July 26, 2015

आज की 2 कविताएँ

आज की 2 कविताएँ
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1. बाढ़
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घर में पानी, पानी में घर,
और हुआ देखो मैं बेघर!
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2.
अन्योन्याश्रित
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घट में पानी, पानी में घट,
दुनिया, गोरी! गागर पनघट!
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July 25, 2015

आज की कविता / ’क्यों?’

आज की कविता / ’क्यों?’
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मन हमेशा ऊब जाता है नई हर बात से,
आदमी क्यों मन से ऊबता नहीं ?
बहता ही रहता है मन के साथ क्यों ,
क्यों दिल की गहराई में डूबता नहीं ?
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July 19, 2015

आज की कविता / मंज़र

आज की कविता
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मंज़र

रोज़ बदल जाते हैं,
निज़ाम हुकूमत के,
रोज़ बदल जाती है,
तक़दीर रिआया की ।
रोज़ बदल जाते हैं,
नजूमी सियासत के,
रोज़ बदल जाती है,
पेशीनग़ोई उनकी ।
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शुभ रात्रि !

॥ जय जगन्नाथ ॥

भगवान् महाकालेश्वर की नगरी उज्जैन से,
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July 17, 2015

आज की कविता / मेरा घर,

आज की कविता
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सीप में शहर,
शहर में मेरा घर,
घर में बिछी चाँदनी,
एक मोती सी जड़ी हुई ।
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July 16, 2015

आज की कविता / 'अच्छे दिन!'

आज की कविता
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'अच्छे दिन!'
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वह ढोती,
सिर पर,
घास का गट्ठर,
घर पहुँचकर,
देगी गाय को,
गाय को दुहकर,
बनाएगी चाय,
पति आता होगा,
पिएँगे दोनों,
ए.टी.एम. कार्ड,
उसके पास भी होगा,
शायद मोबाईल भी,
दोनों में शायद बैलेंस भी हो,
शून्य ही सही !
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July 09, 2015

प्रसंगवश : गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर

प्रसंगवश,
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर
कौन है ’जन-गण-मन-अधिनायक’?
जन अर्थात् जन-सामान्य,
गण अर्थात् गण्यमान अर्थात् देवता, गणतन्त्र के प्रतिनिधि,
मन अर्थात् राष्ट्र की चेतना,
अधिनायक अर्थात् सर्वोच्च शासक-शक्ति,
स्पष्ट है कि ’अधिनायक’ का अर्थ कोई मनुष्य-विशेष न होकर परमेश्वर मात्र है ।
हम सामान्यतः अधिनायक शब्द को dictator के अर्थ में ग्रहण करते हैं, और जिन्हें अधिनायक शब्द का यही भाव और अर्थ गुरुदेव की इस रचना में दिखलाई देता है, उनके पूर्वाग्रह पर मुझे हँसी आती है । और इसकी रचना की तारीख़ किंग जॉर्ज के भारत-आगमन के आसपास होने का यह मतलब निकालना कि गुरुदेव ने यह रचना उनकी प्रशस्ति में लिखी है, शुद्ध काल्पनिक अनुमान ही होगा, और इस आधार पर ठाकुर रवीन्द्रनाथ के साथ हमारा घोर अन्याय भी होगा । क्या देखना यह उचित नहीं होगा कि गीताञ्जलि और दूसरी असंख्य रचनाओं में उन्होंने ’ईश्वर’ का उल्लेख नहीं किया है? क्या कहीं किंग जॉर्ज का परोक्ष / अपरोक्ष उल्लेख किया है?
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July 08, 2015

आज की कविता / हवा में ठहरा हुआ पँख

आज की कविता
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हवा में ठहरा हुआ पँख
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हवा में ठहरा हुआ पंख,
हवा है,
हवा के साथ डोलता हुआ,
पानी है,
बून्दों में भींगता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख,
धरती है,
धरती की ओर गिरता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख,
अग्निशिखा है,
धूप में चमकता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख आकाश है,
आकाश में खेलता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख,
सब-कुछ है,
सबसे बँधा हुआ,
संसक्त, असक्त, अनासक्त,
विरक्त, अनुरक्त,
उन्मुक्त, मुक्त, विमुक्त,
सबसे निर्लिप्त,
निरीह!
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July 07, 2015

अ‍ेक सवाल !

अ‍ेक सवाल !
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वक़्त की धीमी गति की ट्रेन के रुक जाने पर हर बार मैं ट्रेन में बैठे रहने से ऊबकर बाहर उतर आता हूँ, और ट्रेन के चल पड़ने पर दौड़कर डिब्बे में चढ़ जाता हूँ । जहाँ से ट्रेन में जिस डिब्बे में बैठा था, हर बार उतरते-उतरते बहुत पीछे पहुँच गया हूँ, शायद आखिरी या उसके पहले के दूसरे या तीसरे डिब्बे में । अब सोचता हूँ कि क्या अगली बार अपने डिब्बे से उतरने का रिस्क लिया जाए? और उस पर तुर्रा यह कि मुझे नहीं पता कि ट्रेन का गन्तव्य कहाँ है, जहाँ वक़्त का सफ़र ख़त्म हो जाएगा ! क्या मैं किसी दिन वक़्त से परे कहीं पहुँच जाऊँगा? इसका क्या मतलब हुआ आख़िर????
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July 06, 2015

आज की कविता / विवेक

आज की कविता / विवेक
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(सन्दर्भ- इन्द्रधनु के रंग
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हिंस्र जीवों से भरा है अति गहन,
भोग का प्रवाह पर संकीर्ण है,
इस तरफ़ या उस तरफ़ तो बच सकेंगे,
मझधार में संभावना तो क्षीण है ।
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July 05, 2015

आज की कविता / इन्द्रधनु के रंग / LGBTQ

आज की कविता
इन्द्रधनु के रंग / LGBTQ 

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देह से मुक्ति का उद्घोष है यह,
या मनोविकृति का जोश है यह,
एक उन्माद है विक्षिप्तता का,
या मुक्तिपूर्ण नया होश है यह?
इन्द्रियों की दासता क्या मुक्ति है?
काम का आवेग कोई युक्ति है?
वृत्तियाँ अवसाद न बनें जिसमें,
क्या ये ऐसी कोई प्रवृत्ति है?
सुख की लालसा है अन्तहीन,
मृग-मरीचिका है अन्तहीन,
इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं पर,
कामना भोग की है अन्तहीन ।
यह नया उल्लास है पतंगों का,
अग्नि को ज्योति समझने की भूल,
ज्योति जब जागती है हृदय में,
हृदय खिलता है जैसे कोई फूल ।
किन्तु किसे चाहिए मुक्ति यहाँ,
भोग का उन्माद सबको चाहिए,
हर तरफ़ जब हो यही कोलाहल,
योग का प्रसाद किसको चाहिए?
है पतंगों की नियति ही जल जाएँ,
है उमंगों की नियति कि ढल जाएँ,
किसमें है धैर्य अब कहाँ इतना,
फ़िसलने से पहले ही सँभल जाएँ?
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July 02, 2015

आज की कविता /आह उदयपुर !

आज की कविता /आह उदयपुर !
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सुदूर है वह हरित पर्वत,
पास है यह सुरम्य झील,
वे घनेरे मेघ काले,
और नभ वह नील,
झोंके पवन के धीमे-धीमे,
छेड़ते हैं राग कोई,
लहरों में बज उठा अनोखा
मधुर स्वर में साज़ कोई,
एक नौका झील में,
एक मेरे हृदय में भी,
तुम कहो तो साथ ले लें
चाँद तारों को अभी,
हाँ मगर मत भूल जाना,
सँजो रखना याद में भी ,
और फ़िर फ़िर याद करना,
प्रीति को तुम बाद में भी !
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July 01, 2015

इण्डिया और / या भारत - एक अनावश्यक विवाद

इण्डिया और / या भारत - एक अनावश्यक और दुर्भाग्यपूर्ण विवाद
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’इंडिया’  एकदम उपयुक्त और प्रामाणिक नाम है भारत का, यद्यपि यह भारत से प्राचीन है या नहीं इस बारे में शायद ठीक से नहीं कहा जा सकता  । ’इंडिया’ हमें याद दिलाता है कि ’आर्यावर्त’ की संस्कृति का विस्तार वर्तमान अफ़गानिस्तान से लेकर सुदूर इन्दोनेशिया और निकटवर्ती क्षेत्रों तक रहा है । ’इन्दु’ / चन्द्र से भारतीय वैदिक ’पञ्चाङ्ग’ तथा चन्द्रवंशी पाण्डवों / ’भारत’ की व्युत्पत्ति हुई है । यह ’इंडिया’ शब्द ’सिन्धु’ या ’इंडस्’ से नहीं बना है जैसा कि हमारी स्मृति में भर दिया गया है , ’सिन्धु’ > ’हिन्दु’ की अलग कथा है और ’हिन्दु’ / ’हिन्दु’ शब्द वर्तमान में हमारे लिए अत्यन्त कष्ट का कारण बना हुआ है इससे इन्कार नहीं किया जा सकता ।
अभी भी बहुत से लोगों का आग्रह है कि  'इण्डिया' नाम हमें विदेशियों से प्राप्त हुआ है।
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आज की कविता / 'मोदी' होने का मतलब

आज की कविता / 'मोदी' होने का मतलब 
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© मोदी मोदी सब भये मोदी भया न कोय,
एक बार मोदी भये हर कोई मोदी होय!
(यमक या श्लेष?)
© मोदकं दृष्ट्वा लुब्धो गणेशोऽपि भवेत् मोदी ।
मोदते मोदयति भक्तान् भक्तेन्द्रो गणेशो सः ॥
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© modakaṃ dṛṣṭvā lubdho gaṇeśo:'pi bhavet modī |
modate modayati bhaktān bhaktendro gaṇeśo saḥ ||
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© मोदी चेत् सर्वे अभवन् न कोऽपि अभवत् मोदी ।
एकदापि भूत्वा मोदी एकैको मोदी भवेत् ॥
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modī cet sarve abhavan na ko:'pi abhavat modī |
ekadāpi bhūtvā modī ekaiko modī bhavet ||
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