March 12, 2016

आज की कविता / असंबद्ध

आज की कविता
असंबद्ध
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एक पर बैठा हुआ है,
बाकी अन्धेरे में,
देखते हैं वो अन्धेरे,
अन्धेरा उनको देखता है ।
एक उन सबसे अलग है,
अन्धेरों को नहीं देख पाता,
उजाले से हुआ मोहित,
चंद्र से चकोर सा ।
एक पर बैठा हुआ है,
बाकी उसे दिखते नहीं,
वह भी उनको नहीं दिखता,
देखते हैं वे अन्धेरे,
अन्धेरा उनको देखता है
देखते हैं जो अन्धेरे ।
उजाले ने अन्धेरे को है कब देखा?
अन्धेरे ने उजाले को है कब देखा?
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हर शाख पर बैठा हुआ है,
अन्धेरे में या उजाले में,
अलग अपने ही विश्व में,
अपरिचित प्रतिविश्व से !
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March 08, 2016

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर

आज की कविता
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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर 
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उसने कहा था :
अपने जीवन में कई बार ऐसा लगा कि औरत होना मेरा एक ज़ुर्म था... !
जवाब में ये दो पंक्तियाँ बन पड़ीं :
वह न तुम्हारा ज़ुर्म था कोई और न कोई मज़बूरी ।
वह केवल गहरी करुणा थी, जिससे तुम जनमी नारी!
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March 07, 2016

आज की कविता / नज़्म

आज की कविता / नज़्म
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फ़िक्र होती है तो होने दो उसे,
फ़िक्र करने लगो ये ठीक नहीं ।
प्यार होता है तो होने दो उसे,
प्यार करने लगो ये ठीक नहीं ।
बहा ले जाए रवानी तो बह जाओ उसमें,
बहते दरिया में उतरने लगो ये ठीक नहीं ।
ये हयात, ये वज़ूद और ये हस्ती,
इससे बचने लगो, ये ठीक नहीं ।
रोग आदत है ज़िस्म की जैसे,
प्यार वैसे है रोग मन का एक,
प्यार होता है तो होने दो उसे,
प्यार करने लगो ये ठीक नहीं ।
प्यार जैसे है एक रोग मन का,
वैसे होते हैं रोग और कई ।
कभी अकेले किसी भी इंसां को,
कभी कुछ को, तो कभी सबको भी ।
रोग को आदत मत बन जाने दो,
और आदत को मत बनने दो रोग ।
फ़िक्र होती है तो होने दो उसे,
फ़िक्र करने लगो ये ठीक नहीं ।
प्यार होता है तो होने दो उसे,
प्यार करने लगो ये ठीक नहीं ।
वैसे अच्छी हो या बुरी आदत,
जैसे आई थी चली जाती है,
छोड़ जाती है तनहाई पीछे,
बनके तनहाई ठहर भी जाती है ।
क़ुफ्र होता है तो हो जाने दो क़ुफ्र,
क़ुफ्र करने लगो, ये ठीक नहीं ।
एक तनहाई वो भी थी जब तुम न थे,
एक तनहाई वो भी थी जब मैं न था,
एक वो भी तो थी कभी ज़रूर,
हमसे पहले कि जब हम न थे ।
एक दिन द्वार खटखटाएगी,
लौट जाएगी हमें लेकर,
जहाँ अपनी ख़बर न होगी हमें,
सुक़ूनदेह, पुरसुक़ून तनहाई ।
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March 01, 2016

अश्वमेध यज्ञ (कविता)

अश्वमेध यज्ञ 
(कविता)
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हाँ, मैंने भी किया था एक बार,
अश्वमेध यज्ञ!
मैंने भी पाई थी एक बार,
विजय विश्व पर !
किंतु यह भी सत्य है,
कि मैं ही वह अश्व था,
और मैं ही अश्वारोही!
मैं ही था वह विश्व,
और मैं ही विश्वविजयी !
और यह भी सच है,
कि इस विश्व-विजय के बाद,
इस थके-माँदे अश्व की बलि भी,
मैंने ही दी थी,
यज्ञ की पूर्णाहुति के रूप में !
और किया था सेवन,
यज्ञशिष्टामृत अन्न का ।
हाँ यज्ञशिष्टाशी हूँ मैं !
किन्तु फिर यह भी इतना ही सत्य है,
कि वाजश्रवा की तरह,
जिसने सोम या वरुण की तरह,
दिक्पाल होने के लिए
चढ़ाई थी या,
हिरण्यकशिपु ने
जिसने प्रयास किया था,
सारी धरती के एकछत्र साम्राज्य का,
स्वामी होने के लिए!
मैंने नहीं चढाई बलि,
अपने पुत्र की !
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सन्दर्भ 
यज्ञशिष्टामृत गीता अध्याय 4, श्लोक 24,
वाजश्रवा - कठोपनिषद् 1/1,
सोम, वरुण - श्रीवाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग 84,