June 29, 2013

~~~ जीवन-मृत्यु ~~~

~~~ जीवन-मृत्यु ~~~ 
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© विनय कुमार वैद्य , vinayvaidya.ujjain@gmail.com


       जीवन में सुख, दुःख और आवश्यकताएँ होती हैं । आवश्यकताओं के पूर्ण होने से जीवन में उल्लास और प्रगति होती है । जीवन सदा पूर्ण है, लेकिन जब आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं हो पाती तो जीवन में असंतोष पैदा होता है । या कहें असंतुलन पैदा होता है । संतुलन के लिए जीवन प्रयास करताहै, और कभी वह प्रयास सफल होता है, तो कभी कभी नहीं भी होता है । जैसे भूख लगने पर अन्न मिलना, प्यास लगने पर जल प्राप्त होना, देह और मन के लिए उचित श्रम, व्यायाम, और विश्राम मिलना । इसलिए संभव है कि इनमें से कोई  चीज़ कभी हो पाती है, तो कभी कभी नहीं भी हो पातीं । तब जीवन दुर्बल, रोगयुक्त, होकर देह से विलीन हो जाता है ।  आयु पूर्ण हो जाने पर भी देह-मन के इस यन्त्र की उपयोगिता शून्य हो जाती है । तब मृत्यु भी जीवन की स्वाभाविक गति का अगला सोपान होता है । जीवन नहीं मरता । हाँ, ’पहचान’/ ’स्मृति’ अवश्य समाप्त हो जाती है । और इसे ही मनुष्य ’अपनी’ मृत्यु समझता है । किन्तु ’मृत्यु’ का उसका यह ज्ञान, न तो उसके अपने अनुभव से प्रमाणित होता है, न किसी दूसरे के अनुभव से, और न वैज्ञानिक आधार पर  ही उसकी ’पुष्टि’ की जा सकती है । तीनों के ही माध्यम से अधिक से अधिक बस इतना ही पता चल सकता है कि एक ’जैव-प्रणाली’ (organism) की समाप्ति हो रही / गई है । किन्तु ’मृत्यु’ के बाद क्या होता है, इसका प्रश्न अत्यन्त बुद्धिमान मनुष्य के लिए भी बहुत दुरूह  होता है । तमाम ’धर्म’, ’अध्यात्म’ और ’दर्शन’ इस प्रश्न को समझने और हल खोज लेने का प्रयास / दावा करते हैं ! इस प्रश्न का हल / उत्तर खोजने की बजाय अधिक उचित यही है कि इस प्रश्न की वैधता पर प्रश्न किया जाए । तात्पर्य यह, कि क्या ’अपने’ समाप्त होने में ’जीवन’ समाप्त हो जाता है? स्पष्ट है कि इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे सकता । क्योंकि ’अपने’ समाप्त होने के दो अर्थ हैं, या तो जिसे हमने ’अपने’ के रूप में मान्य कर रखा है, उस ’मान्यता’ की समाप्ति हो जाना, या फ़िर यह स्पष्ट हो जाना कि जीवन किसी मान्यता पर अवलंबित कोई चीज़ न होकर, पहचान-मात्र से परे की वस्तु है, जिसके अस्तित्व को जानना तो संभव है, किन्तु जिसकी कोई ’पहचान’ नहीं बनाई जा सकती । दूसरे शब्दों मे, उसके विषय में ’स्मृति’ नहीं बनाई जा सकती । और इसलिए ’कोई’ उसे ’जानने’ का ’दावा’ भी नहीं कर सकता । इस तरह हम जीवन क्या है इसे भले ही न जान पाएँ, किन्तु यह तो समझ ही सकते हैं कि जिसे ’मृत्यु’ कहते हैं, वह मस्तिष्क की एक भ्रमपूर्ण मान्यता भर है, और शरीर से जीवन के विलीन हो जाने पर उस मान्यता के बने रहने की कोई संभावना शेष नहीं रह जाती ।
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