March 27, 2011

~~27032010/ यूरेकाऽ,


~~~~~2732010/ यूरेकाऽ, ~~~~~
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Vinay Vaidya 




एक पागल विचार,
मग्न था,
वह इतना मग्न था,
और बिलकुल नग्न था ।
और उसे खयाल तक न रहा,
कि उसे कोई देख रहा होगा !
एक पागल,
विचारमग्न था,
वह इतना मग्न था,
और बिलकुल नग्न था ।
और उसे खयाल तक न रहा,
कि उसे कोई देख रहा होगा !
फ़िर वह ’टब’ से निकलकर,
दौड़ता हुआ बाहर सड़क तक चला आया,
उत्तेजना से भरकर चिल्ला उठा,....
यूरेकाऽ, यूऽरेऽकाऽऽ ...!!
लोग हैरत से उसे देखने लगे ।
वह चौंका,
उसे अपनी स्थिति का भान हुआ,
और वह दौड़ता हुआ लौटकर
अपने घर में घुस गया ।
लोग बातें कर रहे थे,
"अरे जाने दो,
कभी-कभी ऐसा हो जाता है,"
"येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धो पुरुषो भवेत्‌ ।"
अफ़सोस,
इस सब में उसे भूल गया था,
वह नायाब खयाल,
जिसे वह लिख लेना चाहता था ।
उसे सिर्फ़ इतना याद रह गया,
कि वह कैसे बिलकुल नग्न ही,
सड़क पर निकल आया था ।
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March 23, 2011

चाँद और ऊबे हुए लोग !





~~~ चाँद और ऊबे हुए लोग ! ~~~
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© Vinay Vaidya 



’आदमी’ यहाँ आया उससे बहुत पहले से ही,
वह आसमान में रोज आता जाता था ।
उसका ’रोज’ सूरज से था,
क्योंकि सूरज का रोज पर एकाधिकार था ।
वह तो सूरज के आगे-पीछे या साथ-साथ,
अकसर ही रोज आता था, बिला नागा,
फ़िर भले ही इस आपाधापी में, 
हर चार हफ़्तों बाद मरणासन्न अवस्था में,
लगभग मिटना ही क्यों न होता हो ।
लेकिन फ़िर दो हफ़्तों में पूरी तरह जवान हो जाता था ।
न जाने कितनी सदियों तक, 
सूरज की सेवा में रहने के बाद,
जाकर कहीं उसे ’आदमी’ के दर्शन हुए थे ।
कुछ-कुछ,
’हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
कहीं जाकर तब होता है, चमन में दीदावर पैदा ।’
की तर्ज़ पर ।
और दीदावर तब से आज तक,
उसके सौन्दर्य से सम्मोहित होता रहा है ।
दीदावर ने अपनी महबूबा के चेहरे में उसे देखा,
और वे दोनों उसके घटने-बढ़ने, जवान होने,
और खो जाने पर फ़िदा होते रहे ।
ऐसे कितने ही माशूक और उनकी महबूबाएँ,
आए और चले गये ।
उन्होंने न जाने कितने महाकाव्य रच डाले,
धर्म, अध्यात्म, दर्शन, ज्योतिष, कला,
और प्रेम की शैलियों में ।
वह सब इतिहास है ।
उसके दीदार से उन्मत्त होनेवाली शै,
एक और भी तो थी !
हाँ सागर ।
लेकिन सागर ’आदमी’ से पहले आया था ।
और बहुत मुमकिन है,
कि आदमी के रुख़सत होने के बाद ही यहाँ से जाये । 
लेकिन पिछली दो सदियों में,
यह ’आदमी’ नाम का शख़्स,
कुछ ज़्यादा ही बदल गया ।
उसने उसकी हक़ीकत जाननी चाही,
तो वहाँ तक जानेवाली एक सीढ़ी ही बना डाली,
जो सीधे छलाँग लगाकर,
तीर सी उस तक पहुँचने लगी ।
लेकिन चाँद शरमाया नहीं !
वह वैसे ही रोज-बरोज आता-जाता रहा ।
अब ’आदमी’ के ऊबने का वक़्त है ।
चाँद से उसका ’हनीमून’ ख़त्म हो चला है ।
बहरहाल सागर अब भी हर्ष-विभोर होता है,
उसके जवान होते ही !
उनका रोमांस कभी ख़त्म न होगा ।
जारी रहेगा,
’आदमी’ के जाने के बाद भी ।
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March 22, 2011

-बया का घोंसला -2-





~~-बया का घोंसला -2-~~
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उस शाम ख़ालिद मेरे साथ नहीं था । मैं अकेला ही उस नदी
के किनारे घूम रहा था । उस नदी की रेत में कुछ ऐसे रेतीले
पीले पत्थर थे जिन्हें आसानी से तराशा जा सकता था । लोग
कहते थे कि उस नदी की रेत में सोने के बारीक कण हैं, लेकिन
हमें तो बस ऐसे पीले पत्थर ही मिले थे, जिन्हें मैं घर ले आया
करता था, घर पर हर हफ़्ते ऐसे दो तीन पत्थर ले आता था,
जिन्हें बाद में दीदी या माँ उठाकर दूर फ़ेंक आया करती थी ।
उस दिन जब मैं अकेला ’प्रसादी बाबा’ की कुटिया पर पहुँचा,
तो वे एक किस्सा सुनाने लगे थे :
’बेटा, बइठो ! तुमने उस बुढ़िया की वह कहानी सुनी है,
जिसके पास पाँच बैल थे ?’
उन्होंने पूछा ।
’नहीं तो, ....’
'ऐसा है, एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी जो अकसर अकेली
रहती थी, बेटे-बहुएँ, वगैरे खेत-खलिहान के और दूसरे कामों 
में लगे होते थे, और घर पर वह अकेली रह जाती । शाम को 
गाय-बैलों को सानी-पानी देकर सोने से पहले एक बार सबकी 
हाज़िरी लेती, पुचकार कर दुलारती, और फ़िर सो जाती । ऐसे 
ही रोज की तरह एक रात को जब वह सोने से पहले बैलों के पास 
आई तो उन्हें उनका नाम लेकर सहलाने लगी । उस दिन एक चोर
घात लगाये बैठा था थोड़ी दूर पर छिपकर, उसने सोचा कि जब 
बुढ़िया लौट जायेगी, तो वह आराम से एक-दो बैलों को चुरा ले 
जायेगा । तभी उसे बुढि़या की करारी आवाज़ सुनाई दी :
’ऐ ऽ ! को खड़ा ऽऽऽऽ !!’
उसे लगा कि बुढि़या ने उसे देख लिया है, इसलिये वह धीरे से धरती
पर बैठने लगा । अभी बैठ भी न पाया था कि बुढ़िया की दूसरी कड़क
आवाज़ सुनाई पड़ी, पहले जैसी ही तेज़ :
’ऐ ऽ ! को बईठा ऽऽऽऽ !!’
चोर घबरा गया और उठने लगा कि बुढ़िया की तीसरी कड़क तेज़
आवाज़ उसके कानों पर पड़ी :
’ऐ ऽ ! को उठा ऽऽऽऽ !!
अब चोर ने भागना ही ठीक समझा और दौड़ने लगा । तभी एक और
तेज़ आवाज़ सुनकर घबराकर गिर ही गया । इस बार बुढ़िया ने कहा
था, :
ऐ ऽ ! को भगा ऽऽऽऽ!
और जब जैसे-तैसे वापस उठने लगा कि आखि़री आवाज़ सुनते हुए
उसका मुँह सूखने लगा । बुढ़िया कह रही थी, :
ऐ ऽ ! को गिरा रे ऽऽऽऽ !’
तब तक चोर की आहट पाकर कुत्ते भौंकने लगे थे, आसपास के दूसरे
लोगों ने उसे धर दबोचा था । वास्तव में उस बुढ़िया के बैलों के नाम थे,
कोखड़ा, बईठा, कोउठा, कोभगा और कोगिरा,...’
वाह !! मुझे तो मज़ा आ गया ।
’अब कथा के बाद प्रसाद भी तो लो !’
कहकर वे उठे और कुछ गरी चिरौंजी मेरी हथेली पर रख दिया ।
घर लौटा और  दीदी को यह कहानी सुनाई तो बोली,
’तू कहीं भी भटकता रहता है, पढ़्ता-लिखता नहीं, फ़ेल हो जायेगा,
फ़िर रामचरितमानस पढ़ते रहना !!’
’हाँ, मैं तो चिलम भी पिया करूँगा तब तो,....’
मैं उन्हें चिढ़ाने लगा ।
वो नाराज़ होकर अपनी पढ़ाई करने लगीं ।
लेकिन उस कहानी पर मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा । फ़िर जब
कॉलेज से निकला ही था, कि एक दिन मुझे ख़ालिद मिल गया था ।
उसके हाथों में ’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक देखी तो चौंक
पड़ा । प्रसादी बाबा ने मुझे जो कहानी सुनाई थी, वह कहानी उन्होंने
क्या इस पुस्तक में पढ़ी थी ? ख़ालिद मुझे बतला रहा था कि उसने
तो यह कहानी इसी पुस्तक में पढ़ी है, उन्होंने कहाँ पढ़ रखी होगी,
उसे नहीं पता ।
मेरा दिमाग़ बिल्कुल काम नहीं कर रहा था, उस पुस्तक के सारे पन्ने
पलटकर ध्यान से, बारीकी से देख लिया था लेकिन वह कहानी मुझे
वहाँ कहीं नज़र नहीं आई ।
फ़िर जब खालिद मिला, तो मैंने उससे पूछा तो वह बोला, शरद ने इसमें
पढ़ी है । अगले दिन जब शरद से मुलाकात हुई तो वह हँसने लगा । बोला,
’अरे नहीं, ख़ालिद तो मज़ाक कर रहा है,....’
बहुत दिनों तक शरद ने इस राज़ को राज़ ही रहने दिया, और मैं ऐसे ही
कभी-कभी उस पुस्तक को पढ़ने लगा था । बारम्बार ’कोऽहम्’ पढ़ते पढ़ते
एक दिन अचानक दिमाग की घंटी बजी और 'कोखडा' की कहानी स्मरण हो
उठी ।
एक ऐसी कुँजी हाथ लग गयी जो आगे चलकर अध्यात्म की कुल जमा पूँजी
साबित हो गयी  ।
तो क्या प्रसादी बाबा ने उस दिन मुझे अनजाने ही कोई 'दीक्षा'  दी थी ? या
'शक्तिपात' किया था ? मैं सोचने लगा । सोचते ही सोचते मेरी आँखें मुंदने लगीं,
और मैं अपने आपको प्रसादी बाबा की कुटिया में महसूस करने लगा  । वे कह
रहे थे,
'ये जो पांच बैल थे, वे वास्तव में पाँच प्रकार की वृत्तियाँ हैं मन की  । जिन्हें
'अहम्-वृत्ति'-रूपी चोर चुराकर ले जाता है  । जब बुढ़िया पूछती है, :
'कोखडा', 'को बईठा'... तो वह प्रश्न करती है, की यह 'वृत्ति-विशेष' किसमें जागी ?
इस प्रकार से यहाँ जानो कि सभी वृत्तियाँ 'मैं-वृत्ति' पर आश्रित होती हैं, और
इसलिए पृथक से कोई 'मैं-वृत्ति' कहीं नहीं होती  ।  .....'
मुझे उनका एक-एक शब्द स्पष्ट सुनाई दे रहा था, और उसका आशय भी पूरी
तरह समझ में आ रहा था । तभी अचानक शरद ने डोरबेल बजाई । मेरा मन
सन्नाटे में था....
 

March 20, 2011

"......यह जो,...."


"......यह जो,...."

~~20032010~~

© Vinay Vaidya 


पेड़ 


यह जो हरा है !
देखकर आँखें शीतल हुईँ ,
और हृदय उमड़ा है !

आकाश

यह जो नीला है,
दूर तक फ़ैला है,
देखकर मन जुड़ा है,
पँख लगा उड़ा है !


धरती 


यह जो श्यामल है,
कितनी सलोनी है,
देखकर याद आई,
माँ की गोद !


नेह


यह जो अरूप है,
जैसे छाँव-धूप है,
देखकर अदेखा सा,
मेरा महबूब है !

सूरज


यह जो नारंगी है,
सुबह और शाम को,
देखकर लगता है,
रोज खेलता है होली ! 
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March 14, 2011

.. बाज़ार में, .....!!


~~~~~ बाज़ार  में ...!! ~~~~~~
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© Vinay Vaidya -14032010.

बाज़ार की ताकतें,
ढालती हैं,
अपनी-अपनी तराजुएँ,
आपके भयों, ज़रूरतों, 
उम्मीदों, आशाओं,
को पलड़े बनाकर,
अपने भयों, सपनों को,
बटखरे बनाकर,
आप खुद ही कहीं ग्राहक होते हैं,
तो कहीं खरीदार भी,
और कुछ लोग बिचौलिये,
या दलाल भी,
जिनकी अपनी-अपनी तराजुएँ और
बटखरे होते हैं,
अपनी ’मैनेजमेन्ट-स्ट्रेटेजीज़’,
और ’टैक्टिक्स’, ’पॉलिसीज़’
और ’रिस्क-कैल्कुलेशन्ज़’ होते हैं,
’रिवलरीज़’ और ’कॉम्पिटिशन’ भी,
जो अर्थतन्त्र से लेकर युद्धतन्त्र तक
के दायरे में फ़ैले होते है,....
राजनीति के गलियारे,
बना देते हैं,
इस खेल को और भी रोचक, रोमांचक !
देखिये आप कहाँ हैं इस मैदान में !
मॉल्स से फ़ुटपाथ तक,
खेत-खलिहान से दलाल-स्ट्रीट तक,
क्लबों केसिनो से झोपड़-पट्टियों तक,
अनाथालयों से चिकित्सालयों तक,
चूल्हों चौकों से 
क्रिकेट के चौकों छक्कों तक,
हर किसी के दिलो-दिमाग़ तक में,
कहाँ तक नहीं फ़ैले हैं,
ये गलियारे,
क्या इस महायन्त्र का कोई पुर्जा,
बदल सकता है, 
यन्त्र की प्रणाली को ?
एक गहरा आपसी सामंजस्य है,
मशीन के सारे पुर्जों में,
और खेल जारी रहेगा,
जब तक आप चाहेंगे,
क्योंकि जैसे ही कोई पुर्जा टूट-फ़ूट जाता है,
बाज़ार की ताकतें,
उसे हटा देती हैं,
कतारबद्ध खड़े होते हैं,
नये पुर्जे,
खाली होती जगह को भरने की ललक में,
.... बाज़ार में,......!!

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March 07, 2011

|| तदेजति तन्नैजति..||


~~~~~ तदेजति तन्नैजति... ~~~~~
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© Vinay Vaidya 



तारे ठहरे भी रहते हैं,
तारे चलते भी रहते हैं,
चंदा को साथ लिये,
सूरज ठहरा भी रहता है, 
सूरज चलता भी रहता है,
धरती को साथ लिये,
धरती ठहरी भी रहती है,
धरती चलती भी रहती है,
जीवन को साथ लिये,
तुम भी ठहरे भी रहो,
तुम भी चलते भी रहो, 
उन्नति को साथ लिये !
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(तदेजति तन्नैजति...-ईशावास्योपनिषत्)


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March 05, 2011

नई क्षणिका


~~~~~05032010~~~~~~
नई क्षणिका~~~~ 
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सूख चुके हैं आँसू मेरे,....
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सदियों से काटता आ रहा हूँ प्याज !!
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March 04, 2011

~~~~~~~ताउम्र~~~~~~~~


~~~~~~~ताउम्र~~~~~~~~
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© Vinay Vaidya 



पहचान भूल जाने से,
रिश्ते ख़त्म नहीं होते,
रिश्ते टूट जाने से,
पहचान ख़त्म नहीं होती,
किसी नाम से रू-ब-रू होते ही,
लगता है वह जाना-पहचाना सा,
लेकिन उसका चेहरा याद नहीं आता ।
और किसी चेहरे को देखकर,
नाम जुबाँ तक आते-आते,
कहीं फ़िसल सा जाता है ।
फ़िर किसी दिन अचानक ही,
नाम और चेहरे जाने-पहचाने से लगते हुए भी,
बस अपने से लगने लगते हैं,
जिनके बारे में हमें ’कुछ’ तो पता होता है,
लेकिन क्या पता है,
यह ठीक से याद नहीं आता ।
ढूँढते रहते हैं हम ताउम्र उन अपनों को,
कभी दूर, कभी आस-पास कही,
और कभी जागी  कभी सोई या फ़िर
कभी-कभी उनींदी आँख़ों के सपनों में ।


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March 03, 2011

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन !






~~ कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ! ~~
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© Vinay Vaidya 


क्या सचमुच ?
हाँ, और नहीं भी ! 
जब अभी के इन पलों से उनकी तुलना करता हूँ,
तो वे बहुत अपने लगते हैं ।
लेकिन शायद ऐसा तब भी तो था !
लेकिन सोचता हूँ, तब बेचैनी कहाँ थी ?
कुछ ’छूट जाने’ का एहसास कहाँ था ?
तब बस ’वर्तमान’ हुआ करता था ।
सचमुच तब भविष्य का विचार तक नहीं होता था ।
तब सुख थे, कष्ट भी थे, और प्रश्न भी थे ।
अब सुख बहुत कम हैं, या जो हैं भी, उनका एहसास 
तभी होता है, जब वे छिन जाते हैं,
जैसे अचानक ’नेट’ का कट जाना,
अब यह ’प्रश्न’ नहीं ’चिन्ता’ बन जाता है ।
लेकिन क्या फोन, मोबाइल, टीवी, फ़्रिज,
मोटर-सायकल के बिना भी क्या मैं सुखी नहीं था ?
तब गाँव से छह किलोमीटर चलकर आधे घण्टे के इन्तज़ार के बाद
दूर से आती बस के रुक जाने, उसमें खड़े होने भर की जगह भी 
मिल भर जाने से एक खुशी नहीं होती थी ?
लगता है कि तब बहुत उत्साह था, जो अब चुक गया है ।
अब बस आशाएँ ही बाकी हैं,
’तदपि न मुञ्चति आशावायुः’
किसकी आशा ?
कोई उत्तर नहीं है मेरे पास ।
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