October 01, 2009

मूढ़-मति !

मूढ़-मति !

तब और अब में,
कितना-कुछ बदला है !
तब, न भविष्य था,
-और न 'तब' किसी 'भविष्य' का कोई ख़याल तक था ।
बस, वर्त्तमान -ही वर्त्तमान था ।
समय ?
-समय भी कहाँ अस्तित्त्व में था ?
लेकिन गुज़र गया, फ़िर भी ।
न जाने कैसे !
-कब हवा हो गया ,
-जो नहीं था,
वह !
... ... ... बाल: तावत् क्रीडासक्त: !

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और अब ?
अब समय ही समय है,
मेरे पास !
-सोचने के लिए !
अब भी भविष्य कहीं नहीं है,
लेकिन उसका ख़याल ज़रूर है !
-ख्याल क्या ?
मेरे सामने मुँह फाड़े खड़ा एक बाघ ,
जिसे मैं मुँह बाये देख रहा हूँ ।
और ,
समय वह अंतराल है,
-जब वह बाघ मुझे फाड़ खायेगा ।
शायद एक लंबे पल में ।
ख़याल क्या,
-छाती पर पड़ा एक बोझ,
एक दु:स्वप्न ।
अंतहीन, .... , अनवरत ।
... ... ... वृद्ध: तावत् चिंतामग्न: ।

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हाँ,
बीच में वह भी वक्त था,
जब समय कैसे गुजर गया,
ठीक से कभी समझ ही नहीं सका ।
(- जो होता ही नहीं , वह गुजरने का सवाल ही कहाँ है ?
-पूछता हूँ मैं,
अपने-आप से ! )
प्यार, शादी, बच्चे,
और नौकरी !
हाँ मानता हूँ मैं,
कि तलाक़ का सुख मेरे नसीब में नहीं था !
( क्षमा करें, एक मसखरा विचार बीच में दखलंदाजी कर गया ।)
संबंध, व्यस्तताएँ, और 'कर्त्तव्य' !
डर, आशंकाएँ, और आकांक्षाएं !
-तरुण: तावत् तरुणी-रक्त: ... ... ... !

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लेकिन अब 'भजन' भी कहाँ हो पाता है ?
फ़िर भी हर रोज गीतापाठ करता हूँ,
-नियम से !
और रोज ही पढ़ता हूँ,
-द्वादश पंजरिका स्तोत्र !
-"भज गोविन्दम मूढ़-मते !"
सोचता हूँ,
शायद कहीं,
शायद कभी,
कुछ नया हो जाए !
या,
मरने से पहले,
कहीं कोई अघटित न हो जाए,
इस डर से ग्रस्त रहता हूँ,
-मैं  !
-आशावायु साथ जो नहीं छोड़ती !
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लेकिन,
"परमे ब्रह्मणि को 'पि न लग्न: "
पढ़ता हूँ मैं,
प्रतिदिन ।
शायद, शायद, शायद,
शायद !!!!!!!!!!!!!!!!

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3 comments:

  1. हर रचना सुन्दर और सशक्त है स्वागत है और बहुत बहुत बधाई

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  2. बहुत ही सार्थक रचना । आभार

    कृप्या वर्ड वेरीफिकेशन हटा दे, टिप्पणी करने में सुविधा होती है ।





    गुलमोहर का फूल

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