May 24, 2009

उन दिनों / 22

उन दिनों - 22
आज लंच के बाद हम अपने-अपने में, -व्यक्तिगत कार्यों में व्यस्त थे । बाई के न आने से भोजन रवि ने बनाया था, अविज्नान ने सहयोग ज़रूर दिया था । खाने के बाद अविज्नान ने ही लंच का टेबल साफ़ किया था खाना 'सर्व' भी उसी ने किया था , सर ने और मैंने पहले खाना खाया था, फ़िर उन दोनों ने । इस बारे में सारी 'प्लानिंग' उन दोनों ने कर रखी थी । कभी-कभी ऐसा भी होता है । खाने के बाद हम तो आराम करते रहे, उन दोनों ने किचन साफ़ किया, बर्तन धोये, और फ़िर दोनों चुप ड्राइंग-रूम में बैठे रहे।
शाम साढ़े चार बजे चाय तैयार थी ।
आज मैं सोच रहा था की अविज्नान के उस दिन के क्रम को आगे बढ़ाया जाए ।
चर्चा की शुरुआत मैंने ही की थी ।
"अविज्नान कहता है कि जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, -'आत्म-ज्ञान' । उससे बढ़कर महत्वपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता । "-क्यों अविज्नान ? " -मैंने उसकी ओर देखकर अपने वाक्य की पुष्टि चाही ।
"हाँ, " -वह सकुचाकर बोला ।
"दर-असल इस शब्द के इर्द-गिर्द इतना कुहासा है कि मैं किसी से भी बातचीत करते समय कभी-कभी ही, और बिरले ही इस शब्द का इस्तेमाल करता हूँ ।" -वह आगे बोला ।
"क्यों ? "
"देखिये इसे इस्तेमाल करने भर से, यह सचमुच क्या चीज़ है, इसका कोई आभास, या अनुमान तक हमें हो पाता है ? "
"मतलब ? "
"मतलब यही कि जब हम आत्मा परमात्मा, मुक्ति, आदि शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं, तो हम उनके बारे में अपनी 'कल्पनाओं' के ही बारे में कुछ इस तसल्ली के साथ बोलते हैं, जैसे हमने उन्हें सचमुच 'अनुभव' किया हो । वे सिर्फ़ सुनी सुनाई बातें होतीं हैं, जैसे साधारण बातचीत में हम अपनी परिचित कुछ चीज़ों के बारे में बोलते हैं, उदाहरण के लिए जब हम भौतिक चीज़ों के बारे में, स्थानों और लोगों के बारे में बोलते हैं, राजनीतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, आदि 'गतिविधियों' के बारे में बोलते हैं, तब उस भौतिक 'वस्तु' अथवा 'गतिविधि' के बारे में हमें उसके 'मूर्त्त' या 'अमूर्त्त'-रूप में सुनिश्चित पता होता है । सारा 'विज्ञान' इसी का विकास है । विज्ञान, गणित, मेडिकल-साइंस, आदि । ऐसा ही व्यक्तियों के संबंध में भी सच है । जैसे मैं 'सर' के बारे में 'कुछ' ऐसा जानता हूँ जिसका मुझे अनुभव भी है, और जिसकी पुष्टि भी लगातार, अनायास होती रहती है । क्या हम आत्मा या परमात्मा, भगवान आदि के बारे में ऐसा कुछ सचमुच जानते हैं ? यदि नहीं जानते तो उन शब्दों को इस्तेमाल करने से यही होता है कि हमें 'वहम' हो जाता है कि हमने उन्हें 'अनुभव' किया है । फ़िर भी उनके बारे में हमारा 'अनिश्चय' भीतर ही भीतर कुलबुलाता रहता है । क्या यह 'अनिश्चय' मूलत: हमारे उनसे 'अपरिचय' का ही द्योतक नहीं होता ? इसी प्रकार, लोगों की आकृति, कद, स्वभाव रंग-रूप आदि से हम उनकी एक 'इमेज' बना लेते हैं, और सोचने लगते हैं कि हम उन्हें 'जानते' हैं । और इसी प्रकार हर व्यक्ति अन्य वस्तुओं, जीवों, आदि की एक 'इमेज' अपने मस्तिष्क में बना रखता है , और इसे वह 'परिचय' या 'पहचान' कहता है । क्या हम 'आत्मा' या 'परमात्मा' के बारे में ऐसा कुछ 'जानते' हैं, जिससे उनकी कोई 'पहचान' अपने मस्तिष्क में बनती हो ? ज़ाहिर है इसलिए आत्मा या परमात्मा की सारी बातें 'संदेह' के दायरे में होती हैं । फ़िर उन शब्दों का इस्तेमाल फायदे की जगह नुक्सान ही ज़्यादा करता है , क्योंकि तब हम 'वहम' में ही जीते रहने के आदी हो जाते हैं । हमें पता ही नहीं होता कि जिस बारे में हम इत्मीनान से, या उग्रतापूर्वक, आवेश के साथ, आग्रहपूर्वक बोल रहे हैं, वह हमारे ख्यालों के अलावा कहीं है ही नहीं । इसलिए मैं इसे दूसरे ढंग से कहना चाहता हूँ । जब मैं स्वयं अपने बारे में विचार करता हूँ, कि मैं क्या हूँ ?, -या मैं फलाँ-फलाँ हूँ, यह मेरा समाज है, ये मेरे नाते-रिश्ते हैं, मेरा राष्ट्र-भाषा आदि हैं, तो इसे क्या कहा जाए ? " - कहकर वह चुप हो गया ।
हम सभी चुप थे । दो मिनट तक सन्नाटा छाया रहा । बाहर सूरज की रौशनी धीमी पड़ने लगी थी । सूर्यास्त होने जा रहा था । मेरे घर की पूर्वाभिमुखता के कारण धूप बस सामने डी आर पी लाइन के उस पुराने खँडहर हो रहे बंगले पर ही थी, जो इस कमरे की खिड़की से दिखाई देता है ।
"मैं अपने-आप को जानता हूँ , ऐसा हम समझते हैं । लेकिन जैसे हम दूसरी हज़ार चीज़ों को जानते हैं, क्या उसी तरह से ? शायद हाँ । हम 'अपने' बारे में 'अपनी' एक 'इमेज' बना लेते हैं, जिसे हम ज़रूर जानते भी हैं । फ़िर हम कभी-कभी सोचते हैं, मुझे 'बदलना' होगा, मुझे ज़्यादा होशियार होना चाहिए, मुझे 'भला' या चालाक होना चाहिए, मुझे धनवान होना चाहिए, मुझे आगे बढ़ना है, मैं कमज़ोर हूँ, मुझे ताकतवर होना होगा । सवाल यह है, कि यह मैं अपने बारे में जानता हूँ, या 'मेरे' बारे में 'मस्तिष्क' ने जानकारियों के आधार पर जो एक प्रतिमा मेरी बना रखी है, उस प्रतिमा के बारे में जानता हूँ ? यह 'जानना' क्या है ? क्या जानकारी होना, सूचना होना ही 'जानना' /ज्ञान है ? यदि मेरे मस्तिष्क में 'अपने' बारे में कोई सूचना न हो, तो क्या मैं 'अपने' को नहीं जानता ? क्या वैसा 'जानना' बाहर से सीखा जाता है ? मुझे भूख लगती है, प्यास लगती है, इन्हें भी तो मैं जानता हूँ । हो सकता है कि मुझे भाषा न आती हो, क्या भाषा न आने से मेरा 'जानना' बाधित हो जाता है ? तो क्या मैं बिना 'अपनी' 'प्रतिमा' का सहारा लिए भी अपने को नहीं जानता ? क्या मेरा वह जानना वैसा ही जानना है, जैसे मैं दूसरी हजारों बातें, चीज़ें आदि जानता हूँ ? "
किसी ने इस पर कोई प्रतिक्रया नहीं दी । एक जर्मन / यूरोपीय व्यक्ति की इतनी साफ़-सुथरी हिन्दी सुनना भी अपने-आपमें ही वैसे भी एक अद्भुत अनुभव था, फ़िर वह जितनी सरलता से अपनी बात रखता था उसका वह तरीका भी कम दिलचस्प नहीं होता था ।
"पहले तो हमें 'जानने' का ठीक-ठीक अर्थ हमारी दृष्टि में क्या है, हमें इस पर ध्यान देना होगा । 'जानने' को हम सिर्फ़ 'जानकारी'-मात्र समझते हैं । -'सूचनाओं' का संग्रह कर लेना ही हमें 'जानना' प्रतीत होता है । यदि वैसा ही हो, तो एक मनुष्य तथा एक कम्प्युटर में क्या फर्क रह जाता है ? " -कहकर वह कुछ क्षणों तक चुप हो रहा ।
हम सब बस सुन रहे थे ।
"बेहतर हो कि हम इस चर्चा में सक्रीय भागीदारी करें । " -उसने अनुरोध किया । हम सभी राजी थे । राजी ही नहीं, बल्कि उसके अनुरोध से पहले ही से कर भी रहे थे क्योंकि हममें से किसी में उसकी बात के प्रति कोई प्रतिरोध या विरोध तक नही था । हममें कोई पूर्वाग्रह नहीथे । लेकिन उसमें ही थोडा संकोच था । निश्चित ही कहने के लिए उसके पास कुछ दुर्लभ वस्तु थी । हम उसके संकेत समझ रहे थे , हम खुले हृदय से उस चर्चा में शामिल थे, लेकिन वह इस बारे में आश्वस्त होना चाहता था ।
"जानना और जानना, " -उसने कहा -
"केवल जानना और 'कुछ' जानना, क्या इन दोनों में कोई फर्क नहीं होता ?"
वह पुन: कुछ पलों के लिए खामोश हो गया ।
"देखिये हम सामान्यत: इस 'जानना' शब्द का इस्तेमाल भी बहुत लापरवाही से करते हैं, और इसलिए यह तक ख़याल नहीं आता कि इसका वास्तविक मतलब तलाश लें । हम समझते हैं कि 'जानना', सूचनाओं को इकट्ठा करना ही ज्ञान है । हम समझ बैठते हैं कि 'भगवान' या 'आत्मा'-'परमात्मा' आदि का ज्ञान भी हम किताबों से पढ़कर 'प्राप्त' कर लेंगे । और हमें अपनी इस बुनियादी भूल का पता शायद ही कभी चल पाता है । "
"एक तो जानकारी होती है, अर्थात् 'सूचना', 'information' , जो कि मेरे द्वारा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण किए गए तथ्यों का जोड़ होता है, -और वह भी 'तथ्यों' का नहीं, बल्कि उनकी जो 'प्रतिमा' मेरा मन बनाता है, उन प्रतिमाओं का जोड़-भरहोता है । इसे थोडा और भी सावधानी से समझें । उदाहरण के लिए हम देख रहे हैं कि सूर्यास्त हो रहा है शाम की रौशनी कुछ ही मिनटों में विलीन हो जायेगी । यह सूर्यास्त, सुबह होना, शाम होना एक तथ्य है । यह 'घटना' और घटनाओं की समष्टि भी है । लेकिन इसे अपने इन्द्रिय-ज्ञान के माध्यम से हम जानते हैं, -हमें 'पता' चलता है । क्या यह 'पता' चलना 'सूचना' या 'जानकारी' होता है ?"
हमारा मौन रहकर ध्यानमग्न होकर उसे सुनना ही उस चर्चा में हमारा सहयोग था । यदि उसके प्रश्नों पर कब उत्तर देना है, और कब चुप रहकर 'जिज्ञासा' का प्रदर्शन करना है, यह हमें न पता होता तो शायद वह बोलना ही बंद कर देता ।
"यह नि:शब्द ज्ञान क्या एक स्वाभाविक स्थिति नहीं है ? वहाँ 'तथ्य' है, लेकिन तथ्य का शब्दीकरण नहीं है । क्या तथ्य में शब्द है ? यह ज़ाहिर सी बात है कि 'तथ्य' और तथ्य को इन्द्रियों से जानना, दोनों ही नि:शब्द यथार्थ हैं । इसके बाद यदि हम नि:शब्द ही रहते हैं, तो एक असाधारण गतिविधि का पता चलता है, -शायद इसे मैं 'ध्यान' कह सकता हूँ, और यह 'ध्यान' 'किया' नहीं जा सकता । इसे तो 'खोजना' होता है । यह अत्यन्त स्वाभाविक होता है, -इतना स्वाभाविक, कि अगर मस्तिष्क या स्मृति हस्तक्षेप न करे, तो इसे अनायास देखा, महसूस किया जाता है । यह कोई रोमांच या उत्तेजना नहीं है, यह सुख, दु:ख, या उद्विग्नता नहीं है, विस्मरण या नशा नहीं है, मूर्च्छा या उन्माद नहीं है, -यह बस 'है' । है भर । और इसे जानना भी, बस 'है' भर ! 'जानना' ही 'है' है, और 'है' ही है जानना । क्या इसे हम ध्यान कह सकते हैं ? "
हम सब प्रशंसा भरी नज़रों से, मुग्ध-भाव से उसे देख रहे थे । ज़रूरी नहीं कि हमारी नज़रें उसके चेहरे पर ही रही हों, हालाँकि बीच-बीच में उससे हमारी नज़रें मिल भी जातीं थी, लेकिन हम 'सुन' अधिक रहे थे । यह 'सुनना' भी तो 'ध्यान' ही था । चित्त एक सहज-स्वाभाविक नि:शब्दता में उतर आया था , जहाँ से 'विचार' अपने सारे लाव-लश्कर सहित 'विदा' हो चुका था । अविज्नान का मौन हम सबको संक्रमित कर चुका था । लेकिन, क्या यह 'मौन' उसका व्यक्तिगत 'मौन' था ? क्या वह 'मौन' से पृथक् था, और क्या हम लोग, उस 'मौन' से पृथक्, 'विशेष'-कोई व्यक्ति रह गए थे ? लेकिन यह सब उस समय नहीं सोचा जा रहा था, -यह सब तो अब लिख रहा हूँ । अब शब्द दे रहा हूँ ।
"तो इस 'जाननेके बाद एक 'जानना' और भी होता है, जहाँ 'काल' और 'स्थान' है, इस शुद्ध जानने में क्या 'काल' व स्थान कहीं हैं ? क्या 'काल-स्थान' का इस नि:शब्द 'जानने' से कोई लेना-देना है ? 'जानना एक बिल्कुल स्वाभाविक चीज़ है, जबकि 'अनुभव' एक 'तथ्य', जो 'जानने' के ही अर्न्तगत होता है , 'जानने' पर ही अवलंबित भी होता है, न कि उससे स्वतंत्र । लेकिन 'अनुभव' ही बाद में 'निष्कर्ष' बन जाता है । तथाकथित 'वैज्ञानिक' या 'अवैज्ञानिक' रूप ले लेता है । लेकिन क्या अनुभव स्वयं भी , 'जानने' की ही एक गतिविधि नहीं होता ? 'निष्कर्ष' के जन्म के साथ अनुभवों में 'क्रम' और भेद/भिन्नता तय होने लगती है , -वे सुखद, दु:खद, कटु, मधुर, तिक्त, क्षोभकारी, भयावने, या आशा-भरे, होने लगते हैं । क्या इन 'अनुभवों' में, जो कि 'जानने'-मात्र के ही अलग-अलग प्रकार भर हैं, सचमुच कोई अनुभवकर्ता कहीं होता भी है ? क्या यह 'अनुभवकर्त्ता' भी इस 'निष्कर्ष' के बाद का ही एक और अनुमान-मात्र ही नहीं होता ? क्या कहेंगे आप ?"
वह प्रश्न कर रहा था लेकिन हममें से कोई भी अक्षरशः कुछ भी नहीं सोच रहा था । और उसके प्रश्न में किसी उत्तर की कोई अपेक्षा कदापि नहीं थी । यह वाकई 'मौन'-संवाद था । और यदि हम भूले से भी कोई उत्तर दे देते तो वह अद्भुत मौन-संवाद वहीं रुक जाता ।
"हम इसे और विस्तार दें । इस 'जानने' में काल-स्थान रूपी, या किसी अन्य प्रकार का, जड़-चेतन आदि का, या 'मैं'-तुम'-वह' रूपी कोई विभाजन कहीं नहीं पाया जाता । यह बस 'है'-भर । और 'जानना' ही है, -'है', तथा 'है' ही है -जानना । वे एक ही सत्य के दो पहलू हैं । -हमारी भाषा की सुविधा के लिए । लेकिन 'दो पहलू' कहते ही 'विभाजन' अनचाहे ही बीच में आ टपकता है । है न ?"
अतएव 'जानना' और 'जानना' दो बिल्कुल अलग चीज़ें होती हैं, लेकिन हमारी लापरवाही से हमने दोनों को आपस में गड्ड-मड्ड हो जाने दिया है । इसके बाद आता है, निष्कर्ष और अनुमान । अनुभवों के संग्रह की 'फाइल' बना ली जाती है, उस 'फाइल' का नामकरण कर दिया जाता है । अनुभवों को सुखद, दु:खद, अच्छा, बुरा, गहरा, उथला, उत्तेजक, रोमांचक, रोचक आदि शब्द देकर 'जानकारी' का रूप दे दिया जाता है । यह होता है अनुभवों का कब्रिस्तान जहाँ हर कब्र पर एक 'पत्थर' (tomb-stone) होता है । 'विचार' हर अनुभव पर जाकर फूल चढाता है, 'अकीदत' पेश करता है, और 'अनुभवी' व्यक्ति को हम बहुत सम्मान देने लगते हैं । "
अविज्नान की भाषा में थोडा साहित्यिक 'पुट' आ गया था । इससे वातावरण और भी उत्फुल्ल हो उठा । उस मौन में आनंद की लहर तैर गयी थी ।
"शुरुआत यहीं से होती है , इसे देख लेना शायद उतना मुश्किल नहीं है जितना कि सत्य या धर्म के ठेकेदारों ने इसे बना रखा है । और यह बहुत आसान है, ऐसा कहना भी शायद ग़लत होगा । यह आसान है, या मुश्किल, इस बारे में अपना-अपना सोच हो सकता है , लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यही 'आत्म-ज्ञान' है । "
चर्चा, जो अविज्नान के भाषण (?) में सिमट आई थी, उस दिन वहीं समाप्त हो गयी थी ।
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May 22, 2009

उन दिनों / 21

उन दिनों - 21 .
अगले दिन वह कुछ हलके मूड में था । कुछ बोलने की स्थिति में आ चुका था, जबकि दूसरी ओर मैं कुछ-कुछ मौन मन:स्थिति में जा रहा था ।
"आपसे पुरी के सागर-तट की मुलाक़ात के बाद मैं भारत में अनेक स्थानों पर घूमता रहा । उसी दौरान उज्जैन भी जा पहुँचा था, उज्जैन से इंदौर भी जाना हुआ था , क्योंकि मुझे ओंकारेश्वर जाना था । उज्जैन से इंदौर जाते समय, शिप्रा नदी पर एक पुल बना है, जहाँ कोई दूसरी नदी उससे मिलती है । इस दौरान मैं उस पुल पर से गुज़रा, जहाँ संगम पर 'नवग्रह-मन्दिर' है, तो मुझे अचानक नवलक-तंत्र की याद आ गयी । आपके अलावा किसी और ने भी मुझे उस पुल के बारे में बतलाया था । "
"मैंने ?"
"नहीं, शायद किसी दूसरे ने ही कहा होगा, " - वह बोला ।
"लेकिन जब उस पुल पर से मैं गुजरा, तो एक अद्भुत दृश्य देखा । उस पुल पर से मैंने देखा कि एक और बहुत नीचा पुल भी थोड़ी दूरी पर उसी नदी पर बाईं दिशा में भी है, और मेरी दायीं ओर जिस पुल से मैं गुज़र रहा था, उससे लगी हुई सीढियाँ नीचे जिस रास्ते पर पहुँच रहीं थीं, वह पुल के समानान्तर जाकर 'संगम' तक जाता था जहाँ नवग्रह-मन्दिर है । उन सीढियों से उतरते हुए मुझे याद आ रहा था कि जब आपसे मैंने पुरी के समुद्र-तट पर 'सेतु-सोपान-सूत्र' की चर्चा की थी, तो आपने मुझे यह नहीं बतलाया कि ऐसी ही संरचना उज्जैन में है ! तब मैंने आपसे इतना ही कहा था कि आपसे मेरी एक मुलाक़ात और होनी है । जिस व्यक्ति ने आपसे मेरी पहली उस सागर-तट वाली मुलाक़ात के स्थान और समय की अचूक भविष्यवाणी की थी, उसने ही मुझे यह भी बतलाया था । मैंने सोचा भी था कि उज्जैन में आपका पता लगाऊँ, किसी से पूछा भी था, पर तब मेरी आपसे मुलाक़ात न हो पाना भी शायद तय ही था, क्योंकि आपसे पुरी-तट पर होनेवाली मुलाक़ात की भविष्यवाणी करनेवाले ने ही मुझसे यह भी कहा था कि आपसे मेरी एक मुलाक़ात किसी पहाडी तीर्थ-स्थल पर होगी, जहाँ मेरा 'कार्मिक-बैलेंस' शून्य हो जाएगा । यह सब मुझे नवग्रह-मन्दिर के परिसर में तथा शिप्रा-तट की ओर जाते हुए भी याद आया था । 'तब तक तुम भटकते रहोगे।' - मेरे चित्त की अशांत स्थिति को इंगित करते हुए, उसने यह भी बतलाया था ।"
उस पुल से गुज़रते समय मुझे अपना पूर्व-जन्म याद हो आया था । नवग्रह-मन्दिर में एक बड़ा सा वटवृक्ष है, जिसके चारों ओर गोल चबूतरा बना दिया गया है । उस चबूतरे पर बैठकर ध्यान करते समय मुझे सब स्पष्ट हो सका । "
"लेकिन तुम तो कहते हो कि तुम्हें अपने कई पूर्व-जन्मों के बारे में काफी-कुछ स्मरण है ?"
"हाँ, लेकिन उस पुल से गुज़रते हुए, और उस बरगद के वृक्ष के तले बैठकर ध्यान करते समय जो 'स्मरण' मेरे मन में कार्यशील था, वह मेरा बिल्कुल आख़िरी जन्म था, -इस 'अविज्नान' का अन्तिम जन्म था । बरगद तले बैठने पर मेरा मन धीरे-धीरे शांत होने लगा । करीब घंटे भर तक बैठा रहा था । फ़िर मुझे ख़याल आया कि वह वृक्ष 'बोधिवृक्ष' ही था । उसके तले पहले भी कई लोगों को आत्म-ज्ञान हो चुका था, और आगे भी होता रहेगा । "
"लेकिन बोधि-वृक्ष तो 'बोध'गया में ही है !" -मैंने शंका ज़ाहिर की ।
"हाँ , जैसे गंगा सिर्फ़ उत्तर भारत में है, लेकिन दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी है । "
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था ।
"अच्छा !" -मैंने प्रकटतः कहा ।
"और 'आत्म-ज्ञान' ?" -मैंने पूछा ।
"आत्म-ज्ञान याने यह कि ये सारे जन्म 'मन' के होते हैं, न कि आत्मा के । 'आत्मा' याने 'आत्म-तत्त्व' का न जन्म है, न मृत्यु है, और न पुनर्जन्म है । "
"और 'मन' ?"
"मन सिर्फ़ एक चक्रवात है, जिस पर आत्मा का प्रकाश पड़ता है, और वह 'अपने-आपको' एक स्वतंत्र जीव मान लेता है । उसका कोई केन्द्र तो नहीं होता, लेकिन केन्द्र 'परिभाषित' कर लिया जाता है । चक्रवात की वायु उस 'केन्द्र' के इर्द-गिर्द तेजी से घूमती है, तो चक्रवात को मानो एक 'आभासी' केन्द्र मिल जाता है । लेकिन यह प्रश्न क्या चक्रवात कर रहा है ? " -उसने गंभीरता से पूछा ।
"एक चेतन-सत्ता ही प्रश्न पूछ सकती है । आत्मा के लिए द्वैत नहीं है, और प्रश्न भी नहीं हैं । देह प्रश्न नहीं पूछ सकती । देह का स्वामी अर्थात 'मन', जड़ है या चेतन ?"
मेरे पास उत्तर नहीं था ।
"मेरे पास भी इसका उत्तर नहीं है । एक आभासी सत्ता पर यह प्रश्न लागू ही नहीं होता । " -वह बोला । "फ़िर आत्म-ज्ञान याने ? क्या आत्म-ज्ञान एक नई उपलब्धि नहीं है ?"
"नहीं, आत्म-विस्मरण और आत्म-स्मरण को ही नई उपलब्धि कह सकते हैं । "
" फ़िर पुनः आत्म-विस्मरण नहीं होगा इसकी क्या सुनिश्चितता है ?"
क्योंकि सुनिश्चितता खोजनेवाला वह आभासी अस्तित्त्व ही ढह जाता है, 'असत्य' हो जाता है । -वह शांतिपूर्वक बोला ।
और फ़िर आगे बोला;
"वैसे इसे सिर्फ़ बुद्धि से नहीं समझा-समझाया जाता । "
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May 09, 2009

उन दिनों / 20.

इन सीढ़ियों का ज़िक्र करते हुए मुझे अविज्नान से अपनी वह मुलाक़ात भी ज़रूर याद आ जाती है, जो बिल्कुल ही अनपेक्षित ढंग से हुई थी ।
बहुत दिनों बाद कहीं यात्रा करने के लिए पाँव कुलबुला रहे थे । कहाँ ? इस बार अरविन्द-आश्रम (पॉण्डिचेरी) जाया जाए, -मन ने कहा । अरविन्द-आश्रम जाने का विचार मुझे पहले कभी नहीं सूझा था । श्री रमण-आश्रम तो तीन बार जा चुका हूँ, और वहाँ जाते हुए श्री अरविन्द-आश्रम जाने का ख़याल तो आना स्वाभाविक भी है, लेकिन न जाने क्यों इससे पहले कभी ऐसा ख़याल क्यों नहीं आया ! ठीक है, इस बार श्री अरविन्द -आश्रम । दक्षिण । मद्रास (अब चेन्नई) होकर जाना होगा । पिछली बार की तरह मद्रास का रिजर्वेशन कराया था । अहिल्यानगरी सुपर-फास्ट आजकल बुधवार को चलती है । तीसरे दिन, याने शुक्रवार की सुबह/दोपहर तक चेन्नई । चेन्नई से पॉण्डिचेरी । वहाँ मैं रहना तो हफ्ते भर चाहता था, लेकिन श्री रमण-आश्रम जाने की अदम्य इच्छा ने मजबूर कर दिया, और तीसरे ही दिन सुबह ट्रेन से तिरुवण्णामलै के लिए चल पड़ा । जनवरी-फरवरी में वहाँ रहने के लिए स्थान जरूर मिल जाता है ।
दोपहर ग्यारह बजे भोजन के बाद विश्राम किया और कुछ पढता रहा । फ़िर बाहर जाने के कपड़े पहने, और रवि के रूम पर गया । हिन्दीभाषी होने के कारण उससे पहचान हो गयी थी । वह भी हिन्दीभाषी था, इसलिए भी हमारी कंपनी बन गयी, दोस्ती सी हो गयी थी ।
पहली बार (१९८५) में जब मैं श्री रमण आश्रम गया था, तो आश्रम के सामने की भूमि खाली पड़ी थी । दिन-रात सन्नाटा रहता था । लेकिन इस बार वहाँ अनेक छोटी-बड़ी दुकानें थीं ।
रवि के रूम पर अकस्मात् ही उससे मुलाक़ात हो गयी । मैं तो उसे देखते ही पहचान गया था ।
"मुझे मालूम था कि आपसे पुनः मिलना होगा । " -वह बोल पड़ा ।
"हाँ भाई, संयोग ही तो है । " -मैंने कहा ।
"आप इसे संयोग कहें, लेकिन मैं इसे 'नियति' कहता हूँ । " - वह निश्चिन्ततापूर्वक बोला ।
"आप दोनों एक-दूसरे से परिचित हैं ?" -रवि को आश्चर्य हुआ ।
"संयोगवश," -मेरे मुँह से निकला ।
अविज्नान चुपचाप मुस्कुराता रहा ।
फ़िर हम कॉफी पीने चले गए । थोड़ी देर तक इधर-उधर (आश्रम में तथा बाहर भी ) घूमते रहे, ऑटो में बाज़ार तथा श्री अरुणाचलेश्वर मन्दिर गए, और रात्रि के भोजन के समय तक लौट आए ।
भोजन के बाद रवि अपने रूम पर चला गया, और मैं अविज्नान के साथ मेरे कमरे पर आ गया ।
"बैठो !" - मैंने उससे कहा । इस सिंगल-रूम में एक ही पलंग, एक टेबल-कुर्सी, और एक डस्ट-बिन भर है । खिड़की से अरुणाचल पर्वत दिखलाई देता है, और दीवार पर श्री रमण महर्षि (जिन्हें 'भगवान्' कहा जाता है,) की बड़े साइज़ की लगभग एक फुट बाय डेढ़ फुट की फोटो टँगी है । कमरे में सामने एक छोटी खिड़की और एक ही दरवाजा है । दूसरी तरफ़ की खिड़की से पर्वत-शिखर दिखलाई देता है ।
"हाँ," कहकर वह उस एकमात्र कुर्सी पर बैठ गया ।
"कहाँ-कहाँ घूम आए हमारे भारतवर्ष में ? " - मैंने अपने देश के प्रति गौरव अनुभव करते हुए कुछ नाटकीय ढंग से कहा ।
"वैसे तो जितना घूमना था घूम लिया, मुख्य जगह जो रह गयी थी वहाँ तो अंततः समय पर आ ही गया न ?" "और शादी वगैरह ? "
नहीं, अभी तो इस झंझट से दूर हूँ । "
"अच्छा ?" इन विदेशियों की माया यही जानें, मैं सोच रहा था ।
हम दोनों काफी देर तक चुपचाप बैठे रहे । फ़िर वह बोला, -"मैं बस आता हूँ थोड़ी देर में " । उसने जेब में रखे सिगरेट के पैकेट को हाथ से ठकठकाते हुए इशारा किया, और गायब हो गया ।
करीब आधे घंटे के बाद वह सचमुच लौटा तो मुझे आश्चर्य हुआ, भरोसा नहीं था की अब इतनी रात गए, (ग्यारह बजे) वह लौटेगा भी । मैं शायद सो गया था या तंद्रा जैसी कच्ची नींद में था, कमरे का दरवाजा भी खुला ही था । आते ही वह बोला, : "मैं चुपचाप यहाँ कुर्सी पर बैठा हूँ, आप चाहें तो आराम से सो सकते हैं । "
"कब तक ?' -मैंने थोड़ा हँसते हुए पूछा ।
"जब तक अपने आप जाग न जाएँ । "
" मैं तो सुबह तक सोता रहूँगा । " -मैंने असमंजस दिखलाते हुए कहा ।
" ठीक है, यदि मुझे जाना होगा तो आपको जगह दूंगा । "
मैंने कौतूहल से उसे देखा । "क्या वह सारी रात उस कुर्सी पर बैठा रहेगा ? ठीक है, वही जाने !" -सोचकर मैं आराम से सो गया । सीलिंग-फैन चल रहा था इसलिय गरमी नहीं के समान थी । मैं जल्दी ही गहरी नींद सो गया । फरवरी में यहाँ पंखे चलाने पड़ते हैं ।
रात्रि में उसने मेरे सोते समय ही मरकरी लाईट ऑफ़ कर दी थी । वह कुर्सी को खिड़की की दिशा में लगाकर, उस पर बैठ गया । वहाँ से अरुणाचल के शिखर को और पर्वत के भी बड़े हिस्से को देखा जा सकता है ।
रात्रि में करीब ढाई-तीन बजे आँख खुली, तो उसका ख़याल आया, सोचा, 'क्या वह चला गया ?' रात्रि की मद्धम रौशनी में उसे कुर्सी पर स्थिर 'पद्मासनस्थ' मुद्रा में बैठे देखा । धीरे-धीरे उसके पास गया , वह निर्निमेष दृष्टि से पर्वत को देख रहा था । उसकी आँखें खुली थीं । शायद मेरे पदचाप की आहट से उसने आँखें खोल दी होंगीं । उसे बाधा न देते हुए मैं वापस पलंग पर चला आया, और पुनः सो गया । सुबह रोज़ की तरह लगभग पाँच बजे मेरी नींद खुली, तब भी वह उसी मुद्रा में पद्मासन में बैठा था । शौचादि से निवृत्त होकर जब बाहर आया, तब भी वह वैसे ही सुस्थिर बैठा हुआ था । मैं सोचने लगा कि ये विदेशी वाकई सनकी होते हैं , और कुछ हद तक जिद्दी और पागल भी । मैं उसके समीप गया, उसकी आँखें बंद थीं । धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा, हाथ के स्पर्श से उसका ध्यान भंग नहीं हुआ । मैं फ़िर बाहर चला आया । विस्मित भी हुआ । मन्दिर में जाकर 'प्रसाद' ग्रहण किया और नाश्ते की घंटी बजते ही आश्रम के भोजन-कक्ष में पहुँच गया । नाश्ता कर जब लौटा, तो वह खडा हुआ, 'स्ट्रेचिंग' करता हुआ अपने शरीर की अकड़न दूर कर रहा था । उसने मेरी तरफ देखा । मैं समझ सकता था कि वह बहुत थका होगा ।
"तुम्हारे लिए मैं कुछ लेकर आता हूँ, " -मैंने कहा । मुझे अफ़सोस हुआ कि नाश्ता करते समय ही मैंने उसके बारे में कुछ क्यों नहीं सोचा ।
"नहीं, मैं भी चलता हूँ, बस पाँच मिनट और । "
थोड़ी देर में वह 'फ्रेश' होकर आया और हम ब्रेकफास्ट लेने चल दिए, -खासकर उसके लिए । मैंने तो अभी ही आश्रम के भोजन-कक्ष में डटकर खाया था ।
इस बीच वह मौन ही था । मुझे भी उसके मौन को बाधित करना अशोभनीय लगा ।
उसके मुख पर उस समय संसार से कहीं अत्यन्त 'दूर' होने, बाहर और 'परे' होने की शान्ति का जो भाव दिखलाई दे रहा था, वह अद्भुत और अवर्णनीय था ।
जब हम नाश्ता कर लौटे, तो वह बोला, "अब मैं चलूँगा । " और वह उसके रूम पर जो पास के ही किसी भवन में रहा होगा, (शायद मोरवी चौल्ट्री में था,) चला गया ।
दो-तीन दिनों तक वह दिखलाई नहीं दिया, सोचा, वह कहीं चला तो नहीं गया ! रवि से पूछा तो पता चला कि उससे भी नहीं मिला है ।
चौथे दिन कॉफी के समय लगभग चार बजे वह आश्रम में मुझे दिखलाई पड़ा । मुझे देखकर वह मुस्कुराया । उसके चेहरे पर अब भी पिछली बार की तरह की संसार से 'परे' की अवर्णनीय आभा जगमगा रही थी , जो चार दिन पहले दिखाई दी थी । हमने दो प्याले लिए और कॉफी लेकर चले आए । आश्रम में कप-प्लेट या क्रोकरी का इस्तेमाल नहीं होता, हाँ स्टील के बर्तन ज़रूर काम में लाए जाते हैं ।
"क्या हाल-चाल हैं ?" -मैंने पूछा ।
उत्तर में वह बस मुस्कुराया । उस मौन मुस्कुराहट की स्वाभाविकता और निश्छलता पर संदेह नहीं उठ सकता था , मैं भी फ़िर चुप ही रहा ।
कॉफी पी चुके, तो साथ-साथ टहलते-घूमते हुए पुनः मेरे रूम पर आ गए ।
मैं उसे कुरेदना चाहता था, लेकिन शांत रहा । "कल पूछूँगा," -मैंने सोचा ।
उस शाम हम साथ ही रहे । मैंने उससे अरुणाचल प्रदक्षिणा "गिरिवलम" के बारे में पूछा। अरुणाचल की परिक्रमा करना एक शास्त्रोक्त महत्पुण्य माना गया है । चूँकि यह पर्वत भगवान शिव का ही प्रकट स्वरुप है, इसलिए ।
"हाँ, हाँ, - अवश्य । " - वह बोला । तय हुआ कि अगले दिन सुबह पाँच बजे हम यहाँ से 'गिरिवलम' के लिए निकलेंगे । दूसरे दिन सुबह ठीक पाँच बजे वह मेरे रूम पर हाज़िर था ।
हम आश्रम से निकले, और मौन परिक्रमा करते हुए करीब साढ़े ग्यारह आश्रम वापस लौटे । चूँकि आश्रम में भोजन का समय ग्यारह बजे का है, अतः हम बाहर बाज़ार में ही भोजन करने चले गए। दक्षिण-भारत का यही तो मजा ही, किसी भी वक्त कहीं भी, खाने के लिए उचित मूल्य पर साफ़-स्वच्छ, पेट भर खाना मिल सकता है, चाहे इडली हो, वडा-सांभर, या सिर्फ़ चांवल हों, जिसके साथ रसम, आदि मिल जाता है ।
उसका मौन था कि टूटने का नाम ही नहीं ले रहा था, लगता था जैसे कभी बोलना सीखा ही नहीं होगा ।
इस मौन में एक संक्रामकता थी । उसके नेत्रों को देखते ही आप भी मौन हो जाते थे । और ज़रा भी अस्वाभाविक या भयावना नहीं लगता था । इस मौन में हमने अनुभव किया कि वाणी का प्रयोग करना एक अस्वाभाविकता थी । हमने पाया कि एक ही दिग्-दिगंत तक छाया हुआ मौन था वह मौन । सारी दिशाएं भगवान् अरुणाचल की चैतन्य-ज्योति का विस्तार थीं, और वहाँ 'शब्द' नहीं था । बस एक प्राणवान चेतन प्रकाश था, जिसका केन्द्र सर्वत्र था लेकिन परिधि कहीं नहीं थी । उस मौन ने हम दोनों के वैयक्तिक अस्तित्त्व को लील लिया था । और इसमें भय नहीं था, एक उल्लास था । हम वही थे, जिसमें हम विलीन हो गए थे । हाँ, लेकिन हमारी 'वैयक्तिक' पहचान ज़रूर मिट गयी थी । मानों उस दिव्य सत्ता ने हमें अपने अंक में भर लिया था । अपने आलिंगन में समेट लिया था ।
अब सोचता हूँ, तो मुझे उस "Otherness" (*) का स्मरण हो आता है । चूँकि हम 'नहीं' थे, इसलिए यह भी दावा नहीं कर सकते, कि हमें कोई 'अनुभूति-विशेष' हुई थी । बस एक दिव्य तत्त्व 'था', -अलौकिक और अवर्णनीय सौन्दर्य, निराकार प्रेम, जो स्वयं ही स्वयं में 'रमण' कर रहा था । तब जहाँ काल, और स्थान तक विदा हो चुके थे, वहाँ 'व्यक्तित्त्व' की भला क्या हैसियत हो सकती थी ? अत: वह कोई 'वैयक्तिक' अनुभूति होती हो ऐसा कहनेवाला कोई 'व्यक्ति' भी कैसे हो सकता था ? लेकिन वहाँ 'सत्तामात्र' तो अवश्य ही होती है, जिसे अतीत या भविष्य का, और इसलिए वर्त्तमान तक का सन्दर्भ देना धृष्टता ही कहा जाएगा । वहाँ 'जानना' अर्थात् जिसे वेदान्त की भाषा में 'शुद्ध-चैतन्य' कहा जाता है, वह भी अबाध रूप से विद्यमान होता है । लेकिन इसलिए वह किसी 'पहचान' से रहित था/है, होता है । या कहें वह स्वयं ही अपनी पहचान होता है । हाँ लेकिन 'मेरी' अपनी 'काल्पनिक', स्मृति पर आधारित 'पहचान' ज़रूर 'मिट' गयी थी, या कहें, की 'काल' और 'स्थान' के साथ-साथ पिघलकर 'उस' सत्ता में घुल-मिल गयी थी । इस 'व्यक्तित्व' का नामों-निशाँ' तक बाकी नहीं रहा था । लेकिन अब वह सब 'स्वप्न' लगता है, और 'मैं', और 'मेरा' 'व्यक्तित्त्व', एक कठोर चट्टान सी वास्तविकता प्रतीत होते हैं !
यह हृदय की अनुभूति थी, गूगल के हिन्दी ब्लॉग की सर्विस में 'हृदय' शब्द को 'edit' करते समय एक 'विकल्प' मिलता है; "हृद्य", वैसी अनुभूति थी, हृदय-गत । गीता का श्लोक याद आता है,
"रस्या स्निग्धा स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विका प्रिया: "
वैसी कुछ अनुभूति थी । वह मस्तिष्क या बुद्धि का विषय नहीं हो सकती । बुद्धि या मस्तिष्क उसके उपकरण अवश्य हो सकते हैं और होते भी हैं, -उसी से 'प्रकाशित' होकर, 'प्रेरित' होकर अपना कार्य कर पाते हैं , ..... ।
ऐसे ही कुछ और मन्त्र याद आते हैं, :
"तन्नो हंसो प्रचोदयात्" , "तन्नो दंती प्रचोदयात्", तथा विश्व-प्रसिद्ध, :
"धियो यो न: प्रचोदयात् " भी,
जो गायत्री मन्त्र का अंश है ।
"क्या 'ज्ञान' ऐसे ही होता है ?" -मैं अब सोचता हूँ ।
लेकिन तब तो बुद्धि और मस्तिष्क की सारी गतिविधियाँ ही ठिठकी हुईं थीं । 'अनुभवकर्त्ता' (the 'experiencer') कहीं न था । और न ही वहाँ पर अनुभव किया जानेवाला 'विषय' (the experienced 'object'), या द्वैत-गत 'अनुभवन' जैसी ही कोई चीज़ ही थी । क्योंकि वहाँ समय या काल ही अनुपस्थित था । यह तो 'विचार' है, जो अब सर पटक-पटककर उस स्थिति को व्याख्यायित करने की कोशिश कर रहा है, जो तब वहाँ नदारद था ! हाँ यह तो समझ पाया की सब कुछ एक ही चैतन्य है, 'अरुणाचल भगवान्' ही हैं । नाम न दें तो भी । क्योंकि 'होना-जानना' अर्थात् 'सत्-चित्' तो तब भी अविच्छिन्न थे / हैं / होते हैं ! सर्वदा !
हम उसी सम्मोहित सी 'दशा' में 'जागृत-दशा' में, रात्रि के नौ बजे तक (भोजन के बाद तक) बस 'बैठे' ही रह गए थे । शायद कुछ इनी-गिनी बातें आपस में की होंगीं, लेकिन वे महत्वहीन रही होंगीं । फ़िर उसने मेरे चरण छुए और विश्राम के लिए चला गया । मुझ पर उसके 'मौन' का 'राज़' खुल चुका था, लेकिन मैं किसी से क्या कहता ?
( *J. Krishnamurti : "Krishnamurti's Notebook".) ***********************************************************************************









उन दिनों / 19.

उन दिनों बिलासपुर में रेलवे के किसी जोनल या रीजनल ऑफिस को रखने की माँग के समर्थन में उग्र उपद्रव हुए थे । रेल-संपत्ति को बहुत नुक्सान भी पहुँचाया गया था, और मैं सिर्फ़ राउरकेला तक ही जा सका था की ट्रेन निरस्त कर दी गयी थी । स्वास्थ्य तो ख़राब था ही, एक होटल में जाकर कमरा लिया, सौभाग्य से मुझे दूसरे दिन बिलासपुर के लिए ट्रेन मिल गयी, याने रिज़र्वेशन हो गया । वैसे भी उस दिन बिलासपुर की ओर कोई गाड़ी नहीं जा रही थी । तीन-चार दिनों बाद मैं घर (उज्जैन) में था ।
इस बीच मैं काफी बदल गया था । (वैसे यह वाक्य मुझे हमेशा से विरोधाभासी लगता रहा है, लेकिन उस बारे में फ़िर कभी ।)
तंत्र के बारे में अविज्नान की जानकारी ने मुझे बाध्य किया कि मैं इस बारे में नये सिरे से खोज-बीन करुँ , इन्हीं दिनों एक मित्र ने अचानक एक नई बात बतलाई, - उज्जैन में त्रिवेणी-संगम नामक तीर्थ-स्थल है, अवन्तिका-पुराण में उज्जयिनी-खंड में उसका वर्णन भी है, ऐसा उसने बतलाया । उससे चर्चा के दौरान पता चला कि उस स्थान पर बहुत पहले एक पुल था, जो बरसात में पानी बढ़ने पर बंद हो जाता था । फ़िर १९६० -७० के आसपास इंदौर-रोड पर वहाँ एक नया पुल बना, उसके एक ओर सीढियाँ हैं, जो शिप्रा-तट पर स्थित नव-ग्रह-मन्दिर तक जाने के लिए पुल के मध्य से भूमि-तल तक हैं । वाकई अविज्नान की बातें मन में कौंध गईं । वैसे तो इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि अविज्नान ने जैसा वर्णन उसकी डायरी से पढ़कर सुनाया था, हू भी ब हू वैसा ही लोकेशन यहाँ था , मैं अनेक बार वहाँ जाता भी रहा हूँ । सीढियों से उतरकर सीधे संगम तक पैदल, कच्ची पगडंडी है । नवग्रह-मन्दिर वहीं है । वहाँ संगम होने के कारण पौराणिक काल से ही लोग तिथि-पर्वों पर स्नान आदि के लिए जाते रहे हैं, लेकिन अविज्नान से मिलने के बाद मैं इसे नए नज़रिए से देखने लगा था । मेरा मित्र शायद मजाक में उन सीढियों को 'उन्नति की सीढियाँ' कहा करता है , मुझे इस पर कौतूहल अवश्य होता है । थोडा रोचक भी लगता है, मनोरंजक तो लगता ही है ।
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