December 26, 2009

उन दिनों -39.

~~~~~~~~~~~~~~ उन दिनों -39. ~~~~~~~~~
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एक आह्लाद में बीत रहे थे दिन ! नलिनी को देखकर अपर्णा की याद आती थी । वह षोडशी बाला, जिसे पहली बार 'सर' के घर देखा था । वह नलिनी जैसी तो नहीं थी, लेकिन उसमें कुछ ऐसा ज़रूर था कि नलिनी को देखते ही बरबस उसका स्मरण उठता ही था ।
आज 'सर' के साथ भोजन पर जाना था ।
नलिनी के घर पर । साफ़-सुथरा छोटा सा घर, घर पर छोटा भाई , माता-पिता, और एक बहन । वैसे एक बड़ा भाई और था, जो कहीं दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था ।
दोपहर के साढ़े बारह बज चुके थे । जैसे ही हम पहुँचे, नलिनी हाथ जोड़कर स्वागत में दरवाजे पर खड़ी मिली । उसके पीछे उसके माता-पिता, और भाई-बहन । यह मकान पास की ही किसी दूसरी कालोनी में था । कितनी ही बार वहाँ से जाना हुआ था, लेकिन कभी कोई काम नहीं पड़ा था वहाँ जाने का । और तब नलिनी को जानता भी कहाँ था ? हाँ, शायद रवि के अखबार में शायद उसकी रचनाएँ पढ़ते समय नज़रों से गुज़रा होगा, पर याद नहीं आता ।
बाहर लंबा-चौड़ा बगीचा, एक ओर गैराज में खड़ी पुरानी मालूम होती कार, बरामदे में खडा स्कूटर, दो-तीन छोटी बड़ी सायकिलें, एक मोपेड ।
ड्राइंग-रूम भी फैला-फैला सा, अगले आधे हिस्से में 'ड्राइंग-रूम', और पिछले आधे में 'डाइनिंग-रूम' जैसा जान पड़ता था ।
भोजन के समय उसके माता-पिता भी साथ भोजन कर रहे थे, भाई भी । बस बहन और वह खाना परोस रहे थे ।
पूरे समय उसके माता-पिता चुप ही रहे थे । हाँ बाद में ज़रूर हमारी बातें हुईं, -जिस समय नलिनी और उसकी बहन खाना खा रहे थे, और उनकी माँ उन्हें परोस रही थी । वे 'डाइनिंग-रूम' में थे । हम सब अब 'ड्राइंग-रूम' में थे ।
यहाँ अगरबत्तियों की भीनी-भीनी खुशबू अब भी गमक रही थी ।
पिता सरकारी रिटायर्ड अफसर थे । शायद किसी अच्छे पद पर रहे होंगे । लेकिन मैं उनके घर में एक पुराना स्कूटर, और गैराज में खड़ी पुरानी फिएट देखकर उनके अतीत का अनुमान लगा रहा था ।
और जब हम चलने लगे, तो नलिनी हमें उसका कमरा दिखाने लगी । छोटा सा रूम, एक पलंग, दो-तीन कुर्सियाँ, स्लाइडिंग-ग्लास-शटर से बंद किताबों के शेल्फ, एक लम्बी मेज, सामने दीवार पर 'अरुणाचल' का भव्य चित्र । 'अरुणाचल' के चित्र के ठीक दायीं तरफ भगवान् श्री रमण महर्षि का उसी ऊंचाईवाला एक चित्र ।
पीछे की दीवार पर जे. कृष्णमूर्ति भी मौजूद थे । शेल्फ पर सरस्वती की प्रतिमा, कोने में गणेशजी भी दर्शन दे रहे थे । एक शान्ति और उल्लास, जैसा नलिनी में दिखलाई देता था, वही उस छोटे से कमरे में भी ओत-प्रोत जान पड़ता था ।
जल्दी ही हम वापस हुए ।

>>>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -40. >>>>>>>>>

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December 24, 2009

शिल्पी

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....................... शिल्पी ......................
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~(प्रस्तुत कविता यूँ तो अचानक ही भीतर से उमग उठी,
~लेकिन पढ़ने पर मुझे लगा कि यह,
~श्री जे.कृष्णमूर्ति
~पर काफी हद तक सही रूप से लागू होती है ।)

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अपने हाथों में लिए हथौड़ी-छैनी,
सुबह-सुबह,
निकला था किसी पत्थर की तलाश में ।
जा पहुँचा था पहाड़ के नज़दीक ।
देख रहा था, पत्थरों में छिपी उन अनगिनत सुन्दरताओं को,
जो अनावृत्त होने के लिए बेकल थीं ।
हाँ मानता हूँ,
उनके आवरण किसी और की दृष्टि से उन्हें ओझल रखते थे,
और यह ज़रूरी भी था,
अपावन नज़रों से उन्हें बचाने के लिए,
लेकिन मेरे लिए,
मानों वे मूक निमंत्रण थीं,
क्योंकि मैं उन्हें विस्मित होकर देखता था ।
और यह भी,
कि मैं उनमें से कुछ के ही सौन्दर्य को,
दुनिया की नज़रों के सामने ला सकता था,
क्योंकि छैनी पर एक भी गलत वार,
कर सकता था उन्हें भग्न बाहर तक,
-और मुझे भीतर तक ।
यह किसी चट्टान से अपने आप को उकेरने जैसा था ।
और जब तक इतनी सावधानी से काम न कर सकूँ,
तब तक मैं उन्हें बस देखता ही रहता हूँ ,
-अलग-अलग कोणों से,
-हर ओर से ।
अभी, अभिभूत सा होकर देख ही रहा था,
कि वे लोग आये ।
वे राजा के आदमी थे,
'-शुरू करो काम !'
वे बोले ।
हमें पहाड़ों से राह निकालनी है ।
साथ के मजदूरों ने पहाड़ को तोड़ना शुरू किया,
मैं देखता रह गया,
मेरी असंख्य प्रतिमाएँ,
मेरे सामने टूट रहीं थी,
और वे तोड़ रहे थे पत्थर,
-नए रास्ते खोलने के लिए ।
और शाम होते-होते,
वे चले गए थे ।
फिर कुछ दूसरे लोग आये,
वे जानते थे कि मैं शिल्पी हूँ,
और वे मेरी प्रशंसा करने लगे ।
पर मैं जानता था उनका कपट,
वे चाहते थे कि मैं उनकी चाही गईं प्रतिमाएँ ही उकेरूँ,
और मैं मजबूर था,
क्योंकि मैं जिन प्रच्छन्न प्रतिमाओं को देख रहा था,
उन चट्टानों में,
वे चाहते थे उससे बहुत अलग,
बिलकुल ही अलग,
कुछ और ।
फिर मैं लौट आया,
बिना कोई प्रतिमा उकेरे ।
मैं उन्हें क्या कह सकता था ?

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December 21, 2009

मृत्यु पर ध्यान


~~~~~~~~मृत्यु पर ध्यान~~~~~~~~~~
~~~~~~~~.(मृत्यु-अवधान).~~~~~~~~~
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अंग्रेज़ी कविता :

A Meditation on Death.

का हिन्दी अनुवाद
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हवा के झोंके से बुझ जानेवाली दीपक की लौ की भाँति,
हमारा यह जीवन भी विनाश की ओर अग्रसर है ।
सभी चीज़ों में जीवन और मृत्यु के चक्र को देखते हुए,
ज़रूरत है,
मृत्यु के प्रति सजग होने में पारंगत होने की ।
जैसे बहुत धन, यश प्राप्त कर लेनेवाले भी,
अवश्य ही एक दिन मर जाते हैं,
वैसे ही जिसे मृत्यु कहते हैं,
मुझे भी कदापि नहीं छोड़ेगी ।
वह सदा बुला रही है,
आओ ! -मेरे पीछे आओ !!
मृत्यु जन्म का सच्चा साथी है,
और कभी पीछे नहीं रहती ,
(साथ रहती है उसके, हर क्षण )
एक अवसर की तलाश में,
-किसी युद्धरत 'सामुराई' की तरह ।
जिसे हम अपना जीवन कहते हैं,
उसकी गति को रोका नहीं जा सकता,
और नहीं बदल सकते,
उसकी दिशा को हम ।
यह अपने अंत की ओर दौड़ रहा है ।
-जैसे सूरज दौड़ता है,
-पश्चिम की ओर ।
जो हमारी दृष्टि में शक्ति और बुद्धि में हमसे बहुत बड़े हैं,
मृत्यु उन्हें भी खींच ले जाती है कभी-न-कभी ।
फिर मेरे जैसे अदना से आदमी की हैसियत ही क्या है ?
क्योंकि यह मेरा जीवन कितनी ही दृष्टियों से अपूर्ण है ।
हर क्षण ही मरता हूँ मैं,
किसी नए सार्थक पुनर्जन्म की उम्मीद के बिना ही ।

हमारा जीवन इतनी अधिक अनिश्चितताओं से भरा है,
और फिर, इसकी लम्बाई को जान पाना भी तो है नामुमकिन,
हृदय में भावी मृत्यु के भय और उद्वेग के रहते हुए,
दिन-प्रतिदिन जीते रह पाना ही बहुत मुश्किल है ।
और ऐसी कोई संभावना ही नहीं कि जीवन का अंत मृत्यु में नहीं होगा ।
भले ही वह बूढ़े हो जाने पर भी क्यों न हो ।
मृत्यु हमारे स्वभाव का ही एक हिस्सा है ।
जैसे पकने पर फल टपक जाता है,
जैसे कुम्हार का घड़ा किसी दिन अवश्य ही फूटकर मिट्टी हो जाता है ।
वैसे ही हमारी ये अस्थियाँ भी,
(जिन्हें हम हड्डी कहते हैं,)
एक दिन टूटकर बिखरकर समाप्त हो जायेंगी ।
युवा, बूढ़े, मतिमंद और विद्वान् भी,
सभी हैं, मृत्यु के हाथों की पहुँच में ।
और हम भली-भाँति जानते ही हैं,
कि अंत भी सुनिश्चित ही है ।
सभी बनी हुई चीज़ें अनित्य हैं,
सभी बनती हैं, और फिर मिट जाती हैं ।
परिस्थितियाँ हमें जन्म देती हैं,
और फिर परिस्थितियाँ ही हमें मृत्यु भी देती हैं ।
हमारा यह शरीर, और मन भी,
जल्दी ही धरती पर पड़ा होगा,
-'धराशायी' !
जैसे नदी के प्रवाह में बहती लकड़ी के व्यर्थ टुकड़े को,
नदी तट पर फेंक देती है,
हमारी चेतना विलीन हो जायेगी, और मन भी हो रहेगा नि:शेष,
पानी में फूटते किसी बुलबुले जैसा ।
-हवा होकर ।
इस संसार में हम अनामंत्रित ही चले आये हैं,
और यहाँ से हमें कब विदा होना है,
इसे पूछने की अनुमति लेना भी ज़रूरी नहीं ।
हम जन्म में आते हैं, जो सदा समाप्त होता है,
-मृत्यु में ।
जैसे हम आते हैं, वैसे ही चले भी जाते हैं ।
लौ के बुझ जाने पर,
क्या दीपक आँसू बहाता है ?
शोकग्रस्त नहीं,
सजग होओ !

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मूल कविता
A Meditation on Death - http://mindfulpath.blogspot.com/
(published on Tuesday, September 1,2009)
के लिए,
मेरी fav sites में

Buddha-'s Messages

पर जाएँ
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December 19, 2009

उन दिनों -38.

~~~~~उन दिनों -38.~~~~~~
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>>>>(उन दिनों -37 से आगे)>>>>>
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~~~~~मेरी डायरी से ~~~~~~~~~~
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"कितनी संभावनाएँ है ! "
मैं मन-ही-मन सोच रहा था ।
" क्या उस शख्स का नाम भी मुझे पता चल पाएगा, या मैं किसी मुसीबत का इंतज़ार कर रहा हूँ ? हो सकता है किसी प्रेमी ने अपनी प्रेमिका के लिए या प्रेमिका ने प्रेमी के लिए यह सन्देश दिया हो ! या कूट-भाषा में किसी क्रिमिनल ने अपने साथी को कुछ संकेत भेजा हो ! पता नहीं क्या है ! मैं फालतू ही बखेड़े में पड़ रहा हूँ । "
मैंने सोचा, अभी भी वक्त है, संभल जाओ, इस मामले से अपना हाथ खींच लो ।
बाहर आते-आते देखा एक ऑटो वाला ऑटो खड़ी सिगरेट के कश खींच रहा था ।
"ऑटो !"
-मेरे मुँह से अनायास निकला ।
दूसरे ही मिनट मैं ऑटो में बैठा उस '...' कालोनी', '...' रोड, '...' के पते की ओर गतिमान हो चुका था ।
जब उस पते पर पहुँचा, तो काफी दूर किसी मंदिर का कलश चमकता दिखलाई दे रहा था । यह मकान भी अपने आसपास के ही मकानों के साँचे में ढला एक मकान जान पड़ रहा था । हर मकान किसी एक ही निश्चित नक़्शे और डिजाइन से बना होगा शुरू में, लेकिन शौक या ज़रूरत से उनमें रहनेवालों ने बाद में फेरबदल कर लिए थे । यानी इस ओर सीधी, उस ओर किचन के सामनेवाली जगह पर लोहे की जाली वाला गेट, पीछे कुछ घरों में आँगन था, तो कुछ ने वहाँ भी एक या दो कमरे खड़े कर लिए थे ।
इस घर के गेट की दीवाल पर एक नाम पेंट किया हुआ था ।

REWASHANKAR GARG
A/242,... .... Colony,...Road, ... .

धड़कते दिल से मैं गेट पर खड़ा हो गया । दरवाजा, जो गेट से करीब पाँच-छ: फीट की दूरी पर था, खुला ही था । अन्दर ट्यूब-लाईट की रौशनी थी । पर्दा हवा से एक लय के साथ बाहर आता और फिर भीतर लौट जाता था ।
मैंने गेट पर खड़े होकर धीमी आहट की ।
"-क्या कहूँगा ?" मैं सोच रहा था ।
कोई बाहर नहीं आया, शायद मेरी खडखडाहट बहुत धीमी रही होगी । इस बार ज़रा जोर से आहट की । एक बच्चा दौड़ता हुआ बाहर आया, उसके पीछे-पीछे एक भद्र पुरुष ('सर') भी बाहर आये ।
"कहिये !"
-उन्होंने प्रश्नवाचक दृष्टि मुझ पर डालते हुए पूछा ।
"ज़रा रेवाशंकर गर्गजी से मिलना था । "
"किसलिए "?
उनके इस अकस्मात् किये गए प्रश्न से मैं हड़बड़ा गया । उम्मीद नहीं थी कि ऐसा सवाल अचानक मुझसे पूछा जा सकता है । इस अप्रत्याशित सवाल के उत्तर में मैंने मुस्कुराते हुए पूछा,
"आप ही रेवाशंकरजी हैं न ?"
"जी हाँ । "
-वे सहजतापूर्वक बोले ।
फिर कुछ सोचकर बोले,
"आप अन्दर तो आइये !"
शायद वे मेरी हडबडाहट और असहजता भाँप चुके थे ।
"बेटे, ... "
उन्होंने आवाज़ लगाई ।
दो मिनट तक कोई प्रतिक्रया नहीं हुई । फिर एक षोडशी बाला पानी का गिलास लेकर आई । बिना कुछ बोले उसे टी-टेबल पर रखा और भीतर लौट गयी ।
छोटे से कमरे में सब-कुछ व्यवस्थित रीति से जमा हुआ था । लकड़ी का दो चेयर्स और एक लम्बी चेयर का सोफा-सेट, जो बेंत से बुना था, और उस पर पतले से स्पंज के गद्दे, जिन पर कॉटन के हैण्ड-लूम के कवर चढ़े थे । एक ओर एक दीवान या तखत भी था, जिस पर बस एक मोटी सी दरी बिछी थी । दीवार की साथ-साथ शेल्व्स की कतार, जिस पर परदे थे । उनमें बस किताबें ही किताबें थीं । बीच की शेल्फ पर एक फोटो था । और उसके पास पूजा की थाली जैसा कुछ था । एक अगरबत्ती स्टैंड, एक दीपक, और उसके पीछे दीवार पर प्लास्टिक की झालरों वाले सफ़ेद हार । तब मैंने यह सब नोट नहीं किया था, लेकिन समय लेने के लिए उन्हें ध्यानपूर्वक देखता रहा था । सकुचाते हुए मैं उनके सामने बैठ गया ।
" जी मेरा नाम कौस्तुभ वाजपेयी है, शासकीय सेवा में हूँ, थोड़ा लिखने-पढ़ने का शौक रखता हूँ ।"
-मैंने कहा ।
"कौस्तुभ वाजपेयी !?"
-कहते हुए वे अपनी कुर्सी से उठे, टी-टेबल के नीचे से कुछ पत्रिकाएँ निकालीं, और फिर तीन माह पुरानी एक साहित्यिक पत्रिका का अंक उठाकर उसे खोलते हुए किसी पृष्ठ को ध्यान से देखा, फिर मेर चेहरे को भी, और उसे मेरे हाथों में थमाकर मुस्कुराते हुए बोले,
"शायद आप ही हैं यहाँ !"
मैंने मन-ही-मन भगवान को धन्यवाद कहा ।
उस पृष्ठ पर मेरी कहानी के साथ-साथ मेरा फोटो भी था, जो आमतौर पर कभी छपता है ऐसा मुझे नहीं लगता ।
"जी हाँ । "
-मैंने राहत भरे स्वरों में कहा ।
मुझे इसकी भी खुशी हुई कि मेरे पिछले जन्मों के किन्हीं सद्कर्मों से या किसी अनजाने कारण से शुरुआत गलत नहीं हुई ।
"बड़ी खुशी हुई कि किसी बहाने आप मेरे घर आये !"
वे प्रसन्नतापूर्वक बोले ।
"वैसे मैं नहीं जानता कि कौन सी शक्ति मुझे यहाँ ले आई, लेकिन आज अखबार में एक छोटा सा विज्ञापन देखा, तो अपनी उत्सुकता रोक न सका, सोचा, ज़रूर किसी कहानी का मसाला मिल सकेगा, और इसलिए चला आया । "
मैंने उन्हें पूरा वाकया सुना दिया । वे शांत भाव से कौतूहल के साथ सुनते रहे ।
उन्होंने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया, हम कुछ देर इधर-उधर की बातें करते रहे, फिर मैंने उनसे क्षमा माँगी कि नाहक आपको तकलीफ दी । उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुस्कुराते हुए बिना कुछ कहे विदा दी। लेकिन उनकी आँखों का स्नेह और प्रसन्नता कह रहे थे कि उन्हें ज़रा भी बुरा नहीं लगा होगा ।

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>>>>>>>>>> उन दिनों -39. >>>>>>>>>>>>>

December 17, 2009

निर्वाण-षटकं.

~~~~~~~~~~ आदि शंकराचार्य विरचितं ~~~~~~~~~
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~~~~~~~~~~~ निर्वाण-षटकं ~~~~~~~~~~
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मनो-बुद्धि-अहंकार चित्तादि नाहं ,
न च श्रोत्र-जिह्वे न च घ्राण-नेत्रे ।
न च व्योम-भूमी न तेजो न वायु ,
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ १॥
न च प्राण-संज्ञो न वै पञ्च-वायु:,
न वा सप्त-धातुर्न वा पञ्च-कोष: ।
न वाक्-पाणी-पादौ न चोपस्थ पायु:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ २ ॥
न मे द्वेष-रागौ न मे लोभ-मोहौ,
मदे नैव मे नैव मात्सर्य-भाव: .
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं .. ॥ ३ ॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं ,
न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञा: ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता,
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ ४ ॥
न मे मृत्यु न मे जातिभेद:,
पिता नैव मे नैव माता न जन्मो ।
न बन्धुर्न मित्र: गुरुर्नैव शिष्य:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ ५॥
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो,
विभुत्त्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणां ।
सदा मे समत्त्वं न मुक्तिर्न बंध:
चिदानंद रूपं शिवो-हं शिवो-हं ..६॥

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आत्मानुसंधान के लिए, परिपक्व साधकों के लिए भी यह एक श्रेष्ठ साधन-स्तोत्र है । इसमें आत्मा को निरुपाधिक ब्रह्म के रूप में और उस निरुपाधिक ब्रह्म से , जो शुद्ध 'शिव-तत्त्व ही है, अपनी अनन्यता का स्मरण कराया गया है । सामान्यत: एक अपरिपक्व साधक एक ओर जहां 'अपने' को व्यक्ति-विशेष समझता है, वहीं एक परिपक्व साधक अहंकार और अहं के भेद को भली भांति समझने के बाद ही अहंकार को 'मन',बुद्धि, तथा 'चित्त' का ही चौथा रूप समझकर 'अहं' को अपना अर्थात् 'आत्मा' का अविकारी चैतन्य स्वरूप 'जानकर' देह, मन, प्राण, बुद्धि, अहंकार, सप्त-धातुओं आदि सबसे अपने को अलग देख पाता है । लेकिन तब वह 'आत्मा' में निमग्न हो जाता है । आत्मा का यह बोध व्यवहार-काल में भी यदि स्थिर रहे, तो ही वह स्वयं समझ सकेगा कि उसने इस स्तोत्र का यथार्थ आशय कहाँ तक ग्रहण कर लिया है ।
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~~~~~~~~~~~~~॥ शिवार्पणमस्तु ॥ ~~~~~~~~~~~

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December 12, 2009

प्रतीक्षा .

~~~~~~~~~~~~~~~~~ प्रतीक्षा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~
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~~मैं अगर ख़ुद हूँ एक बेचैनी,
~~क्या ये बेचैनी मिट सकेगी कभी !
~~हाँ, ऐसा भी हुआ है अक्सर,
~~वो लम्हे जो तेरे साथ कभी गुज़रे हैं,
~~किसी बेखयाली में, और किसी बेखुदी में,
~~जहाँ ख़बर भी नहीं आती है मेरे वजूद की कोई,
~~जो मुझे अपने-आपसे बहुत दूर लिये जाते हैं,
~~और उस वक्त यही लगता है,
~~कि वक्त का वह लम्हा कितना छोटा है !
~~कि पलक झपकते बीत जाता है,
~~और छोड़ जाता है मुझको सहरा में,
~~मेरी बेचैनी की गर्म रेत और लू के गर्म थपेड़ों में,
~~और वक्त फ़ैल जाता है,
~~-बेहिसाब, दरिया सा,
~~एक अंतहीन सहरा सा ।
~~और बेचैनी भटकती रहती है,
~~क़दम-दर-क़दम,
~~क्या ये बेचैनी मिट सकेगी कभी ?
~~क्या मैं मिट सकूँगा अभी ?
~~मुझे मालूम है, तेरी 'याद' तू नहीं,
~~और न तेरे साथ गुज़रे वक्त की बेखुदी की याद ही है तू,
~~मुझे मालूम है,
~~बेखुदी की, बेखयाली की वह याद बस एक तसव्वुर भर है,
~~फ़िर भी वह तस्वीर कुछ तो सुकून देती है,
~~जैसे तीखी धूप में अपना ही साया,
~~एक झूठा सुकून देता है ।
~~फ़िर भी न जाने क्यूँ लगा करता है,
~~मैं पा सकूँगा,
~~किसी दिन उसको ।
~~इंतज़ार है तब तक ,
~~प्रतीक्षा करूँगा मैं तब तक,
~~इस अंतहीन सहरा में,
~~जिसे 'हयात' कहा जाता है ।

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December 09, 2009

उन दिनों -37.

~~~~~~~~~~~उन दिनों -37.~~~~~~~~~
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'सर' के बारे में अनंत जिज्ञासा थी, मुझे, अविज्नान को, और रवि को, और अब इस समूह में नलिनी, नीलम और शुक्लाजी भी शामिल थे ।
"हाँ, हम भूल जाते हैं विस्मय को, हम हर बारे में जानने लग जाते हैं । और उस बोझ के नीचे पड़ा-पड़ा विस्मय कराहता रहता है, हम बार बार किसी उत्तेजना में, किसी 'नए' अनुभव में जाने-अनजाने उसी विस्मय की मन:स्थिति को अनावृत्त करने की चेष्टा में लगे रहते हैं, जहाँ हमारी अपनी पहचान भी विलुप्त हो जाती है, और धीरे-धीरे वह विस्मित होना, लगभग ख़त्म हो जाता है । "
-वे कह रहे थे ।
बातें 'मुक्ति' और अद्वैत, ज्ञान और ईश्वर, धर्म और अध्यात्म के दायरे को छूती हुई भी प्रत्यक्षत:उस बारे में नहीं हो रही थी । लोगों को 'सर' के बारे में जिज्ञासा थी और उसे एक सीमा तक जो शांत कर सकता था वह था यह खाकसार, आपका कौस्तुभ वाजपेयी, उर्फ़ 'मैं'। यादों की डायरी के पुराने पन्ने पलटता हूँ ।
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~~~ मेरी डायरी से ~~~
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ट्रेन बहुत रुक-रूककर चल रही थी । लोग ऊँघ रहे थे । बहुत सी सीटें खाली पड़ी थीं ।
उस अखबार को मैं तीन बार पढ़ चुका था । ऐसा नहीं कि बोर हो रहा था । कारण बस इतना सा था कि नींद नहीं आ रही थी । शायद सफर में ज़्यादा चाय पी लेने की वज़ह से । बेचैनी भी अनुभव हो रही थी और यूँ ही अखबार के पन्ने पलट रहा था । आसपास के लोग इतने अलग तरह के थे कि किसी से बातचीत करना भी मुमकिन नहीं जान पड़ता था । शायद मुनासिब भी न होता । इसलिए उचटे हुए चित्त से अखबार के पन्ने पलटते-पलटते अचानक एक जगह नज़रें टिक गईं । अनेक विज्ञापनों के बीच वह विज्ञापन ऐसा दबा-दबा सा था कि कि पूरे अखबार को दो-तीन बार छान लेने के बावजूद, नज़रों से ओझल ही रहा था । खिड़की से बाहर देखा तो धरती का रूखा सौन्दर्य भी एक अद्भुत विशेषता लिए दिखलाई दिया । लंबा-चौड़ा मैदानी इलाका, कहीं दूर इक्का-दुक्का कोई आदमी, या जानवर दिखलाई दे रहा था । आकाश में कभी कोई पक्षी और धरती पर बहुत बड़े क्षेत्र में बहुत कम छोटे-छोटे खजूर के पेड़ या झाड़ियाँ । बीच में खाली जगह जहाँ मौसम के अनुकूल होने पर खेती होती होगी । या बंजर जमीन । लेकिन कितनी सुंदर !बंजर भूमि का अपना एक सौन्दर्य होता है, लेकिन हम शायद उसे देख नहीं पाते । हमारा मन सौन्दर्य के तथाकथित आरोपित प्रतिमानों से इस कदर ठँसा रहता है कि ऐसा कुँवारा सौन्दर्य हमारी दृष्टि की पकड़ से बाहर ही रह जाता है । लेकिन अभी उचटे हुए चित्त में शायद कोई ऐसी खिड़की खुल आई थी कि मैं उस सौन्दर्य से अभिभूत था ।
वैसा ही यह इकलौता विज्ञापन था, जो मेरी नज़रों से अब तक बचता रहा था और अचानक किसी पल उनकी गिरफ्त में फँस गया था । आसपास के दूसरे विज्ञापनों के बीच दबा-सहमा शायद मुक्ति की प्रार्थना कर रहा हो मानों । कूट-भाषा में लिखे हुए एक संकेत-वाक्य की तरह छपा हुआ । इसे पढ़ते ही मुझे वह विज्ञापन याद हो आया जो दिल्ली के आसपास की सभी दिशाओं में रेलयात्रा करते समय बरबस आंखों पर आक्रमण करता रहता था / है ।
"-रिश्ते-ही-रिश्ते, इंग्लैण्ड,अमेरिका, यूरोप, ... मिलें, प्रोफ़ेसर अरोड़ा से, 54, रैगरपुरा, ... ... "
शायद आपने भी पढ़ा हो ! यहाँ स्थिति उल्टी थी । इस छोटे से विज्ञापन में सिर्फ़ एक पंक्ति थी, जो उस रैगरपुरा वाले विज्ञापन से मिलती-जुलती थी ।
"-एक बार मिल तो लें :
-राजेश ...!"
इससे मुझे अंग्रेज़ी अखबारों के वे विज्ञापन याद आए, जो 'personal' कॉलम में देखने को मिलते हैं । थैंक्स गिविंग के, ओबिट्युअरी के, श्रद्धांजलि के, या ऐसी ही कुछ अन्य, जिनमें विज्ञापनदाता के पूरे नाम-पते नहीं देखे जा सकते हैं लेकिन उनमें किसी को संबोधित तो किया हुआ होता है । यहाँ उसका कोई नाम नहीं दिखलाई दे रहा था । बस, कोई 'राजेश' था जो किसी से मिलना चाहता था । पर यह राजेश कौन है ? और इसने किसे यह निमंत्रण भेजा था ? और क्या वह उसे पत्र, फोन, या किसी अन्य माध्यम से उस तक संदेश नहीं भेज सकता था ? (उन दिनों मोबाइल कहाँ था, लैंड-लाइन के ही फोन होते थे, वे भी गिने-चुने, सरकारी या बहुत अधिक वी आई पी लोगों के पास ही होते थे ।) हालांकि यह तो साफ़ था कि यह नितांत व्यक्तिगत संदेश था ।
वैसे तो मैं अपनी बिटिया के लिए लड़का देख रहा था, और उसी सिलसिले में इस शहर में आया था, लेकिन उस विज्ञापन में ऐसा अटका, कि उत्सुकतावश सूट-केस क्लोक-रूम में रखवाया, और सीधे उस अखबार के कार्यालय जा पहुंचा जहाँ से प्रकाशित होकर यह अखबार मेरे शहर में भी आता था । क्योंकि मुझे लगा कि फ़िर न जाने कब यह मौक़ा हाथ आयेगा । उस विज्ञापन का रहस्य या सूत्र जानने का एकमात्र जरिया शायद यही था मेरे पास ।
पुराने जमाने के टेलीप्रिंटर पर ढेरों सामग्री आ रही थी । उसकी आवाज़ के अलावा कार्यालय एन लगभग शान्ति सी छाई थी । एक ओर के दरवाजे पर अंग्रेज़ी में 'ऑफिस' लिखा था, दूसरी ओर दूसरे दरवाजे पर हिन्दी में 'कार्यालय' भी लिखा था । ज़ाहिर है, दोनों तख्तियाँ एक ही बड़े हाल के दो दरवाजों पर लगीं थीं। और भी दरवाजे थी, उस हाल के, और मैं उन दोनों को पीछे छोड़कर तीसरे दरवाजे तक पहुँच गया।
जब इधर-उधर नज़रें डालीं, तो स्टूल पर बैठे एक अधेड़ से आदमी ने पूछा ; 'किससे काम है ?'
'भाई, आज के आपके अखबार में एक विज्ञापन छपा है, जो मुझे लगता है कि मेरे लिए है शायद । "
-मैंने साफ़ झूठ बोला, "उसे किसने प्रकाशित करवाया है, पता लगाना चाहता था । "
"इसके लिए आप सुबह आइये, कल ।''
''क्यों?"
"क्योंकि विज्ञापनों की सारी सामग्री राधेश्यामजी के पास रहती है, और वे ही उसका रिकार्ड रखते हैं । वे बाहर गए हैं, कल लौटेंगे । "
"और यदि मुझे कोई विज्ञापन देना हो तो ?"
"तो उनसे मिलिए,"
-उँगली से एक सज्जन की ओर इशारा कर उसने बतलाया ।
वे श्रीवास्तवजी थे । उनके पास पहुंचा और सीधे उस कटिंग को उनके सामने रखकर पूछा, :
"ज़रा जानकारी चाहिए थी । आज के आपके अखबार में मेरे मित्र का यह संदेश मुझे मिला है ज़रा जानकारी चाहिए थी । "
-मैंने आत्मविश्वासपूर्वक कहा ।
"बैठिये ।"
-वे बोले ।
"हाँ, आज के अखबार में ये विज्ञापन ज़रूर था, किन्हीं रेवाशंकर गर्ग ने दिया था,..."
- उन्होंने सामने रखी हुई ट्रे में से पिन किए हुए कागजों का पुलिंदा निकाला, और एक बिल पर निगाह दौडाते हुए पूछा,
"क्या जानकारी चाहिए आपको ?"
"उन्होंने कहा था की प्रेस से ही पता मालूम करना है । "
हाँ, तो नोट कीजिए, वे बोले,
" A-242, मधुवन, ... कॉलोनी, ... रोड,... । "
मुझे ख़याल नहीं था कि मेरा काम इतनी आसानी से हो जाएगा


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उन दिनों -38 >>>>>>>>>>>>

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December 08, 2009

नाद-ब्रह्म

~~~~~~~~~~~~नाद-ब्रह्म~~~~~~~~~~~~~~

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सृष्टि के 'प्रारंभ' से,
जिसे वे बिग-बैंग कहते हैं,
और उससे भी पहले से,
-उसके साथ-साथ, और उसके अनंत आवर्त्तनों के अंतराल में,
'सम्यकत्त्वेन आयाति / अयति वा,
'कल्यते कलयति वा,' - से परिभाषित किए जानेवाले -'समय' अथवा 'काल' से अस्पर्शित,
परमाणु के अन्तरिक्ष में भी व्याप्त विराट आकाश और तरंग-रश्मि !
अणु-अणु में,
कण-कण में,
चर-अचर में,
'प्रकारेण आनयति यत्तत्प्राण: ,
चेतयति चयति वा तच्चेतस '
से विभूषित,
चेतना और प्राणों के पारस्परिक नृत्य के स्पंदन में,
दिग-दिगंत की दूरियों और अपने ही उरांतर की अंतरंगता में,
-मुझमें और तुममें,
सबमें ओत-प्रोत,
सब तुममें ही तो ओत-प्रोत है !!
संगीत के सुरों में,
पायल की खनक में,
वेणु की कसक में,
तबले की गमक में,
झूलों की रमक में,
तारों की चमक में,
अश्रु-कणों और स्मित की ऊर्मियों में,
सागर में सरिता में,
दृश्य में, दृष्टा में,
और उनके दर्शन की लीला में,
हे नाद-ब्रह्म !
कहाँ नहीं हो तुम ?

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December 06, 2009

वक्त.

वक्त.
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कभी दोस्त, कभी दुश्मन, कभी दुनिया,
इश्क की राहों में रोड़े भी कई हैं ।

कभी अपने, तो कभी परायों के,
-और कभी किराए के,
सियासत की जंग में घोड़े भी कई हैं ।

कसमें, - कसमें थीं, वादे, -वादे थे,
निभाये हैं कुछ मगर तोड़े भी कई हैं ।

कतरा-कतरा करके ही सही,
दर्द दरिया ने भी जोड़े भी कई हैं ।

वक्त के कितने चेहरे ज़ाहिर हैं,
सच्चे -झूठे हैं, उसने ओढ़े भी कई हैं ।

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December 01, 2009

कविता - लौटते हुए !

लौटते हुए
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कितनी बार सोचा है,
कि अब तुम्हारे बारे में नहीं सोचूँगा,
लेकिन हवा का हर झोंका,
पेड़ों की लचकती शाखें,
फूलों के चटखते रंग,
बरबस खींच ले जाते हैं,
-तुम्हारी यादों में !
और मैं न जाने किस पल अचानक पाता हूँ,
कि मैं भटक गया हूँ,
-उन बीहड़ों में,
जो एक अजीब 'सुख' भी देते हैं !
लेकिन अब आदत हो रही है,
अब ख़याल रहता है,
कि कब कोई याद,
मन के किसी कोने में,
अचानक उभर आती है ।
जैसे उस फूल पर वह छोटी सी चंचल चिड़िया,
अचानक आती है,
अपनी लम्बी नुकीली चोंच से रस चूसकर 'फुर्र' हो जाती है,
(और शायद नहीं जानती कि फूल को कहीं कोई चोट तो नहीं पहुँची ।)
मैं भी गुज़र जाने देता हूँ,
-तुम्हारी यादों को,
अब, मैं नहीं जोड़ता, उन्हें किसी ख़याल से,
जैसे ड्राइंग-रूम में रखे,
मनी-प्लांट और केक्टस,
तुम्हारे जाने के बाद से,
धूल और उपेक्षा को झेल रहे हैं,
मकड़ियों के जालों से आच्छन्न हो रहे हैं,
पर सुखी हैं, क्योंकि अब भी शायद किसी कोने में आस लगाए हैं,
कि तुम आओगी किसी दिन ।
मैं जानता हूँ, कि अब तुम सिर्फ़ यादों में ही आओगी ।
लेकिन अब मैं नहीं जोड़ता,
तुम्हारी याद को,
किसी ख़याल से ।
अब नहीं भटकूँगा मैं उन बीहड़ों में,
बार-बार,
-अपने-आपको लहू-लुहान करता हुआ ।
लौट आता हूँ मैं बार-बार,
अपने अनकहे अकेलेपन में,
अपने खा-----ली----पन में ,
-क्योंकि अब रास आ रहा है वह मुझे !
हाँ, अपने-आपसे बदला लेने का 'सुख'
शायद ज़्यादा तल्ख़ है,
तुम्हारी यादों के झूठे 'सुखाभास' से !

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