July 16, 2009

उन दिनों / 25.

उन दिनों / 25।
(तदा दृष्टुः स्वरूपे अवस्थानं !)
नाश्ता ख़त्म हुए घंटा भर बीत चुका था ।

रवि ने अपना व्याख्यान समाप्त किया, और चाय बनाने के लिए किचन की ओर रवाना हुआ । अब वह चाय बनाएगा । अविज्नान ने टेबल साफ़ की, 'सर' कुर्सी पर बैठे अपने बांये हाथ को गर्दन के पीछे सिर के नीचे मोड़कर कहीं दूर दृष्टि गडाए हुए थे । सफ़ेद कुर्त्ता, सफ़ेद पाजामा, पैरों में हवाई चप्पलें । कुर्त्ता आधी बाहों का, अक्टूबर में यहाँ अभी ठण्ड शुरू नहीं हुई थी । 'सर' हमेशा चिंतन में डूबे दिखलाई देते थे । लगभग सभही यही सोचते थे उनके बारे में । किसका चिंतन ? चिंतन या चिंता ? सोचा उनसे ही पूछूँगा किसी दिन । पर यह मेरा ख़याल नहीं था, अविज्नान का ख़याल भी नहीं था, और रवि ? - रवि शायद ऐसा सोच सकता था, पर इस सोच पर उसे शायद ही भरोसा होता । हाँ, याद आया, मेरे पडौसी ने ही एक दिन चलते-चलते यूँ ही रिमार्क दिया था । उस बारे में फ़िर कभी ।

अभी तो राजा रवि वर्मा चाय लेकर हाज़िर हो चुके थे । ट्रे टेबल पर रख दी गयी थी । हम चारों ने क्रम से अपने-अपने मग्ज़ उठा लिए थे । एक केतली में चाय और भी रखी थी । शक्कर और चम्मच भी रखे हुए थे ।

हम लोग चुपचाप चाय पी रहे थे । मैं आज का अखबार देख रहा था । संयोगवश उसमें भी वही धर्म और धर्मनिरपेक्षता, सम्प्रदायवाद और आतंकवाद की खबरें ही छाई हुईं थीं । गांधी और जिन्ना पर लेख थे । अयोध्या का ज़िक्र था ।

दरवाजे पर आहट हुई । शायद डाकिया होगा, कुछ सेकंड्स इंतज़ार किया, की शायद वहम न हो । फ़िर खट खटाहट हुई । उठकर बाहर आया, रवि के चार मित्र थे । वे बिना पूछे ही भीतर चले आए, नमस्कार किया, 'सर' के तथा मेरे भी चरण-स्पर्श किए । वे विशेष रूप से 'सर' के दर्शन करना चाहते थे । चारों ने बारी-बारी से अपना परिचय दिया ।

आज 'सर' के साथ साथ मेरा भी सम्मान हुआ था । साफ़ कहूं, बचपन ही से मुझे किसी के पैर छूना कभी अच्छा नहीं लगा । और मेरे पैर कोई छुए, यह तो मैं सपने में भी नहीं चाह सकता था । मैं याने कौस्तुभ वाजपेयी ।

'सर' सिर्फ़ मुस्कुराते हुए स्नेह से उन्हें देख रहे थे, जबकि मैं अचकचा सा गया था ।

और अविज्नान ? वह निर्लिप्त सा खिड़की से बाहर कहीं देख रहा था, ऐसा मुझे लगा । डी आर पी लाइन के अंग्रेजों के बाद के जमाने के बंगले की खिड़कियों में अब भी एक दो बल्ब जल रहे थे । उसकी दृष्टि वहाँ पर रही होगी । वह उदासीन या निर्लिप्त नहीं था, 'खोया' हुआ भी नहीं था, -बस 'कहीं-और' था । -रवि की भाषा में । उस पूरे समूह में वह अदृश्य था । और हम सब भी उसके लिए कहीं नहीं थे । किसी को कोई ताज्जुब नहीं हुआ था । हम तीनों को इसकी आदत थी , और आगंतुक, उन चारों को इस बारे में शायद ही कुछ पता रहा होगा । फ़िर उसकी निगाहें हम पर पडी । वहाँ एक रिक्तता थी । वह किसी से 'कनेक्ट' नहीं हो पा रहा था । वस्तुत: तो वह वहाँ पर था ही नहीं । क्यों ? सारे अतिथि भी उससे आँखे मिलते ही सहम से गए थे । वह एक ऐसा अतल शून्य था, जो आसपास की हर वस्तु को लील लेता है, एक ब्लैक-होल । लेकिन उसने तत्क्षण ही अपनी नज़रें दूसरी ओर घुमा लीं, और वातावरण की सहजता मानों लौट आई । उन चारों ने क्या महसूस किया होगा, यह तो कभी पता नहीं चला, पर यह आघात उनके लिए अवश्य ही अनपेक्षित और आकस्मिक रहा होगा । उन्हें ऐसे आघात की संभावना शायद 'सर' से होती तो आश्चर्य की बात न थी, लेकिन अविज्नान से होने का विचार तो उन्होंने सपने भी नहीं किया होगा ।

उस एक ठहरे हुए पल में जो शान्ति पूरे कमरे को भेद गयी थी, उसे तोड़ने का ख़याल किसी को नहीं आया ।

हम विचारों के अभ्यस्त हो जाते हैं, इस बुरी तरह की यदि कभी कोई विराट मौन हमारे विचारों को परे ठेलकर एकाएक हमारे चित्त को टटोलता है, तो हम स्तब्ध खड़े रह जाते हैं ।

हम विचारों में ऐसे डूबे होते हैं की विचार से परे भी कुछ हो सकता है, इसका आभास तक हमें मुश्किल से ही हो पाटा है । जब वे चरों मेरे चरण छू रहे थे, तो मैं अचकचा गया था । कोई विचार मेरे चित्त में भी था । एक असमंजस । एक अटपटी स्थिति में मैं क्या प्रतिक्रया दूँ, इस ऊहापोह में फंस गया था । वह बेवजह का हमला था, मुझ पर । मेरा सम्मान हुआ, यह तो मैं अब कह रहा हूँ, -लेकिन तब ? उस समय ? उस समय तो मैं बड़ा असहज, असहाय हो उठा था । दूसरी ओर 'सर' थे जो गरिमापूर्वक हाथ जोड़े हुए सोफे पर विराजमान थे । आशीर्वाद देना शायद उनकी परम्परा में भी रहा ही होगा, पर मैंने उन्हें कभी किसी को आशिर्वाद देते नहीं देखा है । हाँ उन्होंने प्रणाम स्वीकार करना जरूर जाना है, और सम्मान के बदले में वे स्नेह और गरिमापूर्वक अपने हाथों को जोड़ रहे थे । जबकि मैं, 'अरे भाई ! अरे भाई !!' कहता रह गया था ।

रवि बस सहज भाव से मुस्करा रहा था, तो अविज्नान की आंखों में रिक्तता ज़रूर थी, लेकिन रूखापन नहीं था । फ़िर क्या था उन आँखों में ? एक अत्यन्त गहरा कोई परिचय था वहाँ , - जैसे आप अपने को ही देख रहे हों ! क्या कभी आपने आईने में ख़ुद को नहीं देखा है ? क्या वहाँ स्नेह होता है ? -या आकर्षण, विकर्षण, घृणा आदि जैसा कुछ होता है ?बस अविज्नान उसी अविकल दृष्टि से उन्हें देख रहा था। लेकिन तब वह 'यहीं' था, और पलक झपकते ही न जाने कहाँ, '-कहीं और' रफू-चक्कर हो गया था । लेकिन दोनों ही स्थितियों में उसके नेत्र विचार की धूल से अछूते थे ।

जब हम आईने में अपने-आपको देखते हैं , तो वहाँ भी हममें और हमारे प्रतिबिम्ब के बीच 'विचार' की कोई धुंध, कोई कोहरा, कोई परदा होता है । लेकिन अविज्नान के चित्त में ऐसी कोई धुंध नहीं थी । और जैसे एक आक्रमण उन चार आगंतुकों ने मेरे चरण स्पर्श कर मुझ पर किया था, वैसा ही एक आक्रमण अविज्नान की दृष्टि ने उन चारों पर किया था । जैसे मैं औचक पकड़ा गया था, वे भी वैसे ही औचक पकड़े गए थे । अकस्मात् ।

तब तक 'सर' यहाँ नहीं आए थे । एक दिन, जब रवि भी कहीं गया हुआ था, मैंने अविज्नान से पूछा था, जवाब में उसने अपने बचपन का वह वाकया सुनाया था, जब वह करीब सात वर्ष का रहा होगा । तब वह खेल-खेल में ही कभी-कभी माता-पिता की देखा-देखी 'ध्यान' किया करता था । लेकिन इस वाकये का सीधा सम्बन्ध शायद 'ध्यान' से नहीं था ।

एक बार वह अपने पेरेंट्स के साथ कहीं गया था । उनके किसी परिचित या मित्र के घर पर । वहाँ उसकी मुलाक़ात एक हम-उम्र लडकी से हुई थी । दोनों मानों अचानक मिले हों जैसे । जैसे बच्चे अचानक एक दूसरे से मिलते हैं । धीरे-धीरे वे किसी प्रकार का संप्रेषण खोज लेते हैं । - कोई खेल, कोई मज़ाक, या लड़ना झगड़ना, 'अधिकार' या सहारा ढूंढ लेते हैं एक-दूसरे में । किसी भी बहाने वे जो भी जानते हैं, उसे 'शेयर' करने के द्वारा 'परिचय' बनाने की कोशिश करते हैं । और ज़ाहिर है, इसमें वे सफल भी होते हैं । बड़े भी तो यही करते हैं । हम शायद ही किसी को जानते हों, लेकिन हमने 'मन' को इस भाँति प्रशिक्षित कर लिया होता है, कि याद के किसी छोर को पकड़ कर एक संबंध-सूत्र निर्मित कर लेते हैं, और ख़ुद से बार-बार कहते रहते हैं कि फलाँ से तुम्हारा 'यह' रिश्ता' है । और इस तरह एक 'परिचय' बन जाता है, जो बस याददाश्त का एक टुकड़ा ही तो होता है ! उसे हम 'संबंध' कहते हैं । धीरे-धीरे हम नाटक में इतने कुशल हो जाते हैं, कि हमें ख़याल तक नहीं आता कि इस नाटक को हमने ही लिखा था । अब वह 'संबंध' हम पर 'सत्य' की तरह हावी हो जाता है । हम उसे ताकत देते हैं, और वह हमें 'सुरक्षा' का ख़याल । --सुरक्षा नहीं, बस एक गहरा ख़याल, जो वक्त की छोटी से छोटी जुम्बिश से भी टूट जाता है । वह आगे बोला;

"फ़िर हम कहते हैं;

'अब उससे मेरा कोई संबंध नही है ।'

बहरहाल उस उम्र में , जब ये सारी चीज़ें हममें जगह बनाती हैं, मैं कुछ शर्मीला सा था । और मुझसे भी अधिक शर्मीली थी वह लड़की । शायद मैं शर्मीला नहीं तो उचटे हुए चित्त का रहा हूँगा । घर पर माता-पिता के बीच एक दूसरे से अपरिचय बढ़ने लगा था । वे मेरे माध्यम से एक दूसरे से बातें किया करते । काफी समय बाद मुझे यह समझ में आया था कि वे एक दूसरे से सीधे बात नहीं करते थे । पापा कहते; 'मम्मी से बोलो आज शाम को मैं खाना नहीं खाऊंगा । '

या मम्मी कहती; 'पापा से कहो, बिजली का कनेक्शन सुधरवाना है । '

और इस क्रम में मैं उन दोनों से ही दूर होता चला गया । शायद उन्हीं दिनों कोई ऐसी बात हो गयी थी कि वे एक दूसरे के चेहरे की ओर तक नहीं देखते थे । लगातार ऐसे वातावरण में रहने के बाद एक दिन जब उस लड़की के घर मैं पापा-मम्मी के साथ पहुँचा था तो उनका एकदम बदला हुआ व्यवहार देखा । ऐसा नही लग रहा था कि उनके बीच का 'परिचय' दरक गया हो । वे मेरे पहले के ही मम्मी-पापा जैसे लग रहे थे । लेकिन मैं चौंक गया था , मुझे समझ में आ रहा था कि वे नाटक कर रहे थे, -अभिनय । मैं उस लड़की से खेलने, बातचीत करने की कोशिश ज़रूर कर रहा था, लेकिन मेरी भावनाओं को जैसे लकवा मार गया था । मुझे घबराहट तो नहीं हो रही थी, लेकिन मैं अपने में ही सिमट गया था, -'withdrawn into myself'.' और वह लड़की भी मुझे देखकर परेशान सी लग रही थी । मैं चुपचाप सोफे पर बैठा रहा ।

वे लोग पार्टी कर रहे थे । वहाँ और भी लोग थे, लेकिन मैं उन सबके बीच अपने-आपको अजनबी महसूस कर रहा था ।

इस घटना में ऐसा तो कुछ नहीं हुआ था जिसे महत्वपूर्ण कह सकें, लेकिन इसके बाद से मैं जब भी बहुत से लोगों के बीच होता, अपने को सबसे अलग-थलग महसूस करने लगता था । फ़िर जब मैं 'ध्यान' करने लगा तो ऐसा और भी शिद्दत से होने लगा था । मेरे 'मन' से न सिर्फ़ 'विचार', बल्कि तमाम 'परिचय' और परिचयों से जुड़े मानसिक अभ्यास भी गायब होने लगे थे । कभी-कभी मेरे दोस्त कहते, '-तुम ऐसी खाली खाली नज़रों से क्या देख रहे हो ? क्या तुम हमें नहीं पहचानते ?' पर सच मानिए, उन क्षणों में कोई अतीत, मन की कोई स्मृति नहीं ठहरती थी, लौटती तक नहीं थी । तब मुझे स्मृति को उकसाना पड़ता था । लेकिन लोग सोचते थे कि मैं अर्ध (या पूर्ण?)विक्षिप्त या मानसिक असंतुलन का शिकार हूँ । स्कूल में मैं इतना ब्रिलियंट था कि कक्षा में पहली या दूसरी रैंक होती थी मेरी । इसलिए लोग मुझे 'अहंकारी' भी समझते थे । खासकर मेरे दोस्त ।

कभी-कभी मुझसे कक्षा में ही टीचर पूछती; 'आर यूं ओ के ?'

लेकिन मैं बिल्कुल ओ के होता था । बस मेरा याददाश्त का दफ्तर बंद हो चुका होता था । हाँ ऐसा तब भी कभी-कभी होता था, जब मैं घर पर या पार्क में, या किसी एनी जगह बैठकर 'ध्यान' लगाता था, -अपने-आपमें सिमट जाता था । '-withdrawn within myself.' होता था ।

मैं मानों जागे हुए ही नींद में होऊँ ऐसा कुछ होता था । वहीं मुझे समझ में आया था कि स्मृति और विचार से रहित चेतना क्या होती है । -शुद्ध चेतना क्या होती है । और इस अनुभव से मुझे 'उस' किसी ऐसी चीज़ का भी पता चला, या कहें ख़याल आया, जो 'मन' या 'विचार' से, या तम्मं दुनियावी 'परिचय' से भी पहले से है । लेकिन वह कोई बेहोशी या खामखयाली की दुनिया भी हरगिज़ नहीं है । वह 'स्वप्न' या दिवास्वप्न भी नहीं है । वह 'कहीं और नहीं है, -जैसा कि रवि कहता है । "

-वह हँसते-हँसते बोला ।

"यह कोई ऐसा अनुभव भी नहीं है, जो 'गुज़र' जाता हो । "

यह 'फलश्रुति' थी ।

"तुम कह रहे हो कि वह कोई ऐसा अनुभव भी नहीं था जो 'गुज़र' जाता हो । इससे तुम्हारा क्या मतलब है ?

एक पैनी दृष्टि से मुझे देखते हुए वह कहने लगा,

"ऐसा मैंने इसलिए कहा क्योंकि हमारे सारे अनुभव गुज़र जाते हैं, बीत जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, भूल भी जाते हैं, -हाँ उनकी याद को हम ज़रूर संजो रखना चाहते है, जबकि वह भी हमारे हाथ में नहीं होता । लेकिन वह अवस्था ऐसी कोई चीज़ नहीं है जो आती-जाती हो, या मन जिसका कोई चित्र बना कर 'my pictures' file में 'save' कर सके । प्रारंभ और अंत से रहित है वह 'सत्य' जिसमें मन अपना अलग ही संसार खड़ा कर लेता है । 'अनुभव' का आगमन तो 'मन' के आगमन के ही बाद होता है । उस अवस्था में 'मन' कहाँ होता है ? इसलिए उसे 'अवस्था' कह सकते हैं । अव + स्था = अवस्था । जो किसी से भी पूर्व से ही, गहराई में स्थित है, वह । 'तदा दृष्टुः स्वरूपे अवस्थानं ' में जिस अर्थ में अवस्था शब्द का प्रयोग है वह अर्थ । वह सदा से वही है, लेकिन उस चेतना में 'मन' के आगमन के ही बाद अपना एक संसार, स्थान, समय और व्यक्तिगत आभासी 'सत्ता' का अस्तित्त्व अनुभव होने लगता है । उस सहज अनुभव में भी विचार ही पुन: एक स्वतंत्र 'अनुभव-कर्त्ता' आरोपित करता है, -जो वस्तुत: विचार की ही उपज होता है, -एक निपट 'विचार' -मात्र । उस 'अनुभव-कर्त्ता' की सत्यता नहीं होती, लेकिन चेतना स्वयं से उसे एकात्म कर एक स्वतंत्र 'व्यक्ति' का भ्रम स्वीकार कर लेती है । वैसे तो 'अनुभव', अनुभव-कर्त्ता' तथा 'अनुभवन' एक ही सीमित चेतना अर्थात 'मन' के ही तीन परस्पर अविभाज्य पहलू होते हैं, लेकिन 'विचार' के माध्यम से तीनों को एक दूसरे से भिन्न की तरह मान लिया जाता है । ज़रा सोचें, क्या इनमें से किसी भी एक के न होने पर बाकी दो रह सकते हैं ?"

मुझे 'सर' की याद आने लगी थी । जब वे मुझे 'मैं' के बारे में बतला रहे थे, तब भी मुझे लगा था, उनकी बातें समझने के लिए मुझे कोई विशेष तरह का ब्रह्मीयुक्त 'च्यवनप्राश' खाना पडेगा क्या ? इस बार भी पुन: यही ख़याल अविज्नान की बातें सुनकर मन में आया था ।

"पहले तो हमें चेतना के तत्त्व को मन से पृथक की तरह से देख लेना होगा । और फ़िर हमें देखना होगा कि कैसे देह से 'मन' का संबंध इस चेअना के ही सान्निध्य से है, जो न तो देह है, न मन है, -जो सिर्फ़ एक प्रकाश है, 'जानने' मात्र का आलोक है । "

"हूँ ।" -मैं बस इतना ही कह सका था ।

वह निर्निमेष मौन बैठा रहा ।

"और यह 'विचार' क्या 'मन' से कोई अलग चीज़ है ?"

मैंने उस शांत झील में एक कंकड़ फेंका ।

"हँ ?" -उसने शांतिपूर्वक पूछा ।

मैं इसके लिए तैयार नहीं था, फ़िर भी साहस बटोरकर अपना प्रश्न दोहराया ।

"मन नहीं तो विचार नहीं, और विचार नहीं, तो 'मन' भी कहाँ ? " वह शान्ति से बोला ।

मैं सिर खुजलाने लगा था ।

उस मौन में टिके रहना कठिन था ।

>>>>>>उन दिनों २६>>>>>>>>>>>

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