January 06, 2018

ईश्वर की आत्म-कथा / कविता

ईश्वर की आत्म-कथा
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थका-थका सा उनींदा सा ये आदमी,
उचटी नींद से अभी ही जागा हो जैसे,
ये बोझिल-बोझिल सी आँखें उसकी,
स्वप्न तो नहीं, नींद का ख़ुमार है बाक़ी,
देखकर पल भर को आसपास अपने,
फिर से सो जाएगा, लौट जाएगा वहीं,
जहाँ से कोई ख़बर या चिट्ठी नहीं आती,   
थका-थका सा उनींदा सा ये आदमी,
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आहटें चैन से उसे सोने क्यों नहीं देती,
उसे क्या मिलना है यहाँ क्या खोना है,
क्या उसे चाहिए, क्यों उसे जगाते हो,
उसे जागना भी नहीं और ना जगाना है,
फ़लसफ़ा उसका है चैन से सोए हर कोई,
थका-थका सा उनींदा सा ये आदमी,
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तुम्हें जागने की हसरत या ज़रूरत हो,
जागना तुम्हारा फ़र्ज़ हो या मज़बूरी हो,
तो कहाँ रोकता टोकता है वह तुम्हें,
मत उसे छेड़ो नाहक चैन से सोने दो,     
थका-थका सा उनींदा सा ये आदमी,
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January 05, 2018

ग्रंथियाँ ! / कविता


ग्रंथियाँ ! / कविता
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ग्रंथियाँ गाँठ बन जाती हैं,
दिल में, ज़िस्म में रूह में भी,
दिल से ज़िस्म तक कभी,
दिल से रूह तक भी कभी,
वो जो बहा करता है दिल में,
खून सा, तो प्यार सा कभी,
एक अहसास सा ज़िस्मानी,
एक अहसास सा जो रूमानी,
एक अहसास सा जो रूहानी,
उसे बहने दो, रोको न उसे,
वर्ना बन जाया करती हैं गाँठें,
ज़िस्म में, रूह या अहसास में,
खून में, दिल में, जज़्बात में भी,
खून जम न जाए, पिघल जाए,
दिल न पत्थर हो, पिघल जाए,
गाँठ न बने उसको यूँ बहने दो,
आँसू, हँसी या कविता बनकर,
ग्रंथियाँ गाँठ, नासूर बनती हैं,
काव्य के ग्रंथ भी बनती हैं !
रस से बनने दो रसायन कोई,
रस को रसौली नहीं बनने दो,
खोल दो गाँठें सारी दिल की,
रस को स्वच्छन्द-छन्द बहने दो ।
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January 04, 2018

समय के कॆनवस पर बने चित्र

समय के कॆनवस पर बने चित्र
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जो तुम गढ़ रहे हो वो गढ़ा जा चुका है
जो मैं लिख रहा हूँ पढ़ा जा चुका है ।
बाद का समय, जिसे भविष्य कहा जाता है
अतीत का प्रतिबिंब है, काल्पनिक समय में !
जिसमें तुमने एक यंत्र की तरह गढ़ा था कभी,
जिसमें मैंने एक यंत्र की तरह लिखा था कभी,
जिसमें घटना का बना करता है पुनः प्रतिबिंब,
टूट जाते हैं बस वो तार जो थे कभी संपर्क-सूत्र,
बीच के समय में, इस वर्तमान के दर्पण में,
वही लगता है हुआ, होता, या कभी होएगा,
जो बस कल्पना है जिसमें युगों या कल्पों तक,
जो तुम गढ़ते रहे हो जो कि मैं लिखता रहा हूँ ।
जो तुम गढ़ रहे हो वो गढ़ा जा चुका है
जो मैं लिख रहा हूँ पढ़ा जा चुका है ।
हरेक चित्र जिसे चित्रकार बना ही चुका है,
जिसे समय की फ़्रेम में मढ़ा जा चुका है ।
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सेटिंग्स : कविता

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कुछ भी !
सेटिंग्स-1,
कैमरे का सेटिंग बदल देते ही,
दृश्य भी कुछ यूँ बदल जाता है
जो भी होता है उसके फ़ोकस में,
बस वही ख़ास नज़र आता है,
और वह सब जो नहीं है ख़ास,
नज़र से ओझल ही हो जाता है,
यही तो मंत्र भी है मीडिया का,
जिसे बदलाव की ज़रूरत है,
उसे ऑउट ऑफ़ फ़ोकस कर दो,
उस पे फ़ोकस करो कैमरे को,   
जो बदल दे दृश्य का मतलब,
बदलाव बस वही असली है,
और बस वही ज़रूरी भी है,
जो बदल दे देखने की नज़र,
बाकी बिल्कुल ग़ैर-ज़रूरी है !
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कुछ भी !
सेटिंग्स -2.
सबकी साक़ी पे नज़र हो ये तो ज़रूरी है मगर,
सब पे साक़ी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं,
रहो कैमरे की नज़र में ये तो ज़रूरी है मगर,
नज़र के फ़ोकस में भी रहो ये ज़रूरी तो नहीं,
इसलिए क़ोशिश ये करो जैसा तुम चाहो,
ख़ास बनना है तो बने रहो फ़ोकस में !
ख़ास तो बस हुआ करता है साक़ी,
पीनेवाला हर कोई हुआ करता है !
पीनेवाला ही जाम पिया करता है,
और वही यूँ आम हुआ करता है !
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January 03, 2018

रेल वाली लड़की

कविता
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शायद यह रोमांटिक है,
शायद नहीं,
क्योंकि ’रोमांटिक’ शब्द के अपने-अपने अलग-अलग शब्दार्थ होते हैं,
और ’रोमांटिक’ शब्द के अपने-अपने अलग-अलग भावार्थ भी ।
’रोमांस करने’ के,
और ’रोमांटिक’ होने के भी ।
यह इस पर भी निर्भर होता है जिससे आप ’रोमांस’ कर रहे हैं,
या, जिसके लिए आप ’रोमांटिक’ हो रहे हैं,
उसकी और आपकी उम्र के बीच कितना फ़ासला है,
और इस पर भी,
कि ’वह’ व्यक्ति है, कोई प्राणी, कोई घटना, स्मृति या ठोस वस्तु,
जैसे किसी को ’पुरातत्व’ से भी रोमांस हो सकता है ।
अजीब लगता है न ।
फिर यह इस पर भी निर्भर करता है,
कि क्या आपका उस ’व्यक्ति’ से कोई नाता-रिश्ता भी है क्या ।
और अंत में एक हद तक इस पर भी,
कि आप पुरुष हैं, स्त्री हैं, या बस एक निपट मनुष्य,
जहाँ पुरुष या स्त्री होना प्रासंगिक और गौण है ।
उस स्टेशन पर ट्रेन से मेरे पहले वह उतरी थी ।
उसके बालों से वह गुलाब खुलकर नीचे गिर गया था,
जिस पर मेरी निग़ाह बस अभी-अभी ही पड़ी थी ।
पता नहीं वह क्या था,
कि मैं उसे कुचले जाते हुए नहीं देखना चाहता था ।
झुककर उठा लिया,
तब तक उसकी निग़ाह मुझ पर पड़ गई ।
’एक्सक्यूज़ मी!’
उससे नज़र मिलते ही मेरे मुँह से निकला ।
’जी, थैंक्स’
’अगर आप बुरा न मानें तो इसे लगा देंगें?’
उसने सहजता से कहा ।
और मैं रोमांटिक हो गया,
मेरे अर्थ में ।
उसके बालों में सावधानी से उस गुलाब को लगा दिया,
और वह फ़ुर्ती से पुनः ’थैंक्स’ कहकर,
फूट-ब्रिज की ओर बढ़ गई ।
उसके बारे में और कुछ याद नहीं रहा,
बस वह गुलाब अब भी कभी-कभी,
शिद्दत से याद आता रहता है,
और हाँ,
अब यह न पूछें कि उसकी उम्र क्या थी!
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