August 22, 2017

आज की कविता : धूप-छाहीं रंग

आज की कविता : धूप-छाहीं रंग
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जुलाहा बुनता है चदरिया,
धूप-छाहीं रंग के धागों से,
और ग्राहक भ्रमित-बुद्धि,
चकित-दृष्टि से देखते !
करते विवाद ये है सुनहला,
नहीं, ये है नीला रुपहला,
मुस्कुराता है बस जुलाहा,
सुनता रहता तर्क उनके,
उसे ही ओढ़कर बिछाकर,
घड़ी भर विश्राम करके,
लौट जाता हाट से,
जो कमाई हो गई वह,
धर देता गृहिणी के हाथ पे,
गृहिणी के हाथों में,
रुपहले, सुनहले सिक्के,
देखकर वह सुखी होता,
राम को आशीष देता,
जुलाहा बुनता है चदरिया,
धूप-छाहीं रंग के धागों से,
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जुलाहा कहता है बोल,
कबित्त से कुछ अनमोल,
गाता है मंद-स्वरों में,
राम की महिमा को,
राम उसके श्यामरंग,
या लिए हैं धनुष-बाण,
मानता नहीं वह कुछ,
हाँ जानता ज़रूर है ।
गाहक जब सुनते हैं,
करघे की खट्-खट्,
देखते हैं वे जब,
उसकी घरवाली को,
तय नहीं कर पाते,
वह हिन्दू है या तुरक़!
न हिन्दू को न तुरक़ को,
गाहक को क्या मतलब,
राम से या श्याम से,
गाहक को मतलब है,
बस वाजिब दाम से
जुलाहा जानता है,
गाहक ही तो राम है,
पर भूलता भी नहीं,
राम ही तो गाहक है,
जुलाहा नहीं करता मोल,
गाहक भी हर तरह का,
जो जितना चाहे दे दे,
जुलाहा दुःखी नहीं होता,
प्रेम का भला क्या मोल?
चदरिया का ज़रूर है,
चदरिया फिर बन जायेगी,
उसका भी भला क्या मोल?
जुलाहा कहता है बोल,
कबित्त से कुछ अनमोल,
गाता है मंद-स्वरों में,
राम की महिमा को,
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