January 31, 2016

प्रेम नहीं, स्नेह

प्रेम नहीं, स्नेह
--
बहुत साल पहले
सुनील गंगोपाध्याय का उपन्यास प्रेम नहीं स्नेह पढ़ा था । एक परिचिता को पढ़ने को दिया तो उसने कहा कि नायिका की कोई ग़लती नहीं थी । मुझे हैरत हुई यह सुनकर, क्योंकि यह एक स्त्री के द्वारा की गई ’संक्षिप्त, सारगर्भित समीक्षा’ थी । बरसों बाद उस परिचिता की शादी हो गई और उसके बरसों बाद पुनः उससे मिलना हुआ तो अब भी उसकी यही राय थी । मुझे और अधिक हैरत हुई । फिर उसने कहा कि स्त्री तो प्रकृति होती है, न स्वतन्त्र न परतन्त्र । और तब मुझे समझ में आया कि (लेखक के अनुसार) जिसे नायक प्रेम समझता था वह निखालिस स्नेह था, जबकि रऊफ़ जिसे प्रेम समझता था वह स्त्री के लिए स्वाभाविक प्रकृति है ।
"क्या स्त्री प्रेम और स्नेह के अंतर को भी नहीं जानती ?"
मैंने पूछा ।
"वह अंतर करती ही नहीं ।"
उत्तर मिला ।
--
नायक जिसे उपन्यास के अन्तिम पैराग्राफ़्स में अनुभव करता है, वैसा ही कुछ-कुछ मुझे आज की आधुनिक स्त्री को देखकर अनुभव होता है, मुझे लगता है उस परिचिता का कहना असत्य नहीं था । और मैं तय नहीं कर पाता कि मुझे स्त्री से प्रेम है या स्नेह ।
(चलते-चलते : बहरहाल आदर ज़रूर है ।)
--

January 25, 2016

विकल्पवाद

विकल्पवाद 
--
बहुत पहले कभी लिखा था, जो मेरे लिए आज भी उतना ही सत्य है  :
तुम्हारे लिए मैं दुःखी हूँ, पर निराश नहीं,
अपने लिए मैं निराश हूँ, पर दुःखी नहीं ।
--
जब मैं अपनी दुनिया में अपनी दुनिया से बातें करता हूँ तो कुछ यही भाव / दर्शन होता है मेरा ।
यह कोई विचार या भावुकता नहीं, मेरी दुनिया के बारे में मेरी समझ, सहानुभूति और संवेदनशीलता होती है । जब तक मैं और मेरी दुनिया एक चुम्बकीय अस्तित्व के दो ध्रुवों की तरह एक दूसरे से दूर होते हैं यह संवेदनशीलता उनके ’चुंबकीय-क्षेत्र’ की तरह व्यक्त / प्रकट रहती है, जब दोनों ध्रुव परस्पर मिलकर एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं तब यह प्रच्छन्न हो रहती है । मैं, मेरी दुनिया, और हम दोनों का यह अंतरंग संबंध नितान्त वैयक्तिक होता है और अनुमान करना स्वाभाविक होगा कि मेरी दुनिया में मेरे संपर्क में आनेवाले असंख्य लोगों में से प्रत्येक ही मेरे जैसा ही एक और व्यक्ति है और उसके साथ भी बिल्कुल यही सब होता होगा । और मज़े की बात यह है कि इसके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता... !
यह समझ में आने के बाद मेरे लिए कोई वैयक्तिक अतीत, वर्तमान या भविष्य कहाँ शेष रह जाता है, जिसे मैं ’अपना’ कह सकूँ ? किन्तु तब मेरे अपने लिए मुझे कोई आशा भी नहीं होती और मैं निराश तो होता हूँ किन्तु आशा न होने से दुःखी होने के लिए भी कोई वज़ह नहीं होती ।
किन्तु जब मैं ’अपनी’ दुनिया के उन असंख्य लोगों को देखता हूँ जो नितान्त व्यर्थ स्वकल्पित दुःख झेल रहे हैं और आशा करते हैं कि कहीं किसी भविष्य में अपने दुःखों से मुक्ति पा लेंगे और इस स्वस्वीकृत विभ्रम में ’अपनी-अपनी’ दुनिया के दूसरे लोगों से पूरी शक्ति से संलग्न होकर संघर्षरत रहते हैं, और स्वयं भी शोकग्रस्त रहते हुए ’दूसरों’ को भी त्रस्त करते रहते हैं, तो मैं दुःखी होता हूँ, किन्तु निराश नहीं होता क्योंकि मुझे इस बारे में रंचमात्र भी संशय नहीं कि इन असंख्य लोगों में से प्रत्येक कभी न कभी अपने नितान्त व्यर्थ स्वकल्पित दुःख और उससे उत्पन्न होनेवाली आशा की व्यर्थता / निरर्थकता (absurdity) को देख सकेंगे । और यही एकमात्र अवश्यम्भावी ’भविष्य’है सबका । इसलिए ’उनके’ लिए मैं दुःखी हूँ, पर निराश नहीं ।
--

January 23, 2016

मानवाधिकार और न्यायपालिका

मानवाधिकार और न्यायपालिका
हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों में आक्रोश है और उन्हें शिक़ायत है कि न्यायपालिका हिन्दुओं के रीति-रिवाजों के संबंध में मानवाधिकार, महिला-अधिकार आदि के या पशु-दया के हनन के आधार पर तो स्वतः संज्ञान लेते हुए, या किन्हीं लोगों द्वारा याचिका दायर करने पर अपने कर्तव्य के प्रति संविधानप्रदत्त मर्यादाओं में रहते हुए हस्तक्षेप करती है, किन्तु वहीं ऐसे ही मानवाधिकार के या पशु-दया के हनन के संबंध में हिन्दुओं से अन्य धर्म और रीति-रिवाजों के क्रियाकलापों के प्रति आँखें बन्द रखती है । वस्तुतः न्याय-पालिका से ऐसी अपेक्षा की जाती है और की जाना भी चाहिए कि वह धर्म या संप्रदाय के आधार पर नागरिकों में भेदभाव न करे और यदि नागरिकों के मन में ऐसी शंका उत्पन्न होती है कि न्यायपालिका द्वारा जाने-अनजाने संभवतः ऐसा हो रहा है तो उनकी शंका का निराकरण करे ।
--
श्रीमद्भगवद्गीता 
अध्याय 2, श्लोक 24,

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
--
(अच्छेद्यः अयम् अदाह्यः अयम् अक्लेद्यः अशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुः अचलः अयम् सनातनः ॥)
--
भावार्थ :
यह आत्मा (संविधान और न्यायपालिका) अच्छेद्य है (जिसे काटा नहीं जा सकता, खण्डित नहीं किया जा सकता), यह आत्मा  अदाह्य है (जिसे जलाया नहीं जा सकता), अक्लेद्य है, (जिसे जल से भिगोया नहीं जा सकता), और इसी प्रकार अशोष्य (जिसे सुखाया नहीं जा सकता) । यह आत्मा नित्य ही सर्वगत (सबमें अवस्थित), स्थाणु (एक ही स्थान पर विद्यमान, ध्रुव),  और अचल है ।
--

January 03, 2016

पल-दो-पल का रोमाँच

पल-दो-पल का रोमाँच
--
उम्र के दिन गए हैं लद
देखता है दाँए बाँए ऊँट,
देखता हूँ मैं भी उसको,
बैठेगा आख़िर किस करवट !
--

January 02, 2016

आज की कविता / शिल्पकार

आज की कविता
02-01-2016.
--
शिल्पकार
कविता,
कोई शग़ल नहीं,
एक दोधारी तलवार है,
जिसे चलाते हुए कवि,
करता है आहत खुद को,
और होता है आहत खुद भी,
रचता भी है वह खुद को,
और रचा जाता भी है वही खुद,
जैसे छैनी हथौड़ी चलाता हुआ,
कोई मूर्तिकार,
उभारता है शिल्प कोई,
उकेरता है खुद को भी ।
--