June 25, 2009

उन दिनों / 24.

उन दिनों / 24 .
रवि से उसे क्या उम्मीदें थीं ? रवि से उसे कई चीज़ें सीखनी थीं । शास्त्र । कौन से शास्त्र ? ब्रह्म-सूत्र, गीता, त्रिपुरा रहस्य, देवी-कालोत्तर- ज्ञानाचार-विचार-पटलः, मांडूक्य-उपनिषद, उपदेश-सारः, सत्- दर्शनं, रामगीता, श्री दक्षिणामूर्ति-स्तोत्रं, विचार-चंद्रोदय, स्पंद-कारिका, पंचदशी, और भी न जाने क्या-क्या । अब यह बात अलग है कि इनमें से कई के नाम तक रवि ने शायद ही कभी सुने होंगे । -मेरी तरह । और ज़ाहिर है इसमें कई वर्ष लगते । लेकिन अविज्नान बहुत निश्चिंत था । उसे भरोसा था कि जब जो होना है तब वह होकर ही रहेगा ।
बात नाश्ते की हो रही थी । हम सब नाश्ते पर बैठे हुए थे । मेरी दायीं तरफ़ 'सर', बाईं तरफ़ अविज्नान, सामने रवि । रवि ने आज ब्रेड-बटर रखा था । पपीता काट कर रखा था । नाश्ते का समय कुछ ऐसा था कि चाय कभी-कभी कैंसल हो जाती थी , या कहें, घंटे भर लेट हो जाती थी । आज भी ऐसा ही था । यह 'नया-नियम' था ।
-"नया-नियम" ?
वास्तव में यह रवि का अपना बनाया 'नया-नियम' था । उसके अनुसार 'मील्स' या नाश्ते आदि के तुरंत बाद कम-से-कम एक घंटे तक चाय या कॉफी नहीं पीना चाहिए, क्योंकि उससे भोजन पचने में बाधा आती है । हमें मंज़ूर था उसका नियम । क्योंकि चाय बनाना उससे ज़्यादा मुश्किल काम था ।
"लेकिन पहले तो ऐसा नहीं था ! " -अविज्नान ने रोड़ा अटकाया । रवि इस पर बस मुस्कुराया भर ।
अविज्नान के लिए तो ऐसे नियम अनावश्यक अनुशासन ही थे ।
"भइ, चाय तो घंटे भर बाद ही मिलेगी, लेकिन तुम्हें चाहिए तो अभी बना दूँ ?" -वह बोला ।
"नहीं भाई, अनुशासन तो सब पर लागू होना चाहिए । "
लेकिन इस 'नए-नियम' में एक मक़सद छिपा हुआ था, और साफ़ तौर पर उसमें अविज्नान का भी एक उद्देश्य पूरा हो जाता था । चाय के बाद उसे सिगरेट की तलब होती थी और 'सर' के सामने सिगरेट कैसे पीता ? इस बहाने वह चाय के पहले निश्चिंततापूर्वक 'सर' के साथ होनेवाली बातचीत में अच्छी तरह भाग ले सकता था ।
'सर' से तीसरी मुलाक़ात मेरे इसी घर में तब हुई थी, जब वे अचानक ही यहाँ आए थे । तब मुझे यह कल्पना करना भी बहुत मुश्किल था कि उनसे फ़िर कभी मिलना हो सकेगा । खैर वह कहानी फ़िर सही ।
अभी तो नाश्ते की मेज पर 'नया-नियम' था, और यह राजा रवि वर्मा का, या यूँ कहें कि रवीन्द्र वर्मा का नया नियम था । कभी-कभी मैं उसे राजा रवि वर्मा कहा करता था । 'रवि' तो सभी कहते थे । 'रवि-अवि' मेरे घर में रहनेवाले दो पेइंग गेस्ट थे, लेकिन इसका पेमेंट पैसों में नहीं मिलता था ।
"तो यह 'नया-नियम' है कि चाय घंटे भर बाद मिलेगी ?" -'सर' ने मुस्कुराते हुए पूछा ।
किसी ने इस का उत्तर नहीं दिया ।
"एक 'नया-नियम' वह है, -क्या कहते हैं उसे, -शायद न्यू टेस्टामेंट ।" 'सर' ने चर्चा का रुख दूसरी दिशा में मोड़ा । हम सब देख रहे थे ।
"और एक यह 'नया नियम ' है, जिससे अविज्नान को समझौता करना पड़ रहा है । " -रवि ने चुटकी ली ।
"उसे 'नया-नियम' क्यों कहते हैं ?" -'सर' ने प्रश्न किया ।
"ईसाइयत के इतिहास को देखें तो बाइबिल दो हिस्सों में पाई जाती है , एक है, -'ओल्ड टेस्टामेंट', दूसरा है, -'न्यू टेस्टामेंट' -रवि बोला ।
"क्या ईसाइयत और यहूदी मत अलग-अलग हैं ?" -'सर' ने पूछा ।
"क्या मतलब ?" -रवि ने आश्चर्य से पूछा ।
"भाई, मैंने इसलिए पूछा क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार यहूदियों की बाइबिल, जो कि शायद हिब्रू बाइबिल है, वह भी एक धर्मग्रन्थ है, तो क्या ये ओल्ड-टेस्टामेंट, न्यू टेस्टामेंट, और हिब्रू बाइबिल आदि एक ही हैं, या उनमें कोई संबंध है ?"
हममें से किसी को भी इस बारे में ठीक-ठीक कुछ भी नहीं मालूम था । मुझे उम्मीद थी कि अविज्नान ज़रूर इस बातचीत में जोर-शोर से हिस्सा लेगा, लेकिन वह तो खिड़की से बाहर देख रहा था । "चलो यह भी ठीक है " - मैंने सोचा । मुझे उसकी 'सेंसिबिलिटी' को लेकर भी थोड़ी चिंता थी । मैं नहीं जानता कि पश्चिमी 'मतों' के संबंध में उसकी क्या राय थी । वह यहूदी था, कैथोलिक था, क्रिश्चियन था या 'पैगन', -मुझे कुछ पता नहीं था । हाँ वह 'मुस्लिम' नहीं था, इतना मैं कह सकता हूँ ।
"मुझे लगता है कि हमें इस बारे में सावधानी से चर्चा करनी होगी । पहले तो हमें यह तय करना होगा कि 'मान्यता' और 'धर्म' के बीच क्या फर्क हो सकता है । ऐसा इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि जब हम 'मान्यता' को 'धर्म' कहने लगते हैं, तो अनजाने में ही बहुत सी और बहुत बड़ी गलतफहमियों के शिकार हो जाते हैं । विभिन्न समुदायों की भिन्न-भिन्न 'मान्यताएँ' हैं, और वे एक-दूसरे से अलग ही नहीं, बल्कि नितांत विपरीत और विरोधी भी हैं । चाहे स्वर्ग-नरक संबंधी हों, या भौतिक जीवन के क़ानून कायदे, शादी-ब्याह और तलाक़, पाप और पुण्य के बारे में ही क्यों न हो ! और इस आधार पर पूरी मनुष्यता बुरी तरह बँटी हुई भी है । जहाँ तक रीति-रिवाजों की बात है, वे कुछ पूर्व-निश्चित मान्यताओं और परम्पराओं से पैदा हुए हैं, और समय के साथ-साथ उनमें बदलाव आता रहता है । सबसे पहले तो यह देखना होगा कि धर्म का प्रश्न सिर्फ़ मनुष्य जाति के लिए ही कोई अर्थ रखता है । दुर्भाग्य से यथार्थ धर्म को समझे बिना ही, हम धर्म के पक्ष या विपक्ष में होते हैं । जिसे प्रायः धर्म समझा जाता है, वह निश्चित ही किन्हीं मान्यताओं, अनुभवों, और उनसे प्राप्त निष्कर्षों पर आधारित होता है । सामान्यतया धर्म का तात्पर्य यह भी समझा जाता है कि जो सत्य के अनुसार हो । अत: हम कह सकते हैं कि धर्म एक अमूर्त अवधारणा भर है । और भिन्न-भिन्न समुदायों ने धर्म को भिन्न-भिन्न रूपों में अपनाया है । यह तो निर्विवाद सत्य है कि धर्म चाहे परम्परा से आया हो, या खोज से, वह किसी-न-किसी 'दर्शन' पर आधारित होता है । या तो 'दर्शन' अर्थात वैचारिक निष्कर्षों पर आधारित 'सिद्धांत' या 'मान्यताएँ', विश्वास आदि । लेकिन सामान्य मनुष्य तो परम्परा को ही धर्म समझता चला आया है । तात्पर्य यह कि 'धर्म' अपने-आप में कोई ऐसी 'तय' चीज़ नहीं है, जिसे हम एक अथवा अनेक कहें । फ़िर, विभिन्न मत-मतान्तरों को अलग-अलग या समुदाय-विशेष के भेदों सहित 'धर्म' का नाम दिया जाता है । अंग्रेजी में धर्म या 'रिलिजियन' का अर्थ सिर्फ़ परम्परा, रूढ़ि से किए जानेवाले रीति-रिवाज़, कर्म-काण्ड, तथा आस्था, विश्वास, श्रद्घा आदि ही है । हिन्दी या संस्कृत में धर्म का एक व्यापक अर्थ है, लेकिन कामचलाऊ लोक-व्यवहार की भाषा में उसका एक सतही अर्थ भी है, और वह है, - समाज के विभिन्न समुदायों के भिन्न-भिन्न परम्परागत विश्वास, मान्यताएँ, और उन पर आधारित कर्म-काण्ड या रीति -रिवाज़ । हिन्दी या संस्कृत में धर्म का जो अर्थ है, समाज के स्वयंभू कर्णधार धर्म का वह अर्थ शायद ही ग्रहण कर सकें । समाज के ऐसे स्वयंभू कर्णधारों की दृष्टि में धर्म वह है, जो पूरे समाज को आपस में जोड़े रखे । या कम से कम वे ऐसा समझते हैं । उन्हें वास्तविक धर्म क्या है, इसकी खोज में न तो दिलचस्पी होती है, और न उन्हें इसकी ज़रूरत ही महसूस होती है । धर्म उनके लिए एक बोझ होता है, या 'साधन' या मजबूरी । वे अपनी सुविधानुसार धर्म के पक्ष या विपक्ष में होते हैं । सुविधा और स्वार्थ ही उनके लिए 'धर्म' होता है । धर्म उनकी नज़रों में व्यक्तियों, समुदायों, के अपने-अपने आग्रह हैं, जो यूँ तो परस्पर बेमेल होते हैं, लेकिन 'सर्व-धर्म-सम-भाव' रूपी 'चारा' फेंककर वे अलग-अलग तरह की मछलियों को फँसा भी लेते हैं । दूसरी ओर धर्म के धुर विरोधी भी , 'ईश्वर' के अस्तित्व पर प्रश्न उठानेवाले भी अपने-आपको 'धर्म-निरपेक्ष' घोषित करते हुए अपनी सुविधा के अनुसार किसी विशेष धर्म से जुड़े (राजनीतिक)दल पर 'सांप्रदायिक' होने का आरोप मढ़ सकते हैं । ऐसा सिर्फ़ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के दूसरे स्थानों पर भी है । इसमें वे भिन्न-भिन्न 'धर्मों' को इस्तेमाल भी करते हैं, उन्हें कभी राष्ट्र या मानवता के भिन्न-भिन्न रूप कहते हैं, कभी उन्हें 'समान' बतलाते हैं, लेकिन कभी भी धर्म के मूल स्वरुप पर नहीं सोचते । सर्वहितकारी धर्म क्या हो सकता है , इस पर चिंतन करने के लिए न तो उनके पास दृष्टि है, न समय है, न दिलचस्पी, उत्साह तो बहुत दूर की बात है । और यदि वे इस दृष्टि से सोचने लगेंगे तो उन्हें अपना पूरा नज़रिया ही बदलना पड़ेगा । सतही तौर पर वे सबको खुश रखना चाहते हैं, और येन-केन-प्रकारेण सहिष्णुता, धर्म के नैतिक पक्षों आदि का झूठा गुणगान कर उनके गहरे मूलभूत अंतर्विरोधों और विसंगतियों को नज़रों में नहीं आने देते । यदि धर्म मान्यताओं पर अवलंबित हैं, तो उनमें अवश्य ही परस्पर विरोध होगा यह समझना बहुत आसान है, क्योंकि मान्यताएँ तो अक्सर ही विरोधी हुआ करती हैं , और साधारण मनुष्य इतना विवेकशील और धैर्यवान नहीं होता कि वह धर्म के मूल तत्त्व को जानने की ज़हमत उठाये । हर किसी के लिए तात्कालिक महत्व की दूसरी भी कई चीज़ें होतीं हैं, और धर्म के बारे में कुछ गंभीरता से विचार करनेवालेभी वैज्ञानिक ढंग से उसकी परीक्षा करने से घबराते हैं । भय तथा परंपरा ही उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं । वे धर्म को या तो पूरी तरह से पाखण्ड या ढकोसला कहकर नकार देते हैं, या तथाकथित रूप से प्रगतिशील भी होते हैं, तो वैज्ञानिक ढंग से उसके तत्त्वों को जैसा उन्हें समझ आता है, येन केन प्रकारेण सही सिद्ध करने की कोशिश करने लगते हैं । कुछ लोग तो धर्म से चिढ़ जाते हैं, तो दूसरे कुछ उग्र रूप से धर्म के कट्टर हामी हो जाते हैं । फ़िर यहाँ एक और दुर्भाग्य यह है कि जो 'धर्म' कट्टर होता है, उसके प्रति चिढ़े हुए लोग तो अपनी चिढ ज़ाहिर करने से डरते हैं, लेकिन सहिष्णु 'धर्म' से चिढ़नेवाले अपने ही 'धर्म' को जी भरकर गालियाँ भी दे लेते हैं । इसके क्या परिणाम हो सकते हैं , अनुमान लगाना कठिन नहीं है । पर इसमें संदेह नहीं कि ये सभी अपनी-अपनी 'मान्यताओं' के ही अनुसार 'धर्म' के प्रति व्यवहार करते हैं । धर्म की प्रासंगिकता के बारे में सोचने से पहले इस मूल तथ्य की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जा पाता कि धर्म से हम क्या समझते हैं, यह जानना ज़रूरी है ! इस बारे में स्पष्टता होना आवश्यक है । यदि धर्म एक अपरिभाषित, अमूर्त्त, वस्तु या कारक है, तो वह नितांत वैचारिक अस्तित्त्व रखनेवाली एक चीज़ है; -विचार-मात्र है । जैसे जाति, वंश, इतिहास आदि हैं । यदि हम यह समझने की कोशिश करें कि 'इतिहास' क्या है ? तो जो मूल समस्या हमारे सामने आती है, वह यह है : किसका 'इतिहास' ? आप युद्धों का इतिहास, शिक्षा का इतिहास, साहित्य का इतिहास, खेलों का इतिहास, निर्माण-कला और स्थापत्य का इतिहास, विज्ञान के विकास का इतिहास, संगीत का इतिहास, आदि कितने ही क्षेत्रों को सन्दर्भ में रखते हुए, बिल्कुल अलग-अलग नतीजों पर पहुँच सकते हैं । क्या इसी तरह से 'धर्म' के इतिहास का अध्ययन और अनुसंधान, अन्वेषण नहीं किया जाना चाहिए ? हम समझते हैं, कुछ लोगों ने वह भी किया है । हाँ, इने-गिने लोगों ने अवश्य ही किया है, लेकिन जिस प्रकार मानव-इतिहास के साथ तात्कालिक या लाभों (!), या पूर्वाग्रहों आदि के कारण छेड़-छाड़ की गयी है, वैसी ही छेड़-छाड़ 'धर्म' के इतिहास में भी 'अध्ययन' और खोज के बहाने से की गयी है, इसे सिद्ध किए बिना ही देखा जा सकता है । इतिहासकार स्वयं ही अपने आग्रहों, प्रलोभनों, भयों, से बँधे होते हैं । "Sponsered" , किसी राजनैतिक दल या वर्ग , उसके से 'प्रवर्तित' , परिचालित होते हैं । वे इतिहास की वैसी ही 'व्याख्या' और 'खोज' करते हैं, जो उनके प्रवर्तकों द्वारा इंगित किए गए 'निष्कर्षों' का समर्थन और 'पुष्टि' कर सकें । 'धर्म' के मामले में तो यह सौ फ़ीसदी सही है । 'धर्म' का इतिहास जैसा है, वैसा शायद ही कोई खोजना चाहता है । लगभग हर कोई उसे वैसा खोजना चाहता है, जो उसकी रुचियों से मेल खाता हो । फ़िर, इस बारे में सबसे अधिक दिलचस्पी राजनीतिज्ञों की होती है । उनके पास 'talent' नहीं होती, इसीलिये वे राजनीति में जाते हैं । फ़िर वे तथाकथित 'talented' लोगों को 'खरीदने' लगते हैं । वे इतिहास को तोड़-मरोड़कर, अपने लक्ष्यों के अनुकूल उसकी 'व्याख्या' प्रस्तुत करते हैं । यह ऐसा दुश्चक्र है, जिसमें सारी मनुष्यता लगातार अधिक से अधिक अन्धकार की ओर, अशांति व पारस्परिक वैमनस्य की ओर बढ़ती चली जा रही है । इस सबकी जड़ में राजनीतिज्ञों के अपने भय, लोभ और अविवेक, दंभ, और 'मद' हैं । संक्षेप में, -'अविवेक' । पहले तो हमें धर्म और अध्यात्म को अलग-अलग करना होगा । इन्हें एक-दूसरे से अलग कर लेने के बाद यदि यह लगता है, कि उन्हें एक-दूसरे से अलग किया ही नहीं जा सकता, तो हमें धर्म को नए सिरे से समझना होगा । सामान्यतः सब-कुछ इतना गड्ड-मड्ड हो गया है, कि मनुष्य कभी उनके बारे में ठीक से खोजबीन ही नहीं कर पाता । 'ईश्वर', 'पवित्र'-ग्रन्थ, और उनके द्वारा मनुष्य के लिए 'निर्धारित' किया गया 'धार्मिक' आचरण, इन सबकी परीक्षा करना तक निषिद्ध कर दिया गया है । फ़िर उनके 'मतभेदों' के बीच तालमेल कैसे हो ? शिक्षा-संस्थानों में तथाकथित 'दर्शन-शास्त्र' में उस संबंध में 'अध्ययन' ज़रूर किया जाता है, लेकिन वह 'सतही' और पूर्वाग्रह-ग्रस्त होता है । 'तुष्टिकरण' से 'प्रवर्तित' होकर किया जाता है । हो सकता है कि 'अध्ययन-कर्त्ता' अध्यवसाय-शील हो, मेहनती और 'talented' भी हो, लेकिन उसकी सारी 'प्रतिभा' और टेलेंट का दोहन 'प्रवर्तक' के 'लक्ष्यों' की प्राप्ति की दिशा में किया जाता है । जैसे सरकारी योजनाएँ होती हैं ! यह 'अध्ययन' 'तुलनात्मक' , और 'विचारों' से 'विचारों' तक' 'विचारकों' से 'विचारकों' तक सीमित रहता है । उसका 'जीवन' की वास्तविकता से ज़रा भी संबंध नहीं होता । या फ़िर, 'भारतीय दर्शन' के अन्तर्गत मुख्यतः हिन्दू, बौद्ध, और जैन मतों आदि में, योग, वेदान्त, तंत्र आदि परम्पराओं के अनुसार किया जाता है । इस प्रकार का अध्ययन भी आज के तथाकथित 'बुद्धिजीवियों' का वाग्विलास भर है, क्योंकि भारतीय दर्शन में वैचारिक या कोरे बौद्धिक तर्क-वितर्क को सत्य के उदघाटन में बाधक और निष्फल कहा गया है । वहाँ साधना और 'तपस्या' अर्थात् 'तप' पर, और मुख्यतः 'पात्रता' पर, जोर है । लेकिन आज के तमाम बुद्धिजीवी सोचते हैं की बिना 'पात्रता' के सत्य को 'समझ' या 'प्राप्त' कर लेंगे । इस बुनियादी भूल की जान-बूझकर भी उपेक्षा की जाती है । सारे 'धर्मों' की 'समानता' घोषित करनेवाले किसी एक धर्म के तत्त्व तक को जाने बिना ही ऐसे 'आदर्शों' को स्थापित करते हैं, जो कालांतर में एक सर्वमान्य सत्य समझ लिए जाते हैं । भारतीय तत्त्व-दर्शन में अनेक सम्प्रदाय हैं, और उनके अपने-अपने चिंतन-प्रकार हैं । वे किसी मान्यता पर जोर नहीं देते । वे "एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति " की दृष्टि रखते हैं । पश्चिमी मतवादों से उनकी तुलना तक नहीं है, लेकिन तथाकथित 'सर्व-धर्म-समानता' के विचार से मोहित-बुद्धि लोग, उसके कायल, जानबूझकर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं । सवाल यह नहीं है कि क्या भारतीय तत्त्व-दर्शन और उसके विभिन्न 'सम्प्रदाय' ही सत्य या धर्म को समझने के एकमात्र सम्यक् साधन हैं ? सवाल यह है कि क्या भारतीय तत्त्व-दर्शन और चिंतन की प्रणालियाँ और पश्चिमी विचार-धाराओं, तथा चिंतन-प्रणालियों की परस्पर तुलना की भी जा सकती है या नहीं ? तमाम भारतीय तत्त्व-दर्शन जीव की मुक्ति / निर्वाण को ही परम लक्ष्य मानते हैं । आत्मा- परमात्मा के संबंध में उनके दृष्टिकोण में अन्तर भी हो सकता है, लेकिन 'मुक्ति' के बारे में कोई मतभेद नहीं हैं । पाश्चात्य दर्शन (?) में तो स्वर्ग-नरक और एक (?) ईश्वर के 'होने' या न-होने के बारे में आग्रहों, और वैचारिक (!) कुश्ती से आगे बात नहीं जाती । इस प्रकार यदि 'मान्यताओं' को ही 'धर्म' कहा जाए, तो भी मोटे तौर पर भी 'धर्म' का स्पष्ट विभाजन पाश्चात्य और पौर्वात्य के रूप में मौजूद है । फ़िर तथाकथित 'पाश्चात्य' 'धर्म' में 'मान्यताओं' के सिवा और क्या है ? सवाल यह नहीं है कि वे मान्यताएँ सत्य हैं या असत्य, सवाल यह है कि सारी परस्पर विरोधी मान्यताएँ एक साथ कैसे सत्य हो सकती हैं ? मैं सोचता हूँ कि मैं अपनी बात कह पाया । अब चाय !"
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June 09, 2009

उन दिनों / 23.

उन दिनों / 23 .
उस दिन अविज्नान हमें 'वहाँ' ले गया था, जहाँ वह था । "कहीं और", -रवि की दृष्टि में ।
रवि और अविज्नान आपस में हँसी-मज़ाक करते थे । रवि की नज़रों में अविज्नान योगी, तांत्रिक, दार्शनिक, और 'जासूस' (spy) था, जबकि अविज्नान की दृष्टि में रवि कलाकार, बुद्धिजीवी, और विद्वान् था । एक संघर्ष-शील आध्यात्मिक विभूति । लेकिन सारा हँसी-मजाक निश्छल था, क्योंकि दोनों के बीच कहीं कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी । दोनों में एक गहरी ट्यूनिंग हो गयी थी । अविज्नान जब किसी परम्परा का उल्लेख करता तो उसका सन्दर्भ विभिन्न विषयों से ग्रहण करता था , -जैसे पुनर्जन्म, तंत्र, ज्योतिष, अध्यात्म, साहित्य और दर्शन आदि, और सीधे ही चर्चा या चिंतन के द्वारा वैज्ञानिक दृष्टि से उसकी सत्यता या संदिग्धता पर विचार करता था । रवि अध्ययनशील था, और भिन्न-भिन्न परम्पराओं को समझने का उसका तरीका अविज्नान से काफी हद तक अलग था । लेकिन एक बात दोनों के बारे में एक जैसी थी । दोनों किसी भी पूर्वाग्रह से रहित थे । दोनों सभी चीज़ों को तौलते, समझने की चेष्टा करते, यदि उन्हें कहीं भी ज़रा भी अविश्वास होता, तो वे अपना संदेह सामने रख देते । अविज्नान अध्ययनशील तो नहीं था लेकिन किसी कारण से उसमें एक ऐसी अलौकिक क्षमता थी जो हममें से बहुत कम के पास होती है, जिसे हम 'अंतर्दृष्टि' भी कह सकते हैं । और उस अंतर्दृष्टि के सहारे वह जीवन के गहरे रहस्यों को भी समझ या देख तो लेता ही था । उदाहरण के लिए, 'सत्य' की प्राप्ति के लिए अतीत में मनुष्य ने क्या-क्या प्रयास किए, इसे समझने के लिए वह शास्त्रों का अध्ययन तो करता ही था, लेकिन उस गंभीरतापूर्वक नहीं जिस गंभीरता और उत्कंठा से रवि किया करता था । रवि के मन में यह गहरा विश्वास (निष्ठा?) था कि शास्त्रों में जो कुछ कहा गया वह उस तत्त्व को जाननेवालों ने ही कहा है, (हालाँकि मैं नहीं कह सकता कि ख़ुद रवि ने इतनी बारीकी से इस बारे में सोचा होगा कि ऐसा उसके साथ है ), जबकि अविज्नान का दृष्टिकोण यह था कि सिर्फ़ कुछ ही शास्त्र ज्ञानियों के कहे गए प्रत्यक्ष वचनों का संग्रह हैं और 'शास्त्र' के नाम पर जो अनेक सम्प्रदाय पैदा हो गए हैं, उनमें से अधिकाँश तो मनुष्य को और भी भ्रमित कर रहे हैं, और स्पष्ट है कि उनके बारे में पर्याप्त सावधानी से उनकी जाँच-परख के बाद ही उनकी प्रामाणिकता स्वीकार की जानी चाहिए ।
"या फ़िर ?" -एक बार मैंने उससे प्रश्न किया था ।
"Do away with them, forget them abandon them abolish them।" -उसका जवाब था ।
"कैसे ? "
"यही तो, ....."
" क्या हम नए सिरे से इस पर नहीं सोच सकते ?"
"philosophy ? "
"नहीं ।"
"फ़िर ? "
"यथार्थ, तथ्य के अवलोकन से । "
"तो उसके लिए कहीं कोई शुरुआत तो हमें करना होगी ! "
"हाँ ।"
"कहाँ से ? पूरे समाज को, राष्ट्र को, संसार को प्रेरणा कहाँ से मिलेगी ? कोई तो सहारा, guiding line, तो ज़रूरी होगी ही ।"
"क्या समाज, राष्ट्र, संसार एक 'तथ्य' है , 'यथार्थ है ? " -उसने पूछा ।
"नहीं है ? "- मैंने हैरत से उसे देखा ।
"नहीं है ।" -उसने शांतिपूर्वक उत्तर दिया ।
" तथ्य, यथार्थ का मन में बना चित्र 'यथार्थ' कभी नहीं होता । और इसलिए मुझे नहीं लगता कि हम समाज या राष्ट्र या संसार के लिए कुछ कर सकते हैं । "
"फ़िर ? "
"क्या हम तथ्य को सीधे नहीं जान सकते ? "
"तथ्य को सीधे ही जाना जा सकता है, 'विचार' के माध्यम से नहीं ! "
"क्या 'विचार' स्वयं भी एक तथ्य नहीं होता ? "
"कभी नहीं, विचार तथ्य का शब्दीकरण भर होता है, जिससे हमें झूठा भरोसा हो जाता है कि हम 'तथ्य' को जानते हैं । "
"फ़िर तुम शास्त्र क्यों पढ़ते हो ? "
"यही तो । शास्त्रों से मुझे स्पष्ट हो जाता है कि कौन से शास्त्र ज्ञानियों के वचन हैं, और कौन से अज्ञानियों और भ्रमित लोगों के । "
"कैसे ? "
वह बहुत देर तक चुप रहा था । क्या वह झूठ बोल रहा था ?
"यदि कोई 'विचार' के उद्गम की खोज करे, तो वह 'बुद्धि' को समझ सकेगा । लेकिन 'बुद्धि' भी न तो तथ्य है, न यथार्थ, यह भी एक उपकरण है । क्या हम स्वाभाविक रूप से ही नहीं जानते कि कभी हमारी बुद्धि काम करती है, और कभी-कभी नहीं भी करती ? यह 'जानना' क्या 'बुद्धि' से होता है ? या 'बुद्धि' ही इस 'जानने' के प्रकाश में अपना काम करती है ?"
"... ... ... "
" इस सीधे, सच्चे 'जानने' को हम 'तथ्य' / यथार्थ क्यों न कहें ? "
" क्या शास्त्रों में इस 'जानने' के बारे में कुछ नहीं कहा गया है ? "
"बहुत कुछ कहा गया है, लेकिन किन शास्त्रों में ? "
आगे रास्ता कहाँ से गुजरेगा, इसका अनुमान मुझे था । आगे हम उस रास्ते से गुज़रे भी थे, लेकिन अभी तो मैं रवि और अविज्नान की विशेषताओं पर कह रहा था ।
अविज्नान बुद्धि की सीमा को समझता था, और उसे लगता था कि बुद्धि के सम्यक् प्रयोग से ही उस सत्य तक पहुंचा जा सकता है, जिसका वर्णन कुछ इने-गिने शास्त्रों में ही है । उसका कहना था कि यदि सत्य हमारे भीतर नहीं है, तो उसे शास्त्रों या किसी अन्य माध्यम से नहीं पाया जा सकता ।
"मतलब ? " -प्रश्न किया था रवि ने ।
"मतलब यह कि हमारी अपनी बुद्धि से यदि सत्य पाया जा सकता है, तो शास्त्र, गुरु, मार्गदर्शक अनावश्यक हैं, और न सिर्फ़ अनावश्यक, बल्कि शायद सत्य के आविष्कार में बाधक भी हो सकते हैं । दूसरी ओर हम यह कैसे तय करेंगे कि सच्चा गुरु, शास्त्र कौन है ? यदि हम इतने सक्षम हैं कि यह तय कर सकें, तो भी गुरु / शास्त्र अनावश्यक हैं । तीसरी बात, हम किसी गुरु या शास्त्र की परीक्षा लेना चाहें भी, और यदि हमें सत्य की प्राप्ति नहीं हुई है, तो उसकी कसौटी हम कैसे तय करेंगे ? और यदि सत्य की प्राप्ति हम कर चुके हैं तो, ..... ... ... ! अन्तिम बात , और ज्यादातर तो यही होता है कि हम इस बहाने से सत्य से पलायन का एक 'सुंदर', 'प्रतिष्ठित' तरीका ज़रूर खोज लेते हैं । "
"लेकिन अगर तुम्हें ख़ुद ही रास्ता निकालना हो तो शास्त्रों के ज्ञान और गुरुओं के अनुभवों का लाभ भी तो मिल सकता है ! " -रवि का तर्क था यह ।
अविज्नान निरुत्तर था । नहीं, निरुत्तर तो नहीं, मौन ज़रूर था । जब संप्रेषनीयता संभव नही रहती तो मौन ही उसका वह उत्तर होता है, जिससे वह अपनी बात कहने की कोशिश करता है । हम ऐसे वक्त मौन हो जाते हैं, और उस मौन में 'विचार' भी ठहरा रहता है । यदि आप इस खूबसूरत एहसास से गुज़रे हैं, तो आपने देखा होगा कि मन की उस शान्ति में कोई ऐसी चीज़ एकाएक 'कौंध' सकती है, जिसे हम अंत:प्रज्ञा या अंतर्दृष्टि कह सकें । और यदि उसके बावजूद बात न भी बने, तो क्या हर्ज़ है ?
अविज्नान के लिए संप्रेषनीयता सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी । इसके बाद था संवाद, और यदि संवाद नहीं हो पा रहा, या उसकी ज़रूरत न हो, तो संप्रेषनीयता के लिए जो कुछ भी किया जा सकता है, वह उसे करने से पीछे नहीं हटता था । लेकिन वह उसकी समस्या थी भी नहीं । वह घंटों सबसे अलग अकेला रह सकता था, बिना किसी occupation, involvement, या व्यस्तता के । और रहता भी था । हाँ, भूख, प्यास, सर्दी-गरमी के लिए ज़रूर उसे किसी सहारे की ज़रूरत होती थी । वह हेल्थ-कांशस भी था । लेकिन सिगरेट ? क्या यह विरोधाभास नहीं था ? वह कोई उत्तर नहीं देता था । इस बारे में उसे शायद कोई द्वंद्व नहीं था ।
"अविज्नान, सिगरेट के बारे में कुछ पूछना चाहता हूँ । क्यों पीते हो ? " -मैंने उससे पूछा था ।
"There are so many reasons and causes . " -उसने कहा था ।
"इस पर कभी सोचा नहीं ? "
" हाँ ज़रूर सोचा था । "
" ... ... ... "
"जब मैंने पहली सिगरेट पी थी उस समय मुझे इसका धुँआ, सुगंध अच्छे लगे थे । वास्तव में सिगरेट बनानेवाली कंपनियाँ उसकी टोबैको में ऐसी चीज़ें मिलाती भी हैं । फ़िर मुझे आदत लग गयी । बहुत बाद में ख़याल आया कि मैंने गलती की है । मेरे 'genes' में ही दर-असल 'addiction-susceptibility' थी / है । क्योंकि मेरे माता-पिता दोनों स्मोकिंग करते थे । तो यह तो हुआ एक और कारण । दूसरा ख़ास कारण है , कि मैं छोड़ना नहीं चाहता । "
" क्यों ? " मैंने हैरत से पूछा ।
" क्योंकि मुझे इसमें कोई खराबी नज़र नहीं आती । "
" लेकिन क्या यह स्वास्थ्य के लिए घातक नहीं है ? "
" शायद है । "
"शायद ? "
"हाँ, कई ऐसे लोग हैं , जो हैवी-स्मोकर रहते हुए भी लम्बी आयु तक जिए । "
उसके इस तर्क का मेरे पास कोई जवाब नहीं था ।
"मैं मानता हूँ कि सिगरेट न पीना स्वास्थ्य के लिए ज्यादा ठीक है, लेकिन एक समस्या और भी है, एक बार 'शरीर' सिगरेट का या निकोटीन का आदी हो जाता है, तो छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है । " - वह बोला ।
"लेकिन अगर आदमी दृढ़ इच्छा-शक्ति से तय कर ले तो ? "
"तो भी नहीं, क्योंकि 'शरीर' निकोटीन की ज़बरदस्त माँग करने लगता है ,और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती । "
"क्यों ? "
"आपने 'withdrawl-symptoms' के बारे में तो सुना ही होगा ! "
"हाँ, ज़रूर सुना है "
" बस वही एक चीज़ है, जो आदमी को परास्त कर देती है । जब किसी को ड्रग-एडिक्शन हो जाता है, तो इसका कारण सिर्फ़ सतह पर ही नहीं होता । यह इंसान के अवचेतन पर भी असर करता है । मनुष्य के मन का अवचेतन-स्तर, उसके चेतन-स्तर से कई गुना अधिक शक्तिशाली होता है । जब तक उस स्तर पर पहुँचकर एडिक्शन के कारण को नहीं समझा जाता तब तक सतह पर कुछ 'तय' कर लेने का कोई मतलब नहीं है । "
" तो क्या स्मोकिंग या ड्रग को छोड़ने की कोशिश ही न करें ? "
"ज़रूर करें, लेकिन पूरी-पूरी । "
"और तुम्हारे बारे में ? "
"मैं कह चुका हूँ कि अवचेतन तक जाने में मेरी कोई उत्सुकता नहीं, हाँ अगर किसी कारणवश मुझे सिगरेट या टोबैको मिलना बंद हो जाए, तो मुझे कुछ दिनों तक बहुत तकलीफ उठानी पड़ेगी और फ़िर शायद मेरी आदत छूट जाए । "
"शायद क्यों ? "
"क्योंकि मैंने करके नहीं देखा है । "
यह तो कोई संतोषजनक उत्तर नहीं था ।
"कभी सोचना ! " -मैंने कहा ।
"सवाल यह है की आख़िर कोई टोबैको की आदत में क्यों फँसता है ? क्या उसे समझ लेने पर इस आदत को शुरू होने ही से रोकना क्या बेहतर तरीका नहीं हो सकता ? "
"हाँ उस दिशा में भी मेहनत करना ज़रूरी है, लेकिन जिन्हें आदत हो गयी है, उनके बारे में क्या ? "
"तो इस सवाल को दो स्तरों पर समझना पड़ेगा । पहला यह कि कोई जब इस जाल में फँसता है, तो किन परिस्थितियों में ऐसा होता है । दूसरा यह कि जब कोई इसका आदी हो जाता है, तो उस मूल कारण को अवचेतन से कैसे हटाया जा सकता है, जिसकी वज़ह से अब शरीर भी 'निकोटीन' का अभ्यस्त हो गया है । साधारणतया तो 'शौक' या दोस्तों की देखा-देखी, या कौतूहल, कोरी 'शान' दिखलाने के लिए कोई-कोई सिगरेट पीने लगता है । कोई-कोई 'ट्रॉमा', अवसाद, थकान,से भागने के लिए, ताजगी , एनर्जी, या 'जोश' जगाने के लिए, डिप्रेशन की स्थिति में, कोई-कोई सोचता है कि इससे 'खाना' 'हज़म' होने में मदद मिलेगी, कोई सोचता है कि इससे मुँह का 'जायका' ठीक होता है, तो लोगों की अपनी अपनी दलीलें होतीं हैं, और 'निकोटीन' शरीर में एक ज़बरदस्त हलचल तो पैदा कर ही देता है । यहाँ तक कि कुछ लोग 'रिलैक्स' होने के लिए, या 'मूड' चेंज करने के लिए सिगरेट पीने लगते हैं । तो मैं सोचता हूँ कि बहुत बाद में उस ट्रैक को फ़िर से खोजना बड़ा मुश्किल काम है । फ़िर भी, अगर कोई चाहे तो सही ढंग के 'मेडिटेशन' से इस बुरी लत से निजात पा सकता है । "
"कैसे ? "
"इरादा होना चाहिए, -मेरा मतलब है जिद नहीं, गंभीरता, एक ख़याल होना चाहिए कि क्या मैं इसके बिना नहीं रह सकता ? ख़ुद को टटोलने की ज़रूरत है । मैं इसके बिना क्यों नहीं रह सकता ? तब पता चलेगा कि मैं डरता हूँ, -किसी भी एक या कई बातों से । आत्म-विश्वास की कमी, असफलता का डर, हीन-भावना, इन सब चीज़ों को छिपाने के लिए, नकली आत्म-विश्वास दिखाने के लिए, मैं सिगरेट पी रहा हूँ, या मुझे एक 'सहारा' महसूस होता है सिगरेट पीने में , तो ये सब वज़हें देखनी होंगीं । यदि इन्हें देखे बिना किसी 'दवाई' या 'alternative' तरीके से सिगरेट छोड़ने की कोशिश की जाए, तो वह समस्या कोई दूसरा रूप लेकर बनी रहेगी । आपकी हीन-भावना कहाँ जायेगी ? 'डर' कहाँ जाएगा ? बहुत बाद में 'आदत' रह जाती है, जिसे आदमी देख पाता है, वह उस वज़ह को भूल जाता है जो आदत में तब्दील हो गयी । " क्या उसे फ़िर से खोजकर उसका पता नहीं लगाया जा सकता ?
उसकी विवेचना सुनकर हैरान रह गया । और यह भी समझ में आया कि वह सिगरेट छोड़ने के बारे में ख़ुद गंभीर क्यों नहीं है ।
"तो यह किस किस्म के मेडिटेशन से हो सकेगा ? "
"हाँ, पहले तो आदमी को यह तय करना होगा कि वह इस बुरी लत में फँसा है । फ़िर हो सके तो ठीक-ठीक उस वज़ह का पता लगाना पडेगा जिसकी वज़ह से उसे यह आदत लगी , और फ़िर 'इरादे' के साथ उसके लिए मेहनत करनी होगी । इसका मतलब है कि उसे उस ख़ास वज़ह को दूर करना होगा । क्या यह सारा काम मेडिटेशन नहीं है ? अंग्रेजी में बोलेंगे -
"In a pre-meditated way"
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June 01, 2009

उन दिनों / भूमिका.

भूमिका : /'अविज्नान'
यह मूलतः वही है, जो इस उपन्यास का पहला अध्याय था / होना चाहिए था । किसी अज्ञात तकनीकी त्रुटि के कारण वह हटा दिया गया ।
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"तुम कुछ लिखते हो ? " - मैंने पूछा ।
"हाँ, पहले लिखता था, शुरू में 'रिपोर्टिंग' करता था, फ़िर आलोचना लिखने लगा, फ़िर कविता, और बाद में कहानी भी । एक बुखार है, जो चढ़ता-उतरता रहता था । "
" फ़िर उपन्यास ? "-मैंने चुटकी ली ।
"हो-हो-हो..." -वह हँस पड़ा ।
थोड़ी देर तक हम दोनों चुप बैठे रहे ।
टेबल पर आज का अखबार रखा था , जिस पर उसने अपने दोनों पैर फैला रखे थे । मैं मुस्कुरा रहा था ।
"कुछ याद नहीं आता, अखबार पर नज़र पड़ने पर ?" -मैंने कुरेदा ।
"हाँ, थोड़ा-थोड़ा । उन दिनों हमारे यहाँ संगीत-सभाएँ होतीं थीं । आज भी होतीं हैं, लेकिन चीज़ें बहुत बदल गयी हैं । लड़के-लड़कियाँ डान्स करते थे । 'एक्सटैसी' का चलन था । "
"अच्छा !"
"हाँ, हम सभी 'सुखी' थे । जीवन में उत्तेजनाएँ थीं । 'भारत' था । हमारी संस्कृति का फैलाव हो रहा था । और हम 'युवा' लोग, तंत्र, योग, और पूर्वी संस्कृति के रंगों को अपने जीवन में भर रहे थे । 'मेडिटेशन' और पैरा-साइकोलोजी हमें बहुत आकर्षित करता था । हम इसे विकास समझते थे । "
"क्या लभी ?" -मैंने पूछा ।
"नहीं, मेरे आसपास के लोग , बाकी तो लगभग ज़िंदगी की दौड़ और सपनों में डूबे रहते थे । "
जब वह काफी देर तक कुछ नहीं बोला तो मैंने ही पूछा,
"तो क्या वह विकास नहीं था ?"
"था, लेकिन नहीं था । " एक बार फ़िर वह चुप हो रहा ।
"क्यों ? "
"देखिये हमारी सारी उठापटक उसी दायरे के भीतर थी । -divisive, बुद्धिपरक, intellectual ."
" analytical ? "
"हाँ , फ़िर ओरोबिन्दो थे , 'समन्वय-दर्शन' था, लेकिन वह, ... " उसने पुन: मौन धारण कर लिया था ।
"अच्छा, यह बतलाओ कि जब कहीं कुछ न था, न ज़ेन, न ताओ, न स्पिरिचुअल हीलिंग, तो फ़िर वह क्या था जिसके पीछे तुम पागल थे ?"
"मीनिंग !, मीनिंग इन दि लाइफ, यह बात हमें कौंधती थी । "
"क्या 'सामाजिक, राजनीतिक यथार्थ' तुम्हें आंदोलित नहीं करता था ?"
उसने संदेह की दृष्टि से मुझे देखा । फ़िर बोला,
"नहीं, हम, या कहूँ कि 'मैं' 'यथार्थ' के यथार्थ के बारे में सोचता था । "
उसने मुझे भी मौन कर दिया था ।
"फ़िर ? "
"फ़िर क्या , मैंने महसूस किया कि , 'something is basically wrong with us.' और मैं खोजने-समझने की कोशिश करने लगा । "
"भारत में ? "
"हाँ, भारत में , और भारत से बाहर भी । "
"कहाँ ?"
"साहित्य में नहीं ।" -उसने दो टूक जवाब दिया ।
"फ़िर कहाँ ?"
"अध्यात्म/दर्शन/धर्म/आदि में भी नहीं । विज्ञान/मनोविज्ञान/इतिहास/में भी नहीं । "
"?"
"उन दिनों मैंने जे. कृष्णमूर्ति का नाम ही सुना था, और मुझे लगा कि हमारे साथ मूलतः क्या ग़लत है । "
मैं इंतज़ार करने लगा । थोड़ी देर के मौन के बाद उसने कहा,
" conditioning of the human consciousness . मैं मानता हूँ कि कृष्णमूर्ति ने मेरे जीवन का एक बिल्कुल नया पन्ना खोला । मैं नहीं समझ पाया कि अब तक किसी ने इस बारे में क्यों कुछ नहीं कहा !"
वह फ़िर एक बार मौन हो गया ।
"हम 'कविता' के बारे में बातें करें ?" -उसने प्रस्ताव रखा । शायद वह विषयांतर करना चाह रहा था ।
"काव्य-विमर्श ?" -मैंने पूछा । शायद उसने मेरे चेहरे की मुस्कान पढ़ ली थी । वह भी मुस्कुराने से ख़ुद को रोक नहीं सका ।
"जी । "
"कहाँ से शुरू करें ? "
"मुझे लगता है कि कविता मूलतः अनुभूति और अभिव्यक्ति का जोड़ होती है । अनुभूति किसी जीव में या किसी चेतन में ही घटित होती है । जड़ या निर्जीव वस्तुएँ अनुभूति नहीं कर सकतीं । और उनके द्वारा अभिव्यक्ति किए जाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता । "
मैं सुन रहा था ।
वह मुस्कुराने लगा ।
"आपने मेरी बात मान ली ? " -उसने पूछा ।
"नहीं तो !" -मैंने उत्तर दिया ।
"वही तो, मुझे उम्मीद थी कि आप असहमत होते हुए भी धैर्यपूर्वक सुनेंगे । लेकिन मैंने अभी-अभी जो कहा, वह मेरी उस समय की समझ थी, जब मैंने कुछ लिखना आदि बस शुरू ही किया था ।
"फ़िर ?"
"अब मैं कह सकता हूँ कि जिन्हें मैं 'निर्जीव' अथवा 'जड़' वस्तुएं कहता हूँ, उनकी 'अनुभव-क्षमता' के बारे में मैं कैसे कुछ कह सकता हूँ ? मेरे पास इसका भी कोई प्रमाण नहीं है , कि उनमें अनुभूति क्षमता होती ही नहीं ! "
"क्यों ?"
"क्योंकि हमें यह भी कहाँ पता है कि सजीव और निर्जीव के विभाजन का आधार क्या हो ?"
"हम व्नुभूति की बात कर रहे थे । " मैंने दिशा बदली ।
"हाँ । अनुभूति के लिए एक 'अंतःकरण' का होना आवश्यक है । 'अन्तःकरण' के अभाव में अनुभूति कैसे संभव होगी ? "
"और 'अंतःकरण' तो किसी सजीव वस्तु में ही हो सकता है । "
"हम अंतःकरण' किसे कहेंगे ? "
"अंतःकरण अर्थात् हृदय या मस्तिष्क की वह क्षमता (faculty) , जिससे अपने आस-पास की अन्य वस्तुओं के बारे में कोई कल्पना या प्रतीति / विचार ग्रहण किया जाता है । यह शब्द-गत हो सकता है, या भावगत / अमूर्त्त हो सकता है । यह किसी स्मृति या चित्र /छवि के रूप में भी 'अंतःकरण' में 'स्थिर', जमा / दर्ज हो सकता है । तब इसे अनुभूति कहेंगे । "
" क्या बोध-क्षमता (aware-ness) और अनुभूति-क्षमता एक ही वस्तु है ? "
"ज़ाहिर है कि वे दोनों बहुत अलग-अलग चीज़ें होती हैं । अनुभूति होने के लिए बोध-क्षमता का होना आवश्यक है, बोध-क्षमता न हो तो अनुभूति होने की कोई संभावना नही बनती ।
"और "
"अनुभूति आने-जानेवाली, बदलते-रहनेवाली वस्तु होती है, जो बोध-क्षमता के होने पर बनती-मिटती रहती है । " और "
"दूसरी तरफ़ बोध-क्षमता एक स्वाभाविक वस्तु है, -मेरा मतलब है एक 'स्वतंत्र-सत्ता', जो अपने अस्तित्व के लिए किसी और पर अवलंबित नहीं होती । "
" जीवन पर भी नहीं ? "
"हाँ, लेकिन क्या जीवन और बोध-क्षमता क्या दो अलग-अलग चीज़ें होतीं है ? जहाँ जीवन है, वहाँ बोध-क्षमता अनिवार्य रूप से विद्यमान होगी, और जहाँ बोध-क्षमता है, वहाँ जीवन भी अनिवार्यत: होगा ही ।"
"क्या पेड़-पौधों को इस आधार पर जीवित कह सकते हैं ?"
"इसीलिये मैंने कहा था कि 'सजीव' और 'निर्जीव' के बीच विभाजन करने का कोई आधार हमारे पास है ही कहाँ ?"
"अच्छा, क्या इस बोध-क्षमता को जागृत किया जा सकता है ? "
"नहीं । "
"फ़िर ? "
इसका आविष्कार ज़रूर हो सकता / होता है । "
"मतलब ? "
"यह कोई आने-जानेवाली, प्रकट या विलुप्त होनेवाली चीज़ तो नहीं है ! लेकिन यह 'है' भर । हाँ यदि कोई गंभीर और इसके प्रति उत्कंठित हो, तो इसकी स्वाभाविक पूर्व-अवस्थिति (pre-existence) के प्रति ज़रूर 'जाग' सकता है ।"
" 'कोई' -मतलब ? "
"कोई 'मन', कोई अंतःकरण, कोई चेतना, ... ! "
"और 'विचार' ? "
" 'विचार', -जैसा कि मैंने कहा, अनुभूति है । 'विचार' को भी दो दृष्टियों से समझा जा सकता है । एक तो वह जिसे अभिव्यक्ति या भाषागत शब्द-विन्यास के रूप में प्रयुक्त किया जाता है , वह किसी तात्पर्य को इंगित तो करता है, लेकिन 'बोध-क्षमता' नहीं होता । दूसरी ओर, बोध-क्षमता के प्रकाश में देखे गए 'सत्य' को प्रकट करने के लिए भी एक शब्द-विन्यास इस्तेमाल किया जा सकता है, और यह अलग बात है कि वह सफलतापूर्वक 'सत्य' को संप्रेषित कर पाटा है या नहीं, क्योंकि संप्रेषण की सफलता कई बातों पर निर्भर होती है । इसलिये यह भी स्पष्ट ही है कि ऐसे किसी 'विचार' को सार्थक होने हेतु सबसे ज़रूरी चीज़ होती है, -संप्रेषनीयता । "
"लेकिन संप्रेषनीयता तो अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने और किसी दूसरे मनुष्य की अभिव्यक्ति को यथावत ग्रहण कर सकने के लिए भी उतनी ही ज़रूरी होती है । "
"हाँ, होती तो है, लेकिन इसे मैं एक उदाहरण से समझाना चाहूँगा । क्या आपको कभी मेरी याद आती है ? "
"हाँ, कभी-कभी आती है । "
"कभी-कभी क्यों ? "
"जैसे अन्य लोगों की, घटनाओं की, वस्तुओं , स्थितियों, आदि की याद कभी-कभी आती है, उस तरह से । "
"अच्छा, आप मेरे बारे में सोचते हैं ? "
"हाँ, ज़रूर सोचता हूँ । " -कहकर मैं मुस्कुराने लगा था ।
"ग़लत ! आप मेरे बारे में कभी कुछ नहीं सोचते, और न सोच ही सकते हैं, और सच तो यह भी है की मैं भी आपके बारे में कुछ भी नहीं सोचता । "
मैं मौन था, वह भी मौन हो गया था ।
"आगे कहो ! " -मैंने ही मौन तोड़ा ।
"पहले बतलाइये कि मेरे वक्तव्य से आप सहमत हैं या असहमत ?"
"सहमत हूँ । "
"ठीक है, अर्थात् आप 'मेरे' बारे में नहीं, बल्कि मेरे विषय में जो जानकारी, कल्पनाएँ, आदि आपके पास हैं, और उनके आधार पर आपने मेरी जो प्रतिमा अपने मन में बना रखी है, उस प्रतिमा के बारे में सोचते हैं, -न कि जो मैं वास्तव में हूँ, उस बारे में ! और इसी प्रकार हम सभी एक दूसरे की स्मृतियों, कल्पनाओं आदि से बनी एक-दूसरे की प्रतिमा के बारे में अनुमान लगाते हैं, उन प्रतिमाओं को निरंतर बदलते, संशोधित करते रहते हैं । "
"ठीक है । संप्रेषनीयता के बारे में क्या कहोगे ? " -मैंने प्रश्न किया ।
" तात्पर्य यह हुआ कि किन्हीं भी दो मनुष्यों की अनुभूतियों , विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, आदि से उनके द्वारा निर्मित की जानेवाली जगत्-प्रतिमाएँ परस्पर बिल्कुल भिन्न होती हैं । "
" ठीक है । "
" अतः अनुभूति की अभिव्यक्ति जिस शैली, विन्यास, माध्यम आदि से की जा रही है, और उसे जिस शैली, विन्यास और माध्यम में ग्रहण किया जा रहा है, यदि उनमें समरूपता नहीं है तो संप्रेषनीयता बाधित होगी । "
अब कविता के बारे में बातें करने हेतु आधार-भूमि तैयार हो चुकी थी ।
"कविता, -जैसा कि मैंने शुरू में कहा था, अनुभूति और अभिव्यक्ति का जोड़ होती है । "
" क्या कविता के लिए कोई श्रोता या पाठक हो, यह ज़रूरी होता है ? "
"मुझे लगता है , वैसे तो कविता अपने-आप में ही एक अद्भुत 'सृष्टि' होती है, -जैसे बहुत बड़े सरोवर में खिला अकेला कमल, लेकिन यदि प्रशंसक उस के सौन्दर्य को अनुभव कर सकता है, परख सकता है, तो उस कमल-पुष्प से उसका 'संवाद' स्थापित हो जाता है ।"
"शायद इसे ही तुम संप्रेषनीयता कहोगे ?"
"जी । "
"अब हम कथ्य पर आएं । "
"कविता में कथ्य तो होता ही है, कथा न हो तो भी चलेगा । कथ्य तो अपरिहार्यतः होता ही है । उसके अभाव में तथ्य अनुभूति तक सिमटकर रह जाएगा, वह संवाद तक न पहुँच सकेगा । "
"और कथ्य ? "
"हाँ, कथ्य के ही बारे में कहने जा रहा हूँ । कथ्य ही अभिव्यक्ति की शैली, विन्यास, माध्यम आदि तय करेगा । "
"जैसे ? "
"जैसे अपनी अनुभूति को मैंने मान लीजिये कि एक कविता के रूप में प्रस्तुत किया, तो मेरी अनुभूति की विशेषताओं के अनुसार वह गहन, उथली, स्तरीय, या अधकचरी बन जायेगी । इसलिए जैसा मैंने कहा, कविता तो अपने-आप में एक अद्भुत सृष्टि होती है । और कोई वस्तु कभी 'अकेली' ही अद्भुत कैसे हो सकती है ? उसे अद्भुत समझने-कहनेवाला कोई होगा तभी तो वह अद्भुत होगी ! "
"इसे दूसरे ढंग से समझाओ । "
" एक पेंटिंग का उदाहरण लें । चित्रकार अपने द्वारा तय किए गए प्रतिमानों, आदि से पेंटिंग का विशिष्ट भाव और प्रभाव सुनिश्चित करता है । एक रेखा या बिन्दु का विन्यास, रंग का शेड, माध्यम, जल-तैल, या अन्य कोई, एक्रिलिक या ऑइल, आदि यह तय करता है कि वह पेंटिंग में जो कुछ अभिव्यक्त करना चाह रहा था वह किस हद तक वैसा हो पाया है । यहाँ तक कि कैनवस का आकार भी महत्वपूर्ण होता है । किस समय और किस प्रकाश में उसे देखा जाए, इसका भी फर्क पड़ता है । लेकिन यदि 'सम्प्रेषनीयता' नहीं है, या दर्शक नहीं है, तो वह पेंटिंग चित्रकार की नज़रों में भले ही बहुत अद्भुत हो, 'अद्भुत' प्रमाणित नहीं होती । "
" लेकिन फ़िर भी शायद वह 'स्वान्तः-सुखाय' तो हो ही सकती है । "
"हाँ, कवि या कलाकार अपनी सृष्टि को अपनी कल्पना की सर्वोत्तम प्रस्तुति के रूप में देखकर एक गहन आत्म-संतुष्टि ज़रूर अनुभव करता होगा । "
अभी हमें इस बारे में बहुत सी बातें करनी थीं । मसलन, समयगत और समय से अछूती कविता, कविता और बौद्धिकता, कविता और आदर्शवाद, कविता और यथार्थवाद, कविता और प्रतिबद्धता, ... आदि-आदि । लेकिन मैं यह ज़रूर सोचने लगा था कि जे . कृष्णमूर्ति पर बात करते-करते वह मुझे यहाँ क्यों ले आया था !
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