September 11, 2017

आज की कविता : गेय-अगेय संप्रेषणीय

आज की कविता 
गेय-अगेय संप्रेषणीय 

उसे शिकायत थी,
’आज’ की कविता से,
मानों ’आज’ कोई ठोस,
ज्ञेय, मन-बुद्धि-इन्द्रियग्राह्य,
हस्तान्तरणीय, विज्ञानसम्मत,
और सुपरिभाषित तथ्य हो,
कविता काल के पिंजरे में क़ैद,
कोई चिड़िया हो ।
हाँ कविता अवश्य ही,
एक चैतन्य और चिरंतन सत्ता है,
आकार-निराकार होने से स्वतंत्र,
और इसलिए कितने ही रूपों में,
अभिव्यक्त होती रहती हो,
उसकी सुचारु संरचना,
सुघड़ता, कितने ही आयामों में,
स्वर-क्रमों में निबद्ध होती हो,
निश्छल, छलशून्य होती है,
जिसे आप रच सकते हैं,आज की कविता
अपनी लय में,
छन्द-मात्रा-संगीत-स्वर-ताल,
की विशिष्ट मर्यादाओं में रहते हुए,
या उन अनभिज्ञ होते हुए भी ।
वह सदा गेय हो यह ज़रूरी नहीं,
जैसे भोर में चहचहानेवाली चिड़िया,
जिसके सुर कभी कर्कश, कभी मधुर,
कभी उदास, कभी आतुर,
कभी प्रसन्न, आर्द्र या शुष्क होते हैं,
चिर नूतन, चिर श्रव्य ।
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