August 31, 2016

क्या ’जीवन’ एक अंतहीन बहस है?

’जीवन’ एक अंतहीन बहस है?
_________________________

मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है किंतु बहस के लिए कोई राय / मत होना पूर्व-शर्त है । यह राय / मत विचार के ही रूप में हो सकता है और स्मृति / पहचान पर आधारित शब्द-समूह भर होता है । विचार का आगमन बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही होता है और बुद्धि सदा द्वन्द्व और दुविधा में होती है । वास्तविक जीवन न तो बुद्धि है, न विचार, न स्मृति है, न पहचान । ये सभी वास्तविकता पर बुद्धि, स्मृति, विचार, और पहचान का आवरण होते हैं । इसलिए वास्तविक जीवन का किसी बहस से कोई संबंध नहीं हो सकता । वस्तुओं का प्रयोजन / उपयोग होता है । विचार का विचार के दायरे तक सीमित एक (या अनेक) अर्थ होता है, जो पुनः विचार तक सीमित होता है । वस्तु का अर्थ नहीं होता और विचार किसी प्रयोजन / लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकता । अतः विचार के स्तर पर जिया जानेवाला ’जीवन’ अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है ...
विचार, बुद्धि या स्मृति को भूलवश ज्ञान कहा / समझा जाता है, जबकि ज्ञान वह है जिसकी प्रेरणा से विचार, बुद्धि या स्मृति सक्रिय हो उठते हैं । उपनिषद् कहता है : मन जिसका विचार करता / कर सकता है वह नहीं, बल्कि ज्ञान / ब्रह्म वह है जिसकी प्रेरणा से मन विचार, बुद्धि या स्मृति को प्रयोग करता है ।      
--
विचार और जीवन अलग है । पर विचार के बिना जीवन सम्भव है क्या?
क्या जीवन का अस्तित्व विचार पर निर्भर होता है?
इससे विपरीत, क्या जीवन के होने से ही विचार अस्तित्व में नहीं आता / आते?
इसलिए विचार के अभाव में जीवन है, जबकि जीवन के अभाव में विचार नहीं हो सकता । हम / आप जीवित हैं तो ही विचार कर (या नहीं कर) सकते । किंतु जीवित ही न हों तो विचार के सक्रिय होने का प्रश्न ही कहाँ होता है?
मस्तिष्क के अपेक्षा क्या हृदय ही जीवन और प्राणों के स्पन्दन का आधार नहीं होता? क्या भावनाएँ बुद्धि / विचार / स्मृति की तुलना में अधिक शक्तिशाली जीवंत नहीं होतीं?
क्या हृदय ’बहस’ करता है? वह बस आन्दोलित, क्षुब्ध, व्याकुल, उद्वेलित, हर्ष-विषाद से प्रभावित होकर सच्चे अर्थों में जीवित होता है / जीता है ।
--

August 30, 2016

भुजङ्ग

भुजङ्ग
--
क्षमा शोभती उस भुजङ्ग को,
जिसके पास गरल हो,
संधि-वचन संपूज्य उसी का,
जिसमें शक्ति-विजय हो ।
--
धरती के भुजङ्ग बाँध लेते हैं,  शिव को,
भर बाहों में करते हैं उनसे आलिंगन !
सुख इतना पाते हैं वे विषधर भी,
भूल जाते हैं वे फिर शीतल चंदन !
--
करते रहते भ्रमण सदा चतुर्दिक्
हर ओर सन्निकट शिव के,
डूबे निमग्न होकर जैसे समाधि में ,
वे  उग्र सशक्त शान्त रूप शंकर के ।
--

August 25, 2016

ब्रजभाषा का पद्य और संस्कृत अनुवाद !

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी पर .. 
ब्रजभाषा का एक पद्य और संस्कृत अनुवाद !
--
"मथुरा के कारे, फिरि जमुना के धारे, जिन्ह पूतना को तारे, मद कालिय पछारे हैं
गिरिवर धारे, जिन्ह कंसहू को मारे, रथ पारथ हँकारे, महाभारत सँवारे हैं 
सोई रतनारे जसुमति के दुलारे जुग नैनन के तारे सारे गोकुल के प्यारे हैं 
नन्दजू के द्वारे लखो भोरे-भिनुसारे सब सुरन्ह पधारे नभ छाए जयकारे हैं" 
_________________________________________________
११:३१ अपराह्न, बुधवार, २४ अगस्त २०१६, भुवनेश्वर, ओडिशा
--
मथुरायाः श्याम हे !

"मथुराकाराजात !..."



यमुनायाः धारक !
पूतनायाः तारक !
कालीयमदमर्दक  !
गिरिवरस्य धारक !
कंसस्य मारक !
पार्थसारथि हे !
महाभारता-नायक !
सैव रत्नार हे !
यशोदाया:लाल-ललन !
युगलनयनतारकौ !
गोकुलस्य प्रिय हे !
नन्दस्य द्वारे अद्य !
उषस्-प्रभाते सद्य !
आगताः सुरा: सर्वे !
जयकाराव्याप्तानि नभे !!
--
टिप्पणी 
--
रोचक भूल हो गई मुझसे ! 
मूल पद्य के रचयिता ने मेरा ध्यान और दिलाया कि की 'मथुरा के कारे' से उनका आशय 'मथुरा की कारा (कारागार) में जन्मे' था !
मैं ’कारा’ को ’काला’ समझ बैठा !

ख़ैर, संशोधन प्रस्तुत है :
इस भूल की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद !
॥ श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ! ॥ 

August 18, 2016

उलझन / सुलझन

उलझन / सुलझन
--
उलझेंगे तो सुलझेंगे भी, उलझेंगे ही नहीं तो सुलझेंगे कैसे?
पर उलझे ही रहने में भी किसी किसी को सुख महसूस होता है और कुछ लोग इस डर से कि रहने दो, कौन उलझे, जिन्दगी भर / अन्त तक दुविधा में ही पड़े रहते हैं । अपनी अपनी प्रकृति है, कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन ! किन्तु कुछ लोग सिर्फ इसलिए भी उलझन में फँसे रहते हैं क्योंकि वे यथार्थ से पलायन करना चाहते हैं, यथार्थ को देखना तक नहीं चाहते । यथार्थ को जानना / समझना भी उन्हें अनावश्यक झमेला प्रतीत होता है ! सुविधापसंद ऐसे लोग भी अपने तरीके से सुखी / दुःखी होने के लिए मज़बूर / स्वतंत्र (?) तो होते ही हैं !  
--

दिल का हिस्सा!

सुनीताजी की एक खूबसूरत कविता,
--
नदी के हिस्से में सिर्फ शोर है
पहाड़ के हिस्से में ख़ामोशी
इंसानों के हिस्से में दिल है
पर अलग अलग रंग के दिल
उनमे से कुछ रंग शोर करते हैं
कुछ खामोश रहते हैं
अपने आँगन में इंसानों के तमाशे देख
नदी और पहाड़ भी अब
*एक्टिंग* की दुनिया में कदम रखने जा रहे हैं
--

इसे मैं यह रूप देना चाहता हूँ !
--
नदी के हिस्से में सिर्फ़ शोर है,
पहाड़ के हिस्से में सिर्फ़ खामोशी,
इंसानों के हिस्से में दिल है,
दिल के हिस्से में पहाड़-नदी,
दिल ये पहचान तक नहीं पाता,
कहाँ से शुरु होते हैं, कहाँ वे ख़त्म,
वो पहाड़ जो खामोश हुआ करते हैं,
वो नदी जो शोर हुआ करती है,
दिल के हिस्से में क़ाश न होता,
और कुछ भी, ... सिवा उन दोनों के !
--

August 14, 2016

संस्मरण / निहितार्थ और प्रतिफल -1

संस्मरण
निहितार्थ और प्रतिफल -1.
--
इस शहर में मैं पहली बार आया हूँ । थोड़ा आश्चर्य हुआ यह जानकर कि 30 वर्षों पूर्व मैं जिस शहर में रहता था वह यहाँ से भले ही 900 किलोमीटर दूर हो, भले ही वहाँ हिंदी का प्रचलन कम हो, मनुष्य और उसकी मानसिकता और मानसिकता की परिपक्वता हर स्थान पर न्यूनाधिक एक जैसी ही होती है । आर्थिक समृद्धि, शिक्षा या उच्च-शिक्षा, भौतिक, राजनीतिक या कलात्मक प्रतिभा, विद्वत्ता, तथाकथित आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र आदि में उच्च स्थान पा लेने से, या वृद्ध हो जाने से भी किसी की मानसिकता बदल जाये ऐसा प्रायः कम ही होता है ।
वर्ष 1987 में जब मैं गुजरात के उस शहर (वेरावल) में था तो एक सस्ते किन्तु साफ़-सुथरे होटल (शायद श्रीनिवास लॉज) में रुका था, जहाँ बीस रुपये में एक साफ़-सुथरा कमरा मुझे रहने को मिला था । तब मैं राजकोट में एक बैंक में कार्यरत था होली की छुट्टी में जूनागढ़ (गिरनार) तथा वेरावल (सोमनाथ) घूमने का विचार था ।
शाम को भोजन के लिए लॉज से निकला ही था कि रास्ते में मेरी बैंक का एक ग्राहक जो युवक ही था, मेरी ओर आता दिखलाई दिया । वह राजकोट की किसी फ़ायनेंशियल फ़र्म में काम करता था, शायद शेयर-ब्रोकर के साथ ।
’अरे वेदभाई!’ उसने आवाज लगाई ।
चूँकि उसके साथ एक लड़की भी थी इसलिए मैं उसे नज़र-अंदाज़ करना चाहता था ।
मैंने मुस्कुराकर उसे ’हलो’ भर कहा ।
उसने अपने साथ की लड़की का परिचय देते हुए कहा,
"ये ..... है, मेरी गर्ल-फ़्रेंड!"
"ओह!"
मैं बस इतना ही कह सका ।
वह लड़की निरपेक्ष भाव से इधर-उधर देखती चुपचाप खड़ी रही ।
"आप वेरावल घूमने आए हैं?"
"हाँ, सोमनाथ जाना है ।"
"यहाँ कहाँ रुके हैं?"
"यहीं श्रीनिवास-लॉज में ।"
"ठीक है, फ़िर मिलेंगे...।"
कहकर वह चला गया ।
जब मैं भोजन कर क़रीब आठ बजे अपने कमरे पर लौटा तो कुछ मिनट बाद दरवाजे पर नॉक की आवाज हुई । मैंने सोचा बैरा होगा, इसलिए दरवाजा खोला तो देखा वह युवक खड़ा था ।
"आओ!"
मैंने सौजन्यतावश उसे भीतर आने के लिए कहा ।
"वेदभाई, हमें भी यहीं रूम मिल गया है । दर-असल आपको देखकर ही मैंने यहाँ रूम ले लिया क्योंकि आपसे कुछ बातें शेयर कर सकता हूँ । आपको राजकोट में भी बहुत कम लोग जानते हैं और वैसे भी आप लोगों से कम ही मिलते-जुलते हैं ।"
"मुझसे आप कौन सी बात शेयर करना चाहते हैं?
"दर-असल हम दोनों राजकोट से घर से भागकर आए हैं । हम शादी करना चाहते हैं लेकिन उसमें घरवालों को आपत्ति है । राजकोट में यह बहुत मुश्किल था । यहाँ दो-चार दिन रहकर हम कहीं और चले जाएँगे । लेकिन पहले कोर्ट-मैरिज कर लेंगे । यहाँ हम दोनों के कुछ परिचित हैं जिनसे मदद मिल जाएगी ।"
"हाँ..."
"दर-असल हम दोनों अलग-अलग जाति-धर्म के हैं, वैसे दोनों हिन्दू ही हैं ।"
उसने स्पष्टीकरण दिया ।
"मुझसे आपको क्या उम्मीद है?"
मैंने मुस्कुराते हुए पूछा ।
"बस यूँ ही दिल हल्का करने के लिए! आपसे मुझे कोई रिस्क भी नहीं है कि आप मेरे काम में बाधा खड़ी करेंगे । पर मेरे मन में एक प्रश्न यह है कि क्या हम जो कर रहे हैं वह ठीक है या नहीं ?"
"तुम शादी क्यों करना चाहते हो?"
"अजीब सवाल है आपका! क्या अपने पैरों पर खड़ा हो जाने के बाद शादी किसी जवान आदमी की ज़रूरत नहीं होती?"
"तुम्हारा मतलब है किसी स्त्री के साथ रहना और गृहस्थी बसाना?"
"जी!"
"तो इसके लिए विवाह करना ज़रूरी है?"
"बिना विवाह किए साथ रहना तो समाज में और भी मुश्किल है । फिर हमें एक दूसरे से प्यार भी है ।"
"क्या यह प्यार कुछ साल बाद भी ऐसा ही सच्चा प्यार बना रहेगा?"
"लेकिन फिर यह हमारा दायित्व हो जाएगा, फिर परिवार, बच्चे..., इनमें बँट जाएगा ।"
"लेकिन स्त्री हो या पुरुष, किसी का मन कब बदल जाए, कौन कह सकता है?"
"अभी तो यही लगता है, तब की तब देखी जाएगी ।"
"तुम कहते हो तुम दोनों हिंदू हो, इसका क्या मतलब है?"
"आपको पता है मैं जैन हूँ, और वह वैष्णव अग्रवाल । और आजकल इन सब बातों का क्या मतलब रह गया है? हम दोनों राजी हैं इससे ज़्यादा और क्या चाहिए?"
"तुम शादी क्यों करना चाहते हो?"
मैंने फिर एक बार प्रश्न दुहराया ।
"और मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर खुद देना चाहूँगा । वयस्क हो जाने पर स्त्री-पुरुष के बीच आकर्षण होना प्रकृति ही है, और इसका मूल प्रयोजन है संतानोत्पत्ति । जैसा कि तुमने कहा तुम दोनों हिंदू हो, तुम जैन, और वह अग्रवाल बनिया । अब जैन धर्म तो मूलतः तप और मुक्ति पर जोर देता है, श्रमण-धर्म है और इंद्रिय-निग्रह तथा संयम का आग्रह रखता है इसलिए विवाह के बारे में जैन धर्म सीधे कुछ नहीं कहता । परंपरागत जैन-धर्म में विवाह का समाज की ज़रूरत के अनुसार तालमेल कर लिया जाता है । रही हिन्दू धर्म की बात, तो हिन्दू-धर्म का भी एक तो परंपरागत रूप है जो विभिन्न संप्रदायों में सौहार्द्र को महत्व देता है, तो दूसरा वह रूप है जो सनातन-धर्म अर्थात् वेद को प्रमाण मानता है । दूसरे शब्दों में वर्णाश्रम-धर्म को आधारभूत धर्म स्वीकार करता है । जैन धर्म वर्णाश्रम धर्म के बारे में विशेष कुछ नहीं कहता इसलिए वर्णाश्रम धर्म को मानते या न मानते हुए भी जैन धर्म का आचरण किया जा सकता है । इस दृष्टि से दोनों धर्मों में कोई विरोध नहीं है । किंतु वैदिक वर्णाश्रम-धर्म के मतानुसार स्थिर स्वस्थ मानव समाज में चार प्रकार के वर्ण रहेंगे ही चाहे उसे वर्ण-व्यवस्था का नाम दिया जाए या न दिया जाए । पुनः ये ’वर्ण’ जाति-आधारित न होकर मनुष्यमात्र के ’गुण-कर्म’ से निर्धारित होते हैं और जिसमें जैसे संस्कार होंगे वह प्रकृति से उस वर्ण का होगा । स्वाभाविक है कि प्रारंभ में किसी काल में जब सनातन धर्म का अधिक महत्व था, विवाह की व्यवस्था वर्ण को शुद्ध बनाए रखने के लिए की गई होगी ताकि अपने-अपने वर्ण के स्वाभाविक कर्मों का निर्वाह करते हुए प्रत्येक मनुष्य जीवन के परम श्रेयस् को प्राप्त कर सके । इसलिए सनातन-धर्म की दृष्टि से अपने वर्ण से इतर वर्ण में विवाह करना न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए अनिष्टकारी है । दूसरी ओर आश्रम तो प्राणीमात्र को प्रकृति से ही प्राप्त होता है । अब तुम्हारी आयु गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की है ।"
"तो क्या मैं किसी ऐसी लड़की से केवल इसलिए विवाह कर लूँ कि वह मेरे वर्ण की है जिसे मैं जानता तक नहीं, और जो मुझे नहीं जानती?"
"लेकिन यह तो तुम्हारे ही वर्ण की हुई न! गुण-कर्म के आधार पर तो तुम दोनों वैश्य ही हो ।"
वह प्रसन्न हो उठा ।
बाद में जब विवाह कर वे सेटल हो गए तो एक दिन मुझे उसने विशेष रूप से अपने घर पर भोजन के लिए बुलाया ।
--