननवालों में से कुछ 'कुल दो राष्ट्रों' को मानते हैं जिसके लिए उनके अनुसार उनका धर्म ही उन्हें प्रेरित करता है ! 
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श्री राजीव दीक्षित, समस्या, समाधान, निराकरण,  दो राष्ट्रों का आग्रह   

June 27, 2019

उत्तम खेती ..

कृषि प्रधान देश भारतवर्ष
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हिंदुत्व के स्वाभिमान के प्रति जागृत होना अपनी जगह ज़रूर एक मुद्दा है तो भारत की सांस्कृतिक धरोहर और विरासत के प्रति जागृत होना भी उतना ही, बल्कि उससे भी कई गुना अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसकी उपेक्षा कर हिंदुत्व पर अड़े रहना नासमझी है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारी आँखें 'प्रगति' की  चकाचौंध से लुब्ध और प्रभावित हुए बिना रह सकती हैं?
निश्चित ही भारत-विभाजन के बाद देश में सहिष्णुता के चलते ही जहाँ मुसलमानों की जनसंख्या बेरोकटोक बढ़ती चली गयी वहीं पाकिस्तान में इस्लामी कट्टरता और असहिष्णुता के चलते हिन्दुओं, सिखों यहाँ तक कि  ईसाईयों, पारसियों आदि की भी जनसंख्या घटती चली गयी।
जब प्रश्न कृषि के तरीकों को विकासशील बनाने का उठता है, तो हम कृषि के यंत्रीकरण की बात करते हैं, सिंचाई के लिए बड़े बांधों की वकालत करते हैं जिसका (तात्कालिक लाभ जो अंततः सबके लिए बहुत हानिकारक ही सिद्ध होना है), कृत्रिम खाद, कीटनाशक, खर-पतवारनाशक दवाओं के इस्तेमाल को ही कृषि-उत्पादन बढ़ाने का जरिया मान बैठते हैं। इनसे हमारी ज़मीन लगातार खराब होती जा रही है। हमारी उपज की गुणवत्ता गिरती जा रही है और हमारी सब्ज़ियों, फलों और अन्न में तमाम विषकारक पदार्थ भर गए हैं जिनसे हर कोई अनेक बीमारियों की चपेट में आ रहा है।  क्या वह भी एक बड़ी राष्ट्रीय हानि नहीं है? हमारे चिकित्सा-व्यय अनाप-शनाप बढ़ाते जा रहे हैं, और बड़े बड़े अस्पताल खुलने को हमने प्रगति का पैमाना समझ लिया है। लेकिन हम यह बिलकुल भूल बैठे हैं कि गोवंश पर आधारित कृषि से बिना उपरोक्त साधनों के ही हम कृषि से बहुत अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। देशी तरीकों से और चिकित्सा-विधियों से हम वैसे भी अधिक स्वस्थ रह सकते हैं और बहुत सी बीमारियों का इलाज़ काम खर्च में और सरलता से कर सकते हैं।  इस 'प्रगति' ने वास्तव में हमारे लिए विनाश का ही द्वार खोल रखा है।   
आज हमारी गायें सड़कों पर प्लास्टिक और अखाद्य वस्तुएँ कचरा इत्यादि खाती हैं, जबकि श्री राजीव दीक्षित जी ने परिश्रम और तर्क से यह सिद्ध और स्पष्ट कर दिया है कि केवल परंपरागत कृषि ही भारत (और पूरी धरती) की अर्थ-व्यवस्था की ताकतवर बुनियाद हो सकती है।
"उत्तम खेती माध्यम वान (वाण),
अधम चाकरी कुकुर निदान ...  "
को हमने आपने सुना होगा।
गायों के साथ बैल भी बेकार हो गए और इससे भी देश में गोहत्या को अपरोक्षतः बढ़ावा मिला यह भी हमें समझ में नहीं आता और इसलिए जब हमारे महात्मा या हिंदूवादी संगठन गोवध पर प्रतिबन्ध लगाने की बात करते हैं तो हमारी बुद्धि यह कुंठित हो जाती है और हम नहीं समझ पाते कि बेकार गायों का क्या करें! लेकिन यदि हम गोवंश पर आधारित कृषि अपनाएँ तो एक और जहाँ पूरा गोवंश हमारे लिए आय का बहुत बड़ा साधन हो सकता है, वहीं कृषि उपकरणों के न्यूनतम इस्तेमाल से बहुत से हाथों को रोज़गार भी मिल सकता है।
गोहत्या के प्रश्न पर धार्मिक आधार पर सोचा जाना तो अवश्य ही विचारणीय है किन्तु इसके साथ इसे राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दे की तरह देखा जाना और भी अधिक ज़रूरी और हमारे लिए हितकर है।
जनसंख्या का मुद्दा भी ऐसा ही है जिसे धर्म से अलग कर राष्ट्रहित में क्या है इस आधार पर देखा जाना चाहिए।संलग्न विडिओ में मौलाना मुफ्ती साहब तर्क कर रहे हैं कि जनसंख्या नियंत्रण के बजाय विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए। ज़ाहिर है वे मुस्लिम समाज को जनसंख्या-नियंत्रण करने के लिए राज़ी नहीं कर सकते।  बल्कि उनका छिपा एजेंडा तो यही है कि मुसलमान अपनी आबादी बढ़ाते रहें। और वे कह रहे हैं कि प्रगति (development) होने पर ही लोग जनसंख्या पर नियंत्रण करने लगेंगे। यह तर्क कितना हास्यास्पद है ! दूसरी तरफ यद्यपि गरीबी का अर्थशास्त्र भी एक हद तक इसे सही मानता है क्योंकि समृद्ध (और प्रगतिशील) होने पर मनुष्य 'मनोंरंजन' के दूसरे तरीकों को अपनाने लगता है, क्योंकि गरीब के पास तो 'मनोंरंजन' का यही एक साधन होता है।
इसलिए मुसलमान गरीब हो या अमीर, चार शादियाँ कर सकता है, दर्ज़न भर बच्चे पैदा कर सकता है और हिन्दू एक से अधिक शादी करने पर जेल जाता है । 
इस प्रकार भारत में मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ती जा रही है जिसका कारण है क़ानून अन्यायपूर्ण होना ।
जब भारत-विभाजन हुआ था, क्या उसी समय क़ानून द्वारा इस विसंगति और भेदभाव को दूर कर दिया जाना ज़रूरी नहीं था ? अब समस्या बहुत ही विकराल हो चुकी है जिसका प्रमुख कारण स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद से जारी 'तुष्टिकरण' और वोट-बैंक की राजनीति है।
 राष्ट्र के हित में क्या यही उचित न होगा कि अब भी हम राजनीति की इस कुटिलता को समझ सकें?
अवश्य ही कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि किसी भी नागरिक के लिए उसके होनेवाले बच्चों की अधिकतम संख्या तय कर दी जाए और जिसे सभी धर्मों के लोगों पर कड़ाई से लगाया जाए ?        
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June 20, 2019

Walk, Walk, walk ...& Talk, Talk, Talk

चरैवेति-चरैवेति 
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श्री राजीव दीक्षित जी का विडिओ।
अभी लीची को जिसका संभावित कारण बतलाया जा रहा है,
बिहार में फैले उस
चमकी बुख़ार (acute encephalitis syndrome) 
के इलाज़ के लिए शायद यह काम आ सके।
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तुलसी, Ocimum-Basilicum (?),
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तरीका:
श्याम तुलसी का काढ़ा बनाएँ।
उसमें थोड़ी नीम-चढ़ी गिलोय डाल दें।
थोड़ी सोंठ भी मिला दें।
और थोड़ी छोटी पीपर / पिप्पल भी।
यह काढ़ा बहुत कडुआ होता है, इसलिए इसमें थोड़ा सा गुड़ भी मिला दीजिए।
एलोपैथिक इलाज़ के जो खतरे हैं, उनका वर्णन श्री राजीव भाई ने विस्तार से किया ही है।
यह पोस्ट सिर्फ जानकारी के लिए है, प्रचार या विज्ञापन के लिए नहीं।
कोई भी प्रयोग करने से पहले पूरी सावधानी से अपनी जिम्मेदारी पर ही करें।
विडिओ में कहा गया है कि उपरोक्त ओषधि किसी भी प्रकार के ज्वर के उपचार के लिए लाभप्रद है।
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होम्योपैथी में Ocimum x 200 भी यही कार्य कर सकता है किन्तु उसमें सिर्फ तुलसी होती है।   
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'वर्णसाम्य' तथा 'अर्थसाम्य'

गंगा-जमनी तहज़ीब 
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हिज़्ब अरबी भाषा का शब्द है या नहीं मैं नहीं जानता, लेकिन ऑक्सफ़ोर्ड हिंदी-इंग्लिश-डिक्शनरी के अनुसार तहज़ीब शब्द फ़ारसी से हिंदी में आया है। महफ़िल अरबी भाषा का शब्द है। महफूज़, महज़ भी अरबी भाषा से हिंदी में आए हैं। अरबी से हफ़ीज़, हाफ़िज़, मुहाफ़िज़, महफूज़, हिफ़ाज़त कैसे बने हैं इसका अनुमान लगाया जा सकता है।  मुझे अरबी लिपि का ज्ञान नहीं है, उर्दू (लिपि) से भी मैं लगभग अनभिज्ञ हूँ। लेकिन अरबी भाषा का हिजरत (exodus) शब्द है, जो मूलतः अलगाव या पलायन के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है।  'हिजरी' सम्वत् का प्रारंभ इसी 'हिजरत' से हुआ था। इसी हिजरत से निष्पन्न 'मुहाजिर' उसके लिए प्रयुक्त होता है जो बाहर से आया है। हिंदी में प्रवासी का अर्थ है, जो कुछ तय समय के लिए कहीं आता-जाता रहता है। आप्रवासी का अर्थ है जो प्रवास करने के बाद बाहर कहीं स्थायी रूप से बस गया है।
संस्कृत में 'उर्द्' धातु (भ्वादिगण,  माने -- मानं परिणामं च एवं क्रीड़ायां) अर्थात् तुलना और संकेत करने,  तथा
खेलने / व्यवहार के अर्थ में प्रयुक्त होती है। 'उर्दू' के उद्भव के जो ऐतिहासिक कारण बतलाए जाते हैं वे केवल इस सरल से तथ्य पर पर्दा डालने के लिए प्रस्तुत किए जाते हैं। यह स्पष्ट है कि बाहर से आए अरबी, तुर्क, फ़ारसी, मंगोल, उज़बेक आक्रमणकारी अतिथियों से संपर्क-भाषा के रूप में जो भाषा अस्तित्व में आई उसे ही 'उर्दू' का नाम मिला।     
'मह' और 'पीलु' दोनों संस्कृत के शब्द हैं जिनसे अंग्रेज़ी और दूसरी यूरोपीय भाषाओं के अनेक शब्द बने हैं 'वर्णसाम्य' तथा 'अर्थसाम्य' के द्वारा जिनके संस्कृत से उद्भव की पुष्टि की जा सकती है। संस्कृत में मेघ, मघवा, मघवन् आदि इंद्र के लिए प्रयुक्त शब्द हैं। Mega, Metric, Meta, तथा Max इसी के सज्ञात / सज्ञाति cognate हैं, यह स्वीकार करना मुश्किल नहीं है। महफ़िल भी इसी प्रकार से बना शब्द है।  
'पीलु' से पीलुस्थान (वर्तमान फ़लस्तीन) और ग्रीक भाषा के शब्द 'phil' की उत्पत्ति हुई जो उपसर्ग (suffix) की तरह फिलोसॉफी / फ़लसफ़ा  और अनेक यूरोपीय भाषाओं में भी पाए जाते हैं।  Philosophy, Philology, Philanthropy, Philharmonic, Philanderer, King Philip, सभी से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
हिजाब और मजहब दोनों शब्दों का अर्थ होता है आचरण करने का तरीका (विधि / विधान) जिसे पर्यायतः किन्तु सीमित अर्थ में शायद 'धर्म' कहा जा सकता है, किन्तु 'धर्म' के व्यापक वैदिक, सनातन-धर्म के अर्थ में यह उससे बहुत भिन्न हो सकता है।
तमाम मजहबों (religions) में टकराहट और परस्पर वैमनस्य इसीलिए हैं क्योंकि न तो मजहब और न religion धर्म के उपयुक्त पर्याय हो सकते हैं। धर्म-निरपेक्षता / Secularism इसीलिए एक भ्रामक शब्द है जिसे हर कोई अपने ढंग से परिभाषित करता है।
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गंगा को भगीरथ स्वर्ग से धरती पर लाये तो वह भगवान शंकर की जटाओं में रास्ता भूल गयी।
गंगा वास्तव में सतोगुणी देवता-तत्व है, जबकि यमुना सूर्यपुत्री है जिसका जन्म सूर्यपत्नी 'संज्ञा' से हुआ।
भगवान सूर्य से ही मृत्यु (के देवता यमराज) का जन्म हुआ।  तात्पर्य यह कि गंगा का आधिदैविक स्वरूप पुण्यप्रद है जबकि आधिभौतिक स्वरूप जल-तत्व है और उस रूप में वह यमुना जैसी ही एक नदी है, जिसका उद्गम हिमालय से होता है।
चूँकि यमराज तमोगुण-प्रधान हैं और यमुना रजोगुण-प्रधान, ये दोनों भाई-बहन क्रमशः तमोगुण तथा रजोगुण से प्रवृत्त हैं और इसी प्रकार इनके प्रभाव से दोनों ही धरती पर प्रजा को नियम से परिचालित करते हैं।
गंगा-जमनी तहज़ीब में इसलिए अनेक विरोधाभास और विडंबनाएँ होना आश्चर्य नहीं है।
'उर्दू' उसी तहज़ीब का असर है और यदि हम इसे देवनागरी में लिखने लगें तो इसकी शक्ति अनेक गुना बढ़ जाएगी और जैसे सभी नदियाँ बहते बहते स्वयं ही स्वयं को शुद्ध और स्वच्छ करती रहती हैं, भाषाएँ भी इस प्रकार अधिक समृद्ध और सामर्थ्यवान हो सकती हैं।
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June 16, 2019

अजनबी हर दिल अज़ीज़

आज की कविता 
दौरे-मोबाइल
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हर मरीज़ अब चाराग़र हो गया है,
लगाकर 'आला' सुनता है कानों से,
दिल की धड़कनें, दूसरे मरीज़ों की,
हर हकीम अब मरीज़ हो गया है !
जाँचता है सपने, बाँटता है तसव्वुर,
ख़याल, तस्वीरें, ग़म, मुस्कुराहटें, 
देखता है पर्दे पे चेहरे, मरीज़ों के,
सुना करता है शिकवे, शिकायतें, ग़िला,
अजनबी हर दिल अज़ीज़ अब हो गया है !
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देवास, 16 / 06 / 2019  

ईश्वर और ईशिता

पितृ-सत्ता / Male-Chauvinism 
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आज का गूगल-डूडल Father's Day को समर्पित है।
बुद्धिजीवी इस पर अथक बहस कर सकते हैं और उसे मनचाही दिशा में मोड़ सकते हैं कि भारत में कैसे पितृ-सत्तात्मक समाज में स्त्री को संपत्ति / गुलाम समझा जाता था :
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति।।
(मनुस्मृति 9 :3)
इस बारे में यूरोप (और आज का अमेरिका) के, - चाहे वे पूँजीवादी / साम्यवादी / नास्तिक या ईसाई मत के विभिन्न सम्प्रदाय हों, प्रगतिशील होने की दुन्दुभी बजाते नहीं थकते।
लेकिन Father's Day के दिन का इतिहास उतना ही पुराना है जिस दिन 'ईश्वर' / God को महान और संसार का सर्वशक्तिमान परम पिता कहकर उसके 'एक' होने को परम सत्य स्वीकार किया गया।
इस प्रकार सांख्य-सिद्धान्त में जिसका उल्लेख तक करने से कपिल-मुनि बचते रहे, बेचारा वही 'पुरुष' 'एक' और 'पिता' होने तक सीमित होकर रह गया।
वेदों में उस परमेश्वर को 'ईशिता' अर्थात् स्वामित्व का अधिकार कहा गया है, जो ईश्वर का 'गुण' और उपाधि है।ऋग्वेद में उसे इसलिए उसके कार्य के अनुसार, 'एक' भी, अनेक भी, शून्य भी, अशून्य भी, व्यक्ति भी, स्त्री भी, पुरुष भी, यहाँ तक कि नपुंसक (लिङ्ग) भी, आनन्द एवं अनानन्द भी, विज्ञान तथा अविज्ञान दोनों, ब्रह्म व अब्रह्म, या ब्रह्मा तथा ब्रह्माणी (सरस्वती, सृष्टिकर्ता की वह विद्या जिसके माध्यम से वह सृष्टि करता है) भी, तथा समष्टि (ब्रह्म) भी कहा गया है। उससे ही प्रकृति-पुरुषात्मक जगत है।
[By the way here we can see a brief reference to Abraham / इब्राहीम, the core-elements of Western Religions]
जिस प्रकार शक्कर से मिठास को अलग नहीं किया जा सकता अर्थात् यदि मिठास है तो शक्कर भी होगी ही, तथा इसी प्रकार यदि शक्कर है तो मिठास भी होगी ही, वैसे ही 'ईश्वर' नामक उस परम सत्ता को 'ईशिता' से पृथक नहीं किया जा सकता। 
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ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति।।१।।  
साब्रवीत -- अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृति-पुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।।२।। 
अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि।  अहमखिलं जगत्।।३।।
वेदोऽहमवेदोऽहं।  विद्याह्मविद्याहम्।  अजाहमनजाहम्। अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्।।४।।
(ऋग्वेद १०/०८/१२५)
अहं रुद्रेभिभिर्वसुभिश्चरामि। अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ।।५।।          
(देव्यथर्वशीर्षम्) 
क्या हमें Father's Day, Mother's Day, Women's Day जैसे दिन अलग से भी मनाना चाहिए?
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June 10, 2019

किताबे-हक़ीक़त

डॉ. आरिफ़ मोहम्मद खान
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क़िश्ती भी नहीं बदली, दरिया भी नहीं बदला,
हम डूबनेवालों का जज़्बा भी नहीं बदला !
है शौक़े-सफ़र ऐसा, इक उम्र हुई हमने,
मंज़िल भी नहीं पाई, रस्ता भी नहीं बदला,
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सूर्य-सिद्धान्त, काफ़िराना-उलूम , कौटिल्य-बुक्स  

June 09, 2019

वज़ीर / फ़क़ीर

छोटी लकीर : बड़ी लकीर
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छोटी लकीरों के फ़क़ीर,
हमेशा ही, चलते रहते हैं
लकीर के इस सिरे से,
दूसरे सिरे तक ।
पेन्डुलम जैसे,
जैसे हुआ करती है,
मुल्ला की दौड़ मस्ज़िद तक,
बड़ी नज़ीरों के वज़ीर,
चलते हैं बिसात पर,
कभी छोटी या लम्बी,
सीधी या टेढ़ी चालें ।
कभी छोटी लकीरें,
बनकर के दायरा छोटा,
सिमटकर खो भी जाती हैं,
कभी मिल जाती हैं,
अपने से बड़े दायरे में,
जैसे कि कोई बड़ी मछली,
लील जाती है,
छोटी मछलियों को,
और कभी अकेली ही,
कर दिया करती हैं,
पूरा ही तालाब गन्दा ।
राजनीति, कभी तो राज-पाट है,
कभी घात-प्रतिघात है,
सृजन का उल्लास है,
या ध्वंस का उन्माद है ।
एक छिछला तालाब है,
या शतरंज की बिसात है ।
वज़ीर भी फ़क़ीर हुआ करते हैं,
फ़क़ीर भी वज़ीर हुआ करते हैं,
सवाल है सिर्फ़ उन लकीरों का,
जो दायरे या मिसाल हुआ करते हैं ।
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कविता आज की,
('आज तक' / 'भारत तक' पर श्वेता सिंह से श्री रविशंकर प्रसाद की बातचीत देखते-सुनते हुए .....)   

June 08, 2019

हसरतों का हश्र

आठ पंक्तियाँ 
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हसरतों का हश्र ये होगा नहीं मालूम था,
क़सरतों की क़सर कहाँ कम पड़ गयी,
आरज़ूओं की देते रहे हम अर्ज़ियाँ,
ख़्वाहिशें सब ख़्वाब बनकर रह गईं।
मर्ज़ की इस तर्ज़ की तरज़ीह थी,
हर्ज़ का हर्ज़ाना भी हम देते रहे,
देना न देना था मगर मर्ज़ी उसकी,
रेत पर कुछ नाव यूँ खेते रहे।
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June 05, 2019

दुःख : जो नहीं था / है / नहीं है

उस शहर में 
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वह शहर मैंने 19 मार्च 2016 को छोड़ा था।
18 मार्च को एकाएक तय किया / हुआ।
19 मार्च की शाम को वहाँ से चला और उसी रात साढ़े नौ बजे केवटग्राम पहुँचा। 
5 अगस्त 2016 की सुबह 10:30 पर केवटग्राम छोड़ा और दोपहर 1:00 बजे यहाँ (देवास) आ गया।
उस शहर में मेरे निवास-स्थल (महाशक्तिनगर) के पीछे स्थित एक कॉलोनी में वे रहते हैं।
किसी सरकारी विभाग में कार्यरत थे और किन्हीं परिस्थितियों में उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी।
मैंने कभी उनसे पूछा नहीं।  पूछना ठीक नहीं लगा।
बहरहाल वे मधुबन कॉलोनी के उस मकान में रहते हैं जहाँ उन्होंने पिछले बीस वर्षों में खून-पसीने से सींचकर दुर्लभ आयर्वेदिक वनस्पतियों का एक उपवन निर्मित किया। स्वाभाविक है कि वह उन्हें प्राणों से भी ज़्यादा प्रिय था। लेकिन दुष्टों की नज़र उस भूमि पर पड़ गयी और अनेक षड्यंत्र रचे जाने के बाद कुछ माह पहले उन लोगों की जीत हुई।  वन-विभाग, पर्यावरण-विभाग, दूसरे सरकारी विभागों में की गयी उनकी प्रार्थनाओं का कोई असर नहीं पड़ा। जे.सी.बी. मशीन लाकर उनके उस उपवन को जमींदोज़ कर दिया गया तो वहाँ सौ-पचास कारें पार्क करने की जगह निकल आई। और वह भी शहर के बीच के उस महँगे location पर।
चार दिन पहले एकाएक उनका फ़ोन आया तो भूल से मैंने उनके उपवन के बारे में पूछ लिया।
उनकी आवाज़ बदल गयी।  आवाज़ में उनका दर्द छलक आया। संक्षेप में पूरी कहानी सुनाई।
बहुत पहले मेरा उनसे परिचय तब हुआ था जब वे मेरी किताब (अहं ब्रह्मास्मि) लेने के लिए मेरे पास आए थे। चूँकि वे मुझे बहुत मानते हैं इसलिए कभी-कभी उनसे आध्यात्मिक महत्त्व की बातें करने का साहस मैं कर बैठता हूँ ।  मैंने उनकी पूरी कहानी शांतिपूर्वक सुनने के बाद पूछा :
"चतुर्वेदी जी ! आप इतने दुःखी क्यों हैं?"
"अब वह उपवन नहीं रहा, इसलिए।"
उन्होंनें लगभग रोते-रोते  कहा।
लगभग दस सेकंड हम दोनों ही मौन रहे।
"बुरा न समझें तो एक बात पूछ सकता हूँ?"
मैंने उनसे कहा।
"जी पूछिए !"
"क्या बीस साल पहले वह उपवन था?"
"नहीं जी, तब तो वहाँ खाली जमीन पड़ी थी, जो इस कॉलोनी के बनते समय से ही वैसी ही पडी थी, इसीलिए मेरे मन में वहाँ उपवन लगाने का विचार आया था, क्योंकि बचपन से ही मुझे पेड़-पौधों से बहुत लगाव था।"
"तो तब वहाँ उपवन भी नहीं रहा होगा।"
"ज़ाहिर है कि तब वहाँ उपवन कहाँ था ?"
"क्या तब उपवन के न होने का दुःख था?"
वे रोते-रोते अचानक हँसने भी लगे।
"फिर जब आज वह नहीं है तो उसके न होने का दुःख क्यों?"
"यह सही है, लेकिन मन जुड़ जाता है न !"
"हाँ, मुझे भी अफ़सोस है, लेकिन जीवन ऐसा ही है। क्या आपको मेरी बात बुरी लगी?"
वे जानते थे कि मैं उपदेश देने से क़तराता हूँ, और बावजूद तमाम संकोच के बस उनका दुःख बाँटना भर चाहता था।
"नहीं, आप ठीक कहते हैं, इसीलिए तो मैंने फोन किया था कि मेरा दुःख हल्का हो जाए। आपने तो मेरे सभी दुःख दूर कर दिए ! धन्यवाद !"
मैं नहीं सोचता कि उन्होंने व्यंग्य या कटुता से ऐसा कहा होगा।
"सॉरी ! मैंने आपको ठेस पहुँचाई !"
"नो सर ! आपने तो मेरी इतनी बड़ी सहायता की है, जिसकी मुझे कल्पना तक न थी।"
जब वे बहुत आत्मीयता से बातें करते, तो मुझे सर कहने लगते थे। 
उनकी आवाज़ में एक चमक थी। शायद यही चमक उनके आँसुओं में, और उनके चेहरे पर भी उस समय रही होगी। उनकी आवाज़ में एक महक थी जो शायद उन फूलों की थी, जो कभी उनके उपवन में खिले होंगे, और उपवन के रहने पर आगे भी खिल सकते थे।
- या ऐसा मुझे लगा।
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शिक्षा का कृषि-मॉडल

शिक्षा और कृषि के तत्व 
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शिक्षा और कृषि दो ऐसे उपक्रम हैं जो मनुष्य के सांस्कृतिक अस्तित्व की पहचान तय करते हैं।
जैसे कृषि के लिए हमें भूमि, जलवायु, परिस्थितियों और उपज की जानकारी होना ज़रूरी और उपयोगी है उसी प्रकार शिक्षा के लिए समाज, समाज के वातावरण, सामाजिक / राजनैतिक परिस्थितियों, और शिक्षा से हमें किस (हितग्राही) के लिए क्या उपलब्ध करना है, -अर्थात् शिक्षा का लक्ष्य और प्रयोजन जानना ज़रूरी है।
जैसे कृषि-कार्य में सबसे पहले भूमि को उपज / फसल की आवश्यकतानुसार तैयार किया जाना होता है, वैसे ही शिक्षा की बुनियाद जिन तत्वों पर सुनियोजित रीति से आधारित होना चाहिए उन विभिन्न तत्वों पर ध्यान देना ज़रूरी है। अभी तो स्थिति यह है कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था केवल रोज़गार उपलब्ध कराने पर केंद्रित है। बढ़ती जनसंख्या में जिस प्रकार की शिक्षा से हर व्यक्ति को रोज़गार मिले यही चिंता हमारी शिक्षा-व्यवस्था की मूल प्रेरणा है और उसे हम सर्वाधिक महत्त्व देते हैं।
स्पष्ट है कि प्रकृति से सामंजस्य के साथ रहने के लिए बढ़ती जनसंख्या सबसे बड़ी वैश्विक चुनौती है, जिसका सामना हमें पूरे मनुष्य-समाज को ध्यान में रखते हुए करना होगा, और यही हमारे राजनैतिक नेतृत्व की परीक्षा भी है जिससे लगभग हर राष्ट्र के राजनेता शायद अनभिज्ञ हैं, या जिसकी ओर से लापरवाह हैं। यही राजनीति का चरित्र है जिसके मूल में सभी के अपने-अपने निजी स्वार्थ और भय भी हैं।
राजनैतिक अस्थिरता, चाहे वह आन्तरिक राजनीतिक स्थितियों से पैदा होती हो, या दुनिया के तमाम देशों के बीच की टकराहट का परिणाम हो, हमें इस मूल प्रश्न की ओर ध्यान ही नहीं देने देती। मनुष्यों की सतत बढ़ती हुई जनसंख्या और संसाधनों की निरंतर घटती उपलब्धता, संसाधनों के बेतहाशा अपव्यय, अपक्षय, और विनाश (degeneration and destruction) पर हमारा ध्यान ही कहाँ है?
यह भी महत्वपूर्ण है कि जैसे कृषि के लिए भूमि को तैयार करने में पहले हानिकारक खर-पतवार और अवांछित घातक कारकों को दूर करना आवश्यक रूप से ज़रूरी होता है, वैसे ही शिक्षा के संस्थानों को भी उन सभी क्षति-प्रद  कारकों और तत्वों से मुक्त किया जाना ज़रूरी है, जो शिक्षा से प्राप्त किए जानेवाले हमारे अपेक्षित लक्ष्य में बाधक हैं, या  जिनसे हमारी शिक्षा की गतिविधि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
यह एक आश्चर्यजनक संयोग मात्र नहीं है कि पूरे संसार में शिक्षा का जितना संबंध तथाकथित 'धर्म' से रहा है, उतना ही राजनीति से भी रहा है। मूलतः संस्कृत भाषा में जिसे 'धर्म' कहा जाता है उसके लिए किसी दूसरी भाषा में ऐसा कोई समानार्थी शब्द शायद है ही नहीं, जो इसके वैदिक तात्पर्य को ठीक-ठीक व्यक्त कर सके।
अंग्रेज़ी भाषा में प्रचलित शब्द  'religion' संस्कृत की 'लग्' धातु से बने अनेक शब्दों में से ही एक है। 'लग्' धातु (stem) इतनी सार्वत्रिक (ubiquitous) है कि इससे leg, legal, lug, log, logistic, log-in, ligature, legitimate / legitimacy, illegal, delegate, relegate, religion जैसे शब्द बने जिनमें से relegate (-to) का प्रयोग किसी तत्व, वस्तु, विधि या सिद्धांत का उसके मूल स्वरूप से विरूपण करने, बिगाड़ने, उसके गुण-क्षरण (dilution) के अर्थ में किया जाता है।  इस प्रकार religion; - वास्तव में 'धर्म' से बहुत भिन्न और कभी-कभी बिलकुल विपरीत स्थापित और प्रचलित हुई उन परंपराओं, रूढ़ियों और मतों, धारणाओं, विश्वासों को दिया गया नाम है जिन्हें  समाज के विभिन्न समुदायों ने अपनी अस्मिता की पहचान बना लिया। इसलिए यह अनुमान अवश्य किया जा सकता है कि उन तमाम परंपराओं, रूढ़ियों और मतों, धारणाओं, विश्वासों में 'धर्म' का कुछ अंश तो अवश्य हो सकता है, किन्तु इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनमें से कुछ वास्तविक 'धर्म' की न सिर्फ विरोधी ही, बल्कि अधर्म या विधर्म पर ही आधारित हैं। यद्यपि उनमें से प्रत्येक परंपरा, रूढ़ि, और मत, धारणा और विशवास / आस्था की संभवतः कोई आध्यात्म-परक व्याख्या भी की जा सकती है, इसलिए यह लगता है कि 'सब धर्म एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं,' लेकिन व्यावहारिक रूप में इस व्याख्या से उनके बीच विद्यमान वैमनस्य और विद्वेष, विरोध और पारस्परिक असहिष्णुता तथा अविश्वास दूर नहीं होता।
यह है धर्म का वह 'राजनीतिक' पक्ष जो लोभ-भय से प्रेरित होकर शिक्षा को भी अपने लाभ के लिए औज़ार के रूप में प्रयुक्त करता है। और यही हालत पूरे विश्व में है।
इसलिए रोज़गार-परक शिक्षा देना शिक्षा के प्रश्न का एक प्रमुख पहलू तो हो सकता है लेकिन वह इस चुनौती का सक्षम ज़वाब नहीं है कि सबको रोज़गार मिल जाना ही दूसरी अनेक समस्याओं का निदान और हल / समाधान है।
उन दूसरी अनेक समस्याओं में विभिन्न देशों की भौगौलिक-राजनीतिक और पारस्परिक मैत्री, शत्रुता, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों की स्थितियाँ भी हैं, जिन पर हमारा ध्यान किसी वजह से निष्पक्ष, न्यायपूर्ण नहीं होता।
विकास के नाम पर भौतिक-उन्नति के आग्रह में हम उन तमाम स्थितियों को निरंतर पैदा कर रहे हैं जो अंततः मनुष्य-जाति का और पृथ्वी से 'जीवन' का ही विनाश करने जा रही हैं । शायद आज की स्थिति में वे हमें एकमात्र 'हल' या आवश्यकता भी दिखाई देतीं हों, किन्तु दीर्घ-काल में तो उनका यही परिणाम होना है।
विज्ञान, तकनीक और मुद्रा (अर्थशास्त्र) अपने-आपमें हमें किसी हद तक 'सुखी' बना सकते हैं किन्तु 'सुख' तथा 'दुःख' भी मानसिक प्रकार की वस्तुएँ हैं न कि विशुद्धतः 'भौतिक' वस्तुएँ। और जब तक मनुष्य का मन भय और लोभ से ग्रस्त रहता है ऐसा 'सुख' न तो स्थायी और न ही 'प्राप्य' भी है। विज्ञान, तकनीक और मुद्रा का परस्पर विनिमय (exchange) किया जा सकता है लेकिन  'सुख' तथा 'दुःख', लोभ तथा भय का ऐसा विनिमय संभव नहीं है। शिक्षा भी एक प्रकार का विनिमय है; - तकनीक, विचार, भावना, बुद्धि या विवेक (intelligence) का।    
यदि और जब तक, शिक्षा हमारे सामूहिक-मन से भय और लोभ का उन्मूलन नहीं करती तब तक किसी भी प्रकार की तथाकथित 'धार्मिक'-शिक्षा हमारे लिए कोई अर्थ नहीं रखती। न तो वैयक्तिक और न सामूहिक सुख अथवा दुःख कहीं होते हैं।  वे बस अमूर्त और अस्थिर धारणाएँ / मान्यताएँ (abstract notions) भर होते हैं, जो व्यक्ति-मन और समूह-मन के स्तर पर मनुष्य-मात्र की चिंता अर्थात् चुनौती हैं।  और यह चुनौती आज की ही नहीं, हमेशा ही रहनेवाली चुनौती भी है।
एक अत्यंत रोचक तथ्य और विडम्बना यह भी है कि युद्ध की शिक्षा ही नहीं बल्कि उसका प्रशिक्षण भी हमारी शिक्षा-नीति और हमारे सामूहिक अस्तित्व का एक प्रबल पक्ष है। यह समझना कठिन है कि इस पर रोया या हँसा जाए !
जब तक हमारी मानसिकता इतनी विकसित और परिपक्व न हो जाए, कि इस चुनौती को ठीक से समझकर इसका सम्यक् प्रत्युत्तर दे सके, तब तक किसी प्रकार की दूसरी शिक्षा तात्कालिक उपयोग की दृष्टि से ज़रूरी भले ही हो, इस चुनौती से पलायन का ही केवल एक और प्रकार-मात्र  है।
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शिक्षा एक चुनौती, शिक्षा-प्रसंग 
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