July 30, 2013

॥ श्रीदशावतारस्तोत्रम् ॥

॥ श्रीदशावतारस्तोत्रम् ॥
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प्रलयपयोधिजले घृतवानसि वेदं ।
विहितवहित्रचरित्रमखेदं ॥
केशव धृतमीनशरीर जय जगदीश हरे  ॥१॥
क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे ।
धरणिधरणकिणचक्रगरिष्ठे ॥।
केशवधृतकच्छपरूप जय जगदीश हरे ॥२॥
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना ।
शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना ॥
केशवधृतसूकररूप जय जगदीश हरे ॥३॥
तव करकमलवरे नखमद्भुतशृङ्गम् ।
दलितहिरण्यकशिपुतनुभृङ्गम् ॥
केशव धृतनरहरिरूप जय जगदीश हरे ॥४॥
छलयसि विक्रमणे बलमद्भुतवामन ।
पदनखनीरजनितजनपावन ॥
केशवधृतवामनरूप जयजगदीश हरे ॥५॥
क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापम् ।
स्नपयसि पयसि शमितभवतापम् ॥
केशवधृतभृगुपतिरूप जय जगदीश हरे ॥६॥
वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयम् ।
दशमुखमौलिबलिं रमणियम् ॥
केशवधृतरघुपतिवेष जय जगदीश हरे ॥७॥
वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभम् ।
हलहतिभीतिमिलितयमुनाभम् ॥
केशवधृतहलधररूप जय जगदीश हरे ॥८॥
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम् ।
सदयहृदयदर्शितपशुघातम् ॥
केशवधृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥९॥
म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालम् ।
धूमकेतुमिव किमपि करालम् ॥
केशवधृतकल्किशरीर जय जगदीश हरे ॥१०॥
श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारम् ।
शृणु सुखदं शुभदं भवसारम् ॥
केशवधृतदशविधरूप जय जगदीश हरे ॥११॥
         ॥ इति श्रीजयदेवविरचितं श्रीदशावतारस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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July 26, 2013

तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु - 3.

तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु - 3.
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(© Vinay Kumar Vaidya, Ujjain, 26-07-2013)

            संस्कृत में एक उपसर्ग प्रत्यय है ’सं’ । अब अगर संस्कृत को ’भाषा-विज्ञान’ के रूप में देखें, तो इस ’सं /’सन्’ उपसर्ग के प्रसंगानुसार भिन्न-भिन्न अर्थ हैं । इसे विभिन्न धातुओं से युक्त करने पर वे सारे अर्थ प्राप्त होते हैं । ’संस्कृत’ शब्द में ’सं’ के बाद आनेवाला वर्ण ’स्’ ’मित्रवत्’ आया है । अभी तो हम सिर्फ़ इतना देखें कि ’सं’ से जुड़कर ’मा’ > मीयते ’सीमा’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है । दूसरी ओर इसका अर्थ ’बीज’ होता है । इस ’सं’ से अंग्रेज़ी में ’semen, seminal, seminar, semantics, seminary, seed,.......’ की व्युत्पत्ति दृष्टव्य है । ’बीज> बीजो ’ से ’bio’ भी इसी प्रकार ’स्वनिम सादृश्य’ और ’रूपिम सादृश्य’ ( phonetic resemblance and figurative resemblance ) दोनों रीतियों से प्राप्त किया जा सकता है । ’अर्थ-साहचर्य’ से हम यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि इस प्रकार से अंग्रेज़ी और दूसरी भी बहुत सी भाषाओं के शब्दों का आगमन संस्कृत के मूल बीजाक्षरों से ही हुआ है । आयुर्वेद के ग्रन्थों में शरीर रचना-विज्ञान और शरीर क्रिया विज्ञान की मौलिक शब्दावलि को इस कसौटी पर देखें तो इसे ’सांख्यिकीय आधार’ पर भी ’परिकल्पना-परीक्षण’ ’testing of hypothesis’ की सहायता से बहुत विश्वसनीय रीति से जाँचा जा सकता है ।
इसलिए संस्कृत के ’भाषा-विज्ञान’ के रूप से हमें इतना कुछ प्राप्त होता है जो भाषा-मात्र की हमारी समझ को समृद्ध, स्पष्ट और परिपक्व भी करता है । यह जानना भी रोचक होगा कि मलयेशिया और इन्दोनेशिया में भाषा को ’बहासा’ * ही कहा जाता है,.... तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥
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॥ तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥
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उन दिनों -७७.

उन दिनों -७७.
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( © Vinay Vaidya, vinayvaidya111@gmail.com)
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      ओंकारेश्वर में  वर्ष 1991-92 के दौरान, जब मैं रहता था, मेरा चर्या-पथ, ओंकारेश्वर मन्दिर से खेड़ापति हनुमान मन्दिर, ॐकारमठ (चार सम्प्रदाय आश्रम) से होता हुआ श्री रामकृष्ण आश्रम की शाखा (मन्दिर) से ठीक पहले, बीच में स्थित एक शिव-मन्दिर से गुज़रता हुआ श्रीश्री माता आनन्दमयी तपोभूमी तक, और फ़िर आगे गायत्री-मन्दिर से आगे संगम तक, उसके बाद सिद्धनाथ महादेव होता हुआ पुनः ओंकारेश्वर मन्दिर तक होता था । बीच में एक बड़ा तीन मंजिला शिव-मन्दिर भी था, जिसमें शायद १०-१२ फ़ीट से भी अधिक ऊँचा और ५ फ़ीट घेरे वाला  स्फटिक का विशाल शिवलिंग था, जनश्रुति तथा दूसरे ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार भी, जिसे औरंगज़ेब ने खंडित कर दिया था । परिकम्मावासियों (नर्मदा की परिक्रमा करनेवाले तीर्थयात्रियों) के अनुसार औरंगज़ेब वैसे तो मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट करने ही आया था, लेकिन उसने जब सुना कि इस स्फटिक के शिवलिंग में हर मनुष्य को अपने पिछले जन्म का रंग-रूप दिखलाई देता है, तो कौतूहलवश उसने उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखा । वहाँ जब उसे एक ऐसे पशु का रंग-रूप और आकृति दिखलाई दी जिसे उसके धर्म में अत्यन्त अपवित्र माना जाता है, तो वह क्रोध से आग-बबूला हो उठा । और उसने मन्दिर और मूर्ति पर आक्रमण कर नष्ट कर दिया । हालाँकि अब भी यात्री और कुछ भक्त इस मन्दिर में पूजा-अर्चना, भक्ति-भावना, या बस कौतूहलवश जाते हैं । इस मन्दिर से कुछ पहले कावेरी के किनारे-किनारे चलते हुए एक और स्थल आता है, जो पुरातत्व विभाग के अनुसार बारहवीं शती में संन्यासियों के रहने के लिए निर्मित कोई मठ था । सामान्यतः उस ओर कोई शायद ही जाने का साहस करता हो । उसे देखकर मुझे वाराणसी (काशी) के  प्राचीन चार मंज़िला भवन का स्मरण हो आया जिसमें कभी एक दक्षिण भारतीय बालक ’विद्याप्राप्ति’ के लिए गुरु की तलाश में आ पहुँचा था । ’मुक्तिबोध’ की इस रचना ’ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ ने मुझे बचपन से मुग्ध कर रखा था । मुझे बहुत बाद में एक ’सत्य’ समझ में आया था कि कई बार हम उसे अनायास ही ’श्रेष्ठ’ समझ बैठते हैं, जिसे हम समझ नहीं पाते और उस भूलभुलैया में, जाने-अनजाने जीवन भर उलझे रहते हैं । मुक्तिबोध की यह कहानी शायद इसी ’सत्य’ का संदेश देती हो! जो भी हो, उस कहानी के कई ’निहितार्थ’ या निष्पन्नार्थ हो सकते हैं । बहरहाल जब मैंने उस भवन को देखा तो एक ख़याल उसे निकट से देखने का हुआ, फ़िर अपनी ’मर्यादा’ का ध्यान आया, और मैं कावेरी के बहाव की विपरीत जिस दिशा में जा रहा था, उस पर आगे बढ़ गया !अब बहुत साल बीत चुके हैं, लेकिन मेरा खयाल है कि उसके बाद सिद्धनाथ महादेव का वह छतविहीन मन्दिर रहा होगा, जिसमें सैंकड़ों मूर्तियाँ ढेर में, और कुछ पुरातत्त्व विभाग के सौजन्य से एक ’प्रदर्शनी’ के रूप में मन्दिर के द्वार के बाहर पंक्तिबद्ध सजाकर रखी हुई हैं ।
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July 07, 2013

|| तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु - 2.||

|| तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु - 2.||

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(© Vinay Vaidya, 
vinayvaidya111@gmail.com, Ujjain / 06-06-2013.)
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    थोड़ी बात की जाए अब भाषा-शास्त्र ( Linguistics) और शब्द-विज्ञान (Semantics) की । हिन्दी शब्दों पर मतभेद हो सकता है, किन्तु तात्पर्य समझने में भेद नहीं होगा । पहला शब्द बना है ’लिङ्ग’ से । ’लिङ्ग’ का मतलब होता है लक्षण, चिन्ह, ’लिङ्ग’ शब्द पुनः ’लिङ्’ से व्युत्पन्न है । ’लिङ्’ में ’ङ्’ इत्संज्ञक (expletive ) है । तात्पर्य यह कि ’लि’ इस शब्द से धातु या संज्ञा आदि बनाने के लिए हमें कोई दूसरा हलन्तयुक्त व्यञ्जन (प्रत्यय) इसमें जोड़ना होगा । फलस्वरूप हमें ’लिक्, लिख्, लिग्, लिघ्, लिङ् ....लिच्, ....लिञ्, ...’लिट्’,..’लित्’, ...’लिन्,...’ ’लिप्’, लिब्’,...’लिम्’ ’लिय्’, ’लिर्’, ’लिश्’, ’लिष्’, ’लिस्’...’लिह्’ प्राप्त होंगे ।  इनमें से अधिक प्रचलित से व्युत्पन्न ’लिख्’, ’लिङ्’, ’लिट्’, ’लिप्’, और ’लिह्’ से हम परिचित ही हैं । सच्चाई तो यह है कि ’लैटिन’ (Latin) शब्द इसी ’लिट्’ से उद्भूत हुआ है, ’लेटर्’, (letter), ’लिटरेचर’ (Literature) आदि इसी ’कुल’ से उत्पन्न हैं । बहरहाल हम बात कर रहे थे ’लिङ्’ की । यही ’लिङ्’ संज्ञाओं और सर्वनामों तथा क्रियारूपों (लकारों) में ’लिङ्ग’ का रूप लेता है । ’लिह्’ का अर्थ होता है चाटना, (- अंग्रेजी में ’lick’) संज्ञा, सर्वनाम, आदि में यही पुंलिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग के रूप में और क्रियारूपों में ’विधिलिङ्’, ’आशीर्लिङ्’ बन जाता है । भाषा चूँकि अर्थ का लक्षण अर्थात् ’लिङग’ है, इसलिए भाषा के लिए ’लिङ्वा’ शब्द विकल्परूप से अस्तित्व में आया । जैसे ’लिप्’, से ’लिपि’, ’लिब्’ से अंग्रेजी का ’ lib, -library'’, उर्दू / हिन्दी का ’लब’ । यह ’ल’ वर्ण या ’ल्’ स्वयं अन्य व्यञ्जनों के सहारे ’लट्’ ’लिट्’ ’लुट्’ ’लृट्’, ’लोट्’, ’लङ्’, ’लुङ’ और ’लृङ्’ के रूप में ’लकार’ बनता है, ’लकारो कालो’ के अनुसार ’लकार’ काल की लीला है । इसलिए ’लिङ्ग’ का अर्थ है ’भाषा’, जिससे ( Language ) की उत्पत्ति दृष्टव्य है । इसलिए  (Linguistics) की उत्पत्ति का मूल संस्कृत में पाया जाना स्वाभाविक ही है । संकेत रूप में; (Hint:) लिंग्विस्टिक्स = लिङ् + इष्ट + इक्ष / ईक्ष । आगे का विस्तार छात्रों के अभ्यास के लिए छोड़ दिया गया है ।
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 (© Vinay Vaidya, 
vinayvaidya111@gmail.com, Ujjain / 06-06-2013.)
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July 06, 2013

|| तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ||

|| तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ||
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(© Vinay Vaidya, 
vinayvaidya111@gmail.com, Ujjain / 06-06-2013.)
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|| तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ||
- तत्-मे मनः शिवसङ्कल्पम् अस्तु ।
सँस्कृत अत्यन्त वैज्ञानिक (पूर्णतः विधिसंगत) भाषा है । जहाँ अन्य भाषाओं का व्याकरण भाषा के प्रचलन से ’तय’(devised / invented) किया गया है, संस्कृत का व्याकरण व्यवहार में प्रयुक्त शब्दों की व्युत्पत्ति और उनके पारस्परिक संबंधों से ’आविष्कृत’ (discovered) किया  गया है । इसलिए संस्कृत का व्याकरण ’शब्द’ और अर्थ के अस्तित्त्व का संबंध ’नित्य’ होने को सत्य मानकर चलता है । इसका  एक तात्पर्य यह हुआ कि हर शब्द का किसी भी दूसरे शब्द के संदर्भ में एक ही सुनिश्चित अर्थ है । क्योंकि सृष्टि का ज्ञान सृष्टि होने के बाद उत्पन्न हुआ हो, यह संभव नहीं है । इसलिए जब हम एक शब्द भी प्रयोग करते हैं तो उसके अनंत संभावित अर्थों का जगत् हमें उपलब्ध हो जाता है ।
तत् - वह, ब्रह्म, विस्तारयुक्त, ... मे - मेरे लिए (चतुर्थी, एकवचन), मेरा (षष्ठी एकवचन),  मनः - ’मन’ / चित्त / हृदय / बुद्धि, शिव - 'शिवसहस्रनाम' एक  सीमा तक इस शब्द का तात्पर्य बतलाता है । संकल्पम् - ’सं’ उपसर्ग सहित ’कल्’ / ’क्लृप्’ धातु से व्युत्पन्न, सम्यक् भावना, (auspicious intentions, aspirations) , अस्तु -’अस्’ धातु, (’अदादिगण, -’होने के अर्थ में, ’लोट्’ लकार, प्रथम पुरुष एकवचन, (third person, singular case). 
इस विवेचना से उक्त मन्त्र का सामान्य भाव क्या है यह समझा जा सकता है । 
संक्षेप में मैंने संस्कृत की सामर्थ्य और समृद्धि को इंगित किया । जिसे रुचि हो वह व्युत्पत्ति और ’शब्द-सिद्धि’ की सहायता से इसे बहुत दूर तक ले जा सकता है, जो कोरा शब्द चातुर्य नहीं होगा, बल्कि चकित ही कर देगा ।
'omnibus' की ’शब्द-सिद्धि’ अर्थात्  'etymology'  देखें, तो ’ओम्नि’ ’ओम्’ का सप्तमी एकवचन रूप (locative, singular case) हुआ । समझने के लिए, जैसे ’व्योम्’ का व्योम्नि होता है ।
’वस्’- से 'bus'  की व्युत्पत्ति दृष्टव्य है । इस प्रकार हम अंग्रेज़ी के अधिकाँश शब्दों का संस्कृत मूल खोज सकते हैं । यह सही है कि यह बहुत हद तक एक श्रमसाध्य कार्य होगा लेकिन उसका पुरस्कार (reward) इतना अद्भुत् होगा कि अंततः हमें अत्यन्त प्रसन्नता होगी । और वह पूरे विश्व के लिए कल्याणप्रद, मंगल, ’शिव’ होगा । 
अपनी बात स्पष्ट करने के लिए मैं यहाँ दो उदाहरण और देना चाहूँगा 
पहला शब्द है इटॉयमॉलोजी (Etymology) - व्युत्पत्ति , निरुक्ति । इसे ’विग्रह’ करें तो इस प्रकार से होगा - इति + इयम् / अयम् + अव + लग् + ईय । यह उदाहरण मुझे अत्यन्त प्रिय है, क्योंकि इसमें उपसर्ग (prefix), प्रत्यय (suffix) तथा मध्यसर्ग  (infix) सरलता से दिखाई देते हैं । इति क्रिया-विशेषण है, इयम् / अयम् ’इदम्’ के एकवचन पुंलिंग तथा स्त्रीलिंग कर्त्तापद (nominative, masculine feminine third person singular case) हैं । ’अव’ उपसर्ग है, यहाँ मध्यसर्ग / infix है । लग् धातुरूप है जिसे लगने / जुड़ने के, संलग्न / विलग्न के अर्थ में   प्रयोग किया जाता है । ’लॉग्-ऑन्’ उसी से निकला है ।’ईय’, ’ईयस्’ / ’ईयसुन्’ प्रत्यय है । इन सारे उपसर्गों, मध्यसर्गों, प्रत्ययों धातुरूपों से  अंग्रेजी के अधिकाँश शब्दों की व्युत्पत्ति देखी / समझी / समझाई जा सकती है ।  हाँ, भाषाशास्त्र के अन्तर्गत होनेवाले विभिन्न प्रचलनमूलक ’रूपिम’ तथा ’स्वनिम’ प्रभावों से शब्द किस प्रकार परिवर्तित हो जाते हैं, इस पर भी ध्यान रखना बहुत जरूरी है । ’स्वनिम अर्थात् ’फ़ोनेटिक’/ 'phonetic', ’रूपिम’ अर्थात् ’फ़िगरेटिव’ / figurative'. 
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|| तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ||
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(© Vinay Vaidya, 
vinayvaidya111@gmail.com, Ujjain / 06-06-2013.)
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