January 31, 2011

~~~रचना/सृष्टि~~~


~~~रचना/सृष्टि~~~
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ऋषि कवि हो सकता है,
और कवि, ऋषि भी !
चुनते हैं दोनों,
-’अक्षर’ को,
जो कभी मंत्र बन जाते हैं,
तो कभी ’बीजाक्षर’ भी !
यह तो ’अक्षर’ की नियति ही है,
क्योंकि दृष्टा ही तो ऋषि हो सकता है,
और ’सृजनकर्ता’ ही कवि,
लेकिन कभी कभी ’क्षर’ की नियति भी ऐसी होती है,
या कि उसका अनंत सौभाग्य,
कि उस पर पड़ जाती है दृष्टि,
दृष्टा की,
उठा लेता है कवि उसे अपनी हथेलियों में
और ऋषि फूँक देता है उसमें प्राण,
मंत्राक्षरों से !
और ’क्षर’ हो जाता है,
धन्य !
जब ’सृजनकर्ता’,’ऋषि’ और ’कवि’
उसे छू देते हैं,
हो जाता है वह,
’अक्षर’  अमर्त्य !
उनसे अनन्य !!

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January 20, 2011

~~स्थितियाँ और मनःस्थितियाँ ~~

~~स्थितियाँ और मनःस्थितियाँ  ~~
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1.यह जो है मन,
कितना अजीब है !
होते हुए !
या न भी होते हुए,
होने- न-होने के बीच,
बाहर और परे, 

अछूता,
जहाँ 'कोई' नहीं होता,
जहाँ,
'अब', 'तब', और 'कब', 'जब'
'अभी', और 'कभी',
नहीं होता  !
लगकर भी नहीं लगता, 

लगाने से कभी लग भी जाता है,
तो जल्दी या फ़िर कभी,

विलग या सुलग जाता है.
सचमुच बहुत अजीब शै है,
यह जो है मन  !

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 2. जी !
आप कहते हैं, 

'जी' मत लगाइए  !
'जी  !' 

कहता हूँ मैं . 
लेकिन क्या 'जी' लगाने की कोशिश करने से,
लग सकता है 'जी' ?



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3.वे दोनों,
खड़े  हैं,
मेरे घर के पीछे,
जहाँ हर सुबह-शाम,
देखता हूँ उन्हें, !
एक-दूसरे के समीप,
एक-दूसरे के साथ,
जैसे दो प्रेमी,
सुबह-शाम,
घूमने के लिए,
हाथों में हाथ थामे,
जा रहे हों, साथ-साथ !
उनका एक ही साझा दिल है,
जिसे आप देख सकते हैं,
अगर आप उन्हें ध्यान से देखें तो .
पर्णवितान के विस्तार में,
आकाश के दिल सा .
और फ़िर उस पर्णवितान के बने दिल के भीतर भी,
पुनः  एक दिल है,
आकाश का बना,
जिसके  पार आप क्षितिज देख सकते हैं !
हर सुबह-शाम,
और कई बार जब भी समय मिलता है,
देखता रहता हूँ मैं,
इस प्रेमी युगल को,
सुनता रहता हूँ,

एक प्रेम-गीत,
सतत !!

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January 14, 2011

यदि तुमने सचमुच प्रेम किया है !

~~ यदि तुमने सचमुच प्रेम किया है ! ~~
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 मेरी अंग्रेज़ी कविता :
"If you have really loved...." का हिन्दी अनुवाद 

यदि तुमने सचमुच प्रेम किया है,
तो तुम अपने प्रिय की मृत्यु को उत्सव की तरह मना सकोगे ।
क्योंकि उसकी मृत्यु नहीं हुई,
बल्कि वह तो उन पाशों को तोड़ चुका है,
जिसने उसे ’स्व’ के सीमित अस्तित्त्व में जकड़ रखा था ।
और यह ’स्व’ ही तो होता है,
-वास्तविक दुःख !
अब तो वह लीन हो चुका है,
उस असीम प्रेम में,
उस शाश्वत आनन्द में,
जो कि प्रभु है,
वास्तविक आत्मा है,
-परमात्मा है,
नाम के अनुरूप,
यथार्थतः परब्रह्म,
और तुम खुद भी ।
पर हाँ !
किसी सुह्रद की मृत्यु,
गहन दुःख का एक आघात तो अवश्य होती ही है ।
एक गहरी पीड़ा भी ।
किन्तु यदि तुमने सचमुच उसे प्रेम किया है,
तो तुम्हारे हृदय में इसके बने रहने तक,
तुम इस आघात के दुःख को भी जियोगे,
सहोगे उतनी ही सहृदयता से,
इस दुःख के पल्लवित-पुष्पित होने,
और फ़िर झर जाने तक,
पत्ते या फूल की तरह ही,
’जीवन-वृक्ष’ से इसके सूखकर झर जाने तक ।
और अथाह अविनश्वर प्रेम में, 
इसके समाहित हो जाने तक ।
क्योंकि मन की सभी चीज़ें,
अपनी मौत आप ही मर जाती हैं,
जीवन मरता नहीं,
प्रेम मरता नहीं ।

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January 09, 2011

~~ चलो इक बार फ़िर से,.... ~~

~~~~~ चलो इक बार फ़िर से,.... ~~~~~
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कितना आसाँ है कहना,
’अजनबी बन जाएँ हम दोनों’,
कितना मुश्किल है,
सिलसिले खत्म कर देना ,
काश वो शुरु ही न हुए होते,,
वर्ना बनता ही कैसे अफ़साना ?
भुला देने से अफ़साने खत्म नहीं होते,
सिलसिले टूटते नहीं ऐसे,
अजनबी दोस्त तो बन जाते हैं,
दोस्त पर अजनबी बनें कैसे ?
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~~देर आयद, दुरुस्त आयद ~~

~~~~~~देर आयद, दुरुस्त आयद~~~~~
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बहुत दिनों तक मेरे साथ चलते रहने के बाद,
खयाल आया था उसे,
कि वह बस भटकता ही तो रहा है, अब तक !
"कहाँ जाना / पहुँचना चाहते थे / हो तुम ?"
-पूछा मैंने ।
कोई उत्तर नहीं था उसके पास ।
"मुझे लगता है कि मैं चाहता था / हूँ, 
अपनी ’अस्मिता’ की एक पहचान ’स्थापित’ करना ।"
-वह बुद्धिजीवियाया ।
"चलो, ठीक है, मुझे माफ़ करो,
और अपना रास्ता नापो"
-सोचा मैंने ।
लेकिन प्रकटतः यही कहा,
"चलो इक बार फ़िर से,
अजनबी बन जाएँ हम दोनों ।"
हमने अच्छे दोस्तों की तरह हाथ मिलाये,
-शेकहैन्ड किया,
और अपनी अपनी राह पर चल पड़े ।
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