October 27, 2013

खंडहर मन्दिर के हे देवता ! ভাঙা দেউলের দেবতা, (गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर की मूल बांग्ला रचना)

 … ভাঙা দেউলের দেবতা, … 
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ভাঙা দেউলের দেবতা,
তব বন্দনা রচিতে, ছিন্না বীণার তন্ত্রী বিরতা ।
সন্ধ্যাগগনে ঘোষে না শঙ্খ তোমার আরতিবারতা ।
তব মন্দির স্থিরগম্ভীর, ভাঙা দেউলের দেবতা ।।
তব জনহীন ভবনে
থেকে থেকে আসে ব্যাকুল গন্ধ নববসন্তপবনে ।
যে ফুলে রচে নি পূজার অর্ঘ্য, রাখে নি ও রাঙা চরণে,
সে ফুল ফোটার আসে সমাচার জনহীন ভাঙা ভবনে ।।
পূজাহীন তব পূজারি
কোথা সারা দিন ফিরে উদাসীন কার প্রসাদের ভিখারি ।
গোধূলিবেলায় বনের ছায়ায় চির-উপবাস-ভুখারি
ভাঙা মন্দিরে আসে ফিরে ফিরে পূজাহীন তব পূজারি ।
ভাঙা দেউলের দেবতা,
কত উৎসব হইল নীরব, কত পূজানিশা বিগতা ।
কত বিজয়ায় নবীন প্রতিমা কত যায় কত কব তা—
শুধু চিরদিন থাকে সেবাহীন ভাঙা দেউলের দেবতা ।।
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खंडहर मन्दिर के हे देवता !  
(गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर की मूल बांग्ला रचना) 
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खंडहर मन्दिर के हे देवता !
तुम्हारी वन्दना हेतु, छिन्न वीणा के टूटे तार, अब नहीं झङ्कृत होते !
शङ्ख अब, आकाश में, तुम्हारी आरति की उद्घोषणा करते हुए, 
अब नहीं गूञ्जते ! 
तुम्हारा मन्दिर स्थिर-गम्भीर है अब । 
तुम्हारे निर्जन भवन में, भटकती वसन्तपवन के झोंके अवश्य आते हैं, 
जो ले आते हैं अपने साथ, उन फूलों को, 
जिन्हें अब कोई तुम्हारे लिए प्रस्तुत नहीं करता । 
तुम्हारा पुराना पुजारी भटकता है इधर-उधर याचना करते हुए, 
जिसे कोई देखना तक नहीं चाहता  । 
सन्ध्या की गोधूलि-वेला में, 
जब आकाश में ज्योति और अन्धकार मिल रहे होते हैं, 
भूखे हृदय, थके कदमों से वह मन्दिर की ओर लौटता है ।
अब तुम्हारे कितने ही पर्व उत्सव उदास नीरवता में गुजर जाते हैं, 
हे भग्न मन्दिर के देवता ! 
तुम्हारी कितनी ही रात्रियां बिना दीप प्रज्वलित किए ही की जा रही,
प्रार्थना सुनते हुए बीत जाती हैं ! 
धूर्त कला में निपुण शिल्पकारों द्वारा रोज,
नई नई मूर्तियां गढी जाती हैं, और उनका समय हो जाते ही,
विस्मृति की पावन धारा में विसर्जित कर दी जाती हैं । 
बस, भग्न मन्दिर का देवता ही,
अपनी सतत अविनाशी उपेक्षा में अपूजित शेष रह जाता है । 
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-रविन्द्रनाथ ठाकुर .

October 04, 2013

~~ नमो नमः ~~
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कभी खयाल नहीं आया था कि इस विषय पर लिखूंगा । लेकिन आज सुबह-सुबह सपने में उनके दर्शन हो गये । कल रात कहीं पढा था कि उनके बयान पर बावेला मच गया है । शायद इसलिए वे मेरी छोटी सी कुटिया पर दस्तक देने आ गये थे । मैं तो धन्य हो गया । लग तो रहा था कि सपना ही है, लेकिन ऐसा सपना भी किसे नसीब होता है? मैंने चरण-स्पर्श किया तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया । मैं हर्ष-विभोर हो उठा । सपने में ऐसे ही कभी एक बार 'ठाकुर' ने भी मुझे गले लगा लिया था । 'ठाकुर' अर्थात इनके गुरु ने, जी, श्री रामकृष्ण ने ।
जैसा कि ऐसे सपनों में पहले का मेरा अब तक का अनुभव रहा है, इन दर्शनों में संवाद प्रायः मौन ही होता था । जब मैंने पुनः झुककर उन्हें चरण-स्पर्श किया, तो वे बोले -
"तुम राम को 'यम' के बारे में बतला रहे थे न?"
"जी!"
"तुम मेरी पुस्तक में कुछ ढूंढ रहे थे न?"
"जी, लेकिन फिर जरूरत नहीं पडी ।"
"जरूरत थी ! तुम्हें साधनपाद का सूत्र ३२ चाहिए था !"
"जी "
"शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥"
(स्वामी विवेकानन्द /  पातंजल राजयोग)
उन्होंने कृपापूर्वक मुझे समझाया ।
"नरेन्द्र यही कह रहा था ।"
मैं असमंजस में पड गया ! पर नरेन्द्र तो उनका ही नाम था ! वे किस नरेन्द्र की बात कर रहे थे ! मैं प्रश्नवाची दृष्टि से उन्हें देखने लगा ।
देखो, वैसे मेरा नाम भी नरेन्द्र था किन्तु फिर मेरा संन्यास का नाम विवेकानंद हो गया, इसलिए तुम शायद भ्रमित हो रहे हो । मैं तो नरेन्द्र मोदी के बारे में कह रहा हूं । वह बिल्कुल ठीक कह रहा है ।"
"जी"
"शौच, प्रथम नियम है "
अच्छा तो वे राजयोग के बारे में कह रहे थे , इसी बीच मोबाइल में अलार्म बज उठा और मैं जागकर चकित होकर सुबह के कार्य में लग गया । हां, गांधीजी भी तो स्वच्छता को प्रथम स्थान देते थे । सचमुच, साफ़-सुथरा शौचालय प्रथम जरूरत है हर मनुष्य की । शुचिता से प्रारंभ ।
मैं नहीं जानता कि इससे आगे क्या लिखूं इस पोस्ट में ।
प्रासंगिक प्रतीत होने से इसे लिखने का साहस कर रहा हूं । यदि किसी की भावनाएं आहत हुईं हों तो क्षमा चाहूंगा ।
©विनय कुमार वैद्य.
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आज की कविता /०४/१०/२०१३.