February 22, 2014

आज की कविता

आज की कविता / 22 /02 /2014 
________________________
************************
© विनय कुमार वैद्य,
--
सोचता  हूँ कि कुछ 'डेअर' कर लूँ ,
अजनबी अपनों की 'केयर' कर लूँ 
फिर मिलूँ न मिलूँ कुछ नहीं तय,
अपनी कुछ बातें मैं 'शेयर' कर लूँ !!
_________________________
*************************  

February 20, 2014

आज की कविता / दर्द / 20/02 /2014

आज की कविता / दर्द / 20/02 /2014 
___________________________
© vinayvaidya111@gmail.com
__
 
दर्द अकेले ही अकेले सहते रहो,
क्यों परायों से भला कहते रहो ।
दर्द दरिया है, दर्द दरियादिल,
बन के पानी सा सिर्फ बहते रहो !!
____________________________

February 16, 2014

आज का श्लोक, 'स्वस्ति'/'swasti'

निम्नलिखित 'पोस्ट',
'गीतासंदर्भ'
के लिए लिखी गई थी लेकिन भूलवश यहाँ प्रस्तुत कर दी गई ।
फिर लगा कि प्रभु की यही इच्छा है, इसलिए रहने दे रहा हूँ ।
सादर, 

आज का श्लोक,  'स्वस्ति'/'swasti'
______________
अध्याय 11, श्लोक 21,

'स्वस्ति'/'swasti' - सु+अस्ति - शुभ, मंगल, कुशल, कल्याण  ।
*
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
--
(अमी हि त्वां सुरसङ्घाः  विशन्ति
केचित् भीताः प्राञ्जलयः गृणन्ति ।
स्वस्ति इति उक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥)
--
भावार्थ :
वे ही देव-समूह आपमें प्रवेश करते हैं / लीन हो जाते हैं, उनमें से अनेक भयभीत होकर हाथों को जोड़कर अपकी कीर्ति का वर्णन करते हैं, हमारा कल्याण हो, ऐसा निवेदन करते हुए महर्षियों और सिद्धों के समुदाय भी अनेक स्तुतियों के माध्यम से आपका स्तवन करते हैं ।
--
'स्वस्ति'/'swasti' - May everything be well and auspicious.
--
Chapter 11, shlok 21,
amI hi twAM srasanghA vishanti
kechidbhItAH prAnjalayo gRNanti |
swastItyuktwA maharShisiddhasanghAH
stuvanti tvAM stutibhiH puShkalAbhIH ||
--
Those very Gods together in many groups are entering into you / seeking shelter in Your Being, A few of them are though fearful, with folded hands singing praises to you, 'May all be well to all', praying so, the Great sages and their lot are offering hymns to You with great reverence.
--
        

~~ ध्वंस का उल्लास ~~

~~ ध्वंस का उल्लास  ~~
_______________________
************************
© विनय कुमार वैद्य, उज्जैन / 15 /02 /2014   
--
सुबह कुछ ब्लॉग्स लिखे । दोपहर ११ बजे भोजन बनाने जा रहा था कि मोबाइल बज उठा ।
"हैलो!"
"जी मैं,  बोल रही हूँ, ...’ ... पब्लिशर्स’ से, ... विनय कुमार वैद्य से,..."
"जी, नमस्ते मैडम! आपकी आवाज से तुरंत ही पहचान लिया मैंने, ..."
"हम ’... ... ... ...’  का नया एडीशन पब्लिश करने जा रहे हैं, ... उसमें आपसे संबंधित जानकारी में क्या-कुछ फेर-बदल करना चाहेंगे ... ? और उसमें आपका लिखा एक ’इन्ट्रॉडक्शन’ भी चाहिए. वो भी ऎड करना है ।"
"जी, ... वो मैं आपको ’मेल’ कर दूँगा!"
"जी थैंक्स, थैंक यू वेरी मच !"
"जी, ... नमस्ते !"
खाना बनाना शुरू करता हूँ, सब्ज़ी बन चुकी है, रोटियाँ सेंकना हैं ।
आजकल ’फ़ेसबुक’ ’डि-एक्टिवेट’ कर रखा है, दूसरा कार्य इतना बढ़ा लिया है कि वक़्त नहीं मिलता ।
दोपहर में उन्हें अपनी ’नई’ जानकारी ’मेल’ कर देता हूँ । ’इन्ट्रॉडक्शन’ लिखने की क़ोशिश करता हूँ, पर संतोषजनक नहीं हो पाता । दोपहर में ’इलेक्ट्रिक-ब्लैंकेट्’ ’ऑन्’ कर देता हूँ । छ्त पर धूप में बैठने की क़ोशिश करता हूँ, लेकिन ठंडी नम हवाएँ उठने को बाध्य कर देती हैं । धूप भी नहीं सी है ।
नीचे आकर ’इलेक्ट्रिक-ब्लैंकेट्’ ऑफ़् कर बिस्तर में घुस जाता हूँ । पाँच मिनट बाद बिस्तर की गर्मी और मैं एकाकार हो जाते हैं । नींद आ जाती है, जो दो घंटे बाद खुलती है । उठकर चाय बनाता हूँ, बाहर अपने ’वॉक’ पर धूप खिली है, आधे घंटे टहलकर, सब्ज़ी खरीदकर लौटता हूँ, शाम के लिए सब्ज़ी बनाता हूँ और बैठकर थोड़ी देर में एकाध ’ब्लॉग’ और ’इन्ट्रॉडक्शन’ लिखता हूँ । उन्हें भेज देता हूँ । गीता का एक अध्याय ’टाइपसेट’करता हूँ । ’ब्लॉग’ लिखना और रसोई बनाना कुछ हद तक एक जैसा लगता है मुझे । कुछ चीज़ें पहले से तैयार कर रखनी होती हैं । ’लव लाइक द क्लॉउड्स’ के लिए मोबाइल से खींची गई ’पिक्स’ कंप्यूटर में ’फ़ीड’ करता हूँ, मिनिमम् ’टचिंग’ और ’एडीटिंग’ करता हूँ । सूरज और बादलों की आँख-मिचौली में आज वे सब ’वैलेन्टाइन-डे’ के मूड में दिखलाई दे रहे थे । दर्जन भर ’पोज़’ ’कॅप्चर’ कर लिए !
--
रात आठ बजे से पौने-नौ तक यही सब करता रहा । रोज की तरह पौने-नौ बजे खाना खाते हुए केजरीवाल के इस्तीफ़े की और दूसरी खबरें ’आकाशवाणी’ पर सुनता रहा ।
देह क्लान्त, ठंडक के कारण कुछ किया नहीं जा सकता था । फिर सोचा सोने से पहले ’यू-ट्यूब’ पर कोई पुराने गाने सुनूँ / देखूँ  । अचानक याद आई कुछ पुराने मराठी गानों की ।
’अमृताहुनी गोड नाम तुझे देवा, ..’ ’तुझे रूप चित्ती राहो, ..’ सुनता रहा ।
गोरा कुंभार की कहानी क्या है, ’सर्च’ किया पर नहीं मिली ।
बहरहाल ’लो-नेट्वर्क-स्पीड’ की वज़ह से इस गीत को फिर से शुरु से सुना, ...
महाराष्ट्र के एक संत गोरा कुंभार, जिनके गीत / भजन को सुधीर फड़के की आवाज मे सुनना और देखना एक अद्भुत् अनुभव था । बचपन में रेडिओ पर कई बार इसे सुना था, लेकिन आधा-अधूरा जिसे आज ’म्याँ देखिले डोळा, पंढरी चा सोहळा’ की तर्ज़ पर अनुभव कर रहा था ।
वे चाक पर घड़ा उभार रहे हैं, और गा रहे हैं :
"तुझे रूप चित्ती राहो, मुखी तुझं नाव, ...पांडुरंग, पांडुरंग,...पांडुरंग, 
देह प्रपञ्चाचा दास, ...."
--
उनकी पत्नी दो मटके उठाकर पानी लेने के लिए निकल पड़ती हैं । उनका नन्हा बेटा थोड़ी दूर पर अपने-आपसे खेल रहा है । अचानक स्मृति तीस साल पीछे चली जाती है । मेरे एक मित्र हैं किरण देशमुख  । वे और उनका एक मित्र है यशवंत चौधरी । वे और यशवंत चौधरी (बाबा) वर्ष १९७६-७७ में फ्रीगंज में किराए के रूम में साथ रहते थे । किरण देशमुख और मैं एम.एस-सी. में साथ साथ पढ़ते थे, इस वज़ह से मैं बाबा को जानने लगा था ।
फ़िर मैं बैंक में नौकरी करने लगा और वर्ष १९८२ में पुनः इस शहर में स्थानांतरित होकर आ गया । 
मैंने जो मकान रहने के लिए किराए से लिया था, उसके सामनेवाले मकान में एक बुज़ुर्ग कपल, उनकी बेटी और उसका छोटा बच्चा रहते थे । गोरा कुंभार का वीडिओ ’यू-ट्यूब’ पर देखते हुए इस बच्चे को देखते ही उस बच्चे का स्मरण आया । एक दिन अचानक बाबा मिलने आया तो पता चला कि सामनेवाले पति-पत्नी उसके पैरेन्ट्स हैं । बाबा दो-चार दिन रहकर वापस मुंबई चला गया, जहाँ उसकी सर्विस थी । शायद वह बहन को लेने आया था जिसका ससुराल भी महाराष्ट्र में ही कहीं था ।
--
गोरा कुंभार तन्मय होकर घड़ा ’घड़’ रहे हैं, मुझे वे कबीर जैसे लगते हैं लेकिन उनका चेहरा और रंग-रूप कबीर से काफ़ी अलग है । उनका बेटा भी कहीं आसपास खेल रहा है ।
गोरा भाव-विभोर होकर गा रहे हैं - " ... देह- प्रपञ्चाचा दास, ...."
मुझे बचपन में भी इन पंक्तियों का अर्थ नहीं पता था न कभी जानने की उत्सुकता हुई थी । लेकिन कल जब सुनने लगा, तो इसके अनेक अर्थ हृदय में गूँजने लगे । सीधा अर्थ जो मैंने ग्रहण किया वह यही था कि देह (शरीर) स्वयं ही ’प्रपञ्च’ और ’प्रपञ्च’ का दास है । गोरा का बेटा जो पास ही खेल रहा होता है, इस बीच बार बार फ़ोकस में आता है । 
एक घट की 'सृष्टि' पूर्ण कर गोरा उसे एक ओर रख देते हैं । उनके सामने रखे मिट्टी के ढेर में पड़े बड़े ढेलों को फोड़कर, मिट्टी को फ़ावड़े से खींच-खींचकर एक समान बारीक बनाकर उसमें पानी उँडेलते हैं । भजन के आनंद और उल्लास के बीच, मिट्टी-पानी के उस मिश्रण को गूँधने लग जाते हैं । इस बीच जब वे फ़ावड़े से मिट्टी खींच रहे होते हैं तो उनका बेटा कब अचानक उनके पीछे आकर उस ढेर में दब जाता है उन्हें पता तक नहीं चलता । पांडुरंग के नाम-स्मरण / ’कीर्तन’ में दीन-दुनिया की और अपनी देह तथा देह-प्रपञ्च की सुध-बुध खो बैठे हैं । उनकी पत्नी पानी से भरे घड़े लेकर लौटती है, तो किंचित् कौतूहल से पति को देखती है, उसके लिए गोरा की भाव-तरंग कोई नई बात नहीं रही होगी । फिर वह बच्चे को देखने के लिए इधर-उधर नज़रें दौड़ाती है तो वह कहीं दिखलाई नहीं देता । फिर शायद, ...  हाँ उसे नज़र आती है एक झलक मिट्टी के उस ढेर में दबे अपने बच्चे की ।    
" ... देह-प्रपञ्चाचा दास, ...." गाते गाते गाने के साथ मिट्टी को पैरों से रौंदते हुए गोरा ईश्वरीय भावोन्माद में मत्त उछल रहे हैं, नृत्य कर रहे हैं और गीत समाप्त हो जाता है ।
--
गोरा कुंभार की कथा को आधार बनाकर प्रस्तुत किया गया यह ध्वनिचित्र झकझोर कर रख देता है । मैं नहीं जानता कि यह भजन संत श्री तुकाराम महाराज  द्वारा सृजित था या स्वयं गोरा कुंभार ने इसे रचा होगा ।
--
मेरे मोबाइल पर मैंने ’शिवाथर्वशीर्षम्’ अपनी आवाज़ में रेकॉर्ड कर रखा है । हालाँकि वीडिओ देखते समय मेरा मोबाइल चुप था, लेकिन शिवाथर्वशीर्षम् के मंत्र जरूर कानों में गूँज रहे थे । श्री दक्षिणामूर्ति और श्री नटराज की दो प्रतिमाएँ मेरे मनश्चक्षुओं के सामने थीं । दोनों प्रतिमाओं में भगवान् शिव ने एक शिशु-आकृति को अपने दाहिने चरण तले दबा रखा है । कौन है यह शिशु? 
निश्चित ही यह ’जीव-भाव’ ही है जो ’शिव’ की ही संतान है । सचमुच शिव ’पिता’ हैं, गुरु हैं, संहारकर्ता हैं, महाकाल हैं, रुद्र हैं, अक्षर हैं । 
रुद्र-अथर्वण (शिवाथर्वशीर्षम्) में कहा गया है :
अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते । व्यापको हि भगवान्-रुद्रो भोगायमानो, ...  यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः ...।
यहाँ”सञ्जायते’ का अर्थ ’क्रिएशन’ नहीं है, और न ’संहार्यते’ का अर्थ है ’डिस्ट्रक्शन’!
अथर्वण के अनुसार ’अक्षर’ से ’काल’ का आगमन होता है । किस काल में? निश्चित ही ’अक्षर’ से काल का उद्भव होता है न कि काल से ’अक्षर’ का । इसलिए ’किस काल में’ जैसा प्रश्न ही अतिप्रश्न और असंगत है । 
अथर्वण पुनः इंगित करता है :
’कालाद् व्यापक उच्यते’ काल के उद्भव से ही रुद्र ’व्यापक’ हो उठते हैं । ’व्यापक’ का अर्थ हुआ ’स्पेस’ । इस प्रकार ’काल-स्थान’ ’टाइम-स्पेस’ और ’सापेक्षता का जो सिद्धान्त’ है, वह अथर्वण की प्रज्ञा के सामने औंधे मुँह गिरता है । यही वह शिशु-आकृति है जो भगवान् रुद्र के दाहिने पग के नीचे दबी कराहती है । 
शिव अथर्वण में इसी के तुरंत बाद ’सृष्टि-प्रक्रिया’ का विस्तृत लेकिन सारगर्भित उल्लेख है । ’ संहार्यते प्रजाः ...” वे अपनी ही संतान को पुनः अपने ही भीतर समेट लेते हैं । शिव करुणासागर हैं और अपने ही शिशु के ’संहार’ में उसका परम कल्याण है । वह शिशु, जो देह-प्रपञ्च और देह-प्रपञ्च का दास मात्र है ।
--
मैं नहीं जानता कि इस ध्वनिचित्रमुद्रण को किसने निर्देशित किया किन्तु जिसने भी निर्देशित किया होगा ’थीम’ / कथ्य की सूक्ष्मता उसकी सूक्ष्म पकड़ से छूट न पाई ।
गोरा की आँखों में उद्दाम उल्लास, ’ध्वंस का चरम’ है । सचमुच ’ईश्वर’ हर और हरि भी है । सब केवल नटराज का नृत्य है । और ईश्वर की भक्ति के आवेश में एक विध्वंस भी अवश्य है जो उसकी करुणा की ही प्रकट अभिव्यक्ति है ।
रुद्र अथर्वण में देवगण रुद्र की स्तुति करते हुए कहते हैं :
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च कालस्तस्मै वै नमो नमः ।२०।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च यमस्तस्मै वै नमो नमः  ।२१।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च मृत्युस्तस्मै वै नमो नमः ।२२।        
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्चामृतं तस्मै वै नमो नमः ।२३।
--









February 06, 2014

|| चामुण्डायै नमाम्यहम् ||

|| चामुण्डायै  नमाम्यहम् ||
(स्वरचित) 
__________
(© विनय वैद्य )

उज्जैन में अवस्थित,
माता छत्रेश्वरी चामुण्डा 
को समर्पित,
____________________
********************
मेरी आज की यह रचना 
………..........……………
अम्बरे ललिताम्  द्युतिम् 
क्षणात् प्रकटिताम् लीनाम् । 
नीलाम्बराम् छत्रेश्वरीम् 
चामुण्डायै  नमाम्यहम् ॥ 
..........………….................
--

एक बिल्वं शिवार्पणं ||

एक बिल्वं शिवार्पणं
_______________
***************

त्रिजन्मपापसंहारं एक बिल्वं शिवार्पणं ॥१॥
त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च ह्यछिद्रैः कोमलैः शुभैः ।
शिवपूजां करिष्यामि एक बिल्वं शिवार्पणं ॥२॥
आकंठ बिल्वपत्रेण पूजिते नन्दिकेश्वरे ।
शुध्यन्ति सर्व पापेभ्यो एक बिल्वं शिवार्पणं ॥३॥
शालिग्रामशिलामेकं विप्रं यथा च अर्पयेत् ।
सोमयज्ञ महापुण्यं एक बिल्वं शिवार्पणं ॥४॥
दण्डीकोटिसहस्राणि विजपेत् यः शतानि च ।
कोटिकन्या महादानम् एकबिल्वं शिवार्पणं ॥५॥
लक्ष्म्यस्थानुतः उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियं ।
बिल्ववृक्षं प्रयाचामि एक बिल्वं शिवार्पणं ॥६॥
दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनं ।
अघोरपापसंहारं एक बिल्वं शिवार्पणं ॥७॥
काशी क्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनं ।
प्रयाग माधवं दृष्ट्वा एक बिल्वं शिवार्पणं ॥८॥
मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे ।
अग्रतः शिवरूपाय एकः बिल्वं शिवार्पणं ॥९॥
बिल्वाष्टकं इदं पुण्यं पठेत् यः शिवसन्निधौ ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोकमाप्नुयात् ॥१०॥
______________ॐ______________

पुनर्पाठ / जे . कृष्णमूर्ति .



February 05, 2014

अनुशासन, आत्मविश्वास और नेतृत्व

अनुशासन, आत्मविश्वास और नेतृत्व
_____________________________
© vinayvaidya111@gmail.com
जीवन में सफलता और सार्थकता अनुभव करने के लिए प्रथम दो कितने महत्वपूर्ण हैं यदि यह स्पष्ट रूप से समझ लिया जाए, तो अपने भीतर उन्हें विकसित करने की राह आसान हो जाती है ।
तब आप तृतीय अर्थात् ’नेतृत्व’ के बारे में भी समझने की क्षमता हासिल कर सकते हैं ।
लेकिन पहले अनुशासन और आत्म-विश्वास के बारे में ।
यह सच है कि अनुशासन और आत्म-विश्वास किसी प्रक्रिया के परिणाम हैं, न कि सीधे-सीधे पाई जानेवाली वस्तुएँ ।
और उस प्रक्रिया के होने में समय की अपनी अपरिहार्य भूमिका होती है ।
जैसे बीज बोने से लेकर फल आने तक किसी वृक्ष की यत्नपूर्वक देखभाल की जाती है, वैसे ही अपने भीतर ये दो विशेषताएँ उपजाने और विकसित करने, उन्हें पुष्ट और परिपक्व होने देने के लिए समय की भी दरकार होती है ।
कौन से हैं वे कारक, या तत्व जिनकी सहायता से यह संभव होता है?
किसी वृक्ष को सिर्फ़ पत्तियों, फलों, फूलों, जड़ों, बीजों, या शाखाओं में से किसी एक या दो चीज़ों के लिए ही नहीं उगाया जा सकता । या तो आप सभी को सम्मिलित रूप से उगा पाते हैं या फिर किसी को भी नहीं उगा सकते । अनुशासन और आत्म-विश्वास रूपी ’परिणामों’ की प्राप्ति के लिए जिस प्रक्रिया का पालन किया जाना नितान्त आवश्यक है, ’चरित्र, ज्ञान, कर्तव्य-बोध, तथा प्रत्युत्पन्न-मति’ उस प्रक्रिया के विभिन्न अंग हैं । और उनका सम्मिलित परिणाम ही है अनुशासन और आत्म-विश्वास ।
इसलिए अनुशासन और आत्मविश्वास सीखने होते हैं और तभी सीखे जा सकते हैं जब आप अनुशासन-प्रिय हों, और आत्म-विश्वास की शक्ति से अवगत हों ।
कुछभी सीखने के लिए श्रम करना होता है । ’श्रम’ में चार चीज़ें होती हैं । अभ्यास, रुचि / उत्साह और लगन, शक्ति और सामर्थ्य, तथा लक्ष्य । यदि ये चारों हमारे भीतर हैं तो सीखना स्वाभाविक हो जाता है । इसके अतिरिक्त एक अन्य उतना ही महत्वपूर्ण फ़ैक्टर है उपयोगिता । अगर आपको स्पष्ट है कि आप जो सीखने जा रहे हैं उसका आपको कितना उपयोग है, तो उसी अनुपात में आपकी दिलचस्पी सीखने में कम या अधिक हो जाएगी ।
पुनः ’सीखने’ की इस प्रक्रिया में यह भी जानना जरूरी है कि हमारी खामियाँ (वीक-पॉइन्ट्स) क्या हैं, और हमारे प्लस-पॉइन्ट्स क्या हैं । हमारे लिए अवसर कितने हैं और हमारे लिए जोखिम / रिस्क्स क्या क्या हैं ।
अब यदि हम चरित्र की बात करें, तो निश्चित ही चरित्र का श्रेष्ठ होना एक प्लस-पॉइन्ट है, और कमज़ोर होना एक माइनस-पॉइन्ट ।
हम सोचते हैं कि अगर गलत तरीके से भी सफलता हासिल होती है तो क्या हर्ज़ है! लेकिन हममें थोड़ी भी बुद्धि होगी तो हम समझ सकते हैं कि सफलता का खुशी और सार्थकता से कोई संबंध नहीं है । लेकिन सफलता की तात्कालिक चकाचौंध में हम इतना भी नहीं देख पाते ।
’सफलता’ की क़ीमत होती है, और जब हम अनीति या भ्रष्ट तरीके से सफलता पाते हैं तो यह क़ीमत हमें ऐसे रूपों में चुकानी होती है कि हम अन्ततः नष्ट हो जाते हैं । क्यों? क्योंकि हम मानसिक शान्ति जैसी अमूल्य लेकिन न दिखाई पड़नेवाली वस्तु को खो बैठते हैं । फिर हम उत्तेजनाओं और कृत्रिम खुशियों में उस शान्ति का विकल्प ढूँढते हैं, और देर-अबेर हमारी समस्याएँ भयावह रूप से जटिल और दुर्निवार हो जाती हैं ।
अब नेतृत्व के बारे में ।
अनुशासन और आत्मविश्वास के अभाव में नेतृत्व करने की कल्पना तक नहीं की जा सकती ।
नेतृत्व में विचारणिय प्रमुख बिन्दु  हैं
इनिशिएटिव, अर्थात् उत्साहपूर्वक आगे बढ़कर किसी कार्य को प्रारंभ करना, इसके लिए चाहिए अन्तःप्रेरणा ।
अन्तःप्रेरणा लक्ष्य और के महत्व तथा गरिमा को समझने पर अनायास ही दिल में जाग जाती है ।
नेतृत्व हमेशा किसी समूह का किया जाता है । जब आपमें इनिशिएटिव होगा तो आप दूसरों को प्रोत्साहित (मोटीवेट) भी कर सकेंगे, क्योंकि मनुष्य अनुकरण से सीखता है । फिर आपको चुनौतियाँ स्वीकार करने में मज़ा आता हो तो आप आसानी से आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन अगर आपमें आत्म-विश्वास की कमी है तो आप चुनौतियों से घबरा कर पीछे हट जाएँगे । इसलिए यदि आप यह समझ लें कि चुनौतियों से शक्ति प्राप्त होती है तो आप जोश से भर उठेंगे ।
नेतृत्व की एक ख़ासियत यह है कि आप अपने को टीम का एक सदस्य समझें न कि नेता । टीम के दूसरे सदस्य तब अनायास आपको नेता की तरह स्वीकार कर लेंगे । लेकिन अगर आप चाहेंगे कि वे आपको नेता समझें तो वे सारी जिम्मेवारी आपपर डालकर खुद बचना चाहेंगे ।
--

~~ आजकल /1 .~~

~~ आजकल  /1 .~~
________________
उक्त शीर्षक के अंतर्गत मैं उन विषयों पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का यत्न करूँगा जो यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से मुझसे संबंधित नहीं हैं किन्तु मुझे उद्वेलित अवश्य करते हैं क्योंकि उनका संबंध उस समाज से है, जिसमें  मैं रहता हूँ।
इसलिए वे राजनीति, कला, अर्थतंत्र, संस्कृति, साहित्य, धर्म और उन सभी गतिविधियों के बारे में हैं जो मेरे जैसे आम मनुष्य के जीवन से प्रत्यक्ष जुड़े हैं। फिल्में देखने और अखबार पढ़ने को मैं अपने वक्त की बर्बादी समझता हूँ।  फिर भी अखबार मुझे जरूरी बुराई जैसे लगते हैं।  वास्तव में मेरे  दैनिक जीवन को जाने -अनजाने जो तत्व प्रभावित करते  हैं उन तत्वों की सद्यःस्थिति के बारे में 'टच' में रहने की कुछ तो जरूरत मुझे महसूस होती ही है। सब्जियों के भाव, मौसम के हाल, वातावरण और माहौल, इन सब पर मन में कुछ प्रतिक्रियाएँ  आती हैं, उन्हें लिखना शायद मेरे लिए उपयोगी है।  मैं नहीं कह सकता कि मेरे ब्लॉग के सम्माननीय प्रेक्षक मेरे विचारों को कितना पसंद या नापसंद करते हैं, लेकिन इस बारे में कुछ करना शायद मेरे सामर्थ्य में नहीं।  'गूगल' और दूसरे भी अनेक 'प्रेक्षक' और व्यवसाय-जगत से सम्बद्ध लोग मुझे सलाह देते हैं कि क्या करने से मेरे 'ब्लॉग' पर 'ट्रैफिक' बढ़ सकेगा।  लेकिन इसमें मुझे बिलकुल ही रुचि नहीं है, इसे शायद वे नहीं समझते। क्योंकि 'लिखना' मेरी मजबूरी है, और गूगल मुझे बहुत सुविधाजनक लगता है इसलिए मैं यहाँ लिखता रहता हूँ। धन्यवाद गूगल !
--
धर्म और संस्कृति
______________

मेरी दृष्टि में संस्कृति के चार प्रकार हैं।
पहला 'धर्म'-आधारित संस्कृति,
दूसरा 'अधर्म'-आधारित संस्कृति,
तीसरा 'धर्म-अधर्म' के मिश्रण पर आधारित संस्कृति,
और अंतिम है, 'धर्म-निरपेक्ष' संस्कृति।
--
स्पष्ट है कि 'संस्कृति' शब्द के बारे में, जिसे अंग्रेज़ी में 'कल्चर' कहा जाता है, सामान्यतः विरोधाभास नहीं हैं, न राजनीतिज्ञों में न साहित्यकारों में, न विचारकों या बुद्धिजीवियों में ही।  इस प्रकार 'संस्कृति' के अनेक 'शेड्स' और प्रकार हैं। इस पर किसी को शायद ही ऐतराज होगा। 'हिन्दू-संस्कृति', 'भारतीय-संस्कृति','मिली-जुली संस्कृति', आदि शब्द प्रायः हम सुनते हैं और इन शब्दों का इस्तेमाल भी बेहिचक करते हैं। इसे ही उर्दू में 'तहज़ीब' कहते हैं, ऐसा मेरा अनुमान है। 'गंगा-जमुनी तहज़ीब' शब्द तो सुना होगा।
क्या इनमें से प्रत्येक ही संस्कृति / कल्चर / तहज़ीब मेरे द्वारा प्रस्तुत किए गए उपरोक्त वर्गीकरण के चारों ही प्रकारों में नहीं पाई जाती ?
संभव है मेरी इस बात से  किसी को अंशतः सहमति / आपत्ति हो सकती है, किन्तु इनमें से पहला प्रकार तो सभी को मान्य होगा। क्योंकि 'धर्म-आधारित संस्कृति' के रूप में हम 'जैन-संस्कृति', 'बौद्ध संस्कृति' आदि से परिचित ही हैं।
मैं नहीं कह सकता कि 'राजपूत-संस्कृति', 'मुग़ल संस्कृति' 'सिख-संस्कृति', 'सूफी-संस्कृति' आदि का 'धर्म' से कितना सरोकार हो सकता है। ऐसा कह सकते हैं कि वे तथा उस प्रकार की दूसरी 'संस्कृतियाँ' भी 'धर्म' से स्वतंत्र अपना एक अलग रूप भी रखती हैं। 'चीनी-संस्कृति', 'रूसी' या 'जापानी', ईरानी और 'यूरोपीय' संस्कृति पर भी गौर करना यहाँ अनुचित न होगा ।  
किन्तु फिर इन विभिन्न संस्कृतियों को अपनानेवाले लोग इन्हें 'धर्म-आधारित' या 'धर्म-निरपेक्ष' स्वरूप में भी ग्रहण करते हैं।  और इसलिए 'धर्म' के पारम्परिक अर्थ में स्वीकृत उन सामाजिक तत्वों का भी समावेश इन संस्कृतियों में अनायास हो जाता है, जो 'धार्मिक-विश्वास' के रूप में जन-मानस में स्थापित हैं।
दूसरी ओर यह भी एक तथ्य है कि इन 'विश्वासों' के बीच परस्पर विरोध / विरोधाभास भी हैं ही । और इसलिए समाज कभी इन विरोधाभासों से उबर पायेगा ऐसी आशा मुझे नहीं है। क्योंकि विश्वासों के एक 'सेट' में जो 'धर्म' है, वह दूसरे किसी 'सेट' में सरासर अधर्म है । फिर ऐसे लोग भी है, जो शुद्धतः भौतिकवादी हैं, वे जीवन में शांति समरसता तो चाहते हैं, किन्तु 'धर्म' के स्थापित स्वरूप से उनका वास्ता कामचलाऊ ही होता है। वे 'विवाह' करने के लिए 'कोर्ट' जा सकते हैं, 'धर्म-परिवर्तन' कर सकते हैं या फिर इनका उपयोग अपने शुद्ध भौतिक लक्ष्यों की सिद्धि हेतु कर सकते हैं। धर्म, उनके लिए  ईश्वर, स्वर्ग-नरक, मुक्ति या पुनर्जन्म से संबंधित कोई तत्व नहीं बल्कि एक 'साधन' मात्र होता है।  वे मार्क्सिस्ट, कम्युनिस्ट, फंडामेंटलिस्ट कुछ भी हो सकते हैं।  शायद टेररिस्ट भी।  वे तथाकथित 'बुद्धिजीवी', 'समाजसेवी' या 'प्रगतिशील' 'वैज्ञानिक सोच' वाले विचारक, साहित्यकार आदि हो सकते हैं।  वे कलाकार, रंगकर्मी, 'मानवतावादी', 'अध्येता' / स्कॉलर' हो सकते हैं।  वे धुर-दक्षिणपंथी, या कट्टर वामपंथी भी हो सकते हैं।  वे 'हिसक' आंदोलन के प्रति सहानुभूति रखते हों यह भी संभव है।
--
सवाल सिर्फ यह है  कि क्या वे सभी 'संस्कृति' से ही अनेक प्रकार से नहीं जुड़े होते?
इसलिए कुछ की दृष्टि में जो 'अधर्म' है, वह दूसरों की दृष्टि में 'अधर्म' की कोटि में न आता हो।
इसके बाद यह भी दृष्टव्य है कि सामाजिक स्तर पर 'धर्म' एक पहलू भी होता है । किसी सामाजिक गतिविधि को 'धर्म'  से संबद्ध स्वरूप भी दिया जा सकता है । तात्पर्य यह कि 'धर्म' और 'संस्कृति' सभ्यता से अविच्छिन्न होते हैं।  'सभ्यता' फिर वह मिस्र की हो, हड़प्पा या सिंधु नदी घाटी की हो या आर्य, ग्रीक अथवा रोमन हो ।
--
इस प्रकार मानव-सभ्यता सर्वोपरि महत्वपूर्ण है, 'संस्कृति' और 'धर्म' शायद तुलनात्मक रूप से गौण महत्व के हैं । यदि 'सभ्यता' ही न हो तो 'धर्म' या संस्कृति की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है।
--
इसलिए यदि हम 'मानव-सभ्यता' को सर्वमान्य आधारभूत महत्त्व का स्थान दें तो शायद 'धर्म' और संस्कृति से संबंधित प्रश्नों को अधिक बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।  लेकिन यदि हम 'संस्कृति' या 'धर्म' के चश्मे से आज की स्थिति को समझने का प्रयत्न करेंगे तो एक अनिश्चित और संशयपूर्ण बौद्धिक बहस में अटकने से बच नहीं सकते।
--