February 20, 2011

एक क़ोशिश, बस यूँ ही कुछ .....!!

एक क़ोशिश, बस यूँ ही कुछ .....!!
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इश्तेहार हो चले हैं अब रस्मी, रस्में अब होने लगी हैं इश्तेहार,
जब से बाज़ार घुस गया घर में बन गये रिश्ते सारे क़ारोबार ।
जी हाँ एहसास भी मिलेंगे यहाँ, थोक में लेंगे तो क़िफ़ायत होगी,
एक के साथ दो मिलेंगे फ़्री, और पैसों की भी बचत होगी ।
चाहे क़िश्तों में चुकायें या ऑर्डर दें, चाहे क्रेडिट से लें, हर्ज़ नहीं,
कैश दें एकमुश्त तो बेहतर है, कोई बाक़ी रहेगा कर्ज़ नहीं ।
आईये वेल्कम है, स्वागत है, ख़ैर-मक़दम है, आईये हुज़ूर,
आपका घर है, मेरा ये जो ग़रीबख़ाना है, आईये आईये ज़रूर ज़रूर !!

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February 16, 2011

~~बया का घोंसला~~


~~बया का घोंसला-1~~
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उन दिनों मैं कक्षा नौ का छात्र था ।
गाँव में एक ही मुख्य सड़क (रोड) थी, जो जिला-मुख्यालय ’सीधी’ 
से आकर ’सिंगरौली’ की ओर चली जाती थी । अब तो ’सिंगरौली’
भी जिला-मुख्यालय हो गया है ।
गाँव में एक ही नदी थी, जो लगभग साल भर जल से भरी रहती थी ।
अब पता नहीं वह नदी है भी या नहीं । मेरा दोस्त था खालिद, जो वहाँ 
के सी.आई. (सर्किल-इन्स्पेक्टर) का बेटा था, और उसका बड़ा भाई था 
तारिक, जो रीवा में पढ़ता था । मैं और खालिद अक्सर नदी की ओर 
घूमने चले जाते थे, जहाँ बेर, आँवले, करौंदे के बहुत से पेड़ थे ।
नदी के किनारे एक बंगाली बाबा रहता था, जो बाँसुरी बजाता था । 
पता नहीं क्यों वह बाँसुरी पर एक ही धुन बजाता रहता था ।
बहुत बाद में सुना था कि वह तान्त्रिक था ।
उस नदी के किनारे एक गूलर का पेड़ था ।
कभी कभी नदी में गिरे हुए उसके फ़लों को हम खाया करते थे ।
पानी में धुलने से उनके भीतर के छोटे-छोटे कीड़े निकल जाते थे ।
खालिद को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि उन फ़लों में कीड़े होंगे ।
वह जमीन पर गिरे फ़ल भी आराम से फ़ूँक-फ़ूँक कर खाता था ।
हम अकसर सोचते थे कि कहीं ये फ़ल ज़हरीले तो नहीं होंगे ।
अंत तक हमें यह शक बना रहा । गूलर के पेड़ के अलावा नदी किनारे 
बहुत सी घास, झाड़ियाँ और दूसरे छोटे बड़े पेड़-पौधे भी थे ।
बंगाली बाबा की कुटिया तक जाना मुश्किल था । हम उसकी कुटिया 
से थोड़ा पहले ही बाईं ओर मुड़ जाते थे । और क़रीब पन्द्रह मिनट तक 
चलकर उस जगह आते थे जहाँ नदी कुछ सँकरी हो जाती थी । ॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥
नदी के इस किनारे बबूल और बेर के बहुत से पेड़ और झाड़ियाँ थीं, तो 
झरबेरी की भी बहुत सी जँगली क़िस्में वहाँ थीं । हम बस घूमते हुए 
उन्हें चखते और खाते रहते । हाँ, कैथे और इमली का ज़िक्र करना तो 
भूल ही गया था । दूसरे किनारे थोड़ी सी ऊँचाई पर भी कोई साधु जैसा 
व्यक्ति रहता था । अकसर राम-चरित-मानस पढ़ता, और कभी-कभी 
’कल्याण’ । ’कल्याण’ शायद कोई उन से मिलनेवाला उन्हें  दे जाया 
करता था । जब हम उनकी कुटिया पर जाते, तो वे प्रेम से हमें भीतर 
बुलाते  और खोपरा, चिरौंजी या इलायचीदाना, या चने-चिरौंजी आदि 
देते । हम उन के पैर छूकर लौट आते थे । कभी-कभी थोड़ी देर उन के 
पास बैठ भी जाते थे । 
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उनका पूरा नाम तो शायद कभी सुना नहीं, लेकिन लोग उन्हें ’प्रसादी-बाबा’
कहते थे । शायद राम प्रसाद या इससे मिलता जुलता नाम था उनका । 
वैसे पास के ही किसी और गाँव में उनके भाई और परिवार के और लोग 
रहते थे, लेकिन वे उनसे अलग, यहाँ अकेले ही रहते थे । 
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देह और देहात्म-बुद्धि ।
प्रसादी बाबा के घर के सामने नदी के उस पार, और इस ओर भी बया के 
बहुत से घोंसले थे । कभी कभी हम बहुत कोशिश कर कोई घोंसला तोड़ 
लेते, तो प्रसादी बाबा बहुत नाराज़ होते थे । लेकिन कहते कुछ नहीं थे । 
हम सोचते थे कि वे इसलिये नाराज़ होते होंगे कि हम उन्हें चिढ़ाने के लिये 
यह घोंसला तोड़कर लाये हैं, जबकि हम सिर्फ़ उत्सुकता और कौतूहल के 
कारण लाते थे । खालिद कहता था कि वे इसलिये नाराज़ होते हैं क्योंकि यह 
घोंसला उनकी शक्ल सूरत से बहुत मिलता जुलता है । मुझे भी उसकी बात 
पर भरोसा था । लेकिन उनसे मिलनेवाले चने-चिरौंजी और गुड़-खोपरा के 
लालच में हम बया का घोंसला लेकर उनकी कुटिया के आसपास फ़टकते 
तक नहीं थे । एक बार ऐसे ही जब उनकी कुटिया पर पहुँचे तो वे किसी से 
’देह और देहात्मबुद्धि’ की बात कर रहे थे । जब हम चने-चिरौंजी की प्रतीक्षा 
करते हुए थोड़ी देर के लिये वहाँ बैठ गये, तो वे किसी काम से दो मिनट के 
लिये बाहर चले गये ।
कुटिया में बैठे दूसरे दो व्यक्ति आपस में बातें कर रहे थे ।
"दादा आपने बया के घोंसले देखे ?"
"हाँ, बहुत खूबसूरत हैं ।"
"आपको पता है, हर घोंसले में एक या दो बच्चे रहते हैं । बड़े होने पर उड़ 
जाते हैं, और घोंसला हवा में झूलता रहता है । ये प्रसादी बाबा भी ऐसे ही हैं ।
इनकी देह के भीतर से 'देहात्म-बुद्धि' उड़ गई है । बस हवा में डोलते रहते हैं ।
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फ़िर वर्षों तक "श्री रमण महर्षि से बातचीत" पढ़ते हुए "देह और देहात्म-बुद्धि" 
के बारे में कुछ समझ सका । आज जब कहीं उन घोंसलों का चित्र देखा, तो 
’प्रसादी बाबा’ याद हो आये ।
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February 14, 2011

~~~क्षणिका-३~~~

~~~~~क्षणिका-३~~~~~
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गर्मियों की दस्तकें थीं मौन अब तक ,
गर्मियाँ अब मौन दस्तक दे रहीं हैं !!
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February 11, 2011

~~क्षणिका-1,2.~~

~~~ क्षणिका-1,2.~~ 


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1. हरेक सिम्त से देखता रहता हूँ तुझको 
ये बात और है कि जानता नहीं हूँ मैं !
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2. और हैरत कि जानता नहीं फ़िर भी,
हरेक शक्ल में पहचानता हूँ मैं !!
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February 09, 2011

~~~शिखर-पुरुष~~~


~~~शिखर-पुरुष~~~


शिखर पर पहुँचकर,
आदमी अकेला हो जाता है,
और सबसे दूर भी ।
फ़िर भी न जाने क्यों लोग,
शिखर पर पहुँचने के ख़्वाब देखते हैं,
वे नहीं जानते कि वहाँ बहुत ठंड होगी,
ठंडी हवाएँ,
ऑक्सीजन और ’अपनों’ की कमी !
वहाँ तक पहुँचने से पहले ही,
एक संभावित ’नामालूम’ सी मौत,
जिसकी तस्दीक़ होगी शायद बरसों बाद,
जब एक ’डेड बॉडी’ बर्फ़ या हिमधारा में
बरामद होगी,
या फ़िर वह भी नहीं ।
मुझे तो लगता है कि कभी-कभी दुश्मन भी,
उकसा देते हैं,
पीठ थपथपाकर,
कोई पुराना हिसाब चुकता करने के लिये !
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February 05, 2011

~~~ रंग ~~~


~~~रंग~~~

by Vinay Vaidya on Saturday, February 5, 2011 at 7:19am

कभी तो रंग दिल के,
उभर आते हैं चेहरे पर,
कभी हम उनको,
लिबासों में छिपा लेते हैं ।
कभी तो रंग लिबासों के भी 
रिसते-रिसते,
दिल तलक,
रूह तलक जाते हैं,
दिल को छलनी,
रूह को घायल,
एहसास को पागल,
या वहशी भी बना देते हैं,
रंग कोई भी हो,
हद तो एक होती है,
रंग सबब न बने रंज का ग़र,
हरेक रंग की ख़ुशबू तो अपनी होती है ।


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