December 19, 2016

आज की कविता / मीनाक्षी

आज की कविता / मीनाक्षी
(प्रथम दो पँक्तियाँ 18 दिसम्बर 2014 को लिखीं थीं)
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जो दिख रहा है, सो दुःख रहा है,
.... हाँ, हाँ, मैंने भी बहुत सहा है !
पर मैं आँखें बन्द नहीं कर सकता / सकती,
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
इसलिए मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
मछुआरे का जाल,
मच्छीमार की बंसी,
किंगफ़िशर की डुबकी,
मैं नहीं देख पाता / पाती,
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
और मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
हाँ !
और मैं आँखें खुली रखकर भी,
सो सकता / सकती हूँ,
तमाम घटाटोप में,
तमाम ख़तरों के बीच भी,
सुक़ून से !
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
और मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
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विनय वैद्य / 19/12/2016.

December 16, 2016

मुक्त-प्रेम / दिसंबर 2015

मुक्त-प्रेम / दिसंबर 2015
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कविता, जो दिसंबर 2015 में लिखी थी,
आज अचानक याद आई,
एक साल बाद !
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पगडंडियाँ सी टीलों पर !

December 07, 2016

आज की कविता / खेल

आज की कविता
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खेल
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तुम्हारे चश्मे का रंग,
दूसरों के चश्मों के रंग से,
मेल नहीं खाता,
तुम्हारे चश्मे का रंग,
वक़्त के चश्मों के रंग से,
मेल नहीं खाता,
लोग बदलते रहते हैं चश्मे,
कोई भी उनकी आँखों के रंग से,
मेल नहीं खाता,


कोई भी वक़्त के चश्मों के रंग से,
मेल नहीं खाता,
वक़्त खुद बदलता रहता है चश्मे,
कोई भी उसकी आँखों के रंग से,
मेल नहीं खाता,
किसने देखा है कभी,
वक़्त की आँखों में,
आँखें डालकर?
हर रंग जुदा है,
हर रंग अजनबी भी,
मुझे अजनबी होने का,
यह खेल नहीं भाता !
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देवास /०७/१२/२०१६ १०:२५ a.m.   

December 01, 2016

आज की कविता / सतह से उठता आदमी

आज की कविता / सतह से उठता आदमी
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अस्तित्व की कोख से,
अंकुर की तरह फूटता,
पेड़ की तरह चढ़ता,
पहाड़ की तरह फैलता,
हवाओं में क्षरित होता,
पानियों में बहता-घुलता,
कड़ी शीत में ठिठुरते हुए,
तेज़ धूप में जलता रहता,
आकाश छूने की अभीप्सा से,
संकीर्ण, पर विस्तीर्ण होता,
निथरता निखरता बिखरता,
निखरकर किरण-किरण होता,
अंततः अदृश्य हो जाता है,
लौट जाता है बीज में,
अस्तित्व की कोख में पुनः ।
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टिप्पणी : मुक्तिबोध की एक रचना,
(जिसे मैंने कभी नहीं पढ़ा)
से प्रेरित
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