September 01, 2017

लीला

आज की कविता
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लीला
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शान्त जल, प्रवाह है ठहरा हुआ,
धरा ने जिसे बाँधकर रोक रखा है,
एक बच्चा फेंकता है एक कंकर,
और वह प्रवाह हो जाता है चंचल,
हर दिशा में भागता है लहर होकर,
लौट आता है पुनः पुनः पर केन्द्र पर,
पुनः पुनः दौड़ता है जल तरंग बन,
और सुर छिड़ जाते हैं जलतरंग के,
हर तरंग का पुनः एक आवर्त अपना,
और हर आवर्त का फिर अपना कंपन,
काँपता है जल तो धरती काँपती है,
काँपता है धरा पर उभरता जीवन,
आवर्त में कितने ग्रह कितने उपग्रह,
कितने सूर्य कितने चन्द्र नक्षत्र-तारे!
खो गया ब्रह्माण्ड के विस्तार में बच्चा,
और फिर चकित सा वह आत्म-विस्मृत,
ठठाकर हँस पड़ता जल, शान्त था जो,
और बच्चा फेंकता है, - एक और कंकर!
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न अर्थ न प्रयोजन,
न समय बिताने के लिए,
क्योंकि समय स्वयं उसका विस्तार है,
जो सिमटता फैलता है,
तरंगों के साथ ।
चकित वह,
अपनी ही सृष्टि से,
खेलता रहता है,
कौतूहलवश,
समय होने तक!
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