December 29, 2017

गुलज़ार, मन्ना-डे, आशीर्वाद,

जीवन से लंबे हैं बन्धु, ये जीवन के रस्ते
ये जीवन के रस्ते !
इक पल रोना होगा बन्धु,
इक पल चलना हँस के,
ये जीवन के रस्ते !
राही से राहों का रिश्ता कितने जनम पुराना,
एक को आगे जाना होगा,
एक को पीछे आना,
मोड़ पे रुक मत जाना बन्धु,
दोराहों में फँस के !
ये जीवन के रस्ते !
दिन और रात के हाथों नापी,
नापी एक उमरिया,
साँस की डोरी छोटी पड़ गई,
लंबी आस डगरिया,
भोर के मंज़िलवाले उठकर,
भोर से पहले चलते,
ये जीवन के रस्ते !
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आत्मा को जानने का मार्ग जीवन से भी अधिक लंबा है, जीवन तो केवल उसका एक पड़ाव है । इस पड़व पर कभी रोना तो कभी हँसना होता रहेगा ।
इस राह (आत्मा तथा उसे जानने का मार्ग) से राही का रिश्ता इसी नहीं अनेकों जन्म पुराना है, यह नित्य-राह निरंतर अतीत से वर्तमान तक आती हुई भविष्य को जाती है । मनुष्य को चाहिए कि दोराहों पर भ्रमित होकर रुक न जाए, इस राह को ध्यान में रखे, इसे छोड़ न दे !
दिन और रात के क्रम से जीवन की यह उम्र, साँस की डोरी से, नापी गई, तो साँस की यह डोरी नाप न सकी, और छोटी पड़ गई, जबकि आशा की डगर (आत्मा से भिन्न दिशा में ले जानेवाली राहें) हर मोड़, हर दोराहे पर मिलती रहीं । जिन्हें भोर (आत्म-ज्ञान) की मंज़िल पर पहुँचना होता है वे राही (पथिक) भोर होने से पहले ही अंधकारमय संसार से उठकर अपने पथ पर चल पडते हैं !
ऐसे हैं ये जीवन से लंबे, ये जीवन के रस्ते !
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December 27, 2017

कविता : समय की सरिता का जल,

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कुछ भी !
समय की सरिता का जल,
सरिता के आँसुओं में;
समय काजल,
घुलमिलकर हो रहे हैं एक,
बिक रहा है आज ’समय’ भी
बोतलबंद पानी की तरह !
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December 17, 2017

मन नहीं मेरा बस / किस्सी

कुछ भी!
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’मन नहीं मेरा बस’,
योगिता ने कहा था सुबह ऑफ़िस जाने से पहले
’बस?
बस??’
पूछा अवनि ने ।
’पापा!
आप मदद करेंगे?’
’बोलो बेटे ?’
’सेनापति स्त्रीलिंग है पुल्लिंग?’
’पुल्लिंग!’
’हा-हा.., लॉक कर दिया जाए?’
’हाँ...!’
’प्रारब्ध और नियति में अंतर स्पष्ट करो।’
’जो हो रहा है वह प्रारब्ध है,
जो हो चुका, या हो चुकेगा वह नियति’
’हा-हा.., लॉक कर दिया जाए?’
’नीम का पेड़’ का लेखक कौन है?
’राही मासूम रज़ा ...’
’हा-हा.., लॉक कर दिया जाए?’
’शनिवार शुक्रवार से पहले और रविवार के बाद भी आता है !’
’यह कुछ अजीब नहीं है पापा?’
’हाँ, विचित्र किंतु सत्य’
’हाऊ स्वीट पापा!,
वह मेरे गाल पर किस्सी देती है,
’बाय ममा!
आपको ऑफ़िस के लिए देर न हो जाए!
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December 16, 2017

आज की कविता / बोझ

आज की कविता
बोझ
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जीवन नहीं,
उम्र बोझिल होती है,
नहीं-नहीं,
उम्र नहीं,
अतीत बोझिल होता है,
नहीं-नहीं,
अतीत नहीं,
समय बोझिल होता है,
नहीं-नहीं,
समय नहीं,
याददाश्त
बोझिल होती है ।
और जब,
याददाश्त मिट जाती है,
उम्र भी मिट जती है,
उतर जाता है,
सारा बोझ सिर से,
पलक झपकते!
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December 07, 2017

बदलाव

एक सरासर गलत ख़याल
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मैं बदलना चाहता हूँ,
लेकिन बदलना नहीं चाहता,
पर बदलना अगर बदा है,
तो बदल ही जाऊँगा!
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रहस्य : अगर आप बदल रहे हैं तो आपको यह कैसे पता चल पाएगा कि आप बदल गए? क्या यह एक विरोधाभास नहीं हुआ? वस्तुतः आप कभी बदल ही नहीं सकते यह अकाट्य सत्य है, अगर कुछ बदलता है तो वह है आपकी खुद के बारे में राय, और यह तो यूँ भी बदलती रहती है इसके बदलने से आप कहाँ प्रभावित हो सकते हैं । क्योंकि प्रभावित होने का मतलब हुआ बदलना ...!
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वास्तव में इस वक्तव्य को कई दृष्टियों से समझा जा सकता है । व्यवहार की भाषा में ’मैं’ शब्द का जो अर्थ ग्रहण किया जाता है उसका अपना प्रयोजन और उपयोग है लेकिन जब अध्यात्म की सर्वोच्च सीढ़ी पर इस शब्द का उपयोग किया जाता है तो इसके लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ के सन्दर्भ में इस अर्थ की विवेचना की जाती है ।
इस एक शब्द ’मैं’ जिसके लिए संस्कृत में अहं तथा अहंकार दोनों रूपों में प्रयोग किया जाता है में से प्रथम अर्थ अधिष्ठान अर्थात् परम सत्य की ओर संकेत के लिए किया जाता है और जो व्यक्ति-विशेष नहीं होता, जबकि दूसरा व्यक्ति-विशेष के अर्थ में किया जाता है । सामान्यतः न तो किसी का ध्यान इस अंतर की ओर जाता है, न किसी की स्वाभाविक उत्सुकता इसे जानने में होती है जब तक कि मनुष्य में विवेक और वैराग्य से इतनी परिपक्वता न आ जाए जब इसे जानना उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न ही न बन जाए । संसार में रहते हुए यह हो पाना कठिन अवश्य है लेकिन असंभव नहीं । और जब कोई प्रश्न जीवन-मरण का हो जाता है तो कठिन है या आसान यह कम महत्व का और उस प्रश्न का समाधान अधिक महत्व का हो जाता है । कोई व्यक्ति कुएँ में गिर जाए तो वहाँ से बाहर निकल पाना कठिन है या सरल है इसका महत्व उतना अधिक नहीं रह जाता जितना इसका कि वह कैसे वहाँ से बाहर आ सके ।
इसलिए यह वक्तव्य एक प्रकार से आत्म-अनुसंधान का प्रवेश-द्वार ही है ।
अधिकांश प्रकरण-ग्रंथों जैसे गीता-उपनिषद आदि में इस प्रश्न का सिद्धान्त भर बतलाया जाता है जबकि विवेक-चूडामणि, पञ्चदशी, अपरोक्षानुभूति आदि में तथा श्री रमण महर्षि, श्री निसर्गदत्त महाराज तथा श्री जे.कृष्णमूर्ति के साहित्य में इसे कैसे हल किया जाता है उसकी विधि विस्तार से स्पष्ट की जाती है । पात्र के लिए वह वहुत उपयोगी सिद्ध होती है जबकि केवल बौद्धिक रीति से उसे पढ़ना उस दिशा में रुचि भले ही पैदा कर दे, प्रायः सतह पर ही रह जाता है ।
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एक सवाल : "स्वेच्छया कोई नहीं बदलता ।
सम्यक् रूप से कोई नहीं बदलता लेकिन क्षणिक प्रलय रोज ही बदल देती है सबको थोड़ा-थोड़ा ..."
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यहाँ बौद्धिक चर्चा न करते हुए ऐसा कह सकते हैं कि बदलाव का अभिप्रेत किसी ’कोई’ के सन्दर्भ में नहीं, अपने स्वयं के ’मैं’ के बदलने के सन्दर्भ में है । जब मुझे लगता है कि मैं बदल गया, बदलना चाहता हूँ, नहीं बदलना चाहता... आदि तो मेरे सन्दर्भ में इसका मतलब यह हुआ कि ’मैं’ ऐसी वस्तु है जो अपने बदलाव होने के तथ्य को जान और प्रमाणित कर सकती है । अनुभव या तर्क से भी यह मतलब मूलतः त्रुटिपूर्ण और असंगत है । ’मैं अपने को नहीं जानता’ या ’मैं अपने को जानता हूँ’ यह विचार भी उतना ही त्रुटिपूर्ण और असंगत है । व्यवहार ’जानना’ शब्द का प्रयोग हमेशा इस धारणा पर आधारित होता है कि ’जाननेवाला’ और ’जिसे जाना जाता है’ वे दो पृथक् वस्तुएँ हैं और ’जानकारी’ / ’ज्ञान’ उन्हें जोड़ता है, उन्हें संबंधित करता है । अपने-आपको जानना या न जानना इस दृष्टि से असंभव है । फिर अपने-आपको बदलना तो नितांत असंभव है । इसलिए जिस ’बदलाव’ की बात यहाँ कही जा रही है वह दुनिया या किसी दूसरे के बदलाव के बारे में नहीं बल्कि अपने-आपके संभावित बदलाव के बारे में है ।
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December 06, 2017

भोग, कर्म, बोध, मैत्री और सहजता

भोग, कर्म, बोध, मैत्री और सहजता
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संसार में किसी से भी संबंध / लगाव / जुड़ाव उपरोक्त बहानों या कारणों से होता है ।
इसे कहते हैं ’पात्रे समिता’, जैसे कौए और कुत्ते, गौएँ और भेड़-बकरियाँ, और समूह में रहनेवाले जीव-विशेष, जो समय के साथ एक-दूसरे के मित्र या प्रतिद्वन्द्वी भी हो जाते हैं । राजनीति इसका सबसे बड़ा प्रत्यक्ष उदाहरण है । व्यापार, व्यवसाय, धार्मिक संगठन, संस्थाएँ आदि भी इसका अपवाद नहीं हैं । भले ही उनके उद्देश्य और आदर्श कितने ही श्रेष्ठ क्यों न प्रतीत होते हों जब व्यक्तिगत स्वार्थ पर आँच आती है, या प्रतिष्ठा / अहं का प्रश्न पैदा हो जाता है तो संस्था अनेक समूहों / गुटों में बँट जाती है । जिनके आदर्श और उद्देश्य भले ही एक जैसे दिखाई देते हों, भीतर ही भीतर उनकी भिन्न-भिन्न व्याख्या वे अपने ढंग से करते हैं । यहाँ तक कि राज्य का क़ानून भी इसका अपवाद नहीं हो सकता । क़ानून से अधिक शक्ति उसकी व्याख्या में है और व्याख्या करनेवाले व्याख्या से भी अधिक शक्तिशाली होते हैं ।
सामान्य जन हो या विशिष्ट ’elite', ’संभ्रान्त’ सबके अपने-अपने समूह होते हैं और एक ही व्यक्ति एक से अधिक समूहों से भिन्न-भिन्न कारणों से जुड़ा होता है । ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि पूरा समाज और प्रत्येक व्यक्ति भी अत्यन्त विखण्डित-चित्त है और एक-दूसरे से जुड़ाव तात्कालिक ज़रूरत और अस्थायी महत्व का होता है ।
जब आप फ़िल्म देखने जाते हैं, खाने-पीने के लिए होटल, रेस्त्राँ या कैफ़े में जाते हैं, बस या ट्रेन में सफ़र करते हैं काम पर जाते हैं, काम से लौटते हैं, परिवार के साथ या मित्रों या अपरिचित लोगों के साथ होते हैं, या शाम को देसी शराब की दुकान पर जाते हैं तो वही विखंडित-चित्त मनुष्य अपने ही जैसे लेकिन फिर भी अपने से बहुत अलग क़िस्म के लोगों के साथ होता है ।
आज की स्थिति में यह तथ्य इतना ही या इससे भी कहीं अधिक फ़ेसबुक और अन्य सोशल-नेट्वर्किंग-साइट्स पर भी लागू होता है । वहाँ भय, आशंका, लोभ, आकर्षण, धोखा खाने और देने के लिए और अधिक कारण तथा  सुविधाएँ हैं । और कोई ख़ुद को दूध का धुला होने का दावा कर ही नहीं सकता क्योंकि इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता ।
समाज का यह पूरा विन्यास कुल मिलाकर सामाजिकता के दायरे में ’भोग’ की समानता के अधिकार के उपभोग की स्वतन्त्रता पर निर्भर है ।
दूसरी ओर कर्म के लिए होनेवाला जुड़ाव कुछ भिन्न है । आप दफ़्तर या कार्य-स्थल पर अपना कार्य करते हुए लोगों के संपर्क में आते हैं और वहाँ भी कुछ लगाव पैदा हो जाते हैं जो लगाव और फिर संबंध बनते हुए रिश्ते-नाते जैसे हो जाते हैं, जिनमें अनकहे वादे, क़समें, अपेक्षाएँ छिपी तो होती हैं या फिर जान-बूझकर या अनजाने ही उन्हें छिपाया भी जाता है, क्योंकि ’पासवर्ड’ के अलावा भी हर व्यक्ति की कुछ न कुछ ऐसी नितान्त निजि बातें होती हैं जिन्हें दूसरों से साझा किया भी नहीं जाना चाहिए ।
इस प्रकार कोई भी जुड़ाव किसी माध्यम से होता है, परिस्थिति भी ऐसा ही एक माध्यम होती है ।
ऐसा विखंडित-चित्त मनुष्य बच्चे जैसा सरल-चित्त हो पाए इसकी संभावना कितनी है?
जब तक मैं अपने भीतर अस्पष्ट, दुविधा में हूँ तब तक क्या मैं खुद की या किसी दूसरे की वास्तविक मदद कर सकता हूँ ?
क्या मदद करने के लिए किसी विचार, सिद्धान्त या आदर्श का  सहारा लेना यही नहीं दर्शाता कि ऐसी मदद अनायास अन्तःस्फ़ुरित प्रेम से प्रेरित न होकर किसी अप्रत्यक्ष स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए (और उसकी आदत हो जाने के कारण) की जा रही है? क्या वहाँ भी आपके मन में संशय और दुविधा नहीं होते? सड़क पर खड़ी गाय को रोटी देने के कार्य में भले ही ऐसा संशय या दुविधा न होते हों, लेकिन भिखारी को कुछ देने की स्थिति में क्या संशय या दुविधा सर नहीं उठाते? तब आप किसी विचार, सिद्धान्त, दर्शन आदि से अपना कर्तव्य भले ही तय कर लें किंतु आपका चित्त क्या उस दुविधा से वैसे ही उबर पाता है जैसे आपकी कोई व्यक्तिगत चिन्ता मिटने पर हुआ करता है?
यदि आप इतने ही सरल चित्त हैं तो आपका अस्तित्व ही मैत्री है । तब आप अनायास ही सबकी सहायता करते हैं । तब आप सफलता अथवा असफलता को महत्व न देते हुए गरीब या संपन्न होते हुए, अनपढ़ या सुशिक्षित, उच्च, मध्यम, या निम्न सामाजिक हैसियत वाले होकर भी सहृदय होते हैं । तब आप विखण्डित-चित्त नहीं होते, लेकिन ऐसा होने का दावा भी नहीं करते । तब आप ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते । तब आप जहाँ होते हैं अपने आसपास के लोगों तक शान्ति और सौहार्द्र फैलाते हैं , भले ही प्रत्यक्षतः आप ऐसा कुछ करते हुए न भी दिखाई देते हों ।
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शायरी और काव्य

माना आप नाचीज़ हैं, इतना तो करम कीज़िए,
ज़र्रानवाज़ होने का हमको एक मौक़ा दीजिए !
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शायरी मेरा शौक़ नहीं, न किसी से जुड़ने का बहाना,
बस तभी जब होता है दिल बहलना या बहलाना !
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असमंजस बाबू

असमंजस बाबू 
काश,
जीवन यूँ ही
असमंजस में बीतता रहे ।
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यहाँ (फ़ेसबुक पर) रहने का मतलब है ’असमंजस बाबू’ बने रहना । क्योंकि जब किसी के वक्तव्य पर टिप्पणी करने का मन होता है तो असमंजस महसूस होने लगता है । क्योंकि या तो मैं बस कोई हल्का-फुल्का, सतही, फ़ॉर्मल कमेंट लिख कर छुट्टी पा लेना चाहता हूँ या फिर पूरी गंभीरता से अपना दृष्टिकोण सामने रखना चाहता हूँ । हालाँकि मुझे पता नहीं कि मेरे कमेंट को कितनी गंभीरता से या सतही तौर पर ग्रहण किया जाएगा । उदाहरण के लिए आपके इस स्टेटस पर मैं कहना चाहता था कि जिसे पता है कि वह असमंजस में है, उसे यह भी पता है कि वह नहीं उसका ’मन’ असमंजस में है । इस प्रकार अपने को मन से पल भर के लिए भी अलग महसूस कर लेना स्पष्ट कर देता है कि जो असमंजस से ग्रस्त है या मुक्त है वह मन नामक कल्पना मात्र है । जिस बोध में यह स्पष्ट होता है वह न तो मन है, न व्यक्ति ।
सादर,   

ऊँट के बहाने ! विषयान्तर

विषयान्तर
कुछ भी !
ऊँट किस करवट बैठेगा,
लगा रहे अपने क़यास,
उसकी करवट की फ़िक़्र में,
बदल रहे हैं करवटें !
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ऊँट को संस्कृत में क्रमेलकः क्रम में चलनेवाला कहा जाता है ।
पैलेस्टाइन, फ़लस्तीन, पीलु (ताड़), phaḻam, फलम्, தமிழ்
में பழம் paḷam .
(क्योंकि रेगिस्तान में यही फल होता है!) तो प्रसिद्ध हैं ही!
संस्कृत में ही पीलु को ’कर’ अर्थात् ’हाथ’ और ताड़ को खर्जूर कहा जाता है, ’कर’ से ’कैरो’ / ’काहिरा’ तो क्रमेलक से कैमल और क्रैमलिन का ! संस्कृत में खर्जूरशालम् का अर्थ है वह स्थान जहाँ खजूर के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हों ।
अनुमान है कि कैरो-जरूसलम् / क़ाहिरा-येरुशलम् इसी का अपभ्रंश होगा ।
दूसरी ओर अरबी में ख़ार का मतलब है ’काँटा’ । इससे भी खज़ूर / कैरो की उत्पत्ति समझ सकते हैं । क्या ’कैक्टस्’ ने भी अपना नाम इसी से पाया होगा?
ग़ौरतलब है कि ’पॉम’ का अर्थ हथेली और ताड़ दोनों है ।
हस्ति और हाथी को भी पीलु / फ़ील कहा जाता है, महावत को अर्थात् हाथी या ऊँट को अंकुश में रखनेवाले को ’फ़ीलवान’!
हस्ति और हथेली भी आकृति में ताड़ होते हैं !
प्रसंगवश : Chiero / कीरो नामक आयरिश हस्त-शास्त्र विशेषज्ञ तो प्रसिद्ध है ही !
(सोचता हूँ इतना ’फील’ नहीं होना चाहिए!)
बहरहाल सुप्रभात!
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December 01, 2017

वक़्त का तरीका / कविता

राहत ...
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वक़्त खुद ही करता है सवाल कोई,
और खुद ही दे देता है जवाब उसका ।
वक़्त खुद ही पूछता है पहेली कोई,
और खुद ही बूझ लेता है उसको ।
मुझसे अब ऊब चुका है शायद,
मैं भी तो परेशान बहुत था उससे ।
और अब कहीं जा के समझ पाया हूँ,
खुद को बिताने का तरीका है उसका !
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