April 28, 2009

उन दिनों / 18.

"तंत्र के बारे में तो मैं बिल्कुल अनभिज्ञ हूँ । " - मैंने असहायता जताई ।
"उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि तंत्र-सिद्धांत के अनुसार यह ज़रूरी नहीं है कि शिक्षक शिक्षा के सारे तत्त्वों को जानता हो । कई बार तो आप उससे भी शिक्षा ले लेते हैं, जो आपको जानता तक नहीं । दर-असल शिक्षक तो एक बहाना या 'माध्यम' भर होता है । साधक उसके ज़रिये 'अस्तित्व से ही शिक्षा ग्रहण करता है, और श्रेष्ठतम शिक्षक तो नितांत 'अंहकार- रहित' होता है । तब शिक्षा का हस्तांतरण सर्वाधिक स्वाभाविक, सहज रूप से होता है । तब शिक्षक जिस भी भाषा में बात करेगा, उससे शिष्य को मदद ही मिलेगी, जिस भी शैली में व्यवहार करेगा, वह साधक के सीखने के लिए अनुकूल बना लेगा ।" - उसने तंत्र-दर्शन समझाते हुए कहा ।
मैं चमत्कृत था, संदेह के बादल छँटने लगे थे ।
"अच्छा ! " -मैं फ़िर भी नहीं समझ पा रहा था कि ऐसा कैसे होता होगा !
" मैं तंत्र के बारे में हमेशा से उत्कंठित रहा हूँ, बचपन में जाने-अनजाने मैं अपनी उँगलियों और शरीर के द्वारा कुछ 'मुद्राएँ' बनाने लगता था, और शायद इसीलिये मेरे पिता मुझसे नाराज़ रहते थे । जिसे हम नहीं समझ पाते, या तो उससे आतंकित हो जाते हैं, या विस्मित, अभिभूत, या फ़िर मुग्ध ! यही स्थिति मेरे पिता के साथ थी । सब मैं खेल-खेल में किया करता था, न जाने कौन-कौन से मन्त्र मेरे भीतर गूँजने लगते थे, न जाने अपने भीतर कितने तरह के फूल 'अनुभव' होते, उनकी पंखुडियाँ आलोकित होतीं, उनसे न जाने कैसे स्वर उमड़ते, बाहर का संसार धीरे-धीरे विलुप्त हो जाया करता था, उस संसार के अपने रंग थे, अपनी छटाएँ थीं । बहुत बाद में पता चला था कि अपनी चेतना में ही यह सब होता है । मैं अपने अनुभवों को कुण्डलिनी-जागरण जैसा कोई नाम नहीं देना चाहता । यह सब रोचक होते हुए भी कभी-कभी ही होता था, -बड़ी धीमी गति से । इस बीच पिताजी और माता को देख-देखकर मैं पद्मासन लगाना सीख गया था। जब भी मुझे लगता कि कुछ 'नया' होनेवाला है, मैं पद्मासन लगाकर आँखें बंदकर बैठ जाता था । इससे पिताजी को बिल्कुल परेशानी नहीं होती थी । बस उन्हें 'मुद्राओं' से डर लगता था, और यह मुझे जल्दी ही समझ में आ गया था । शायद इसीलिये मेरा सारा ध्यान तंत्र की बजाय ध्यानयोग की ओर केंद्रित हो गया । लेकिन अभी कुछ आकर्षण तंत्र के प्रति फ़िर भी बना हुआ है, इसलिए भटक रहा हूँ । " -वह बोला ।
"मुद्राओं के बारे में कुछ बतलाओ । " -मैं उसे टटोलने लगा ।
"पद्मासन लगाने के बाद मेरी उँगलियों में कोई हरकत होने लगती थी । कभी-कभी तो ऐसी हरकत का अंदेशा (संकेत) होते ही मैं पद्मासन लगा लिया करता था, ताकि जो ऊर्जा उँगलियों में मुद्राएँ बनाने लगती थी वह बाहरी रास्ता छोड़कर 'भीतर' मुड़ जाती थी और मुझे उन 'लोकों' में ले जाती थी जहाँ मुझे फूलों, खुशबुओं, और ध्वनियों के अनुभव होते थे । बहुत बाद में जाकर पता चला कि पाँचों उँगलियों से, हृदय से, पञ्च-तत्त्वों, पञ्च-प्राणों, एवं पञ्च-तन्मात्राओं का संबंध है, और उनके द्वारा सूक्ष्म-से-सूक्ष्म में गति हो सकती है । "
तो अभी तो वही मेरा शिक्षक था ।
"ठीक है, फ़िर ?" -मैंने शांतिपूर्वक सुनते हुए उसे आगे कहने का मौका दिया ।
"फ़िर मैंने तंत्र-साहित्य पढा, Sir John Woodrofffe की किताबें, : "Serpant-Power", आदि पढ़ीं, पर मुझे कुछ ख़ास समझ में नहीं आ सका । तंत्र किताबों से पढ़ा भी नहीं जाता ।"
"हाँ" -मैंने उसका समर्थन किया, और करने के लिए मेरे पास था ही क्या !
"फ़िर मैंने तिब्बती भिक्षुओं के तांत्रिक प्रयोगों के बारे में जाना लेकिन तिब्बती भाषा मेरे लिए एक बड़ी अड़चन थी , न जाने क्यों मेरा मन उसमें ज़रा भी नहीं लगता था । "
"अच्छा !"
" हाँ, इस बीच मुझे किसी भिक्षु के पास एक हस्तलिखित पुस्तक मिली जिसमें तंत्र के व्यावहारिक प्रयोगों, या यूँ कहें कि लोक-कल्याण की दृष्टि से तंत्र में वर्णित कुछ प्रयोगों की जानकारी थी । सारा विवरण संस्कृत में था, और तिब्बती में उसका अर्थ भी श्लोक-दर-श्लोक दिया हुआ था । तिब्बती भिक्षु भी सिर्फ़ तिब्बती जानता था, कभी-कभी वह मुझे उन प्रयोगों के बारे में बतलाता भी था । मैं नहीं जानता की उसकी बातें कितनी और किस हद तक सच्ची थीं, लेकिन मैं उन्हें नोट ज़रूर कर लिया करता था । जैसे एक बार उसने मुझे आज की तारीख के बारे में बतलाया था। उसने कहा था की आज के दिन एक ऐसे व्यक्ति से मेरी मुलाक़ात किसी समुद्र-तट पर होगी, जो इस जीवन में मेरा आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक होगा । उसी ने मुझे यह भी बतलाया था की वह व्यक्ति बाहर से भले ही एक बिल्कुल साधारण सा आम आदमी दिखलाई दे, लेकिन मैं उसे miss न करूँ, उस पर शक न करूँ, और उससे जो भी सीख सकता हूँ ज़रूर सीख लूँ । और उसने ही मुझे यह भी कहा था, : 'तुम्हारा intution' ही तुमसे कह देगा कि मेरी बात सच है, या झूठ, और यह वही व्यक्ति है, या नहीं जिसके बारे में मैंने कहा था ' । "
वाकई बड़ा रोचक मामला था । लेकिन मैं थका हुआ था, अब आराम करना चाहता था ।
"तुमसे मिलकर खुशी हुई । हम शायद कल फ़िर मिल सकते हैं, अभी तो मुझे आराम करना है । " -मैंने उससे कहा ।
अगले दिन मेरा 'रिज़र्वेशन' था। मैंने उससे कहा कि सुबह साढ़े-नौ बजे मेरी गाड़ी पुरी से रवाना होनेवाली है । तुम चाहो तो हम सुबह यहीं मिलते हैं ।
उसे ऐतराज़ नहीं था । उसमें ज़रा भी अधीरता नहीं थी, जैसे उसे सब कुछ पहले से ही पता हो । वह एकदम बेफिक्र था ।
उस रात मैंने समीप के एक होटल में जाकर चाँवल, दाल, और सब्जी खाई। रोटी वहाँ नहीं थी । पुरी के 'भगवान्' श्रीजगन्नाथजी को मन ही मन प्रणाम किया, उनसे क्षमा-याचना की कि उनके दर्शन नहीं कर सकूँगा । सुबह स्वास्थ्य ख़राब होने की वज़ह से देर तक आराम करता रहा था, नहा भी लिया था, लेकिन रिक्शेवाले की दुष्टता, उद्दंडता से मन उचट गया था । सोचा था कि अपनी मर्जी से चला जाऊँगा, लेकिन उसकी बातों से लगा कि शायद मौका मिलते ही वह मेरे साथ लूट-पाट और मारपीट भी कर सकता है । आस-पास वालों को मुझसे कोई मतलब नहीं था, किसी तरह, उससे पीछा छुडाकर 'Nandi-Lodge' लौट पाया था । हाँ, अब याद आया, : गया था मैं रेलवे-स्टेशन 'रिज़र्वेशन' कराने, लौटते समय सोचा रिक्शे से लौटूँ, और वह मुझे जबरदस्ती मन्दिर ले जाना चाहता था !
सुअबह-सुबह मेरे रूम के दरवाजे पर खट- खटाहट हुई । यह lodge वैसा नहीं था जैसे कि सामान्यतः होते हैं । कोई बैरे या रूम-अटेंडेंट आदि नहीं थे । शायद एक-दो कर्मचारी होंगे जो बस साफ़-सफाई करते होंगे । दरवाजा खोला तो अविज्नान उपस्थित था । उसने दोनों हाथ जोड़कर 'प्रणाम' किया और फ़िर झुककर मेरे पैरों को छुआ, चरण-स्पर्श किए । मुझे थोड़ा अटपटा सा लगा, लेकिन मैंने उदासीन भाव से उसे बैठने के लिए कहा । मैं ब्रश कर चुका था, सामान थोड़ा ही था , ठीक से जमा लिया था । लगभग सात बज रहे थे जब हम वहाँ से चले ।
हम स्टेशन पर आ गए । रास्ते में नाश्ता किया, चाय पी, और उसने सिगरेट जला ली ।
"मैं सोच रहा था कि आपको जगाना ठीक नहीं होगा,लेकिन फ़िर मुझे आज आपसे मिलना भी बहुत ज़रूरी था न !" -वह सफाई देने लगा ।
"हाँ । "
हम लोग स्टेशन पर इधर-उधर घुमते रहे । छोटा सा स्टेशन । एक तरह से टर्मिनस । मुझे लगता है कि वहाँ से सभी गाड़ियाँ एक ही दिशा में जाती होंगीं । या शायद आगे जाकर अधिक-से-अधिक दो दिशाओं में । स्टेशन का ज्यादातर हिस्सा खुला-खुला सा था ।
हम लोग plateform पर एक बेंच पर बैठ गए 'रिज़र्वेशन' का टिकट जेब में था । अभी कोई लिस्ट नहीं लगाई गयी थी । वैसे भी गाडी वहीं से चलती थी । बहुत से बाँग्ला-भाषी, उड़िया-भाषी, आसपास थे । गरीबी और विपन्नता के मारे लोग, और उनके बीच इने-गिने पैसेवाले, समृद्ध, या टूरिस्ट आदि । मैं भी उनके बीच था और शायद ही कोई अनुमान लगा सकता था कि मैं यहाँ (उज्जैन में) एक L.I.G. मकान में रहता होऊँगा ! वैसे मैं वहाँ मौजूद ज्यादातर लोगों के मुकाबले काफी संपन्न हूँ, ऐसा लग रहा था ।
उसके पास कोई पैकेट था, -प्लास्टिक की थैली में ।
शायद कोई किताबें होंगीं । उसने पैकेट खोला और उसमें से एक डायरी निकाली ।
बहुत पुरानी सी दिख रही वह डायरी मुझे देने से पहले, उसने उसमें कोई तारीख ढूँढी, और मुझे बतलाने लगा, : "देखिये, इस तारीख को मैं सिक्किम के इस स्थान पर था ।" और आगे स्पष्ट अक्षरों में लिखा था कि फलाँ तारीख को भारत के किसी समुद्र-तट पर उसे एक आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक मिलेगा । (उसने डायरी में 'स्पिरिच्युअल-गाइड' ) लिखा था । मैंने डायरी पर एक सरसरी निगाह डाली । डायरी को देखकर ऐसा नहीं लगता था कि यह सब उसने आज-कल में या पिछले एक-दो सालों में लिखा होगा । मैंने डायरी हाथ में ली । उस डायरी में अन्तिम से तीन-चार पृष्ठ पहले तक सब-कुछ उसी इंक में लिखा था । बाद में कुछ पेन्सिल से या दूसरी इंक में भी लिखा था, -छोटी-मोटी बातें, किताबों के नाम, शहरों-गावों के नाम, लोगों के नाम पते, आदि-आदि । डायरी पर छपा 'वर्ष' भी 1983 जैसा था, उसमें और भी कई बातें ऐसी लिखीं थीं कि उस पर एकाएक अविश्वास भी नहीं किया जा सकता था । वह जालसाजी नहीं लगता था ।
"देखो, आम भारतीय तो तंत्र को वामाचार या जादू-टोना जैसा कुछ समझता है, और तंत्र में मुझे कभी दिलचस्पी नहीं रही । तंत्र की जो गंभीर और प्रसिद्ध पुस्तकें तुमने पढ़ीं हैं, मैंने शायद कभी उनके नाम ही पढ़े या सुने होंगे, लेकिन दिलचस्पी न होने से उनका स्मरण भी भी मुझे इतना अच्छा नहीं है, कि अधिकार-पूर्वक कुछ कह सकूँ । " -मैंने उससे कहा ।
"देखी, कल मैं आपसे कह रहा था कि मुझे बचपन में 'कुछ' ऐसा होता था कि मैं पद्मासन में बैठकर उँगलियों से 'मुद्राएँ' बनाने लगता था, मेरे भीतर कुछ मंत्रों आदि का उच्छारण मुझे सुनाई देने लगता था, कभी-कभी मैं इस 'दृश्य-जगत्' से बिल्कुल अलग और बहुत दूर, किसी दूसरे जगत् में, 'कहीं और' होता था, और तब मुझे अपने शरीर का, या उसके चारों ओर की दुनिया और वातावरण का ज़रा सा भी होश नहीं रह जाता था । किस्मत से मेरे माता-पिता इस सबसे न तो डरते थे और न चिंतित होते थे, -शायद वे अपने आप को असहाय महसूस करते थे, क्योंकि वे मेरी मदद कैसे करें यह भी नहीं समझ पाते होंगे, और सब-कुछ नियति पर छोड़ देते होंगे, क्योंकि उन्हें यह भी विश्वास था कि यह मनोवैज्ञानिकों या डॉक्टरों के बस की बात भी नहीं थी कि इसे समझ सकें । और इस सबसे किसी किस्म का नुक्सान होता हो ऐसा भी उन्हें नहीं लगता होगा ।
अब मैं समझ सकता हूँ कि वह एक प्रकार का 'ध्यान' ही था जिसमें मेरा मन जागृत अवस्था के चेतन स्तर से निकलकर अवचेतन-स्तर तक चला जाया करता था, और मुझे लगता है कि मन के सारे स्तर, चेतन, अवचेतन, अचेतन, तथा अतिचेतन (conscious, subconscious, unconscious, and transconscious / superconscious) भी, सहवर्त्ती (contemporary) होते हैं । लेकिन हम साधारणतः अपने चेतन-स्तर से ही अपने को बाँधे रखते हैं, और उस स्तर पर ही हर व्यक्ति 'अपनी' एक पहचान स्थापित कर, अपने-आपको वहीं तक सीमित मान लिया करता है । वही उसका 'व्यक्तिगत' जीवन व जीवन-काल, 'समय', और आत्मकथा (autobiography) होता है । लेकिन, 'ध्यान' के प्रयोग द्वारा वह यह भी समझ सकता है कि केवल एक ही अस्तित्व है, और ऐसे सारे 'विभिन्न' 'जीवन-काल' सदैव रहते हैं । समय का विभाजन एक बुद्धिजनित त्रुटि है, हालाँकि भौतिक दृष्टि से समय एक पूर्णतः व्यावहारिक सत्ता भी है, उसे नापा जा सकता है, और उस नाप के आधार पर कुछ कार्य-योजना भी बनाई जा सकती है । लेकिन हम यह न भूलें कि 'वैसा' समय सर्वकालिक या परम सत्य नहीं है । -वह एक सापेक्ष सत्य भर है, है न एक खूबसूरत सच ?
जैसा हमारा स्थूल-जगत् है, वैसा ही इन्द्रियों का अपना एक जगत् होता है, और इसी प्रकार 'तन्मात्राओं' का भी अपना एक जगत् होता है । "
'तन्मात्रा' याने ? , -मैं पूछ बैठा । उसने चेहरे पर किसी प्रतिक्रया का भाव लाये बिना कहा, : ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव, '-प्रतीतियाँ' कहना अधिक सही होगा, जैसे कि 'रूप, रस, गंध, स्पर्श, तथा शब्द ' -वह देवताओं का क्षेत्र है । ये पाँचों 'तन्मात्राएँ' जिन चेतन 'सत्ताओं' द्वारा नियंत्रित और संचालित की जाती हैं, उन्हें ही 'देवता' कहा जाता है । लेकिन जैसे ये पाँच तन्मात्राएँ परस्पर घनिष्ठतः संबंधित होती हैं, वैसे ही उनके 'देवता' भी परस्पर घनिष्ठतः संबंधित हुआ करते हैं । तंत्र का सार-सिद्धांत यही है । " लेकिन ऐसे अनेक तलों वाले असंख्य जगतों का 'अधिष्ठाता' चैतन्य एकमेव है, और अधिष्ठाता, अधिष्ठित से पृथक् नहीं होता है । वह सगुण और निर्गुण दोनों प्रकारों में, व्यक्त और अव्यक्त दोनों रूपों में सदैव एक ही है । व्यक्तिगत रूप से हम जिस जगत् को अनुभव करते हैं, वह चेतन (conscious) और अवचेतन (subconscious) तक ही सीमित होता है । अवचेतन (subconscious) की दूसरी तरफ़ एक ही जगत् है । यदि आपने प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव युंग को पढा हो, तो आप इसे आसानी से समझ सकते हैं, वैसे वैदिक ज्ञान में इस सब का अधिक बेहतर निरूपण है। "
मैं उसकी बातों को ध्यानपूर्वक सुन रहा था, अभी मेरी गाड़ी को काफी वक्त था । कहना न होगा, उसकी बातें रोचक थीं, और समझाने का लहजा भी दिलचस्प था ।
"फ़िर मैंने मांडूक्य-उपनिषद पढ़ा , श्री सुरेश्वराचार्य लिखित 'पंचीकरणं' भी पढ़ा, और मुझमें बौद्धिक-स्तर पर 'अद्वैत' की समझ आई । वैसी निष्ठा जागृत हुई । "
"बौद्धिक-स्तर पर, इसका क्या मतलब ?" -मैंने पूछा ।
"बौद्धिक-स्तर पर इसलिए, क्योंकि अभी यह एक बौद्धिक विवेचना से प्राप्त हुआ सैद्धांतिक निश्चय मात्र था, न कि अपरोक्ष-अनुभूति । दूसरी ओर, मेरी परम्परा में पुनर्जन्म की मान्यता नहीं थी, जबकि मेरे बचपन के रहस्यमय अनुभवों की व्याख्या पुनर्जन्म की वास्तविकता स्वीकार करने पर सरलता से हो सकती थी । इसलिए मुझे 'अद्वैत-सिद्धांत' आसानी से स्वीकार हो सका । "
"तो ? "
"कहने का मतलब यह कि मुझे पुनर्जन्म की सत्यता पर भी गहरा यकीन हो गया । "
"लेकिन यह तुम्हारा कोरा भ्रम ही रहा हो, ऐसा भी तो हो सकता है ? मन की कल्पना-शक्ति की क्या सीमा हो सकती है ? " -मैंने उसकी परिक्षा ली ।
"हाँ, शायद भ्रम ही रहा हो, और मैं यकीन और शक के बीच झूलता रहा था । "
"फ़िर ? "
"फ़िर उस बौद्ध-भिक्षु के पास जो ग्रन्थ था और जिसकी कुछ बातें मैंने नोट की थीं, उसमें से एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा मैंने यह भी पढ़ा और नोट कर लिया था , -उसने डायरी खोली, और पढने लगा :
"... ... ... 'आचार्य क्षेमस्वर-कृत- सेतु-सोपान-सूत्र ', ... ... .....
'नवलक'-तंत्र के आचार्य क्षेमस्वर के अनुसार अस्तित्त्व के विभिन्न उपादानों (मूल-तत्त्वों) से 'सृष्टि' हो जाने के बाद सृष्टि में ही विभिन्न 'स्थानों' और विभिन्न 'समयों' पर विभिन्न 'कर्मों' का 'उद्भव' होता है, इसके कई (असंख्य) उदाहरण हैं , जैसे तालाब, कुँआ, नदी, प्रपात, भँवर, समुद्र, द्वीप, अंतरीप, नदी का मुहाना, गुफा, पर्वत, अन्तरिक्ष आदि । ये सभी विभिन्न 'स्थान' और 'समय ', जहाँ 'व्यक्ति-सापेक्ष' होते हैं, वहीं 'व्यक्ति' स्वयं , 'आत्म-सापेक्ष' होता है । 'आत्मा' की दृष्टि में न तो कुछ घटता है, न 'बीतता' है, लेकिन 'व्यक्ति' के सन्दर्भ में ही 'सृष्टि' और 'लय' या 'प्रलय' आदि होते हैं । 'अस्तित्त्व' ऐसे ही असंख्य 'व्यक्तियों', 'घटनाओं' 'स्थानों' और 'समयों' की समष्टि है ।
फ़िर, मानवों, और विभिन्न जीवों द्वारा निर्मित कई ऐसे स्थान होते हैं, जहाँ विशिष्ट प्रयोग करने से, विशिष्ट कर्म (और कर्म-फल) प्राप्त होते हैं । 'वास्तु' का आधार-दर्शन भी यही है ।
'कर्म' का प्रथम अर्थ है - 'पुरुषार्थ', और दूसरा , कर्म(-फल) का अर्थ है 'भोग' , अर्थात सुख-दु:ख आदि ।
एक सूत्र यह है, -
जीवन जल है ।
जल की तीन 'गतियाँ' होती हैं,
गतियाँ तीन ही होतीं हैं ।
'चौथी 'अगति' कहलाती / होती है ।
'अगति' में ही सारी (तीनों) गतियाँ प्रतिष्ठित हैं ।
अगति उनसे स्वतंत्र है ।
नदी अस्थिर गति है ।
तीन नदियाँ तीन अस्थिर गतियाँ ,... ... .... .... .... (कुछ लिख कर काटा हुआ, जिसे न वह पढ़ / समझ पा रहा है, न मैं । )
तीन नदियों का संगम, लेकिन अगति से जुड़ता है । वह 'अगति' को प्रतिबिंबित करता है ।
दो नदियों का संगम दो अस्थिर गतियों का मिलकर एक तीसरी अस्थिर गति बन जाना होता है ।
सेतु स्थिर और अस्थिर की धुरी है । यह अगति का अमूर्त्त (abstract) रूप है , अर्थात् साकार और निराकार का संगम ।
सेतु वक्र, सरल या कुटिल हो सकता है ।
इसीलिये यही 'संसार' है, -संसृति ।
इस पर जाने का अर्थ है, जाना, आना, और जाना ।
सेतु के वक्र, कुटिल या सरल होने पर स्थिर और अस्थिर गतिरूपी जल, उसमें समस्त शुभ और अशुभ तथा मिश्रित फलों की उत्पत्ति करता है ।
एक ओर वाम, दूसरी ओर दक्षिण ।
पूर्व या पश्चिम नहीं, क्योंकि वह विभाजन 'पहले' और 'बाद' के रूप में 'समय' का ही विभाजन है, जो बस 'कल्पित' होता है, -'सत्य' नहीं !
प्रथम या अनंतर नहीं !
यह तभी संभव है जब सेतु के एक ओर या दोनों ओर एक या एक से अधिक 'सोपान' हों ।
इसे ही प्रथम चित्र में बतलाया गया है ।
यह सब तो 'text' था, -'कथ्य' ।
फ़िर एक अन्य तारीख का ज़िक्र था । उसी डायरी में उस तारीख के पृष्ठ को अविज्नान ने खोला । वहाँ एक सरल सा रेखाचित्र था । एक नदी, जिस पर पुल है । पुल के दोनों तरफ़ दो सोपान (सीढ़ीयाँ) हैं , जो नदी के दोनों किनारों के समानांतर चली गईं हैं । उन तटों पर मन्दिर, घाट, मकान आदि हैं । नदी आगे जाकर दूसरी नदी से मिल रही है । संगम ।
फ़िर लिखा था :
इस सोपान-सत्य-सोपान या सेतु-सोपान-सेतु पर (जहाँ एक ही ओर सोपान हो) निश्चित समय पर, आकाश और काल की स्थिति--विशेष के अनुसार मनुष्य का भाग्य, यश-अपयश, लाभ,-हानि, जीवन-मृत्यु, शुभ-अशुभ, चरित्र, धर्म तथा पाप-पुण्य जन्म लेते हैं ।
यह गहन चिंतन का विषय है लेकिन सामान्य मनुष्य के कल्याण के लिए आचार्य क्षेम-स्वर ने कुछ विशिष्ट प्रयोग निर्देशित किए हैं, जिन्हें ऐसे स्थान पर करने से वह जीवन में सुखी और अंततः मोक्ष की प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है । यश, लाभ तथा दैवी सिद्धियाँ भी प्राप्त कर सकता है ।
"यह सब क्या है ? " -मैंने पूछा ।
"यही तो ! यह सब मुझे थोडा-थोडा समझ में आया है, लेकिन चाहता हूँ कोई इसे मुझे ठीक से समझा दे । "
"पर तुम्हें यह क्यों लगा की मैं तुम्हें यह सब समझा सकूँगा ? "
" न भी समझा सकें तो भी कोशिश करने में हर्ज़ क्या है ? फ़िर उस बौद्ध-भिक्षु ने मुझे आज की तारीख दी थी, उस आधार पर आपसे पूछने के अलावा मैं कर भी क्या सकता था ? "

उत्तर में मैं मुस्कुरा दिया । गाड़ी आने का सिग्नल हो चुका था । अविज्नान से फ़िर मुलाक़ात होगी ऐसी कल्पना तक नहीं थी। 'चलो, यह अनोखा अध्याय भी समाप्त हुआ' -मैंने सोचा । गाड़ी के आते ही मैंने अपनी 'बर्थ' और डिब्बा तलाशा , कुछ देर तक साथ बैठे रहे, फ़िर गाड़ी के चलते ही वह उठ खडा हुआ, एक लिफाफा मुझे दिया, बोला - 'बाद में खोलियेगा ... ... 'प्लीज़' । मेरे चरण स्पर्श किए, और गाड़ी से उतर गया ।
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April 25, 2009

उन दिनों / 17.

"Don't you feel, you are spoiling our sea-coasts "?
-मैंने उसे झिड़ककर कहा । मुझे 'सिखाने' का रोल जो मिला था !
"हाँ, आप ठीक कह रहे हैं ।" -उसने दुखी होकर कहा ।
"लेकिन मैं सोचता हूँ कि बाकी अधिकाँश लोगों की तुलना में मैं इस धरती को कुछ कम ही बरबाद कर रहा हूँ । "
"कैसे ? "
"देखिये धरती, जल, वायु, और आकाश को तो हम सभी समान रूप से विनष्ट कर रहे हैं, लेकिन मैं सोचता हूँ कि जो व्यक्ति इनका न्यूनतम दुरुपयोग करता है, वह कम दोषी है । उतना नुक्सान तो सर्व-सहा धरती आसानी से झेल लेती है, और उसकी क्षतिपूर्ति भी कर देती है । "
"हाँ ",-मैंने उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा ।
"अच्छा, क्या आप मुझे तंत्र के संबंध में कुछ बतलाएंगे ? " -उसने बिना देर किए मौके का फायदा उठाते हुए मुझसे पूछ लिया ।
"तंत्र के संबंध में ? इसका तुम्हें क्या उपयोग होगा ? "
"देखिये मेरे माता-पिता को ध्यान और भारतीय आध्यात्म की दूसरी चीज़ें बहुत आकर्षित करतीं थीं, लेकिन तंत्र के प्रति उनके कुछ पूर्वाग्रह थे । सिर्फ़ पूर्वाग्रह ही नहीं थे, बल्कि यह उन्हें शायद एक धोखा या ऐसा ही कुछ लगता था । वे तंत्र से डरते भी थे, और ज़ाहिर है कि उनका तंत्र का यह आधा-अधूरा ज्ञान ही था जिसके कारण तंत्र का नाम लेते ही उनकी भौंहें तन जातीं थीं । "
"तुम्हारा अपना धर्म क्या है ?" -मैं स्वयं ही अनजाने ही दलदल में उतर गया था । मैं उसके फैलाए जाल में फँस चुका था ।
"यही तो, " -वह गंभीर होकर बोला ।
मैं उसे देख रहा था ।
"मेरा, या कहें 'हमारा' कोई धर्म भी है ?"
"अरे भाई कोई तो धर्म परम्परा से तुम्हें मिला होगा, तुम्हारे माता-पिता, तुम्हारे नाते-रिश्तेदार, तुम जहाँ रहते हो वहाँ का समाज, किसी तो धर्म से जुड़ा होगा ? " -मैंने थोड़े रोष और आश्चर्य से कहा ।
"लगता है हमें लम्बी चर्चा करनी होगी, मैं तैयार हूँ, मैं बहुत संक्षेप में आपको बतलाऊँगा कि ऐसा क्यों है कि मेरा कोई धर्म नहीं है ! लेकिन फ़िर भी उसमें आपको धीरज से सुनना होगा, मेरा निवेदन है यह आपसे ! "
- उसने अनुनयपूर्वक कहा ।
"ठीक है । " -मैं राजी था ।
'हमारा यूरोप, जहाँ खासकर दो परम्पराएँ प्रचलित हैं, यहूदी, और ईसाई, और एक तीसरी परम्परा जो मध्य एशिया से आई है, अर्थात इस्लाम, इन्हें मैं 'धर्म' की श्रेणी में नहीं रखता । ये 'परम्पराएँ'-मात्र हैं, न कि धर्म । इसीलिये मैंने आपसे निवेदन किया कि आप कृपया धीरज से मेरी बातें सुनें । "
जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ, मैं अनजाने में ही एक दलदल में उतर आया था, और वही अब मेरा उद्धार करनेवाला था । अब मुझे वह 'धर्म' के महासमर में खींच लाया था । मुझे भगवद्गीता याद आ रही थी ,
"किम् कर्म किम् अकर्मो वा, कवयो-अपि अत्र विमोहिता :"
पता नहीं गीता में इस श्लोक में किस शब्द का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन मुझे लगता है कि इस श्लोक में यदि 'कर्म' के स्थान पर 'धर्म' लिखा होता, तो शायद अविज्नान का अभिप्राय इस समय यही जान पड़ता था । मुझे धीरज रखने को कहा गया था ।
"गलती कहाँ है ?" -उसने पूछा । मुझे लग रहा था कि इस समय उसका ज़ोर सीखने की बजाय सिखाने पर अधिक था ।
"मैं आपको ज्यादा परेशान नहीं करूँगा । मेरा अपना सम्प्रदाय है ईसाई । सम्प्रदाय धर्म नहीं है, और धर्म सम्प्रदाय हो भी सकता है तथा नहीं भी हो सकता । यदि सम्प्रदाय का अर्थ 'sect' करें, तो भी कुछ छूट जाता है, सम्प्रदाय संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका मतलब है, सम्यकत्वेन प्रदीयेत इति ... ... । मैं बहुत अच्छी संस्कृत नहीं जानता लेकिन उस अर्थ में भी सम्प्रदाय शब्द का प्रयोग वैदिक या सनातन धर्म की परम्पराओं तथा शिक्षाओं को जिन लोगों (ऋषियों) ने स्थापित किया और जिसे अपनी संतानों के लिए सुरक्षित किया , उनके अपने अपने वर्ग-विशेष हेतु होता है । पश्चिम की तीनों परम्पराओं में ऐसा कुछ नहीं है, वे 'विश्वास' पर आधारित हैं, वहाँ 'मान्यताएँ' हैं, वहाँ सम्प्रदाय नहीं हैं, अपने-अपने 'sect' हैं, -फिरके हैं। हरेक की अपनी अपनी किताब है, अपना-अपना अन्तिम पैगम्बर है, और दूसरे पैगम्बरों के बारे में उनकी मान्यताओं में असहमति है । हैरानी की बात यह है कि यहूदी परम्परा वैदिक परम्परा का ही बहुत बदला हुआ रूप है, अब इसे क्या कहूँ ? फ़िर इस बदलाव में ऐतिहासिक प्रभावों के फलस्वरूप ईसाइयत और इस्लाम का जन्म हुआ। बदलाव में और बदलाव हुए, इतिहास गवाह है कि इन परम्पराओं का आपसी बैर कितना गहरा है । फ़िर इन तीनों परम्पराओं के पुन: अनेक फिरके और अनेक विरोधाभास हैं, तत्त्व-चिंतन का तो वहाँ नाम तक नहीं है । पाश्चात्य विद्वानों ने जब वैदिक ग्रंथों का अध्ययन किया तो अपने परम्परा से प्राप्त हुए पूर्वाग्रहों के खाके में उसका औचित्य टटोलने लगे । उन्होंने इसे 'religion' समझा और 'धर्म' का अनुवाद 'religion' हो गया । फ़िर आपके देश के गांधीजी जैसे लोगों ने सारे 'धर्मों' को समान समझने की शिक्षा दी, जो कि मूलत: एक 'blunder' है । मैं नहीं जानता कि मेरी बात आपको किस हद तक गले उतर सकेगी । लेकिन आज की समस्याएँ उन्हीं की शिक्षाओं का दुष्परिणाम हैं । मेरे लिए गांधीजी कतई महत्वपूर्ण नहीं हैं, लेकिन उनकी शिक्षाओं में विद्यमान विसंगतियों को हम देखना तक नहीं चाहते, यही हमारी और एक भूल है, ऐसा लगता है । "
"तो तुम अपने को हिन्दू कहना चाहते हो ?" -मैंने पूछा ।
"यही तो, ... ..." , यह उसका तकिया-कलाम था ।
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"मुझे नहीं लगता कि 'हिन्दू' कोई धर्म है , किसी भी वैदिक-ग्रन्थ या पौराणिक शास्त्र में भी इस शब्द का नाम नहीं पाया जाता । यह यहाँ के रहनेवालों को, पश्चिमी लोगों द्वारा दिया गया जातीय नाम है, जिससे यहाँ के निवासियों को संबोधित किया जाता रहा है । "
"तुम क्या सोचते हो, क्या गांधीजी ग़लत थे ? " -मैंने पूछा ।
"बेशक । लेकिन इसका सबूत मुझे नहीं देना है । मेरे पास बस इसके पर्याप्त प्रमाण हैं की कैसे एक 'किताब' का ज़िक्र , यहूदी, ईसाई, कैथोलिक, और इस्लामिक परम्पराएँ करती रहीं हैं, कैसे ऋग्वेद के इन्द्र का नाम यहोवा था, और कैसे यहूदी परम्परा के उदय से पहले जिसे पगानिस्म कहा जाता है, वैसी सामाजिक परम्परा पूरी धरती पर थी । आज इस सब बारे में पर्याप्त खोज-बीन की जा चुकी है । वैसे आपने मेरे धर्म के बारे में पूछा इसलिए इतना बताना ज़रूरी समझा। आपने सूना, इसके लिए आपका धन्यवाद । " -इतना कहकर वह मेरी ओर देखने लगा । उसकी बातों में सच्चाई थी । मुझे शर्म आने लगी कि एक विदेशी मेरे और मेरी परम्पराओं, भाषा, तथा संस्कृति आदि के बारे में मुझसे बेहतर जानता है । शर्म भी, और गौरव भी अनुभव हो रहा था !

April 04, 2009

उन दिनों / 16.

हमारे इस सत्र का एक 'अभिसमय' था । पहले यह बतला दूँ कि 'सर' के यहाँ पर आते ही यह तय हो गया था कि इसे हम सत्र (session) भर कहेंगे । और यह बहुत हद तक अनौपचारिक था । इसे न तो प्लान किया गया था, और न इसे कोई नाम दिया गया था । 'एजेंडा' जैसा कुछ नहीं था । अधिक से अधिक फ्रैंडली चैट कह सकते हैं इसे । अब रही बात 'अभिसमय' की, तो आज ही डॉ. वेदप्रताप वैदिक के एक लेख में 'अभिसमय' इस शब्द का प्रयोग देखने को मिला था, जिसे उन्होंने 'convention' के अर्थ में इस्तेमाल किया था । उनका संकेत ब्रिटिश संविधान के उन अलिखित 'conventions' की ओर था, जिसका पालन करना ब्रिटेन के शासकों, नेताओं, पार्लियामेंट हाउस ऑफ़ कॉमन्स तथा हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स से किया जाना अपेक्षित होता है । और मैंने वहाँ से यह शब्द उठा लिया, -श्री वैदिक के प्रति आभार सहित ।
सो, हमारा 'अभिसमय' यही था कि हम अपने विचार, मत, वक्तव्य आदि के लिए किसी शास्त्र, धर्म-शास्त्र, धार्मिक मान्यताओं, ग्रंथों, विचारकों, दार्शनिकों, आदि को बीच में नहीं लायेंगे । इसके अपने फायदे हैं, -और अपने जोखिम भी हैं । पर यह 'अभिसमय' हम सबने मानों साथ बैठकर तय किया हो, ऐसा लग रहा था, जबकि इसे तो मैंने सत्र की समाप्ति पर अचानक ही महसूस किया था, - नोट किया था ।
अविज्नान और 'सर' के बीच की बातचीत, ज़ाहिर है कि अभी शुरू ही हुई थी । अविज्नान की अंतर्दृष्टि, और 'सर' की प्रज्ञा दोनों के बीच 'ट्यूनिंग' बैठ गयी थी । अविज्नान के पास मौलिक चिंतन की अथाह क्षमता थी, और 'सर' के पास उस क्षमता को 'जागृत' करने की असाधारण शक्ति । मुझे याद आता है, अविज्नान से जब मेरा परिचय हुआ था तो वह सिगरेट पीता था, शायद आज भी पीता हो, मुझे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन वह तो मानो हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ा हुआ था ।
नवलक-तंत्र के आचार्य क्षेमस्वर को कौन नहीं जानता ! मेरा एक मित्र रतनलाल खेमेसरा कहा करता था, कि उसका कुलनाम उनसे ही प्रारंभ हुआ था , लेकिन मैं स्वयं भी तब तक उनके नाम से अपरिचित था, जब तक कि अविज्नान से मेरी मुलाक़ात नहीं हुई थी ! सचमुच काल के प्रवाह में यद्यपि सब कुछ बह जाता है, लेकिन संयोगवश या अपूर्व की शक्ति से कभी-कभी वह पुनः उभरकर प्रत्यक्ष भी हो उठा करता है ।
सन् १९९३-९४ की बात रही होगी । यात्रा पर था मैं । उड़ीसा के पुरी का समुद्र-तट । स्वास्थ्य काफी ख़राब था । बस ऐसे ही कुछ वक्त गुजारने के लिए घूमता-घामता नंदी lodge के पीछे इस समुद्र-तट पर चला आया था । मछेरों के नॉयलोन के जाल बनाए -सुधारे जा रहे थे । हो सकता है कि दो-एक दिनों में ज्वार आनेवाला हो, क्योंकि तब शुक्ल-पक्ष समाप्ति की ओर था, या यह वैसे ही उनकी रोज़मर्रा ज़िंदगी का हिस्सा रहा हो, और मछलियाँ बटोरने के लिए ज्वार का इंतज़ार हो रहा हो । जो भी हो । समुद्र-तट पर भीड़ में मैं एकाकी-सा रेत में ही एक स्थान पर पैर फैलाकर बैठ गया था । थोड़ी ही दूरी पर कुछ विदेशी तैरने और जल-क्रीडा करने के बाद कोल्ड्रिंक्स आदि का सेवन कर रहे थे । मैंने दो दिनों से खाना तक नहीं खाया था । बस चाय, पानी, थोडा सा नमकीन आदि बीच-बीच में खाता रहा था । पुरी के स्टेशन पर एक गंदे-से होटल में चार छोटी-छोटी इडलियां ज़रूर सुबह जैसे-तैसे खाईं थीं , -नाश्ते के तौर पर । लेकिन सभी चीज़ें बहुत महँगी और घटिया किस्म की लग रहीं थीं ।
मेरे समीप ही एक यूरोपियन भी आकर बैठ गया था । मुझे पता भी नहीं चला की वह वहाँ कब आकर बैठ गया था । और उस पर दृष्टि पड़ते ही मैंने अपनी नज़रें तुंरत ही उससे दूर हटा ली थी, क्योंकि मेरा ख्याल था की विदेशियों के बारे में मैं कुछ ठीक से नहीं जानता, उनके बारे में कोई भी अनुमान लगाना रिस्की होता है । थोड़ी देर तक वह वहाँ बैठा समुद्र को देखता रहा, फ़िर उसने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला ।
"आप लेंगे ?" -कहते हुए अचानक ही उसने इतनी सहजता और आत्म-विश्वासपूर्वक मेरी ओर सिगरेट का पैकेट बढाया कि मैं अचकचा गया । उसके हिन्दी के विशुद्ध उच्चारण और टोन से मैं चकित हुआ, लेकिन उसकी आवाज़ में फ़िर भी विदेशी और खासकर यूरोपियन या अमरीकी रंग भी झलक रहा था । मैंने मानो उसकी ओर नहीं देखा हो, और उसकी आवाज़ नहीं सुनी, ऐसा अभिनय किया । उसने अपनी उपेक्षा पर कोई प्रतिक्रया नहीं दर्शाई ।
आकाश की ओर देखते हुए लेकिन मुझे संबोधित करते हुए उसने थोड़ी सी ऊंची आवाज़ में पूछा, -
"If you don't mind, may I smoke here ?"
"Oh sure !", - मैंने उदासीन भाव से उसे उत्तर दिया , और पुनः समुद्र की लहरों, उसमें जल-क्रीडा करते युवक-युवतियों, बच्चों, आदि को देखने लगा । सचमुच भारतीय लोग कोई भी काम पूरी सहजता और उन्मुक्तता से नहीं कर पाते हैं । वे शर्म, संकोच, अपराध-बोध, और तथाकथित माडर्न और 'फ्रैंक' होने के गर्व तथा 'नयेपन' के रोमांच को अनुभव करने के मिले-जुले अहसास से किसी भी चीज़ के स्वाभाविक आनंद का सत्यानाश कर डालते हैं । लेकिन वह वर्ष ९३-९४ की बात थी । अब सदी पलट गयी है , मेरे मित्र, खासकर नई पीढी के लोग मुझसे कहते हैं, -"अरे, अब तो इंडिया 'americanised' हो चला है । " मैं उनकी बात से सहमत हूँ । आजकल लड़कों की 'girlfriend' और लड़कियों के 'boyfriend' होना 'socially accepted' होता जा रहा है, ऐसा लगता है, और वह भी इस छोटी सी कालोनी तक में दिखलाई देता है । 'मोबाइल'-क्रांति इधर के पाँच-दस वर्षों में भारत के आम बच्चों के चेहरे और चिंतन (या नज़रिया ?) में जमीन-आसमान का फर्क ले आई है । लेकिन उस समुद्र-तट पर नहाते या जलक्रीडा करते उन भारतीयों में अजनबियों से 'शर्म', जान-पहचानवालों से 'सभी' दूरी, इन सबका अटपटा घालमेल नजर आ रहा था । खैर, वे उनकी जानें, -मैंने सोचा ।
लेकिन यह यूरोपीय, जो निश्चिंतता से यहाँ बैठे हुए सिगरेटें फूंक रहा था, अचानक सिगरेट बुझाकर मेरे बिल्कुल पास आ बैठा ।
" आप क्षमा करें, तो मैं आपसे परिचय करना चाहता हूँ ।" -वह पुनः बोलचाल की शुद्ध हिन्दी बोल रहा था ।
"मुझसे ?, क्यों ? "- मुझे हैरत हुई ।
"इसलिए, क्योंकि आप आम भारतीयों जैसे नहीं लगते । "
"कैसे ?"
"देखिये आप सबसे उदासीन, कटे-कटे से, अकेले ही बैठे हैं, मैंने बातचीत करने के इरादे से दो बहाने बनाए, पर आपने मुझे ज़रा भी महत्व नहीं दिया, शायद आप मेरे बारे में सोचना तक नहीं पसंद करेंगे ।"
"ठीक है, इसके लिए मैं आपसे माफी चाहता हूँ । " - मैंने एक बार फ़िर औपचारिक सा उत्तर दिया और पुनः अनुद्विग्न भाव से समुद्र की ओर देखने लगा ।
"लेकिन फ़िर आप यूरोपियन या अमेरिकन भी नहीं लगते । "
"हाँ ।"
"मैं सोचता हूँ कि आपके पास अवश्य ही वह रहस्य है, जो भारतीय ऋषियों के पास हुआ करता था । "मुझे समझ में नहीं आया कि आख़िर वह मुझसे क्या चाह रहा था, अभी तो मैं इस साधारण से रहस्य को भी नहीं समझ सका था ।
"देखिये, मैं पिछले बारह-तेरह वर्षों से संतों, ऋषियों, आदि की खोज में भटकता रहा हूँ ।, और इसी खोज को जारी रखने के लिए मैंने हिन्दी सीखी, मैं थोड़ी-बहुत तिब्बती और संस्कृत भी जानने लगा हूँ, और मैंने सूना है कि वास्तविक संत की यही पहचान है, कि उसके समीप जाने पर मन अनायास ही शांत हो जाता है । और इसी कसौटी पर मुझे महसूस हुआ कि आप ऐसे ही एक श्रेष्ठ संत हैं, इसलिए मैं बेझिझक आपके पास चला आया । आप ऋषि भी हों तो कोई आश्चर्य की बात न होगी । "
"अच्छा ! " -मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया ।
"हाँ, और यह अकारण नहीं है, कि मैं किसी बहाने से आपके समीप पुनः आया, और मेरे इस अनुमान की पुष्टि भी हो गयी ।"
उसकी शुद्ध, धाराप्रवाह हिन्दी के लहजे से मुझे लगा, हो न हो, यह किसी विदेशी सरकार का एक जासूस है ।
"आप सोच रहे होंगे कि मैं किसी विदेशी सरकार या गुप्तचर संस्था द्वारा भेजा हुआ एक जासूस तो नहीं हूँ !" -उसने मानो मेरे विचार को पढ़ लिया हो ।
"हाँ, सोच तो रहा था, लेकिन यह समझ में आते ही, कि आप दूसरों के विचार भी पढ़ सकते हैं, मैंने उस विचार को झटक दिया । "
"यही तो ! मैं जाने-अनजाने कभी-कभी दूसरों के विचार तो पढ़ भी लेता हूँ, लेकिन ख़ुद अपने विचारों से त्रस्त रहता हूँ ।" और मुझे चिंताओं, भयों, इच्छाओं आदि से छुटकारे का उपाय नहीं मिल रहा है ।
"अच्छा ! "
"मेरा नाम अविज्नान है, और मैं यहाँ पर दो दिनों तक और रहूँगा । मैं चाहता हूँ आप मुझे कुछ सिखाएं । "
"मैं ? -मैं आपको क्या सिखा सकता हूँ ? " -मैंने थोड़ा आश्चर्य-चकित होकर कहा ।
"कुछ भी । जो भी आप उचित समझें । "
"देखो भाई, मैं हिन्दुस्तानी आदमी हूँ, और चाय पीने की इच्छा हो रही है । " -मैंने सोचा शायद इस बहाने इस विचित्र मुलाक़ात का अंत हो सकेगा ।
"चलिए, मैं भी पी लूंगा । "
हम दोनों पास के किओस्क नुमा केबिन में जाकर बैठ गए ।
"यहाँ शायद चाय नहीं मिलेगी ", -उसने आसपास नज़रें दौडाते हुए कहा ।
"फ़िर काफ़ी चलेगी । "
बैरा काफ़ी ले आया ।
थोड़ी देर बाद उसने अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और टेबल पर रखी माचिस के बजाय अपनी ही दूसरी जेब से लाईटर निकाला ।
"आप सचमुच स्मोकिंग बिल्कुल नहीं करते ? " - एक बार फ़िर उसने पूछा ।
"मैं कभी-कभी बीड़ी पी लेता हूँ । " -मुझे मजाक सूझी ।
वह थोड़ी हैरत से मुझे देखने लगा । मैंने दृष्टि फेर ली ।
"अच्छा ! " -कहकर वह सिगरेट जलाने लगा । पास से आ रही समुद्री हवाएं उसके सिगरेट जलाने में बाधा दे रहीं थीं ।
"आप कब तक यहाँ रहेंगे ? " -उसने पूछा ।
"बस कल ही सुबह चला जाऊंगा । "
कुछ समय बाद हम बाहर निकल आए । पुनः घूमते हुए उसी स्थान पर जाकर वापस बैठ गए जहाँ से काफ़ी पीने के लिए उठकर किओस्क गए थे ।
"आप..., तुम मुझसे क्या सीखना चाहते हो ? " -मैंने पूछा ।
"मुझे आपसे क्या सीखना चाहिए ? " उसने सवाल किया ।
"हाँ, यह ठीक है, अच्छा अपने बारे में पहले कुछ बतलाओ, अब तक तुम क्या-क्या करते रहे, पढाई-लिखाई, जन्म, परिवार , और ये आध्यात्म और भारत का क्या चक्कर है ? "
"मैं आस्ट्रिया में पैदा हुआ था, फ़िर माता पिता के साथ जर्मनी चला गया था। बाद में मेरे माता-पिता के बीच तलाक हो गया था लेकिन फ़िर भी वे एक-दूसरे के अच्छे दोस्त ज़रूर बने रहे थे । उन्होंने उनके अकेले बेटे यानी मेरी परवरिश में लापरवाही नहीं की । मेरे माता- पिता भी आध्यात्म, खासकर 'मेडिटेशन' नाम की चीज़ की ओर बहुत आकर्षित थे । मेरी माता तो हिंदू बनना चाहतीं थीं , और मेरे पिता उपनिषद् तथा गीता आदि पढा करते थे । लेकिन उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो उन्हें इन ग्रंथों के बारे में ठीक से समझाता । भारत में भी विद्वान् लोग हैं, वे कोरे बौद्धिक हैं, और ज़्यादातर तो ख़ुद ही भ्रमित हैं । दूसरी ओर पारंपरिक मठों आश्रमों के मठाधिकारी या महंत आदि हैं, वे अपनी परम्परा से बाहर के लोगों की अवहेलना करते हैं । फ़िर कुछ स्वघोषित, तथाकथित 'enlightened' लोग हैं, कुछ 'भगवान्', स्वामी, आचार्य, godman, आदि हैं, जिनके अपने-अपने अनुषंगी ध्येय हैं, वे राजनीति से ज्योतिष, और तंत्र से योग और साहित्य तक में दखल रखते हैं । हम जैसे लोग उनके दायरे में कतई फिट नहीं होते । कुछ गुरु या साधु-संत किस्म के लोग भी हैं, लेकिन ज़्यादातर लोग तो 'मार्केटिंग' (स्पिरिच्युअल व्हीलिंग ) में ही लगे हैं । "
-कहते हुए वह हँसने लगा ।
"हम न तो यह समझ सकते हैं कि उनमें से कौन जेनुइन स्पिरिच्युअल टीचर है, और न उन पर शंका कर सकते हैं । लेकिन स्थिति लगभग यही है । बस इसलिए मेरे पिता ख़ुद ही बहुत सी किताबें पढ़कर यह जानने की कोशिश करते रहे कि इस सबका सच्चा तत्त्व खोज पाएँ । यूँ कहें कि दर्शन-शास्त्र की भूल-भुलैया में भटक गए । मेरी माता चित्रकार है, और उसमें ही उन्होंने आध्यात्मिक शान्ति खोज ली है, ऐसा वे कहती हैं । मुझे नहीं पता कि इसका मतलब क्या है ! लेकिन अब उन्हें सिर्फ़ मृत्यु की प्रतीक्षा है, तब तक जीवन भक्ति करते हुए गुजारना है, ऐसा भी उनका विश्वास है। वे शिव-भक्त हैं, और बस ओम नमः शिवाय का जाप करती हैं। वैसे सिनेमा, ड्रामा, (थियेटर) आदि देखना भी उन्हें अच्छा लगता है । पार्टियों में आना-जाना भी उन्हें अच्छा लगता है, लेकिन वे चर्च कभी भूलकर भी नहीं जातीं । मेरे माता-पिता शर्रब नहीं पीते, लेकिन दोनों कभी-कभी स्मोकिंग करते हैं । वही बात मेर जींस में भी आ गयी है, ऐसा लगता है । " -कहकर वह फ़िर मंद-मंद मुस्कुराने लगा ।
"और तुम्हारी पढाई-लिखाई ? "
"कॉलेज तक पढाई की, स्कोलरशिप मिल गयी थी, माता-पिता भी देख-भाल करते थे, कॉलेज में ही हिन्दी और संस्कृत पढ़ा, , भारतीय भाषाएँ पढ़ीं, और भारत चला आया ।"
"और तिब्बती कहाँ सीख ली ?"
"कुछ समय धर्मशाला,सिक्किम, भूटान तथा नेपाल के मठों के चक्कर लगाते हुए टूटी-फूटी तिब्बती सीख ली । लेकिन अभी भी कोई ख़ास नहीं आती । "
उसकी सिगरेट ख़त्म हो चुकी थी, उसने उसे धरती पर रेत में मसलकर बुझा दिया और दूसरी एक जलाने का उपक्रम करने लगा ।
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