July 26, 2016

दो कविताएँ /-

आज की कविता 
दो कविताएँ /-
--
1. ##########
सच्चाई !
--
पहाड़ तोड़ तोड़ कर,
कर दिए खड़े,
रेत के पहाड़ कई ।
सब बहा ले गई नदी !
आसमाँ हँसता है मुझ पर,
जमीं उड़ाती है हँसी मेरी,
और मैं हो चला,
रेत-रेत ज़र्रा ज़र्रा !
--
2. ##########
दहशत / साँप 
--
दो दिन पहले,
घर में निकल आया था,
देखा तो था सबने,
पर वह कहाँ छिप गया,
देख न सका कोई !
फिर तय हुआ,
कि वह चुपके से,
आँखों में धूल झोंक,
खिसककर निकल गया होगा ।
मुझे याद आया,
जैसे इंसाफ़ के बारे में कहते हैं,
कि इंसाफ़ होना ही काफ़ी नहीं,
होता हुआ दिखाई भी देना चाहिए,
वैसे ही,
उसका निकल आना / जाना,
काफ़ी न था,
अच्छा होता कि अगर,
उसका निकल कर चले जाना भी,
दिखलाई दे जाता !
और हम लक़ीर ही न पीटते रहते !
--                

July 19, 2016

संगठित-धर्म / धार्मिक-मत और विश्वास

संगठित-धर्म / धार्मिक-मत और विश्वास
--
किसी भी मज़हब / जाति में जन्म होना (न होना) तो किसी के भी बस में नहीं है, किंतु संगठित-धर्म किसी वैचारिक आधार पर बना मनुष्यों का एक ऐसा समुदाय होता है जो किसी विश्वास / मत का अनुयायी होता है और चूँकि भौतिक और व्यावहारिक तल पर ऐसे किसी भी विश्वास की सत्यता (असत्यता) प्रमाणित नहीं की जा सकती इसलिए मनुष्य विश्वासों / मतों के एक समूह को छोड़कर दूसरे को अपना लेता है । इस प्रकार के संगठित मत / विश्वास हमेशा परस्पर संघर्षरत तथा अपने ही समुदाय में अन्तर्द्वन्द्वयुक्त होते हैं इसलिए समूची मनुष्य जाति निरंतर क्लेश से ग्रस्त रहती है । वर्चस्व की इस लड़ाई का आरंभ ही भय और असुरक्षा, परस्पर अविश्वास की गहरी भावना से होता है जो कट्टरता में बदल जाता है । इसे भले ही संस्कृति / भाषा / भौगोलिक भिन्नता के आवरण में छुपाया जाए, भीतर घृणा ही पनपती रहती है और मौक़ा मिलते ही हिंसा पर उतारु हो जाती है । यह अत्यन्त दुःखद तो है, लेक़िन जब तक हम इस पूरी गतिविधि को ठीक से देख-समझ नहीं लेते, वर्तमान अशान्ति और असन्तोष, असुरक्षा और भय और अधिक तीव्र और विकट रूप लेते रहेंगे इसमें सन्देह नहीं ।
--