August 25, 2010

॥ अतिथि तुम कब आओगे ? ॥

~~~~~ ॥ अतिथि तुम कब आओगे ? ॥ ~~~~~
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(Ode to a sparrow,
sitting on the window-sill)
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अतिथि  !!
जब भी खिड़की पर आते-जाते हुए,
-मैं तुम्हें देखता हूँ,
ठिठक जाता हूँ  .
और कभी-कभी तो,
घंटों प्रतीक्षा करता हूँ,
-तुम्हारे आने की .
खिड़की बंद करते हुए,
लगातार यह ख़याल आता रहता है,
कि बस तुम आ ही रहे होगे !
और खिड़की को बंद देखकर,
कहीं लौट न जाओ .
अतिथि, मैं तुम्हारी भाषा तो नहीं समझता,
लेकिन भाव-भंगिमा शायद पढ़ लेता हूँ .
फ़िर कुछ समय के लिए सुनता रहता हूँ,
तुमसे कुछ अबूझ, भेद-भरी बातें .
शायद मेरी बातें भी तुम्हें अबूझ लगती हों !
अतिथि,
तुम फ़िर कब आओगे ? 

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इस कविता को पढ़कर मेरे एक आलोचक मित्र ने इसे 
सुंदर सरल रचना कहा .
इसे पढ़कर मेरे एक सुहृद कवि मित्र ने कहा,
लगता है इसमें अतिथि ईश्वर को कहा गया है .
और मेरी एक परिचता बोली,
प्रेम में पगी एक कविता है यह .
'अतिथि' शब्द उसने शायद प्रेमी / प्रेमिका 
के अर्थ में लिया होगा . 
 
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August 16, 2010

सपना पिछली रात का

~~~~~~~~ सपना पिछली रात का ~~~~~~~~~
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कल रात,
फेसबुक पर मित्र से चैट करते,
नींद आने लगी थी .
मित्रों की भावनापूर्ण कविताएँ,
स्वतन्त्रता-दिवस की शुभ कामनाएँ,
और बधाइयों के बीच,
किसी ने पूछा था, -
'' वह सब ठीक है, बहुत ठीक,...
लेकिन आप देश या देशभक्ति के लिए,
क्या कर रहे हैं ?
सिर्फ बातें ?
भाषण ?
या किसी राजनीतिक पार्टी में शामिल होकर,
-अपना उल्लू सीधा ! "
हाँ,
मानता हूँ मैं,
कि मेरा देशप्रेम बहुत छिछला है,
और इसीलिये,
मेरी नींद में कोई व्यवधान नहीं आया.
और सुबह-सुबह भोर के अँधेरे में मैं,
-उस समाधि पर जा पहुँचा,
जो किसी अज्ञात स्वतन्त्रता सेनानी की थी .
बस एक उजड़ी सी जगह थी,
एक ओटला,
-चबूतरा,
और पास में एक ऊँचा दरख़्त,
न जाने किस तरह,
-जैसे नींद में चलने की बीमारी से ग्रस्त,
कोई व्यक्ति,
कहीं से कहीं पहुँच जाता है !
कोई फ़कीर सा बैठा था वहाँ .
'' किससे मिलने आये हो ? ''
-उसने आँखों में आँखें डालकर पूछा .
'' आपसे  !''
-मैंने साहस के साथ जवाब दिया . 
''क्यों ?''
''कल सारे देश में आज़ादी की सालगिरह का 
...उत्सव मनाया गया,
और मुझसे किसी ने पूछा था कि मैं देश या देशभक्ति के लिए,
क्या-कुछ कर रहा हूँ !''
''तो, क्या कहा तुमने ?''
'' बस बगलें झाँकता रहा था .''
-मैंने ईमानदारी से कहा .
''बाबा आप यहीं रहते हैं ?''
''हाँ, फिलहाल .''
उसने उत्तर दिया .
''आप क्या कहते,
इस सवाल के जवाब में ?''
-मैंने सवाल उन पर दागा . 
''मैं,...?''
-वह अचकचाकर बोला .
''अभी तो मैं कैद हूँ,
लेकिन जल्दी ही रिहा हो जाऊँगा,
....''
''आप आज़ाद ही तो हैं, ...!''
अविश्वासपूर्वक मैंने कहा.
''हाँ, देह की कैद से आज़ाद ज़रूर हूँ,
लेकिन देश के लिए कुछ कर सकूँ,
 इसके लिए,
इंतज़ार कर रहा हूँ,
-एक नई देह की कैद का,
तब तक भटकता रहूँगा,
क्योंकि मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करनेवाले,
अमर हो जाते हैं,
और उन्हें मौत से खौफ नहीं होता.
सिकंदर और गौरी ,
मुगलों और अंग्रेजों के समय से,
मैं मरता रहा हूँ,
उनसे लड़ते हुए,
अपने वतन की हिफ़ाज़त करते हुए,
और ह़र बार धरती माँ मुझे एक नई देह दे देती है .
क्या तुम्हारे सवाल का जवाब तुम्हें मिला ?''
उसने कौतूहल से मुझे देखकर पूछा.
''लेकिन मैं तो ऐसा कहाँ कर सकता हूँ ?
मैं तो बीवी-बच्चों वाला एक अदना सा इंसान हूँ !''
मैंने सहमकर कहा.
''कोई बात नहीं, 
अगर तुम लालच न करो,
बेईमानी न करो,
रिश्वत लेने-देने का काम न करो,
तो क्या यह कोई कम देश-भक्ति है ?''
इतना भी काफी है .
नींद में ही चलकर अपने घर आकर,
और बिस्तर पर पुनः सो जाने के,
- कोई पंद्रह मिनट बाद,
 जब आँखें खुलीं,
 तो सूरज चढ़ आया था कमरे में .
सोचता हूँ ढूँढूँगा उस चबूतरे को कभी, 
दर्शन करूँगा उस अमर देशभक्त की समाधि के .


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August 03, 2010

आध्यात्मिक गुरुओं की सामाजिक भूमिका





आज के आध्यात्मिक गुरुओं पर लिखे गए एक लेख
पर मेरे द्वारा लिखी गयी एक टिप्पणी -


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आदरणीय,
 धर्म परंपरा और अध्यात्म के बारे में तो आम आदमी
गंभीरता से सोच-समझ सकता है और तथाकथित साधु,
महात्मा या विद्वान, तो फिर बुद्धिजीवी से ऐसी अपेक्षा करना
कठिन ही है
सिर्फ परंपरा की सीढ़ी चढ़कर स्वामी, आचार्य आदि का लेबल
पा लेना अधिकारी (पात्र) नहीं बनाता
और जिसे पात्रता ही नहीं है ऐसे ही लोग उपदेश देने लगें तो
समाज का अहित ही अधिक होगा
गीता में स्पष्ट किया गया है कि सात्विक बुद्धि ही धर्म क्या
है और अधर्म क्या है, -इसे समझ पाती है
इस कसौटी पर सभी तथाकथित विद्वान् आत्म-अवलोकन करें
तो वे ख़ुद भी दिशा पा सकेंगे,  दूसरों को भी शायद सही
राह बतला सकेंगे
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अध्यात्म तो स्वयं की ही
उत्कंठा हो तो ही पाया जाता है इसे स्पून-फ़ीड नहीं किया
जा सकता -जैसी कि अब परंपरा बन चुकी है
सादर

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