June 27, 2015

उन दिनों / 27-06-2015.

उन दिनों / 27-06-2015.
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1974 की गर्मियों की एक शाम,
इंजीनियरिंग कॉलेज के आवासीय परिसर स्थित एक क्वार्टर में भोजन करते हुए बड़े भाई ने बतलाया कि मैं पास हो गया हूँ । बी.एस-सी. अंतिम वर्ष की परीक्षा में । मुझे तो उम्मीद तक नहीं थी, बहरहाल डूबते को तिनके का सहारा । मैंने सोचा कि साँख्यिकी में एम.एस-सी. कर लूँ, क्योंकि तृतीय श्रेणी (जिसे हम व्यंग्य या मजाक में अद्वितीय श्रेणी कहते थे) में ’उत्तीर्ण’ होने के बाद या तो मुझे हिन्दी / अर्थशास्त्र / राजनीतिशास्त्र में प्राइवेट या रेगुलर एम.ए. करना या कोई छोटा-मोटा ’जॉब’ ही एक रास्ता था । बी.एस-सी. के पहले दो साल (तीन वर्षों में) में मैं द्वितीय श्रेणी प्राप्त कर सका था, और उम्मीद थी कि अन्तिम वर्ष में भी इतना तो कर ही पाऊँगा, किन्तु अन्तिम वर्ष में कॉलेज बदलना पड़ा, भौतिक-शास्त्र के जिस पेपर से बहुत उम्मीद थी उसमें ’सिलेबस’ के अनुसार तीन हिस्से थे और उनमें से मैंने अपनी पसन्द के ’इम्पॉर्टेन्ट’ हिस्से अच्छी तरह तैयार कर लिए थे और तब मुझे उम्मीद थी कि मैं बेहतर कर पाऊँगा । किन्तु जब ’पेपर’ देखा तो मेरे होश उड़ गये । अगर ’सिलेबस’ के अनुसार ’क्वश्चन-पेपर’ बनाया गया होता तो मैं तीन हिस्सों में विभाजित ’पेपर’ के छः प्रश्न हल कर सकता था, किन्तु अन्तिम समय में देखा कि ’पेपर’ में तीन हिस्से नहीं थे, और मेरी सब तैयारी धरी की धरी रह गई । और मेरे सारे ’इम्पॉर्टेन्ट टॉपिक्स’ नदारद थे । बी.एस-सी. में कमज़ोर नतीज़े का एक कारण यह भी था कि तमाम परेशानियों के बावज़ूद मैंने ’इंग्लिश मीडियम’ चुन लिया था, जबकि स्कूल में मेरी शिक्षा हिन्दी माध्यम से हुई थी । पिताजी रिटायर हो चुके थे, तीन बड़ी बहनें अविवाहित थीं, और बड़ा भाई मुम्बई में आई.आई.टी. से एम्.टेक्. कर रहा था । छोटा भाई अभी स्कूल ही में पढ़ता था । और इन सब परिस्थितियों के जो ज्ञात अज्ञात कारण थे, उन्हें बदल पाने का तो प्रश्न ही कहाँ उठता है? तभी मेरे मन में यह धारणा बनने लगी थी कि जब ’वर्तमान’ अतीत के सारे कारणों पर आश्रित और उनका परिणाम है, और इसे बदला नहीं जा सकता, तो ’भविष्य’ जिसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है क्या उसे बनाने या बदलने का प्रयास करना मनुष्य के लिए संभव है? मैं मानता हूँ कि शायद ही कोई व्यक्ति मेरे इस प्रकार के चिन्तन से राजी होगा, किन्तु मेरे पास इस प्रश्न का न तो कोई उत्तर था और न किसी और को इसके लिए राजी कर पाने की ज़रूरत या मेरा सामर्थ्य ही था ।
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कल और पिछले दिनों 'इमरजेंसी' के 'चालीसवें' पर बहुत कुछ लिखा गया।  और उस सबको पढ़ते हुए यहाँ 'अतीत' जो मेरी स्मृति के अलावा कहीं है या नहीं इस बारे में मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है, के बारे में सोचते हुए यह सब याद आया।
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उन दिनों ’सारिका’ और ’धर्मयुग’ में कमलेश्वर जी के मित्र स्व. दुष्यन्तकुमार की ग़ज़लों से मैं बहुत प्रभावित था । फेसबुक पर बुद्धिजीवी और साहित्यकार मित्र 'बदलाव' की ज़रूरतों और 'सम्भावनाओं' पर लम्बी-लम्बी चर्चाएं और बहसें कर रहे हैं, मुझे 'उन दिनों' के सन्दर्भ में दुष्यंत कुमार के कुछ शेर याद आए  -
मत कहो आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीक़े-ज़ुर्म हैं,
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी क़ोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।



'गरगजी' या 'अविज्नान' यहाँ होते, तो वे मुझसे या मैं उनसे पूछता :
"कौन सी सूरत? क्या इस 'वर्तमान' की अनगिनत सूरतें नहीं होतीं ? क्या हर शख्स का 'वर्तमान' उसका एक अपना, सबसे जुदा अकेला संसार नहीं होता? निपट और नितांत अकेला? उसके उसे संसार को कितने लोग जानते हैं ? और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कितने लोग उस संसार को 'महसूस' करते  हैं?
क्या 'खयालों' के अलावा कोई वाकई किसी से कुछ 'शेयर' कर सकता है? क्या हर किसी का संसार किसी भी दूसरे के संसार से मुक़म्मल तौर पर एकदम अलहदा, जुदा नहीं होता? "
लेकिन न तो 'गरगजी' और न 'अविज्नान' आज मेरे आसपास कहीं हैं, और मैं उन बुद्धिजीवी दुष्यंतकुमार जैसे तेवरों वाले साहित्यकारों से अपने को बहुत दूर पाता  हूँ।
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