November 17, 2009

उन दिनों -36.

उन दिनों -36.
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मेरी डायरी से -
सचमुच, क्या मनुष्य को धर्म की ज़रूरत है ? ईश्वर की ज़रूरत है ? मनुष्य कौन ?
मेरे मन में प्रश्न उठा । मेरे सामने कई उदाहरण हैं । अविज्नान, नलिनी, नीलम, रवि, और 'सर' । इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जो वास्तव में धर्म या ईश्वर या अध्यात्म के बारे में कोई चर्चा करता हो । क्या ये सब 'अधार्मिक' या 'नास्तिक' हैं ? क्या वे शास्त्रों और कर्म-काण्ड के विरोध में हैं ? नहीं, उनकी तो वे चर्चा या उल्लेख ही नहीं करते । हाँ, ठीक है, उन्होंने शास्त्रों और धर्म तथा उसकी परंपराओं आदि का काफी अध्ययन किया है, लेकिन वे उसकी बात क्यों नहीं करते ? नलिनी ने अवश्य ही एक नए सिरे से बात शुरू की है । उसने कहा है कि 'ज्ञान' तो काल से अछूता तत्त्व है, लेकिन इन्द्रिय-ज्ञान, अनुभूतिपरक-ज्ञान, 'जानकारी'-परक सारा 'ज्ञान' 'शब्द-गत' होता है, ... और वस्तुत: वह 'अज्ञान-' का ही एक ऐसा रूप है, जिसे हम पहचान ही नहीं पाते । 'कौतूहल' हमें 'जानकारी' के विस्तार में ले जाता है, और भले ही वह अनंत हो, वैसा 'ज्ञान' क्या सीमित ही नहीं होता ? जबकि 'विस्मय' की भूमिका में जिस 'ज्ञान' का उदघाटन होता है, वह असीमित, अज्ञात से अज्ञात में गतिशील चेतन-तत्त्व मात्र है , ... .... ।
हाँ, इसे मैं समझ सकता हूँ, लेकिन क्या धर्म-शास्त्र उसी की चर्चा नहीं करते ? फ़िर .........?!
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'लर्निंग'/'अनलर्निंग'
"क्या है यह, जिसके बारे में नलिनी कह रही है ?"
-नीलम ने पूछा ।
'सर' निर्विकार भाव से उनकी ओर देख रहे थे ।
नलिनी भी उत्सुकता से 'सर' के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी ।
"जब हम कुछ जानते हैं, तो जानने की इस गतिविधि में वस्तुत: क्या होता है ?"
-'सर' ने प्रश्न किया ।
अनंत धीरज हम सबका अभिन्न साथी था । कोई जल्दी नहीं, मन की आधी से अधिक चंचलता और वाचालता तो यह धीरज ही मिटा देता था । यह हमें किसी ने सिखाया हो, ऐसा नहीं था, यह हमारे बीच एक ऐसे मौन साथी के रूप में आकर कब शामिल हो गया था इस ओर कभी हमारा ध्यान तक नहीं गया था । शायद यह 'सर' की उपस्थिति का असर था, लेकिन मेरा संशयग्रस्त मन कहाँ ऐसी बातों पर विश्वास करता ?
"हमारा समस्त 'जानना' तीन में बँटा होता है, जैसे मैं इस शहर के बारे में 'जानता' हूँ, या लोगों के बारे में, साइंस या आर्ट के बारे में, भाषाओं आदि को, 'तकनीक' को, 'जानता' हूँ । यह 'जानना' इस प्रकार का 'ज्ञान' है, जो लगातार कम या अधिक होता रहता है, 'अभ्यास-गत' 'ज्ञान' को भी इसमें शामिल किया जा सकता है । जैसे - जैसे मेरी उम्र बढ़ती जा रही है, मैं कुछ बातें भूलने लगा हूँ । अब इस 'भूलने' में सभी तरह की बातें हैं । भौतिक-जानकारियाँ, लोगों, वस्तुओं, विभिन्न विषयों के प्रति मेरी मान्यताएँ , .... ... तात्पर्य यह कि सारा ज्ञान, जो 'स्मृति' से बँधा होता है, धीरे-धीरे खोता चला जा रहा है । और मुझे इसमें न तो कुछ अस्वाभाविक लगता है, न इससे कोई डर या अफ़सोस होता है । एक वक्त था, जब मुझे अपनी याददाश्त पर गर्व महसूस होता था । लेकिन फ़िर ऐसा भी एक दौर आया कि मैं अपनी याददाश्त को मिटा डालने के बारे में सोचने लगा था । उस दौरान मैं सचमुच बहुत पीड़ा और क्लेश से गुज़र रहा था । और फ़िर सचमुच मेरी याददाश्त चली गयी थी । कई दिनों तक मैं ऐसी मानसिक स्थिति में पड़ा रहा कि कह नहीं सकता । बहुत दिनों बाद मेरी याददाश्त लौट आई थी । उस बीच मैं सबकी नज़रों में 'पागल' कहलाता, लेकिन रौशनी की एक किरण के सूत्र ने मुझे इस तरह बाँधकर बचा लिया कि मैं धीर-धीरे लौट आया । हाँ, लेकिन मेरी याददाश्त का बहुत सा हिस्सा हमेशा के लिए मिट गया । "
-'सर' कह रहे थे ।
"आज सोचता हूँ, कि बहुत खुशकिस्मत था मैं, क्योंकि जीवन में सिर्फ़ 'लर्निंग' ही नहीं, 'अनलर्निंग' भी बहुत ज़रूरी है । हम सोचते हैं कि 'ज्ञान' को इकट्ठा करते चले जाना ही सर्वोपरि महत्त्व की चीज़ है, लेकिन जिन दिनों मैं अपनी याददाश्त खोने/मिटने के उस दौर से गुज़र रहा था, एक दूसरी भी महत्त्वपूर्ण बात जो घट रही थी, वह यह थी कि अनावश्यक चीज़ें खोतीं जा रहीं थीं । उदाहरण के लिए, यदि कभी रास्ते में चलते-चलते, स्कूल से आती अपनी बिटिया पर मेरी नज़र जाती, तो मुझे पहले पल यही लगता कि इस लड़की को कहीं देखा है मैंने, शायद जानता हूँ इसे मैं ! जब तक वह बहुत समीप नहीं आ जाती, तब तक यही अनुमान मेरे मन में मँडराता रहता । फ़िर अचानक याद आता, -अरे ! यह तो अपनी अपर्णा है !"
-वे कुछ खो से गए कहीं ।
"लेकिन मुझे हैरत यह देखकर होती थी कि मस्तिष्क के दूसरे कामों में मुझसे कभी कोई गलती नहीं होती थी, या उतनी ही गलतियाँ होतीं थीं, जो पहले भी सामान्य रूप से हुआ करती थीं । लोग मुझसे डरते थे । मेरी गंभीरता के आवरण के नीचे छिपी मेरी असहायता पर शायद ही किसी की नजर जाती होगी । और ऐसा अक्सर होता था, मैं न सिर्फ़ लोगों को भूलने लगा था, बल्कि कभी-कभी मैं जिस काम को करने के लिए निकलता, उसे ही भूल जाया करता था । मैं तमाम 'ज्ञान' को भूलने लगा था । "ईश्वर ?" -पहले यदि कोई कहता तो मैं घंटों उसके अस्तित्त्व के पक्ष और विपक्ष में ढेर सारी दलीलें दे सकता था, लेकिन इस स्थिति में आने के बाद तो मुझे पहला ख्याल यही आता था कि इस 'शब्द' को पहले भी शायद सुना है । वहाँ मैं सचमुच असहाय था । मेरा सारा 'ज्ञान' हवा हो चुका था । लेकिन, जैसा मैंने कहा, मैं खुशकिस्मत था कि कभी मेरी इस असहायता की पोल नहीं खुली । भीतर एक सुनसान था, बीहड़ था, जहाँ कोई पहचान बाकी नहीं रहती थी, शायद एक 'ब्लैक-होल' था, जहाँ जो दूसरी 'पहचानें' भूले-भटके कभी पहुँच भी जाती थीं, तो विलुप्त हो जाती थीं । "
उनके चेहरे पर एक स्थिरता , शान्ति थी ।
"फ़िर पता चला कि सचमुच यह 'अनलर्निंग' ही तो था, जो अनायास मुझ पर कृपालु हो उठा था । हाँ कुछ चीज़ें अवश्य ही ऐसी गिनाईं जा सकतीं हैं, जिनके बाद यह सब होने लगा था । लेकिन वे पूर्व-स्थितियाँ इस सब का 'कारण' रही होंगी, ऐसा मुझे नहीं लगता । "
-वे चुप हो गए ।
मैंने मन ही मन नलिनी को धन्यवाद दिया कि उसके बहाने 'सर' ने आज कुछ और रहस्य हमारे सामने खोले ।
एक अद्भुत यात्रा चल रही थी, जिसमें हम सब सहभागी थी, हमसफ़र थे, लेकिन हर कोई अपनी अलग ही एक यात्रा पर था। हाँ हम संवाद कर रहे थे, और हममें यही एक चीज़ थी जहाँ हमें लगता था कि जीवन कितना विस्मयप्रद है, -उस अनुभूति में भी हम सहभागी थे, साथ-साथ, पर अलग-अलग भी।
"Jointly, and severally !"
-मैंने डायरी में 'नोट' किया ।
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November 15, 2009

उन दिनों -35.

उन दिनों -35.
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मेरी डायरी से :
नलिनी और 'सर' के बीच की बातचीत सुनते समय प्रकाश की जो कौंध मेरे मन-मस्तिष्क में स्फुरित हो उठी थी, उस कौंध में यद्यपि 'समय' नहीं था, लेकिन भूलवश हम उसे 'क्षण'-मात्र कह बैठते हैं। यही अज्ञान- का प्रारंभ है । उस प्रकाश में चूँकि 'समय' नहीं होता, इसलिए उसे हम शाश्वत, या काल से अविच्छिन्न अस्तित्त्व कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा । और काल है, 'विचार' की गतिविधि । गतिविधि है 'समय' के अन्तर्गत । लेकिन जहाँ काल ठिठक गया है, वहाँ 'विचार' कैसा ? और 'स्मृति' कैसी ? कितनी हैरानी होती है यह सोचकर कि 'उस' काल से परे की स्थिति , और इस 'सोच' करनेवाले 'मन' के बीच कोई पुल नहीं है । वे दोनों एक दूसरे से नितांत अपरिचित हैं , जब एक होता है तो दूसरा नहीं होता । क्या इसका यही अर्थ नहीं हुआ कि वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ? प्रकाश सचमुच मुझे अपने में समा रहा था । नलिनी की कविता का एक-एक शब्द अर्थ की तरह मेरे भीतर गूँज रहा था । 'वृक्ष,पत्ता, चाँद, सूरज, धरती, आकाश, सब मैं ही तो हूँ । मैं कहाँ टूटता हूँ ? क्या सौन्दर्य, रूप, कभी टूटते हैं ? जो अपने-आप से टूटा है, वह कब किसी से जुड़ सका है ? '
यह अपने-आपसे टूटना कब होता है ?
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आज शुक्लाजी भी आए थे । चर्चा की शुरुआत करते हुए बोले,
"हम नलिनी की बातों के क्रम में ही आगे चर्चा करना चाहते हैं । नलिनी के प्रिय विषय हैं, 'विस्मय' और 'कौतूहल',
उसका कहना है कि उन पलों में जब हमें विस्मय और कौतूहल का फर्क पता नहीं होता, यदि हम कौतूहल की दिशा में आगे बढ़ जाते हैं, तो तमाम जानकारियाँ हासिल करने लग जाते हैं, तब हमारा 'ज्ञान' का घड़ा भरना शुरू ही होता है । हालाँकि उसमें भी बहुत रोमाँच और रस है, इससे इनकार नहीं, लेकिन तब हम उस दिशा में चले जाते हैं, जो कि विस्मय के विपरीत होती है ।"
"हाँ, रोचक है यह तथ्य !"
-'सर' बोले ।
और मुझे लग रहा था कि यह मेरी अपनी डायरी में लिखे शब्दों की ही अनुगूँज तो है, क्या उसी बिन्दु पर कोई अपने-आपसे 'टूटता' है ? क्या नलिनी का संकेत उसी ओर था ?
"क्या हमें पुन: उस बिन्दु तक लौटना ज़रूरी नहीं है, जहाँ से हम राह भटक गए थे ?"
-शुक्लाजी ने पूछा ।
"हाँ, ... ... क्यों कौस्तुभ ?"
'सर' ने अकस्मात् ही मुझे पकड़ लिया था । यही तो मेरी समस्या की जड़ था, जिसकी ओर मेरा ध्यान 'सर' ने पहले भी कई बार खींचा था । यदि मैं 'गुरु' कई भाषा में सोचता तो ज़रूर इस पर रहस्य का रंग चढाकर अपने-आपको और 'सर' को भी गौरवान्वित करने में लग जाता । लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं था । वे बैठे हुए थे मेरे पास ही, सोफे पर, और मैं उसी सोफे के दूसरे सिरे पर था । उस छोटे से सोफे पर हमारे बीच इतनी दूरी भी तो नहीं थी कि कोई तीसरा वहाँ बैठ सके ।
"हाँ, शायद !"
-मैंने कुछ हिचकते हुए जवाब दिया ।
"लेकिन कैसे ?"
-शुक्लाजी ने बहुत देर बाद पूछा था ।
'सर' इस बीच खिड़की से बाहर देखते रहे थे । मैं भी देख रहा था, डी आर पी लाइन के अंग्रेजों के बाद बने उस बँगले में अभी रौशनी नहीं थी । शाम का आलोक बाहर फ़ैल रहा था । एक अकेला सा बादल सूरज के प्रकाश में चमक रहा था । धीरे-धीरे आकार बदलता हुआ । पहले वह ऊँचाई में किसी पहाड़ी के सामने खड़े ताड़ के एक ऊँचे वृक्ष जैसा दिखाई दे रहा था, जिसकी ऊँचाई घटती , और चौड़ाई बढ़ती चली जा रही थी, और अब वह पहाड़ी से एकाकार हो चला था । पहाड़ी, जो सोने के बड़े ढेर सी चमक रही थी, धीरे-धीरे चपटी होने लगी थी, और अब तो वह समुद्र में उठती ऊँची लहर बन गयी थी । पहाड़ी के स्थान पर सागर लहरा रहा था, पिघले स्वर्ण जैसी जल-राशि के रूप में ।

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November 14, 2009

शिव-मानस-पूजा-स्तोत्रं





शिवमानस पूजा स्तोत्रं


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रत्नै: कल्पितमासनं हिम-जलै: स्नानं च दिव्याम्बरं
नाना-रत्न-विभूषितं मृगमदामोदांकितं चन्दनं ।
जाती-चम्पक-बिल्व-पत्र-रचितं पुष्पं च धूपं तथा,

दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत-कल्पितं गृह्यताम् ..१..
सौवर्णे नव-रत्न-खंड-रचिते पात्रे घृतं पायसं,

भक्ष्यं पञ्च-विधं पयो-दधि-युतं रम्भाफलं पानकं ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूर- खंडोज्ज्वलं ,
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु !..२..
छत्रं चामरयो:युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं ,
वीणा-भेरि-मृदंग-काहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।
साष्ट-अंगं प्रणति: स्तुति: बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया,
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ! ..३..
आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं ,
पूजा ते विषयोपभोग-रचना निद्रा समाधि-स्थिति: ।
संचार: पदयो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्रानि सर्वागिरो ,
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनं ..४..
कर-चरण-कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा,
श्रवण-नयनजं वा मानसं वापराधं ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्-क्षमस्व ,
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ! ..५..

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II इति श्रीमत् शंकराचार्य-विरचिता शिव-मानस-पूजा समाप्ता II

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November 10, 2009

उन दिनों -34.

उन दिनों -34.

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मेरी डायरी से -

अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:... ... ...

और बाबा की याद आते ही गीता का यह श्लोक भी अचानक याद आया ।
"अच्छा, तो 'सर' और नलिनी 'इसी' 'ज्ञान' की बातें कर रहे थे,"
-मैं सोच रहा हूँ ।
और फ़िर जे कृष्णमूर्ति की बहुत प्रसिद्ध पुस्तक "ज्ञात से मुक्ति" के बारे में ख़याल आता है ।
यथार्थ-ज्ञान क्या है, इस विषय में नलिनी की बातें सुनकर कल जो प्रकाश मन-मस्तिष्क में कौंधा था, वह अब स्पष्ट हो रहा है ।
'ज्ञान' को 'पाने' की बात ही व्यर्थ है ।
'ज्ञान' तो पहले ही से है, उस पर अज्ञान-आवरण चढ़ जाता है , अत: 'अज्ञान'-निवारण होना आवश्यक है, ज्ञान का आविष्कार ही होता है,... ... ... !
एक और सन्दर्भ याद आता है, ईशावास्य उपनिषद से, :
"... ... ततो भूय इव ते तमो विद्यायां रता: ॥ "

***
सचमुच क्या 'ज्ञान' को पाने की दौड़ में हम यथार्थ-ज्ञान से दूर ही नहीं हो रहे हैं ? 'ज्ञान' हमें सुरक्षा देता है, -या सुरक्षा का आश्वासन, आशा । -लेकिन किससे ? 'किसे' ?

***
नलिनी ने जे कृष्णमूर्ति को भी पढ़ा था, श्री रमण महर्षि को भी, पातंजलि के योग-शास्त्र को भी, और श्री निसर्गदत्त महाराज को भी । लेकिन वह बिल्कुल 'एबीसी' से प्रारंभ करना चाहती थी । कोरी स्लेट लेकर आई थी । कविताएँ लिखती थी, और नीलम उसकी 'फैन' थी । शुक्लाजी तो उसके मुरीद थे । रवि चाहता था कि उसके अखबार में नलिनी की कुछ कविताएँ छपें, लेकिन वे कविताएँ नलिनी की 'व्यक्तिगत' वस्तुएँ थीं । -ऐसा नलिनी का कहना था ।
थीं तो वे 'प्रेम-कविताएँ' ही, लेकिन नलिनी का कहना था कि वे सिर्फ़ 'कविताएँ' हैं । 'काव्य' का उसका अपना कोई पैमाना था । और हो भी क्यों न ? क्या कोरी स्लेट पर लिखी कविताएँ अद्भुत नहीं होती होंगीं ? जैसा कि वह कहती भी थी, ये कविताएँ विस्मय से ही उपजी हैं, इनका भावुकता से कोई रिश्ता नहीं है, ये किसी को सुनाने के लिए हैं भी नहीं , जैसे जंगल में किसी पत्थर पर पास के वृक्ष से झरते फूल, आकाश से गिरती ओस की बूंदों से किया जानेवाला अभिषेक, और पक्षियों की चहचहाहट में गाया जानेवाला कोई मन्त्र, या स्तोत्र होता है । इसे हम समझ भी तो नहीं सकते ! मुझे पहले लगता था कि वे 'रहस्यवादी' होंगी, और कोई विद्वान् उनका तात्पर्य समझा सकेगा, लेकिन फ़िर समझ में आया कि वे वास्तव में उसकी निजी चीज़ें थीं ।
आज जब 'सर' ने उससे इस बारे में पूछा, तो उसने बताया ।
"एक सुना रही हूँ,"
-वह बोली ।
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'विस्मय' मेरा 'गुरु' था,
उसने मुझे 'मौन-दीक्षा' दी ।
उसने ही सिखाया कि मैं कुछ नहीं जानती ।
और यह कुछ न जानना ही,
'जानने' को 'जानना' है ,
-'जानने' का 'जानना' है,
-'जानना' ही अपने-आपको जानता है,
-लेकिन नि:शब्द ही !
'जानना' ही 'जानने' को 'जानता' है,
-लेकिन उसकी कोई 'स्मृति' नहीं बनती ।
तब 'मन' खंडित नहीं होता ।
-लेकिन 'अब' वह खंडित है ।
अपने-आप से टूटकर,
कब कोई जुड़ सका है,
-किसी से ?
जब देखती हूँ ,
पेड़ से गिरा कोई पत्ता,
अपना वज़ूद याद आता है ।
मैं टूटकर भी कहाँ टूटी ?
पूरा पेड़ है, मेरे जैसा,
पत्ता टूटने से पेड़ कहाँ टूटा ?
और पत्ता भी कहाँ टूटा ?
मेरा वज़ूद तो है अब भी साबुत ।
देखते नहीं तुम,
रात के अंधेरे में, ज्योत्स्ना की गोद में खिलता हुआ मुझको ?
सुबह के सूरज को,
मुझ पर धूप लुटाते ?
और धरती को उस पत्ते को ,
अपने आँचल में समेटते ?
-जो अभी-अभी पेड़ से झर कर गिरा है,
पीला, पूरा,
-अक्षुण्ण,
सौन्दर्य में, ताजगी में, रंग में ?
क्या वे सब कहीं टूटते हैं !
यदि तुम सोचते हो कि मैं पत्ता हूँ,
तो मैं ज़रूर एक पत्ता ही तो हूँ,
पर वृक्ष भी तो हूँ मैं,
-हवाएँ और रौशनी भी तो हूँ मैं, सूरज, धरती, चन्दा, और आकाश भी तो हूँ मैं !
-मैं नहीं टूटती !
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'सर' विस्मय से उसकी कविता को सुनते रहे । और हम भी । सचमुच इसमें समझने-समझाने के लिए न तो कुछ था, न ज़रूरत ही थी ।
"इसे शीर्षक नहीं दिया ?"
-रवि ने पूछ ही तो लिया ।
उत्तर में बस उसने हौले से सर हिलाकर 'नहीं' का संकेत दिया ।
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November 09, 2009

उन दिनों - 33.

उन दिनों -33.

आश्चर्य-वत् पश्यति कश्चिदेनं ...


मेरी डायरी से :
सचमुच, 'सर', अविज्नान, नलिनी, नीलम और रवि से भी अभिभूत हूँ । 'सर' कहते हैं कि कार्य-कारण-नियम तो अपने को समझाने का एक तरीका है, लेकिन अगर ऐसा ही है तो सब कुछ संयोग ही है क्या ? क्या किसी भी 'घटना' की व्याख्या संभव नहीं है ? हम अपने 'ज्ञात' कारणों के आधार पर किसी 'घटना' या अभिक्रम (phenomenon) को समझने-समझाने की कोशिश करते हैं, और 'ज्ञात' से ही कुछ सूत्र खोजकर, उन्हें आपस में जोड़कर 'घटना' का कोई मानसिक चित्र बना लेते हैं । वह चित्र 'घटना' का यथार्थ प्रतिबिम्ब तक नहीं होता, लेकिन हम ऐसी ही असंख्य 'घटनाओं' की समग्रता में 'अपना' एक 'व्यक्तित्व' गढ़ लेते हैं, जो 'स्मृति' रूपी संग्रह में सत्य जान पङता है , जबकि स्मृति स्वयं ही एक संग्रह-मात्र होती है।
'जानने' को 'ज्ञान' मान बैठना कितनी असाधारण भूल है, गफलत ही तो है न ! फ़िर 'जानने' का यथार्थ तत्व, क्या है ? नीलम के उदाहरण से एक रौशनी सी कौंधी थी मन-मस्तिष्क में ।
आज की चर्चा सुनते-सुनते वे दिन याद हो आए जब बाबा गीता पढ़ते हुए ,
"आश्चर्य-वत्-पश्यति-कश्चिदेनं..."
इस श्लोक को कहते हुए उत्साहपूर्वक मुझे इसका अर्थ समझाने लगते थे ।
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"मैं यह सोच रही थी कि ज्ञान की तीन भूमिकाएँ होती हैं । "
नलिनी ने चर्चा की शुरुआत की ।
"प्रथम तो वह, जो किसी भी 'जीव' में जन्मजात ही 'होता' है । क्या 'देह' को रचने के लिए आवश्यक 'ज्ञान' देह के ही मूल-कणों ( cells) , जैव-कोशों में ही नहीं छिपा होता ? क्या 'सेल्स' या जैव-कोशों का अपना ही एक 'कोडेड' 'प्रोग्राम' पहले से ही उनमें नहीं छिपा होता ? क्या वह 'ज्ञान' ही नहीं है ?
अभी मैं उस बारे में विस्तार से नहीं कहना चाहती , अभी तो मैं उन दो भूमिकाओं के बारे में चर्चा करना चाहती हूँ, जिसे सामान्यत: हम 'ज्ञान' का नाम देते हैं ।
एक तो होता है 'विस्मय' से जुड़ा ज्ञान । जैसा कि हर बच्चे में जन्मजात होता है । उसे 'मैं' और 'पर' का भी आभास तक नहीं होता, जब वह इन्द्रिय-संवेदनाओं से परिचित ही हो रहा होता है । वह नहीं जानता कि उसकी इन्द्रिय-संवेदनाएँ देह के भीतर तक ही सीमित हैं । जब उसे चोट लगतीहै, तो ही उसे 'मैं' और 'पर' की भिन्नता का अहसास होने लगता है , उससे पहले उसकी 'चेतना' इन्द्रिय-ज्ञान की सीमितताओं से अपरिबद्ध और अपरिचित होती है । क्या तब वह 'ज्ञान-शून्य' होता है ? यदि शब्दों और उनकी स्मृति को ही ज्ञान कहें तो वह उस दृष्टि से अवश्य ही ज्ञानशून्य होता है, और हम उसे 'अबोध' भी कहते हैं , लेकिन वह अबोध होना भी कितना अद्भुत और पावन है !
क्या हम इसी लिए कृष्ण और राम के बाल-रूप से अभिभूत नहीं होते ? क्योंकि तब थोड़ी देर के लिए ही सही, हम तथाकथित ज्ञान के कलुष से ऊपर उठ जाते हैं न !
ज़ाहिर है कि वह भी वास्तविक 'ज्ञान' की ही, -सहज 'ज्ञान' की ही एक अवस्था है ।
फ़िर इन्द्रिय-संवेदनाओं से परिचित होने के बाद, 'मैं' के रूप में 'अपने' एक 'देह-विशेष' होने के 'ज्ञान' के संचित और दृढ़ होने के बाद 'मेरी स्मृति' का जन्म और विस्तार होता है । उसका विकास भी होता है कि नहीं, इस पर मुझे थोड़ा शक है ।
उस अवस्था में बाल-मन 'ज्ञान'की जिस भूमिका में होता है, वहाँ विस्मय का तत्त्व प्रधान होता है । 'स्मृति' का उपद्रव शुरू होने के बाद विस्मय 'कौतूहल' में बदल जाता है । तब मन 'जानकारी' एकत्र करने में उत्सुक हो जाता है । हालाँकि उस ज्ञान की उपयोगिता पर संदेह नहीं किया जा सकता, लेकिन विस्मय की भूमिका में हम जिस ज्ञान में 'स्थित' होते हैं, उस ज्ञान की तुलना में 'स्मृति' से जुडा ज्ञान अवश्य ही 'अज्ञान' ही अधिक होता है । तमाम लौकिक ज्ञान वही है । कौतूहल में मनुष्य 'मैं' और 'मेरा संसार' इन दो सन्दर्भों में 'जानकारी' एकत्र करता रहता है, जबकि 'विस्मय' में उसे न तो संसार का और न स्वयं काही बोध रह जाता है । वह 'प्रकृति' है। ऐसा हम अभी कह रहे हैं । लेकिन क्या वहाँ 'भान' समाप्त हो जाता है ? स्पष्ट है कि वहाँ 'ज्ञान' का ऐसा प्रकार अवश्य है,जिसमें 'मैं' और 'पर' का द्वैत, उनकी भिन्नता का विचार नहीं होता, कल्पना तक नहीं होती ।
फ़िर जीवन में हम लगभग प्रतिदिन ही बार-बार ऐसे क्षणों से रूबरू होते रहते हैं, जिसे 'विस्मय' कहा जाता है, लेकिन विस्मय के कौतूहल में बदलते-बदलते हम उलझते चले जाते हैं ।"
नलिनी ने अपनी बात समाप्त की ।
"अच्छा, 'विस्मय' और 'कौतूहल' के अन्तर के बावजूद, 'जानने' का तत्त्व क्या यथावत ही अक्षुण्ण ही नहीं है ?
क्या वह तत्त्व 'किसी' का होता है ?"
-'सर' ने प्रश्न किया ।
"याने आप इस 'हम' के अस्तित्त्व पर कुछ कहना चाहते हैं ?"
-नलिनी ने पूछा ।
"अवश्य, "
-'सर' बोले ।
"क्या है यह 'हम' ?"
"यह कौतूहल है या विस्मय ?"
-रवि ने मुस्कुराते हुए पूछ ही तो लिया ।
"हाँ, इसे भी इस कसौटी पर कस कर देखो ।
-'सर' ने अविचलित भाव से उसका उत्तर दिया ।
"यह जो 'जाननेवाला' है, उसके यथार्थ तत्व के प्रति हमारा ध्यान जब जाता है, तो वह कौतूहल भी हो सकता ही, और विस्मय भी । यदि वह कौतूहल-मात्र है, तो हम शास्त्रों को पढ़कर भी उस कौतूहल का समाधान शायद पा सकते हैं , -या फ़िर सारे जीवन भर तमाम शास्त्रों को खंगालते रहकर भी भटकते रह सकते हैं, -अनिश्चित, असमंजस और अविश्वासयुक्त । और अगर यह वाकई विस्मय है, तो हम चित्त की उस भाव-भूमि पर ठहर सकते हैं , जिसकी बात नलिनी कह रही है । क्यों नलिनी ?"
-'सर' ने नलिनी से पूछा ।
नलिनी गदगद हो उठी । उसने प्रत्युत्तर में एक नज़र 'सर' को देखा और तत्काल ही आँखें बंद कर लीं ।
"क्या यह भावुकता थी ?"
-मैं सोच रहा था ।

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अज्ञानेनावृतं ज्ञानं ..., जे कृष्णमूर्ति (ज्ञात से मुक्ति)>>>>>>>>>>>>
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November 05, 2009

शाम सजीली (बाल-कविता/गीत) poetry.

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___________शाम सजीली __________________
-------------(बाल-गीत/कविता)--------------------
शाम सजीली,
घिर आई है,
सूरज डूबा,
हुआ अँधेरा,
चिड़ियों को याद,
आया बसेरा,
जा बैठी हैं,
-वे पेड़ों पर,
सुन लो उनकी,
चह-चह,
चह-चह,
चह-चह, चह-चह, चह-चह,
-चह-चह,
चह-चह,
ऊगे तारे,
कितने सारे,
नभ पर छाये,
-झिल-मिल,झिल-मिल,झिल-मिल,झिल-मिल,
झिल-मिल,झिल-मिल ।
आओ लौटें,
अब अपने घर,
दीप जलायें,
टिम-टिम,टिम-टिम,टिम-टिम,टिम-टिम,
टिम-टिम,टिम-टिम,टिम-टिम,
हुआ उजाला
फैला घर में,
आओ भगाएँ अँधियारे को,
हम सब,
हिल-मिल ।
हिल-मिल,
हिल-मिल,हिल-मिल,... ... ...
नन्हा दीपक जैसे जलता,
दूर भगाता,
-अँधियारे को,
-तिल-तिल.तिल-तिल,तिल-तिल,तिल-तिल,
तिल-तिल... ... ...
बाहर देखो,
तारे खिलते,
चन्दा खिलता,
खिली चाँदनी,
-खिल-खिल,खिल-खिल,खिल-खिल,खिल-खिल,
खिल-खिल,खिल-खिल ।

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भोर सुहानी (बाल-कविता/गीत)

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___________भोर सुहानी !!___________

_________( बाल - कविता / गीत) _____
भोर सुहानी !!
सू-ऊ-र-ज ऊगा !!
हुआ सवेरा,
चिड़ियों ने ,
छोड़ा बसेरा,
छेड़ा तराना,
चह-चह,चह-चह,चह-चह,चह-चह,
चह-चह,चह-चह,
-चह,चह-चह,
भोर सुहानी,
नई कहानी,
कहें-सुनाएँ,
नाचें गाएँ,
हिल-मिल,हिल-मिल,हिल-मिल-हिल-मिल,
-हिल-मिल,मिल-मिल,
खेलें-कूदें,
धूम मचाएँ,
-खिल-खिल, खिल-खिल,खिल-खिल,खिल-खिल,
किल-किल, किल-किल, किल-किल-किल-किल.
भोर सुहानी !!

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