December 05, 2010

तालाब

~~~~~~~~~~~ तालाब ~~~~~~~~~~~~
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तब,
तालाब बहुत उद्वेलित रहा करता था,
और इसलिए बहुत व्यथित भी,
सच तो यह है कि उद्वेलित होने से ही,
उसे पता चला था,
-अपने अस्तित्व का .
और आसमान भरा रहता था,
मेघों से,
जो कभी-कभी आडम्बर करते थे,
जिसे मेघाडम्बर ही समझा जाता था,
लेकिन यह भी सच था,
क्योंकि वे जब भरे-हुए होते थे,
तो अपने अस्तित्व का उद्घोष,
कुछ अधिक ही जोश से किया करते थे .
फ़िर वे बरसकर कहीं लापता हो जाते थे,
और उनकी यादें तक क्षीण होकर,
खो जाती थीं .
और आकाश पहले सा निरभ्र  हो जाता था.
वह अपने अस्तित्व के बारे में कभी नहीं सोचता था .
उसे ख़याल तक नहीं आता था,
कि सब कुछ उसके ही भीतर है .
और वही सब-कुछ है.
लेकिन तालाब तब उद्वेलित हो जाता था, 
जब आकाश मेघाच्छन्न होता था .
फ़िर एक दिन अचानक ही मेघों के झुण्ड,
सदल-बल चल दिए,
किसी दूर की दिशा में,
हो गए तालाब की आँखों से ओझल,
अब,
अंधेर-उजाले का खेल,
आकाश में नित नए बिम्ब घड़ता,
और हवा भी ठिठककर,
रूककर, मंत्रमुग्ध-सी स्तब्ध होकर,
उन्हें देखा करती .
उसे भी उसके अपने अस्तित्व का भान,
भूल जाया करता था .
और एक दिन तालाब ने जाना,
कि आकाश कितना सुखी है .
और सिमटकर उसके हृदय में उतर आया है .
और तालाब नि:स्तब्ध सा,
आकाश हो उठा .
तालाब अब भी कभी-कभी उद्वेलित होता दिखलाई पड़ता है,
लेकिन व्यथित कभी नहीं होता .

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2 comments:

  1. पानीदार पंक्तियां. अब तो सौंदर्यीकरण के घेरों में सिमटते देख महसूस होता है, तालाबों का दम न घुटता हो.

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  2. प्रिय राहुल सिंहजी,
    आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद !
    सादर,

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