November 28, 2014

॥ उल्लूक दर्शनम् ॥

॥ उल्लूक दर्शनम् ॥
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कुशयनम् रात्रौ तस्य निवसति अगेहे कुशासु ।
कुशासनस्थो स्वपत्यपि उल्लूको मुनि कौशिको ।।
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अर्थ :
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रात्रि में सोना उसके लिए वर्ज्य है। कुशयुक्त उजाड़ स्थान में वह किसी स्थायी घर की चिंता से रहित निवास करता है।  कुशा (घास) आसन पर बैठकर निद्रा (समाधि) सुख पाता है, उल्लूक को इसलिए कौशिक भी कहा जाता है।     
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आज की कविता / सबब

 आज की कविता / सबब
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साँस लेना भी ख़ता ही तो है,
जिन्दा रहना भी सज़ा ही तो है,
कौन सा है किसका सबब क्या मालूम,
सोचने मेँ इसका मज़ा भी तो है!
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November 26, 2014

॥ अज्ञातपथगामिन् कोऽपि ॥


A Hindi Poem by Anuj Agrawal and its Sanskrit rendering by me :
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समय की डुगडुगी बजाते बढ़ता जाता है
अज्ञात पगडंडियों से गुज़रता
अपने चिन्ह छोड़ जाता है
पर वो नज़र नहीं आता
देखने वालों को बस रास्ता नज़र आता है ।
सारे चिन्ह उसका पीछा करते हैं
वो हमेशा आगे चलता है
पर कहीं नहीं पहुंचता
कहीं नहीं जाता
उस तक पहुँचने वालों का इंतज़ार करता है ।
उसकी छोड़ी गयी मुस्कुराहट संसार है भूल भुलैया
हर कोई उस में खोया रहता है
वो कोई वजह नहीं बताता
गम्भीर मुद्रा में सोया रहता है
वो समझ नहीं आता
उसकी मुस्कान का रहस्य
कोई उस सा मुस्कुराने वाला ही जान पाता है !
अ से
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॥ अज्ञातपथगामिन्  कोऽपि  ॥
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डमड्डमड्डमड्डमयन् महाकालो
अग्रे सरति नादयन् काल-ढक्काम्
गच्छति अज्ञातचरणपथैः
स्थापयन् त्यक्त्वा निज पद चिह्नान्।
न दृश्यते अपि अन्यान्
अवलोकयन्ति  ते पथमेव तस्य।
येन अनुगच्छति कोऽपि सः.
चिह्नान् सर्वान् अनुसरन्ति  ते तदपि
सैव गच्छति अग्रे सर्वेषाम्।
न पर्याप्नोति लक्ष्यम् कमपि
न च गच्छति कुत्रापि
अपि ईक्षते-प्रति पथमागन्तुकानाम्
ये प्रपद्यन्ते पथम् तस्य।
तस्य स्मितम् हि  लोको
स्मृतिविस्मृतिविभ्रमो
जनाः विस्मृताः तस्मिन्
न वदति सः किमर्थम्।
स्वपिति गभीरामुद्रया ध्यानस्थ सः
न कोऽपि अभिजानाति
गूढ़ो हि तस्य  मर्मम्।
तदपि कोऽपि विरलो
विहसिते तस्य सदृशः
विजानाति सः अवश्यः
कोऽपि एव तस्य तुल्यः ॥
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November 20, 2014

आज की कविता / 20/11/2014

आज की कविता :20/11/2014
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पता नहीं कितने युगों से,
द्वार पर तुम प्रतीक्षारत,
द्वार मेरा या तुम्हारा,
तय न कर पाया अभी तक!
सोचता हूँ तुम बुलाओ,
या मुझे होगा बुलाना,
द्वार पर आकर तुम्हारा,
इस तरह से मुस्कुराना,
छोड़कर भ्रम में मुझे,
भ्रमित करती बुद्धि मेरी,
द्वार पर तुम प्रतीक्षारत !
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©

November 18, 2014

आज की कविता : ख़ता

आज की कविता : ख़ता
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(© विनय वैद्य / 18 / 11 / 2014)
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पहले आती थी हाले-दिल पे हँसी,
अब किसी बात पर नहीं आती।
मौत का दिन है मुअय्यन फिर भी,
नींद क्यों रात भर, .... … …।
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पहले हर बात पे चौंकता था मैं,
अब किसी बात पर नहीं चौंकता।
पहले हर शख्स पे भौंकता था वो,
मेरा कुत्ता अब किसी पर नहीं भौंकता।
अब किसी से भी नहीं पूछता हूँ वज़ह,
अब किसी को भी मैं नहीं टोकता।
अब न मुज़रिम है कोई और न जुर्म है कुछ भी,
क़ायदा अब किसी को भी कभी नहीं रोकता।
कीजिए खुशी-खुशी से जो भी चाहें करना,
जुर्म करना तो अब है फ़र्ज़, न करना है ख़ता !
और अंत में,
निभाया फ़र्ज़ जो ईमां से मिलेगा ईनाम,
मिलेगी सज़ा भी जो इसमें हुई कोई ख़ता !
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November 16, 2014

आज की कविता / संध्या के क्षण

आज की कविता / संध्या के क्षण
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गूँजती हैं घन्टियाँ
मन के कानोँ से सुनूँ,
बज रही हो कहीं जैसे
कृष्ण की व्रजवेणु ।
स्वप्न जैसा मधुर कोई
खुले नयनों से देखूँ,
राधा के चरण छूती
कालिन्दी रजरेणु ।
संध्या की इस वेला में
दिन प्रतिदिन यही लगता,
लौटते जब गौधूलि में
गोपाल गोविन्द धेनु ।।
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November 02, 2014

आज की कविता /02 /11 /2014 अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः ॥

आज की कविता /02 /11 /2014 
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अद्यरचिता संस्कृता रचना 
अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....
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अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....
अतिदुर्लभं खलु नरजन्म,
ततो हि विप्रत्वम् द्विजत्वमपि ।
ततो दुःखदर्शनम् जगति
अस्मिनशाश्वति दुःखालये ॥

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

तदपि ईशानुग्रहेण कोऽपि
भवति समर्थोऽस्मिन् ।
विचिन्तयति तत्त्वम् 
स्वरूपमात्मनः जगतश्च ॥

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

केचिदिच्छन्ति रूपम्
केचिदिच्छन्ति शक्तिम् ।
केचिद्धनमपि सुखञ्च
विरलो हि कोऽपि भक्तिम् ॥

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

त्यजति नरो गृहम् 
निजपरिवारम् धनञ्च ।
स्वमित्वमपि जगति 
न  कोऽपि त्यजति व्यक्तिम् ॥ 

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

सत्यम् न त्यज्यमानः 
कुटिलो अहं-सङ्कल्पो ।
न  कोऽपि जानाति कथं वा 
सङ्कल्पमिमम् त्यक्तम्  ॥
अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

परं तु यदा जानाति 
सङ्कल्पदू:ख मूलम् ।
अयि पतत्यहं तूर्तम्
क्षिप्रम् हि भजेदीशम् ॥

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

अर्पयनात्मनम् स्वाम् 
प्राप्नोति तस्य भक्तिम् ।
विन्दति स्वात्मनिष्ठाम् 
विन्दति श्रीहरिम् सः  

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....
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आज की कविता / 02 /11 /2014 - इरादे

आज की कविता / 02 /11 /2014
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इरादे
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मिले-जुले इरादे,
कुछ काठ कुछ बुरादे,
जलते हैं रवाँ - रवाँ,
बुझते हैं धुआँ - धुआँ ।
कुछ लोहे से तपकर,
निखरकर पिघलकर,
बना जाते हैं तलवार,
ढूँढते हैं सान,
धार पाने को,
कुछ स्वर्ण या रजत से,
पाते है नया श्रृंगार,
बनने को आभूषण,
ढूँढते हैं शिल्पकार,
मिले-जुले इरादे,
कुछ अटे, कुछ सिमटे,
कुछ परस्पर सटे,
और कुछ बँटे,
बुनते हैं स्वप्न कोई,
जिजीविषा में,
अधूरा सा, बेतरतीब,
चिथड़े चिथड़े, पैबंद लगा।
या रचते हैं,
कोई अनूठा 'कोलॉज',
कोई परिपूर्ण जगत,
उल्लास,संगीत, आनन्द भरा,
ज्योतिर्मय,
मिले जुले इरादे ,
रचते हैं, बनाते हैं,
बदलते हैं, मिटाते हैं,
फिर नया रचते हैं,
फिर बदलते / मिटाते हैं,
चलता रहता है चक्र,
अनवरत !
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