September 14, 2017

आज की कविता : मयूर और मेघ

आज की कविता : मयूर और मेघ
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हर एक मयूरपंख में,
एक आँख होती है,
सहस्र नेत्रों से देखता है मयूर,
हर मेघ में छिपी सहस्त्र बूँदों को,
हर आँख में एक पुतली होती है,
जैसे कि आँख का हृदय,
गहन, चमकीला, श्यामल,
और उसके चारों ओर हल्का नील,
हरा होता हुआ आकाश,
आकाश से परे,
पृथ्वी के भूरे होते हुए गेरूए रंग,
जिनसे परे,
अरण्य का विस्तार असीमित,
कविता जब जन्मती है,
ऐसे ही किसी केन्द्र से,
जो अरण्य होता है,
जो पृथ्वी होता है,
जो हृदय होता है,
जो आकाश होता है,
जो आँख होता है,
जो नेत्र और हृदय होता है ।
एक ही नेत्र सहस्र होता है,
और मयूर सहस्रनेत्र !
क्या मयूर का होना कविता नहीं है?
क्या ज़रूरी है इसे लिखना?
क्या ज़रूरी है इसे समझना?
क्या अबूझ को समझा जा सकता है?
तो फिर लिखा जाना भी कैसे हो सकता है?
फिर भी कविता लिखी तो जाती ही है,
न भी लिखी जाये तो भी होती तो है ही,
मेघों के छत्र के तले,
अपने छत्र में नाचता मयूर!
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