September 10, 2017

बहस करें या बस?

बहस करें या बस?
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धी अर्थात् ध् + ई, जो विशेष प्रयोजन के लिए बुद्धि का पर्याय है ।
धी जहाँ निधि, अवधि, विधि, शेवधि (तिजोरी) के रूप में स्थिरता की द्योतक है, वहीं बुद्धि अपेक्षतया गतिशीलता की, अस्थिरता की भी ।
इसी धी से उत्पन्न हुआ ग्रीक का ’थी’, ’थियो’ theo।
जैसे ’ध’ से धर्म, धर्म से ’थर्म’ therm,
’धी’ से ही ’थी’ theo , ’थियो’ और ’धर्म’ से ’थर्म’/ therm अर्थात् ’ताप’ हुआ ।
 ’धी’ से ही ’थीसिस’,’थीसिस’ से ’ऐन्टी-थीसिस’ और ’सिन्थेसिस’ हुए ।
धी > धिष् > धिषस् से भी थीसिस दृष्टव्य है ।
बहस की व्युत्पत्ति संस्कृत के ’व-ह-स’ से की जा सकती है, वहीं यह उर्दू में अरबी या फ़ारसी से आया ऐसा भी कहा जा सकता है ।
’ऐन्टी’ anti, एक ओर तो ’आन्तरिक’ के अर्थ में प्रयुक्त ’अन्तः’ से आया है, वहीं दूसरी ओर ’अन्त’ करनेवाले अर्थात् विरोधी या विपरीत के अर्थ में भी किया जाने लगा । इसी प्रकार ’ऐन्टी’ का ’अन्ते’ / ante के रूप में भी ’पूर्व’ के अर्थ में प्रयोग होता है ।
यहाँ वद् > वाद > विवाद और संवाद के संदर्भ में ’बहस’ के औचित्य के बारे में देखें ।
वाद का अर्थ है ’मत’ ’वादे-वादे जायते तत्वबोधः’ की उक्ति के अनुसार विभिन्न वाद मिलकर तत्व के निर्णय में सहायक होते हैं ।
किंतु एक विचित्र तथ्य यह भी है कि किसी भी वाद की अपनी सीमाएँ होती हैं इसलिए भिन्न-भिन्न वाद होने पर मतभेद भी हो जाते हैं । किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न हो तो मतभेदों को पुनः मिलकर सद्भावना से सुलझाया जा सकता है, किंतु पूर्वाग्रह होने की स्थिति में यह असंभव हो जाता है । क्योंकि पूर्वाग्रह कोई मान्यता होता है । क्या बिना किसी मान्यता के कोई मत हो यह संभव है? जब हम ईश्वर या जीवन जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं तो इनके अभिप्राय के बारे में हममें उतनी ही स्पष्टता होती है जितनी हममें तब होती है जब हम धरती, आकाश, मनुष्य, भूख, प्यास, डर, नींद, और सोने-जागने आदि जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं । क्या तब इन वस्तुओं, घटनाओं या स्थितियों के बारे में हममें कोई मान्यता या मतभेद होते हैं? स्पष्ट है कि न हममें इनके बारे में कोई ’मान्यता’ होती है, (और इसलिए) न कोई पूर्वाग्रह होता है ।
किंतु जब किसी कार्य को किए जाने का प्रश्न होता है तब उसे कैसे किया जाए उसके औचित्य और अनौचित्य तथा उसके परिणाम आदि पर हममें प्रायः कोई न कोई आग्रह अवश्य होते हैं । इन आग्रहों के बारे में यदि परस्पर मिलकर विचार-विमर्श किया जाए तो संभवतः किसी एक निर्णय पर सहमत हुआ जा सकता है ।
इस प्रक्रिया को थीसिस-ऐन्टीथीसिस-सिन्थेसिस thesis-antithesis-synthesis कहा जा सकता है ।
यदि बहस इस प्रकार की गतिविधि है तो वाद-विवाद-संवाद का यह प्रकार थीसिस-ऐन्टीथीसिस-सिन्थेसिस thesis-antithesis-synthesis कहा जा सकता है । तब बहस की उपयोगिता पर प्रश्न नहीं उठाये जा सकते ।
बहस बस वहीं तक होनी चाहिए।
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