October 24, 2018

भगवाकरण / Saffronization / काश्मीरीकरण

प्रसंगवश
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"Saffronization / भगवाकरण" इस शब्द का प्रयोग हिन्दूवादी-संगठनों के विरोधी अपने राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए इस प्रकार करते हैं जिससे लगता है जैसे कि "Saffronization / भगवाकरण" के पक्षधर हिन्दुत्ववादी दृष्टिकोण देश पर और जनता पर बलपूर्वक लादना चाहते हों।
काश्मीर की वर्त्तमान स्थिति जो नेहरूजी के समय से बिगड़ते-बिगड़ते यहाँ तक आ चुकी है कि अलगाववादी ताकतों ने काश्मीरियत के मुद्दे को भुलाकर भारत को तोड़ने के लक्ष्य को मूल मुद्दा बना दिया है।
किंतु काश्मीर और भारत कैसे एक दूसरे से अभिन्न हैं इसे समझने के लिए यदि हम आदिशंकराचार्य रचित "आनन्दलहरी" के प्रथम तीन श्लोकों को स्मरण करें तो  "Saffronization / भगवाकरण" का वास्तविक अर्थ समझना आसान हो जाता है और तब भारत का "Saffronization / भगवाकरण" किया जाना संभवतः हमारे लिए गर्व का विषय होगा।
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  आनन्दलहरी (श्रीशङ्कराचार्यकृता)
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भवानि स्तोतुं त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदनैः
प्रजानामीशानस्त्रिपुरमथनः पञ्चभिरपि ।
न षड्भिः सेनानीर्दशशतमुखैरप्यहिपति-
स्तदान्येषां केषां कथय कथमस्मिन्नवसरः ॥१
घृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमा कैरपिपदै-
विशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्रविषयः ।
तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदृङ्मात्रविषयः
कथङ्कारं ब्रूमः सकलनिगमागोचरगुणे ॥२
मुक्घे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता ।
स्फुरत्काञ्चीशाटी पृथुकटितटे हाटकमयी
भजामि त्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम् ॥३
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प्रस्तुत स्तवन माता पार्वती की स्तुति में रचा गया है। विचारणीय है कि श्रीशंकराचार्य जिनका जन्म कालडी नामक स्थान पर, दक्षिण भारत के वर्त्तमान केरल राज्य में हुआ था।  तथापि भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का ऐतिहासिक प्रमाण इससे बढ़कर क्या हो सकता है कि उन्होंने भारत राष्ट्र को एक सूत्र में  बांधते हुए सनातन धर्म के न सिर्फ चार मठों की स्थापना की, बल्कि अनेक संस्कृत रचनाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति और दर्शन को पुनरुज्जीवित किया और सशक्त तथा दृढ आधार प्रदान किया।
नगपतिकिशोरी पार्वती का नाम है जो हिमालय की पुत्री हैं।
"ललाटे काश्मीरं" में उन्होंने न केवल माता पार्वती के ललाट पर राजित केसर / केशर को प्रतीकार्थक रूप में भारत माता के मस्तक के रूप में चित्रित किया, बल्कि काश्मीर का भारत के लिए क्या महत्त्व है यह भी दर्शाया।
काश्मीर की संस्कृति और इतिहास को भारत के सन्दर्भ में देखें तो लल्लेश्वरी या लल्ल-दय्द (1320-1392)  को कैसे भुलाया जा सकता है जो ललिता अर्थात् पार्वती के संस्कृत नाम का काश्मीरीकरण / Saffronization है।
इस प्रकार माता पार्वती का ही एक रूप इस भक्त-कवियित्री के रूप में धरा पर अवतरित हुआ ऐसा सोचना अनुचित न होगा।  'दय्द' संस्कृत 'दुहिता' अर्थात् 'पुत्री' का ही पर्याय है और जहाँ पार्वती / ललिता हिमालयपुत्री है, वहीं लल्ला भी हिमालयपुत्री ही है इसमें संदेह नहीं।
क्या तब भारत का "Saffronization / काश्मीरीकरण"  किया जाना प्रशंसनीय नहीं होगा?
लेकिन राजनीतिज्ञ सत्ता के लिए वोट, वोटों के लिए तुष्टिकरण, और तुष्टिकरण के लिए  "Saffronization / काश्मीरीकरण" को "भगवाकरण" कहकर हिंदुत्व का मज़ाक तो उड़ाते ही हैं, भारत और हिंदुत्व के प्रति अपने विद्वेष का प्रदर्शन भी करते हैं।
समय आ गया है कि "Saffronization / काश्मीरीकरण" को एक  तमग़े / ताम्रक की तरह गर्व से अपने सीने पर टांका जाये।  यह स्वाभिमान की बात है न कि उपहास, अपमान या निंदा की। 
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October 23, 2018

आपकी जय हो !!

आशीर्वाद !
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करीब चार महीने पहले संस्कृत वाल्मीकि-रामायण को  पूरा पढ़ा।
इससे पहले स्वामी विद्यारण्य रचित पञ्चदशी को हाथ से लिखा (कॉपी किया)
मूल संस्कृत ग्रंथों के साथ दिक्कत यह है कि पढ़ते समय यह समझना कठिन होता है कि वास्तव में जो असमंजस है, वह प्रिंटिंग-इरर है, या मूलतः इरर है ही नहीं और मेरे संस्कृत के ज्ञान की खामी से मुझे इरर लग रही है।
मैं जब किसी संस्कृत (या मराठी / अंग्रेज़ी ) ग्रन्थ को पढ़ता हूँ तो मेरे पास उपलब्ध सारे शब्द-कोष, व्याकरण आदि को सामने रखता हूँ। संस्कृत / मराठी / अंग्रेज़ी व्याकरण का कामचलाऊ ज्ञान तो मेरे पास है किंतु अपने उस ज्ञान के प्रामाणिक होने का मुझे भरोसा नहीं।
कंप्यूटर पर सीधे लिखने / typeset करने में और अधिक भूल होने की संभावना होने से 'लिखना' ही सर्वाधिक सही लगता है।
ऐसे ही उपरोक्त दो ग्रंथों के अनुशीलन के समय 'आशी' शब्द को समझने का मौक़ा मिला।
संस्कृत में यह शब्द 'आ' उपसर्ग के साथ  'शी' -- 'शेते' अर्थात् 'सोता है' के अर्थ से युक्त होने पर आशय अर्थात् भाव / भावना का पर्याय होता है। इस प्रकार 'आशी' का तात्पर्य 'स्वस्ति' / मंगल / कल्याणप्रद होता है।
यह देखना रोचक है कि संस्कृत व्याकरण में आशीर्लिङ् दस लकारों में से एक 'लकार' / tense है।  इसी से मिलता जुलता है 'विधिलिङ्' जो विधि / सही तरीके या रीति के संकेत के लिए प्रयुक्त होता है।
व्याकरण के अपने अध्ययन में मैंने अनुभव किया कि जहाँ प्रायः किसी भाषा का व्याकरण उसके प्रचलित रूप के अनुसार विविध नियमों को संकलित कर निर्मित किया जाता है, संस्कृत में इससे बहुत भिन्न रीति से शब्द अर्थात् ध्वनिशास्त्र (Phonetics) के आधार पर ध्वनि-संकेतों के वर्ण-समुच्चय से एक या एक से अधिक ध्वनियों के संयोग से बने शब्द (word) से कोई 'अर्थ' ज्ञात / सिद्ध किया जाता है, जो भिन्न-भिन्न सन्दर्भों और प्रसंगों के साथ भिन्न-भिन्न तात्पर्य देता है।
इस प्रकार संस्कृत भाषा को शुद्ध कर बनाई गयी भाषा है यह सोचना पूरी तरह सही नहीं है।
इसलिए यह प्रश्न ही व्यर्थ हो जाता है कि कोई भाषा संस्कृत से व्युत्पन्न (derived) है या संस्कृत किसी अन्य भाषा से व्युत्पन्न (derived) है।
'आशी' का एक अन्य अर्थ, 'अश्' धातु से बननेवाले शब्द आशी के रूप में सर्पदन्त के लिए प्रयोग होता है:
आशी  -- आश्यां  विषं यस्य; सर्प का दाँत।
आशी तालुगता दंष्टा तथा विद्धो न जीवति :
साँप के दाँत से जिसे डसा गया हो, वह जीवित नहीं रहता। 
'आशीर्वाद' के बारे में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आशीर्वाद देने / लेने का अधिकार तथा पात्रता होने पर ही उसका कोई मतलब होता है, वरना वह सिर्फ औपचारिकता होता है। 
इसलिए आशीर्वाद कभी-कभी 'शाप' भी हो जाता है।
शाप शब्द भी उसी 'शप्' धातु से बना है जिसमें 'प्' प्रत्यय 'श' के बाद लगने पर तिरोधान-सूचक 'इत्'-संज्ञक है :
तस्येतो लोपसंज्ञकः (हलन्त्यम् -- अष्टाध्यायी --१ / ३ / ३,
उपरोक्त उदाहरण यह समझने के लिए भी सहायक है कि क्यों संस्कृत का व्याकरण, अन्य भाषाओं की तरह  प्रचलित नियमों (conventions) के संकलन के आधार से नहीं, बल्कि मूलतः किसी अन्य रीति से 'उद्घाटित' / सिद्ध किया गया है।
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और यह भी मज़ेदार बात है कि हम प्रायः भगवान से आशीर्वाद माँगते तो हैं उन्हें आशीर्वाद देते भी रहते हैं !
आपकी जय हो !
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October 13, 2018

कब होगी?

इस रात की सुबह ....
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पूरब में 'तितली' पंख फड़फड़ाती है,
सागर से बीस-बीस फुट ऊँची लहरें,
कर देती हैं, 'नई' सभ्यता को तबाह,
ध्वंस का उल्लास नहीं बख्शता है,
किसी ऊँची इमारत को, टॉवर को,
'तितली' जानती है, कब बदला लेना,
बड़े-बड़े होर्डिंग्स, झूलते गिरते हैं,
और हवा का ताण्डव, उलट देता है,
सजावटी चेहरों पर चढ़ी नक़ाब ,
मी टू, यू टू, दे टू, ही टू, वी ऑल,
दौड़ते हैं ढूँढते हैं, छिपने की जगह,
तितली नहीं पता कितनी नाज़ुक है,
उसके पंखों के वार कितने कातिल हैं,
उड़ते उड़ते ही बिखेर देगी टुकड़े टुकड़े,
उड़ा देगी धज्जियाँ, लिपे पुते चेहरों की,
कुछ इस तरह कि न पहचान सकेंगे,
और न दिखा सकेंगे, किसी को भी,   
मी टू, यू टू, दे टू, ही टू, वी ऑल,
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'ध्वंस का उल्लास' 

October 08, 2018

शुक्रिया सभी का !

किसी समय मई 2016 में, एक ही दिन करीब 576 पाठकों ने मेरा यह ब्लॉग देखा था।
दो दिन पहले दिनांक 06-10-2018  को करीब 300 पाठकों ने मेरा यह ब्लॉग देखा था।
यह मेरा एक दिन का अधिकतम 'व्यूकाउन्ट' है।
प्रायः तो यह आँकड़ा दहाई की हद में होता है।
वैसे मैं अपनी पोस्ट्स बहुत कम 'शेयर' करता हूँ और वह भी केवल G + पर ही और इसलिए आश्चर्य होता है कि कौन अचानक कभी-कभी मेरे ब्लॉग पर नज़रें इनायत करते हैं।
बहरहाल शुक्रिया सभी का !
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October 06, 2018

ज़िन्दगी मर्ज़ है इक लाइलाज,

निजात / कविता 
ज़िन्दगी मर्ज़ है इक लाइलाज,
नहीं है मौत भी दवा / निजात,
अगर यक़ीं है मज़हब-किताब पर,
हुआ फ़ज़ल तो नसीब होगी क़ब्र,
और फिर बस इंतज़ार करते रहना
ताक़यामत करवटें बदलते हुए,
फिर भी अंदेशा तो ये रहेगा ही,
फ़ैसला क्या होगा आख़री रोज़,
कैसा मुश्क़िल है सफ़र ज़िन्दगी,
मौत के बाद भी निजात नहीं,
इससे बेहतर तो शायद यह होगा,
जैसे हो इस दश्त से निकल आओ,
पता लगा लो कि कौन जीता है,
पता लगा लो कि मरता है कौन,
जब तलक वहम है अपने होने का,
तब तलक ज़िन्दगी रहेगी मर्ज़,
ये वहम भी टूट जाएगा जिस दिन,
मौत से पहले ही होगी निजात ।
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October 03, 2018

किसी राह में,

कविता / 03 -10 -2018
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किसी राह में,
राहत तो हो,
किसी चाह में,
चाहत तो हो,
किसी आह में,
आहट तो हो,
राहत न हो,
तो वो राह क्या,
चाहत न हो,
तो वो चाह क्या,
आहट न हो,
तो वो आह क्या,
किसी दर्द की कराह क्या,
सुनता हो कोई अगर,
देखती हो कोई नज़र,
मुमकिन है कि कराह का,
दिखाई दे कोई असर,
देखकर भी जो देखे न,
कैसा है वो हमसफ़र,
इस सफर में अगर,
ऐसा कोई साथ हो ....
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