September 21, 2017

बुद्धिजीवी प्रवंचनाएँ और विवंचनाएँ

धोखे का अर्थशास्त्र
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बुद्धिजीवी प्रवंचनाएँ और विवंचनाएँ  धोखे के अर्थशास्त्र के मूल सिद्धान्त हैं ।
’मनुष्य को धोखे से सावधान रहना चाहिए और मीठी-मीठी बातों से धोखा न खाते हुए विवेक को जगाए रखना चाहिए।’
बात तो सुलझी हुई थी लेकिन यह समझना कुछ कठिन लग रहा था कि विवेक किस चिड़िया का नाम हो सकता है, जो अपनी मरज़ी से जहाँ चाहे बेरोकटोक पर मार सकती है! पहेली और मुश्किल हो गई थी ।
कोई चाहे तो धोखा देने से शायद खुद को रोक सकता है, लेकिन धोखा खाने से कोई किसी को या खुद को भी कैसे रोक सकता है?
जब तक किसी प्रकार का डर या लालच, किसी ऐसी वस्तु का आकर्षण मन में है, जिसकी हमें क़तई ज़रूरत नहीं लेकिन हम उस डर, लालच, या आकर्षण के वशीभूत होकर उसे पाने की आशा अभिलाषा रखते हैं और यह देखने से बचते रहते हैं कि जिन लोगों के पास वह वस्तु है उनके इस बारे में क्या अनुभव हैं, तब तक क्या हम स्वयं ही स्वयं को धोखा नहीं दे रहे होते? क्या हम स्वयं ही धोखे को आमंत्रित नहीं कर रहे होते?
’ट्रान्स्पेरेन्सी’ / transparency कितनी भी साफ़ क्यों न हो, एक दीवार ही तो होती है,  जिसे ट्रान्सपायरेसी trans-piracy कहना ज़्यादा ठीक है ।
हम ठीक से छान-बीन करें तो क्या हमारे सारे ’संबंध’ हमारी मान्यताएँ ही नहीं होते? मेरी पत्नी मुझे धोखा नहीं देगी, मैं अपनी पत्नी को धोखा नहीं दूँगा... यह बात कितनी भी दृढ़ता से ज़ोर देकर कही जाए, हमारा मन ही जानता है कि यह मनुष्य के लिए नितांत असंभव है कि परिस्थितियों के किन्हीं नाज़ुक क्षणों में हम फ़िसल न जाएँ, और जब हमारा पूरा ’मीडिया’ हमें यह सोचने पर बाध्य करता हो कि मनुष्य की ’निजता’ / स्वतंत्रता कितनी महत्वपूर्ण है, तब हम क्या और अधिक पाखंडी नहीं हो जाते? तब हम किसे धोखा दे रहे होते हैं? क्या ’विवाह’ की क़ानूनी बुनियाद शक और ’नैतिकता’ की परिभाषाओं और मान्यताओं की व्याख्या पर ही नहीं अवलंबित है? क्या यह कोई सीधी सरल पटरी है जिस पर मन का इंजन धड़धड़ाते हुए सरपट दौड़ता जाए? अधिक मुमकिन तो बेशक यही है कि वह कहीं न कहीं रपट ही जाए । तो क्या हम अनैतिक हो जाएँ ? सवाल यह नहीं है कि हमें नैतिक या अनैतिक होना है, सवाल यह है कि क्या हम पहले ही से नैतिक या अनैतिक नहीं हैं ? किसी भी धर्म के अनुयायी के लिए यह कठिन है कि वह उसके अपने धर्म द्वारा दी गई शिक्षाओं का अक्षरशः पालन कर सके । क्या यह धर्म को धोखा देना नहीं हुआ? क्या ऐसे धर्म के अनुयायी बने रहने का दिखावा भी समाज को दिया जानेवाला धोखा नहीं है?
तथ्य तो यह है कि मन नामक वस्तु से समाज का सामञ्जस्य  कैसे स्थापित करे इसे मनुष्य नहीं समझ पाया । राजनीति और परंपराएँ इस समस्या को और जटिल बना देती हैं । ’परिवार’ और ’विवाह’ दोनों मनुष्य की बनाई कृत्रिम व्यवस्थाएँ हैं जो डर, लालच, आशा, सुरक्षा, नैतिकता जैसे काल्पनिक तत्वों पर अवलंबित हैं इसे समझते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि क्यों ’लव-मैरिज’ या ’अरेंज़्ड-मैरिज’ भी अन्ततः तलाक़ की हद तक जाते हैं और क्यों मनुष्य, स्त्री हो या पुरुष इस यातना से गुज़रने के लिए बाध्य हैं । डर, लालच, आशा, सुरक्षा, ही मनुष्य को आर्थिक रूप से असुरक्षित बनाते हैं जबकि वह सोचता है कि बहुत संपत्ति, धन-दौलत होने पर वह ’अधिक’ सुरक्षित होगा । बहुत समृद्ध परिवारों में भी पारिवारिक विघटन देखा जाता है, और बहुत गरीब परिवारों में भी ।
क्या संबंधमात्र ’वैचारिक’ मानसिक अवस्था नहीं होता? या, क्या वह कोई भौतिक वस्तु है जिसका भौतिक सत्यापन किया जा सके?
’अब हमारे संबंध समाप्त हो चुके हैं ...’
’संबंध’ समाप्त होते हैं, या ’संबंधित होने की भावना’?
क्या समाप्त होता है?
क्या यह भावना कोई ऐसी वस्तु है, जिसकी सत्यता किसी उपलब्ध कसौटी पर साबित की जा सके?
जब तक कोई स्वयं ही न चाहे, कौन किसे धोखा दे सकता है?
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