December 23, 2010

॥श्रीलिंगाष्टकम् ॥

~~~~~~~॥श्रीलिंगाष्टकम् ॥~~~~~~~~

______________________________
******************************






ब्रह्म मुरारि सुरार्चित लिंगम्
निर्मल भाषित शोभित लिंगम् ।
जन्मज दुःख विनाशक लिंगम्
तत् प्रणमामि सदा शिव लिंगम् ॥1.


देव मुनि प्रवर्चित लिंगम् 
काम दहन करुणाकर लिंगम् ।
रावण दर्प विनाशन लिंगम् 
तत् प्रणमामि सदा शिव लिंगम् ॥2.
सर्व सुगन्धि सुलेपित लिंगम्
बुद्धि विवर्तन कारण लिंगम् ।
सिद्ध सुरासुर वन्दित लिंगम्
तत् प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥3.




कनक महामणि भूषित लिंगम् 
फणिपति वेष्टित शोभित लिंगम् ।
दक्ष सुयज्ञ विनाशन लिंगम् 
तत् प्रणमामि सदा शिव लिंगम् ॥4
कुंकुम् चन्दन लेपित लिंगम्
पंकज-हार सुशोभित लिंगम् ।
सञ्चित पापविनाशन लिंगम् 
तत् प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥5.
देवगणार्चित सेवित लिंगम्
भावैर्भक्ति प्रवेशम् लिंगम् ।
दिनकर कोटि प्रभाकर लिंगम् 
तत् प्रणमामि सदा शिव लिंगम् ॥6.
अष्टदलोपरि वेष्टित लिंगम्
सर्व समुद्भव कारण लिंगम् ।
अष्ट दारिद्र्य विनाशन लिंगम्
तत् प्रणमामि सदा शिव लिंगम् ॥7.
सुरगुरु सुरवर पूजित लिंगम्
सुर वनपुष्प सदार्चित लिंगम् ।
परमपदं परमात्मक लिंगम्
तत् प्रणमामि सदा शिव लिंगम् ॥8.
लिंगाष्टकम् इदं पुण्यं यः पठेत्-शिव सन्निधौ,
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥
__________________________________ 
**********************************


December 19, 2010

~~आईना~~

~~~~~~~~~~आईना~~~~~~~~~~
___________________________
***************************

आईना तटस्थ है,
साक्षी,
बस दिखला देता है,
जो उस क्षण उसके समक्ष होता है,
-उसे,
-उसे ही जो उसे देख रहा होता है ।
आईना भला-बुरा नहीं कहता,
यह तो उसे देखनेवाला ही कहता है,
जो कि पहले से ही टूटा हुआ होता है ।
अनेक खंडों में ।
या कि मान लेता है, 
अपने को,
अस्तित्व का एक हिस्सा,
और हो जाता है युद्धरत,
अस्तित्त्व पर हावी होकर ’पूर्ण’ होने की
असंभव कामना से ग्रस्त ।
आईना टूटे हुए को टूटा हुआ दिखला देता है ।
टूटा हुआ अगर सामने न हो तो,
वह साबुत को पहचानता तक नहीं,
-क्योंकि वह खुद ही साबुत है,
-अपने आप में ।
वह ’दूसरे’ को जानता तक नहीं !
जब उसके सामने कोई नहीं होता,
तो आईना खुद भी कहाँ होता है ?
-क्योंकि आईना कभी टूटता ही कहाँ है ?
हर टुकड़ा उसका,
एक मुक़म्मल आईना ही तो होता है !
आईना मौन है,
मौन दर्पण ।
बस निहारता है,
निर्निमेष, अपलक ही !
और जब कोई मौन, निर्निमेष निहारता है,
आईने को,
तो वह बाकी नहीं रह सकता,
मिटकर हो जाता है,
खुद भी  आईना !
आईना तटस्थ है,
साक्षी !!

__________________________
************************** 

December 17, 2010

यह अन्त था ! माँ !!















~~~~~यह अन्त था !~~~~~
________माँ !!_________
*********************




यह अन्त था !
माँ !!


_______________




अक्सर मैं सोचता था, 
एक तस्वीर बनाऊँ,
पर्वतारोहियों की,
सामने हैं कई शिखर,
जो दुर्गम हैं,
ललचाते हैं,
चुनौती देते हैं,
हर शिखर के लिये,
एक नया अभियान शुरु करना होता है,
फ़िर,
शिखरों के क्रम हैं,
श्रँखलाएँ,
किसी भी शिखर से दूसरे किसी शिखर तक,
एक नया रास्ता
होता है,
या खोजना होता है ।
शुरु करना होता है,
नये सिरे से,
एक नया अभियान,
सामना होता है, 
एक नई चुनौती से !
करना होता है, एक नया संकल्प !
नहीं जानता था,
कहाँ होगा,
इस क्रम का अन्त ।
-जब कोई चोटी अविजित रहकर मुझे जीत लेगी,
और मैं हार जाऊँगा !
पर हाँ,
प्रतीक्षा ज़रूर थी,
ऐसी किसी ऐसी घड़ी की ।
ऐसी किसी चोटी की ।
और फ़िर एक दिन अचानक ही अकल्पित घटा था ।
जब उसके दर्शन हुए थे ।
उसके अद्भुत सौन्दर्य को,
मैं निर्निमेष देखता रह गया था,
अपलक,
ठगा सा !
संमोहित, 
लुब्ध,
मन्त्रमुग्ध सा !
खिंचता चला गया था उसकी ओर,
खिंचता नहीं, बल्कि उड़ता हुआ सा,
क्योंकि मेरे पास पंख नहीं थे ।
और जब उसके चरणों तक पहुँचा,
चरणों को छुआ,
तो मेरा सारा विजय-गर्व धराशायी था,
नतमस्तक,
विगलित,
पिघलकर हो गया था हिमनद्‌ !
भाग रहा था, रसातल की दिशा में ।
हाँ, उसने मुझे अभिभूत कर लिया था,
और मैं रोमाँचित था,
अधीर, विह्वल, पुलकित और गद्‌गद्‌ !!
उसने मुझे उठाकर जड़ दिया था,
मेरे गाल पर एक चुम्बन !
वात्सल्य भरा,
हाँ,
मैं हारकर भी जीत गया था !

______________________
**********************

December 13, 2010

कविता से एक प्रश्न

~~~~~~कविता से एक प्रश्न ~~~~~~~

____________________________
****************************

(A Marathi poem by a facebook-friend,
Sudhakar Kulkarni,
rendered into Hindi, 
with his kind permission,
just for the joy of it)

____________________________
****************************


तू हिमालय की बर्फ़ीली चोटी,...
या क्षितिज पर फ़ैला इन्द्रधनुष,...
तू कार्तिक की वैभवशाली पूर्णिमा,...
या आषाढ़ में घिरी घनघोर घटा,...
तू स्रोतस्विनी की गहनता,...
या हेमन्त की हरसिंगार सी शीतलता,...
तू रेतीला विस्तीर्ण मरु,...
या नील निस्सीम आकाश,...
तू आषाढ़ की पहली बारिश,...
या श्रावण की अनवरत टप-टिप,...
तू मन्दाकिनी की नीली चन्द्रकोर,...
या गुलाब पर टिका अबोल अश्रु, ...
कविता, ओ लाड़ली , तू ऐसी कैसी रे ! ऐसी कैसी !!
तू ज्ञानी की अमृतवाणी,...
या तुका के मधुर अभंग,...
तू मीरा की गूढ़ पदावलि,...
या कबीर के दोहों की प्रज्ञा,...
तू रामदास का ’उदासबोध’,...
या मोरोपंत की ’केकावली’...
तू कवि बोरकर की ’चांदणवेल’,...
या कुसुमाग्रज की ’हिमरेशा’,...
तू केशवसुत रचिता ’तुतारी’,...
या ’बालकवि’का बावरा ’औदुम्बर’,...
तू पाडगाँवकर की ’धारानृत्य’ छोरी,...
या भट-रचित अपना ही ’आगार’,...
तू आरती प्रभु कृत ’नक्षत्राचे देणें’,...
या ग्रेस की ’सांजभयाची साजणी’,...
कविता, अरी ओ देवी, तू ऐसी कैसी रे, ...ऐसी कैसी 
तू विष्णु के क्षीरसागर का ब्रह्मकमल,...
या यीशु के मुख पर स्थित ख्रिश्तीय वेदना,...
तू रणवीर की तलवार की नोंक,...
या स्वातन्त्र्यवीर के हौतात्म्य का बलिदान,...
तू श्रमिक के माथे पर आया सीकर-बिन्दु,...
या समाज के कर्णधारों के मन का तनाव,...
तू भूख से तड़पते बच्चों की माता के नयनाश्रु,...
या बोस्निया के संघर्ष की चिंगारी,...
तू वसुन्धरा का ग्रीनहॉउस इफ़ेक्ट,...
या नाभिकीय अस्त्रों की स्पर्धा में संलग्न अनुसंधान,...

कविता, कम्बख़्त,  तू ऐसी कैसी रे,... ऐसी कैसी 
तू प्रेयसि के गाल की लाली,...
या नेत्रभ्रम,...
तू ऊर्जस्वल स्वप्नों की भोर,...
या वेदना की सायंकातर बेला,...
तू भावनाओं का उत्स्फूर्त आविष्कार,...
या केवल कोरा शब्दाडम्बर,...
तू नवोन्मेष विलासी प्रतिभा,...
या कि उसका ही तरल आविष्कार,...
तू भावसत्य की पुनर्निर्मिति,...
या कि भाससत्य का धारानृत्य,...
तू मात्र प्रतिमाओं की भाषा,...
या प्रतिमाओं की शुभ्र चाँदनी रात्रि,... 
कविता, अरी पगली, तू ऐसी कैसी रे, 
.....अरे ऐसी कैसी ??  


_______________________________
*******************************
********************************

December 05, 2010

तालाब

~~~~~~~~~~~ तालाब ~~~~~~~~~~~~
_________________________________
*********************************

तब,
तालाब बहुत उद्वेलित रहा करता था,
और इसलिए बहुत व्यथित भी,
सच तो यह है कि उद्वेलित होने से ही,
उसे पता चला था,
-अपने अस्तित्व का .
और आसमान भरा रहता था,
मेघों से,
जो कभी-कभी आडम्बर करते थे,
जिसे मेघाडम्बर ही समझा जाता था,
लेकिन यह भी सच था,
क्योंकि वे जब भरे-हुए होते थे,
तो अपने अस्तित्व का उद्घोष,
कुछ अधिक ही जोश से किया करते थे .
फ़िर वे बरसकर कहीं लापता हो जाते थे,
और उनकी यादें तक क्षीण होकर,
खो जाती थीं .
और आकाश पहले सा निरभ्र  हो जाता था.
वह अपने अस्तित्व के बारे में कभी नहीं सोचता था .
उसे ख़याल तक नहीं आता था,
कि सब कुछ उसके ही भीतर है .
और वही सब-कुछ है.
लेकिन तालाब तब उद्वेलित हो जाता था, 
जब आकाश मेघाच्छन्न होता था .
फ़िर एक दिन अचानक ही मेघों के झुण्ड,
सदल-बल चल दिए,
किसी दूर की दिशा में,
हो गए तालाब की आँखों से ओझल,
अब,
अंधेर-उजाले का खेल,
आकाश में नित नए बिम्ब घड़ता,
और हवा भी ठिठककर,
रूककर, मंत्रमुग्ध-सी स्तब्ध होकर,
उन्हें देखा करती .
उसे भी उसके अपने अस्तित्व का भान,
भूल जाया करता था .
और एक दिन तालाब ने जाना,
कि आकाश कितना सुखी है .
और सिमटकर उसके हृदय में उतर आया है .
और तालाब नि:स्तब्ध सा,
आकाश हो उठा .
तालाब अब भी कभी-कभी उद्वेलित होता दिखलाई पड़ता है,
लेकिन व्यथित कभी नहीं होता .

_____________________________________
*************************************