November 28, 2010

"Desiderata" by Max Ehrmann मॅक्स ऍरमॅन लिखित ’डिसाइडॅरेटा’

~~"Desiderata" by Max Ehrmann~~
~~~~ मॅक्स ऍरमॅन लिखित ’डिसाइडॅरेटा’~~~~
_________________________________________
*****************************************

शोर-गुल और दौड़-भाग के बीच से शान्तिपूर्वक ग़ुजर जाओ ।
और स्मरण रखो कि मौन में कौन सी शान्ति हो सकती है ।
जहाँ तक हो सके, 
समझौते न करते हुए,
सभी लोगों से अच्छी तरह से पेश आओ ।
अपना सत्य शान्तिपूर्वक और स्पष्टता से कहो ।
और दूसरों को सुनो ।
मंदमति और अज्ञानियों को भी ।
उनके पास भी उनकी अपनी कहानी होती है ।
धृष्ट और आक्रामक लोगों से बचो ।
वे आत्मा को व्याकुल कर देते हैं ।
यदि तुम दूसरों से अपनी तुलना करोगे,
तो हो सकता है, तुम घमंडी और कटु हो जाओ ।
क्योंकि कुछ लोग तो तुमसे श्रेष्ठ,
या निकृष्ट भी होंगे ही । 
अपनी उपलब्धियों और इरादों का पूरा मज़ा लो !
भले ही साधारण हो, अपने काम-धंधे में रस लो ।  
वक्त  की लगातार घटती-बढ़ती दौलत में,
यही तो एक सच्ची संपत्ति है । 
अपने काम-धंधे के मामलों में सतर्कता रखो ।
क्योंकि संसार में छल-कपट भी कम नहीं है ।
किन्तु सिर्फ़ इसीलिये संसार में मौज़ूद अच्छाइयों से,
अपनी आँखें मत बंद कर लेना । 
ऐसे भी हैं अनेक, 
जो उच्च आदर्शों के लिये संघर्षरत रहते हैं ।
और जीवन, 
सर्वत्र ही शौर्य से परिपूर्ण है ।
जैसे तुम वस्तुतः हो,
वैसे रहो ।
ख़ासकर, प्यार का झूठा दिखावा मत करो ।
और न ही,
प्यार के लिये भावुकता का शिकार बन बैठो ।
क्योंकि प्यार,
सारे रूखेपन और मोहभंगों के बीच भी,
सतत बनी रहनेवाली हरी घास की तरह है,
बीत रहे वर्षों को,
युवावस्था की चीज़ें,,
सम्मानसहित समर्पित करते हुए,
उनकी सलाह को,
विनम्रता से स्वीकार करो ।
आकस्मिक आनेवाले दुर्भाग्य से सुरक्षा के लिये,
आत्मबल का संवर्धन करते रहो । 
किन्तु खुद को, 
अन्धकारपूर्ण कल्पनाओं से,
अनावश्यक संकट में मत डालो ।
क्योंकि अनेक भय,थकान और अकेलेपन से भी पैदा होते हैं ।
परिपूर्ण अनुशासन का पालन करते हुए भी,
अपने प्रति मृदु रहो । 
वृक्षों और सितारों की ही तरह,
तुम भी विश्व की सन्तान हो ।
और तुम्हें यहाँ होने रहने का हक़,
उतना ही है,
जितना उन्हें है !
और भले ही तुम्हें यह स्पष्ट हो, 
या न भी हो,
इसमें शक नहीं,
कि
विश्व वैसा ही प्रस्फुटित हो रहा है,
जैसा कि उसे होना चाहिए ।
इसलिये ईश्वर के साथ,
शान्तिपूर्वक सह-अस्तित्व में रहो ।
फ़िर,
तुम्हारी ईश्वर के बारे में जो भी धारणा हो !
और जीवन के कोलाहल भरे द्वन्द्वों के बीच,
तुम्हारे जो भी श्रम और आकांक्षाएँ हों,
उनके साथ-साथ,
अपनी आत्मा में शान्तिपूर्वक स्थित रहो ।
अपने सारे छलों, बेग़ारी, 
और टूटे स्वप्नों के बावज़ूद,
एक सुरम्य संसार है यह ।
प्रसन्न रहो,
आनन्दित होने के लिये,
सदा प्रयत्नरत रहो !!
_____________________________________
************************************* 


4 comments:

  1. संसार की सुरम्यता दिखने लगे तो प्रसन्न रहने के लिए, आनन्दित होने के लिये, अधिक प्रयत्न करना नहीं पड़ता.

    ReplyDelete
  2. राहुल जी,
    टिप्पणी के लिये धन्यवाद !!
    सादर,

    ReplyDelete
  3. मेरे अंदर के कुछ भ्रम को हद तक दूर हो गए इस रचना को पढ़ कर ,,,खास क्र खुद कि तुलना ना करने को खुद को मृदु बनाए रखने वाली लाइने ,,
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  4. सुनीता जी,
    मुझे खुशी है कि मेरी इस अनुवादित कविता से
    आपको कोई सहायता मिली । टिप्पणी लिखने के
    लिये धन्यवाद,
    सादर,

    ReplyDelete