March 26, 2009

उन दिनों / . 15.

तो ये अक्टूबर के दिन थे । रवि और अविज्नान उन दिनों मेरे घर में रहा करते थे । अविज्नान तो अपने कमरे में होता, वह रात्री में 'ध्यान' किया करता था । रवि रात्रि में क्रांतिकारी और 'विचारोत्तेजक' चिंतन वाली किताबें पढा करता था । वे दोनों इसलिए सुबह-सुबह शायद ही कभी उठते होंगे । सिर्फ़ तभी जब इसकी कोई ख़ास वज़ह हो । उन्हें पता था कि मेरे लौटकर आने तक वे आराम से सो सकते थे । अविज्नान का तो फ़िर भी कुछ तय नहीं था, कभी-कभी मैं लौटकर आ भी जाता और आठ-नौ बजे तक भी उसका कमरा बंद ही मिलता। मेरे घर में सारे दरवाजे ऐसे थे जो कि ठीक से बंद नहीं होते थे । अविज्नान ऊपर नए बने दो कमरों में से एक में टिका हुआ था । उसका दरवाजा बंद तो होता था लेकिन वह कभी उसके खुले या बंद होने की चिंता नहीं करता था । ऊपर बने दो कमरों के साथ एक छोटा किचन भी था लेकिन शायद ही उसने कभी उसे इस्तेमाल किया हो । जब आठ-नौ बजे तक भी उसका 'अवतरण' न होता, तो रवि सीढियाँ चढ़कर उसके कमरे में जाता, धीरे से किवाड़ उढ़काकर झाँकता तो अविज्नान पलटकर देखता । वह 'ब्रश' कर रहा या नहा रहा होता । या फ़िर ऐसे ही कुर्सी पर बैठा हुआ, सर कुर्सी की पीठ पर टिकाए हुए हाथों को एक-दूसरे से सटाकर ध्यानमग्न होता । कभी-कभी वह अब भी सो रहा होता, लेकिन एक खटके से ही उसकी आँखें खुल जातीं और पता चल जाता कि वह बस 'कहीं और' है । 'कहीं और', -रवि की दृष्टि में ।
अविज्नान से पूछें तो कहेगा - 'कहीं नहीं' । फ़िर अपनी बात सुधारते हुए कहेगा - 'यहीं हूँ ' । इसमें शब्दों के उसके तात्पर्य कुछ अलग थे । वह यहाँ परम स्वतंत्र था । रवि की ही तरह, - और मेरी तरह भी । उसका नीचे आना यदि आठ बजे तक न होता, तो रवि चाय बनाता, मैं और रवि चाय-नाश्ता करते । अगर अविज्नान आ जाता तो हम तीनों ।
मैं अपने सोफे पर बैठता, जो दो कुर्सियों के साइज़ का था । अन्य दो सोफे सिंगल चेयर के रूप में थे , और एक टी-टेबल के दोनों बाजू लेकिन काफी दूरी पर थे। कमरे की बनावट ऐसी थी की उन्हें टेबल के पास रखने पर आने-जाने का रास्ता रुकता था । मेरे सामने खिड़की थी / है, जिसमें दूर डी आर पी लाइन की पुरानी बिल्डिंग का दाहिना कोना दिखलाई देता । बीच के मैदान में कुत्ते, गाय, सूअर, और लोग भी आते-जाते दिखलाई देते । रवि अक्सर पिछले कमरे से प्लास्टिक की दो चेयर्स उठाकर ले आता और कमरा भरा-भरा सा लगने लगता ।
'सर' के आते ही व्यवस्था में बदलाव लाना पड़ा । ऊपर के एक कमरे को साफ़ कर 'सर' के लिए व्यवस्थित किया गया । ऊपर के किचन में थोड़ा सामान आदि रखा गया । फ्रिज ऊपर रखना मुश्किल था। छोटे से एल आई जी मकान की सीढियों से उसे ले जाना मुश्किल था ।
बरसात जा चुकी थी , हालाँकि कभी-कभी बादल घिर आते थे और सड़कों को धो जाते थे । उन दिनों सुबह, शाम, या दोपहर में भी घूमना बहुत अच्छा लगता था । मैं अकेला ही निकल पड़ता था । एल आई जी मकान में रहने के अपने फायदे हैं। खासकर तब, जब आपके रिश्ते-नातेदार एम आय जी या एच आय जी या फ्लैट्स में रहते हों । वे व्यस्त होते हैं, आप व्यस्त नहीं होते । -मैं व्यस्त नहीं था ।
इसलिए अक्टूबर की सुबह, दोपहर, शाम, या फ़िर रात में भी, सड़कों पर घूमने जा सकता था । यह एक सुख था । दिन भर में इतना walking हो जाता था की शरीर स्वस्थ रहता, वजन, रक्त-चाप, शुगर, सब कंट्रोल में रहते । और सौभाग्य से मेरे साथ इस उम्र तक इनमें से कोई समस्या नहीं है । आँखों पर चश्मा ज़रूर है, लेकिन वह भी दूर का । पढने-लिखने की आदत होते हुए भी पास की चीज़ें आसानी से देख समझ लेता हूँ -यहाँ तक की फाइन प्रिंट भी ।
'सर' के आने के बाद दोपहर-शाम का घूमना कम हो गया था। सुबह नाश्ते पर अब हम 'चार' होते थे । अविज्नान और रवि 'सर' को छोड़ना नहीं चाहते थे । 'सर' के आने के बाद रवि और अविज्नान नियमित रूप से जल्दी (नाश्ते के समय तक) फ्रेश होकर नाश्ते की मेज पर आ जाते थे । रवि बाज़ार से बहुत सी चीज़ें नमकीन, बिस्किट्स, टोस्ट, ले आया था । बाई भी उसके घर से कुछ न कुछ बनाकर नाश्ते के लिए भेज देती थी । काफी बनने लगी थी, और फ्रिज में फल भी रखे रहते थे । रवि कभी-कभी इडली या उपमा भी बना लेता था । अविज्नान इस मामले में फिसड्डी था । भारत में आने के बाद उसे भारतीय व्यंजन पसंद आने लगे थे, लेकिन वह वैसे भी उम्र के दसवें-बारहवें साल से शुद्ध शाकाहारी ही था । अंडे तक नहीं खाता था, मछली तो हरगिज़ नहीं, और माँस की गंध से ही उसे उबकाई आने लगती थी । शायद उसमें डाले जानेवाले मसालों की वज़ह से ।
नाश्ते की टेबल पर सारा सामान होता था । अविज्नान अब टेबल पर पहले की तरह पैर फैलाकर नहीं बैठता था , अब वैसा करना मुमकिन भी नहीं था । मेरा लिहाज़ वह अवश्य करता था लेकिन रवि से उसके टर्म्स अनौपचारिक थे । और 'सर' के प्रति तो उसमें अगाध श्रद्धा थी । नाश्ते की टेबल पर वह शून्य भाव से लेकिन प्रसन्न-चित्त बैठा रहता ।
" 'सर', मैं जानता हूँ कि आप अध्यात्म या धर्म के बारे में रेयरली कभी बात करते हैं । और मैं भी सोचता हूँ कि यह विषय अत्यन्त कठिन है । पर हो सकता है कि मेरा ऐसा सोचना ग़लत हो । "
-अविज्नान ने पहला मोहरा चला ।
नहीं, यह शतरंज नहीं था, लेकिन अविज्नान जितनी सतर्कता से बोलता है उस पर ध्यान देन तो कभी-कभी ऐसा लगता है मानों वह शतरंज का कोई खिलाड़ी हो । लेकिन अविज्नान हार-जीत को ध्यान में रखता हो ऐसा भी नहीं है -बल्कि उसे तो हार-जीत का ख़याल तक नहीं होता । एक बहता हुआ निर्झर, जो अपने रास्ते से निर्भयतापूर्वक बहता भर है । जो मुड़ सकता है, झुक सकता है, रुक भी सकता है, लेकिन अपना रास्ता निकाल ही लेगा।
'सर' शान्ति से सुन रहे थे । थोड़ी देर तक शान्ति छाई रही, रवि दीवाल पर टँगी हुई एक पेंटिंग को देख रहा था । उसकी रुचि अभी अविज्नान के प्रश्न के प्रति जागृत नहीं हुई थी ।
"मैं ऐसा इसलिए सोचता हूँ क्योंकि मनुष्य नामक जीव की विकास-यात्रा जिस प्रकार से चल रही है, उसमें इस धर्म या अध्यात्म की भुमिका अत्यन्त या कहें की सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व है जो यह इस विकास-यात्रा की दशा और दिशा तय करता है । "
-अविज्नान ने अपनी बात को आगे बढाते हुए कहा ।
"क्या अन्य जीवों में भी कोई विकास-यात्रा चल रही है ?" -'सर' ने पूछा ।
"हाँ, डार्विन के मतानुसार एक विकास या 'evolution' उनमें अभी भी जारी है और अभी तक उसके प्रमाण पाये जा रहे हैं । "
"वह कौन सा मौलिक अन्तर है जिसके आधार पर हम मनुष्य को अन्य प्राणियों से 'अलग' कह सकते हैं ?"
"शरीर-क्रिया-विज्ञान", और "शरीर-रचना-विज्ञान" (physiology and anatomy) की दृष्टि से तो मनुष्य और बाकी जीवों के बीच ख़ास फर्क नहीं है, अगर कहीं ख़ास फर्क है, तो वह यह है की मनुष्य में 'विचार' नामक तत्त्व का विकास हुआ है जो दूसरे जीवों में मनुष्य की तरह शायद ही हुआ हो । "
'विचार' से मेरा मतलब है, 'क्रम' की अवधारणा -उस 'क्रम' में 'समय' और 'स्थान' भी शामिल हैं । "
"उदाहरण से समझाओ । " - 'सर' ने कहा ।
"देखिये, हम कहते हैं, : आज सोमवार है, आज चार जुलाई है, आज के ही दिन हमारा देश एक 'स्वतंत्र' राष्ट्र बना ।
या, हम कहते हैं : आज ग्यारह सितम्बर है, दो वर्षों पहले आज ही के 'twin-towers' पर अटैक हुआ था ।"
"अर्थात् हममें एक इतिहास-बोध है," -'सर' ने कहा ।
"हाँ, और इसी के फलस्वरूप एक भविष्य-बोध भी हममें होता है । इस प्रकार से हमारे मन में 'समय' का एक विचार या अवधारणा है । यहाँ तक कि आम आदमी ही नहीं, बल्कि तथाकथित वैज्ञानिक भी इस अवधारणा से बन्धकर 'समय' को या यूँ कहें कि काल को एक स्वतंत्र तत्त्व स्वीकार कर बैठते हैं , उन्हें यह कल्पना तक नहीं हो पाती कि जिस 'समय' या 'काल' को वे एक स्वतंत्र तत्त्व की भाँतिग्रहण करते हैं, वह इस अवधारणा पर अवलंबित एक 'अनुमान'-मात्र है । उसकी सत्यता संदिग्ध है, इस ओर उसका ध्यान तक नहीं जाता। और इतना ही नहीं, यह अवधारणा इतनी बद्धमूल रूप से उनकी बुद्धि में बैठी हुई है कि वे इस ढंग से देखने तक से इनकार कर देते हैं । "
"तुम्हारा मतलब है कि 'काल' को एक 'भौतिक'-राशि मान लिया जाता है, -बिना यह जाँचे-परखे कि क्या 'काल' कोई वस्तुतः अस्तित्त्वमान चीज़ है भी या नहीं ?"
"exactly, मैं यही कहना चाहता हूँ । "
"फ़िर 'काल' क्या है ?"
"देखिये, काल को नापा जा सकता है, और जिसे भी नापा जा सकता है, वह एक 'सापेक्ष-तत्त्व' होगा । इससे उसकी वास्तविक सत्ता कैसे सिद्ध हो सकेगी ? उस दृष्टि से 'काल' एक ऐसी चीज़ है, जिसे नापा तो जा सकता है, लेकिन यह नाप-जोख कितनी सत्य है, या है भी या नहीं, यह कैसे तय किया जा सकेगा ?"
"काल" को किस प्रकार से नापा जाता है ?"
"काल" घटनाओं के क्रम से 'निर्धारित' किया जाता है, - पूर्व-पर क्रम के आधार पर, दो घटनाओं के अन्तर को परिभाषित किया जाता है, और इस प्रकार से विभिन्न घटनाओं के अनेक अंतरों की पारस्परिक तुलना में बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा अन्तर सुनिश्चित किया जाता है । उदाहरण के लिए अब atomic घडियाँ हैं, जो सौ या पचास वर्षों एक सेकंड आगे या पीछे कर दी जाती हैं , यह 'काल' का सूक्ष्मतम (या, लघुतम) माप हुआ । दूसरी ओर 'Big-Bang' पहले अन्तिम बार कब हुआ था, और पुनः सृष्टि अपनी उस अवस्था की ओर कब लौटेगी, जब 'Big-Bang' होनेवाला था, -इस पूरे अंतराल (Gap) को 'काल' का वृहत्तम माप कह सकते हैं । फ़िर यह भी हो सकता है, कि शायद पुनः कभी 'Big-Bang' हो ही नहीं, या 'Big-Bang' की पूर्व-अवस्था तक सृष्टि कभी पुनः जाए ही नहीं ! तो इस प्रकार से विभिन्न घटनाओं का अन्तर 'कल्पित' किया जाता है, उसे 'छोटा'-'बड़ा' कहकर नापा भी जाता है, पर इससे उसकी 'सत्यता' तो नहीं प्रमाणित हो जाती है ! उस दृष्टि से 'काल' का एक 'गणना' पर अवलंबित अस्तित्त्व माना जा सकता है, - उस आधार पर भावी घटनाओं का 'विचार' कर शायद उन्हें नियोजित भी किया जा सकता है, लेकिन यह प्रश्न तो अनुत्तरित ही रहता है कि क्या वे घटनाएँ १००% सुनिश्चितता से 'समय' के उसी 'परिमाण' में घटित होंगीं ? हम जितनी अधिक सूक्ष्मता में जाते हैं, 'संभावना' यद्यपि उतनी ही बढ़ जाती है, लेकिन 'समय' ऐसी कोई 'राशि' है, यह तो तभी प्रमाणित होगा, जब हम १००% सुनिश्चितता से इस 'समय' (अंतराल) को सुनिश्चित कर सकेंगे ।
दूसरी ओर यह भी है, कि जैसे अन्य भौतिक राशियों के बारे में एक सर्वमान्य 'सत्यता' सभी को एक जैसी 'प्रतीत' होती है, वैसा 'समय' के संबंध में नहीं है । जैसे स्थान या पदार्थ के विभिन्न रूपों, ऊर्जा आदि के नियम और उनका बोध सभी मनुष्यों को एक समान होता है, वैसा 'समय' के संबंध में नहीं कहा जा सकता है । उदाहरण के लिए कड़ी धूप में गर्म सड़क पर पैदल जा रहे मनुष्य को एक मिनट जितना लंबा महसूस होता है, वह उसके ठंडी छाया में पहुँच जाने के बाद उसे महसूस होने वाले एक मिनट की तुलना में उसे बहुत बड़ा जान पड़ता है । 'समय' की भौतिक नाप की सुनिश्चितता असंदिग्ध रूप से सत्य है, जबकि जिस राशि को इस नाप के माध्यम से नापा जाता है, वैसी राशि के रूप में वस्तुतः कोई 'पदार्थ' अस्तित्त्व में होता ही नहीं है ! 'निष्कर्ष' के रूप में समय मापने के लिए एक उपयुक्त पैमाना अवश्य हमारे पास है, लेकिन वह 'किसे' मापता है ?
इसे इस ढंग से भी कह सकते हैं कि समय या काल एक निष्कर्ष-मात्र ,एक इन्फेरेंस मात्र है, और उस दृष्टि से उसकी एक व्यावहारिक सत्ता है, यह भी स्वीकार किया जा सकता है, किंतु उसकी आत्यंतिक सत्ता भी है, यह किस आधार पर कहा जा सकता है ? उसकी ऐसी कोई सत्ता हो भी नहीं सकती, क्योंकि वह एक 'विचार'-मात्र है। "
" और , 'विचार' ? " -'सर' ने पूछा ।
" 'विचार' ?" -अविज्नान ने प्रतिप्रश्न किया ।
"हाँ, 'विचार', 'विचार का स्वरूप क्या है ?"
अविज्नान को प्रश्न समझने में समय तो लगा और यह उसके जैसे धीर गंभीर मनुष्य के लिए स्वाभाविक भी था ।
यहाँ 'संवाद' घटित हो रहा था, और सन्दर्भ था जीवन का । यहाँ किन्हीं दूसरों के मतों, आकलनों, अनुभवों या तर्कों को दुहराया नहीं जा रहा था , यहाँ वस्तुतः कौन 'गुरु' था और कौन 'शिष्य', यह प्रश्न बाकी नहीं रह सका था ।
अविज्नान स्तब्ध नहीं था, वस्तुतः उसके पास इतने विकल्प थे कि कहाँ से शुरू करे, यह देख रहा था ।
"देखिये, -उसने कहना शुरू किया -
"एक 'विचार' तो वह होता है, जो स्मृति से आता है। जो बात स्मृति में न हो, क्या वह 'विचार' में आ सकती है ? क्या स्मृति से अछूता हो, ऐसा कोई 'विचार' होता है ?
दूसरी ओर 'विचार' किसी ऐसी अनुभूति या बोध की अभिव्यक्ति भी हो सकता है, जिसे आप शब्दों के ज़रिये कहने की कोशिश में वुक्त करते हैं । क्या 'विचार' इन दो रूपों में नहीं हुआ करता ?
फ़िर यह भी देखना होगा कि क्या विचार 'शब्दगत' ही होता है ? जैसे आपको भूख या प्यास लगी । या आपको सिर में दर्द हो रहा है । क्या सिर में दर्द शुरू होते ही, : यह सिरदर्द है, - ऐसा 'विचार' आता है ?लेकिन दर्द या भूख-प्यास आदि की अनुभूति एक तात्कालिक 'तथ्य' है ।
भय लगना, और 'भय लग रहा है,' -यह वक्तव्य दिया जाना, इन दोनों में से कौन सी वस्तु 'विचार' है ? भय लगना, या भय का बोध होना ? क्या भय के बोध से पहले भय जैसी कोई चीज़ वास्तव में होती है ? 'विचार' के आगमन के पश्चात् ही 'मुझे' भय लग रहा है,' -ऐसा कहा जाता है । भय के क्षण में तो हम स्तब्ध हो जाते हैं । फ़िर स्मृति से कोई 'विचार' 'मन' की ऊपरी सतह तक चला आता है, और फ़िर उस अनुभूति की 'पहचान' हम 'भय' के रूप में करते हैं । 'भय' के क्षण में स्तब्धता थी, और अगले ही पल 'विचार' का उदय होता है, -ज़ाहिर है कि वह स्मृति से ही, अतीत के अनुभवों के संग्रह से ही हुआ होता है । तो, 'विचार' का स्वरूप क्या है ? इसे हम किसी भी ढंग से क्यों न कहें, 'विचारकर्त्ता' 'अनुभवकर्त्ता', 'दृष्टा', या 'अहं', 'स्व' आदि कुछ भी क्यों न कहें, क्या उसका स्रोत 'स्मृति' के अतिरिक्त कहीं और हो सकता है ? और 'विचार' यही है, - 'विचार' ही स्मृति से उठकर भिन्न-भिन्न मुखौटे धारण करता है, कभी 'अनुभवकर्त्ता' , अर्थात 'सुखी-दु:खी', कभी 'दृष्टा', कभी 'स्वामी', और कभी निपट एक विचार-मात्र ।
"और 'काल' ? 'सर' ने अविज्नान को विस्तार करने का मौका दिया ।
"काल ? -अविज्नान सन्दर्भ खोज रहा था, प्रश्न का सही परिप्रेक्ष्य, वह प्रश्न का यथार्थ पक्ष नहीं चूकना चाहता था ।
"काल का स्वरूप ?" -'सर' ने धीरे से, बहुत धीमे स्वरों में कहा ।
"यही तो !" -अविज्नान बोला ।
हम दोनों (रवि की और मेरी )साँसें थम सी गईं थीं ।
"क्या काल और विचार एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं होते ?" -उसने पूछा ।
"हाँ, होते हैं । " - 'सर' ने अविज्नान की पीठ थपथपाई ।
उस दिन पहला दिन था । अब मुझे ' इवेंट-मैनेजमेंट' का कोई पाठ नहीं पढ़ना पड़ेगा, -मैंने सोचा ।
'सर' उठे । बोले, -नहाने के लिए गर्म पानी मिलेगा ? मैं 'हीटिंग-क्वोइल' इस्तेमाल करता था । "हाँ-हाँ, थोड़ा टाइम लगेगा , तब तक एक-एक चाय पीते हैं, " - मैंने अनुरोध किया ।
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March 23, 2009

उन दिनों / . 14

वे अक्टूबर के दिन थे , हल्की-हल्की सर्दियाँ शुरू हो चलीं थीं । सुबह-शाम walk पर जाते हुए एक हल्का-सा स्वेटर तो पहनना ही पड़ता था । अपनी कालोनी से बमुश्किल दो मिनट चलनते ही खुली जगह आ जाती थी । मैं उस खुली जगह में एक लंबा चक्कर लगाकर घर लौट जाता था । संयोगवश मेरे घर से तीनों-चारों दिशाओं में ऐसी खुली जगहें थीं । घर के सामने कुछ दूरी पर डी आर पी के क्वार्टर दिखलाई देते थे -और उन क्वार्टरों के बीच एक अकेली लम्बी-चौड़ी, शायद अंग्रेजों के ज़माने की बिल्डिंग । जिस जगह बैठकर मैं यह लिख रहा हूँ, वहाँ से, सामने खिड़की से उस बिल्डिंग का दाहिना हिस्सा दिखलाई देता है । उस बिल्डिंग का सामना दूसरी तरफ़ है। वह यहाँ से दिखलाई ज़रूर देती है, लेकिन अगर वहाँ तक जाना हो तो घर से बाहर निकलना होगा । एक रास्ता मेरे घर के सामने से बाएँ-दाएँ चला जाता है, एक दूसरा मेरे दरवाज़े से उस बिल्डिंग तक, बीच के मैदान से गुज़रता हुआ जाता है । इस तरह मेरा उस समकोण पर स्थित है, जहाँ ये तीनों या दोनों रास्ते मिलते हैं । दाएँ-बाएँ जानेवाले रास्ते पर भी दोनों ओर कालोनी के मकान हैं, और उस रास्ते को समकोण पर मिलनेवाला मुझे इस खिड़की से दिखलाई देनेवाला जो रास्ता है, उसके भी दोनों तरफ़ कालोनी के मकान हैं । जैसा की मैंने कहा था, यह एक 'एल आई जी' मकान है । इसका फुल फॉर्म है, -लोअर इनकम ग्रुप । और कभी-कभी सोचता हूँ कि यह नामकरण उपहासवश किया गया है, या फ़िर करुणावश ? मेरे पड़ौसी बतलाते हैं कि यह 'यथार्थ-परक' है ! ज़ाहिर है कि इस पर बहस की गुंजाइश नहीं है !
तो मुद्दे की बात यह है कि डी आर पी लाइन में परेड-ग्राउंड भी है, रक्षित-निरीक्षक का बँगला भी है, पुलिस का घुड़सवार-दस्ता भी है, पुलिस के 'वज्र' वाहन, भारी ट्रक, ४०७, जीप, और न जाने क्या-क्या है ! और है, -शान्ति ! सुबह-शाम 'walking' करते हुए ताज़ा साँस भरना जीवन का सहज-स्वाभाविक, सर्वोत्तम सुख महसूस होती है । यदि घर के दाहिनी ओर से मुड़कर सीधे निकल जाऊँ, तो इंजीनियरिंग कॉलेज की दीवार को , -जिसे बीच से तोड़ दिया गया है, पार करने के बाद कॉलेज का विशाल खुला क्षेत्र आ जाता है, जहाँ से इंदौर-रोड़ तक जाने में तीन किलोमीटर जाना, और उतना ही लौटना होता होता है ।
तीसरा रास्ता मेरे घर से बांयीं तरफ़ जाने पर मिलता है, जो सीधे बिड़ला-हॉस्पिटल तक और उससे भी आगे जाता है । वह भी दो-तीन किलोमीटर से कम नहीं होता।
और एक चौथा रास्ता तीसरे की विपरीत दिशा में देवास-रोड की तरफ़ है, जहाँ यूनिवर्सिटी है, कोठी-पैलेस (कलेक्टोरेट) है ।
तो इस जगह को कैसे छोडा जा सकता है ? इसे ही बतलाने के लिए इस विस्तृत जगह का वर्णन करने में 'लिखना' विस्तृत हो गया, -क्षमा चाहता हूँ ।
बचपन से आदत है, -सूर्योदय से पहले नींद खुल ही जाती है , नौकरी के दिनों में ज़रूर कभी-कभी सूर्योदय से आधे घंटे बाद भी उठने लगा था लेकिन सुबह-शाम का घूमना आज भी बचपन की ही तरह आदत में बसा हुआ है । जिस शहर में सुबह-शाम घूमने लायक साफ़-सुथरी सड़कें न हों वहाँ बहुत बेचैनी होने लगती है । जहाँ भीड़ हो वहाँ भी ! भीड़ और ट्राफिक में घूमने से बेहतर है अपने कमरे में या छत पर चहल-कदमी कर लेना ।
जब सुबह उठता था तो अन्धकार की चादर पूरे आकाश को घेरे रहती थी, -और जमीन को भी । हाँ, कभी-कभी चन्द्रमा की ज्योत्स्ना भी उस चादर को तार-तार कर दिया करती थी । एक नीला आलोक आकाश पर छाया होता, और खिड़की से देखने पर दिल धक् से रह जाता, लगता अभी भागकर बाहर निकल जाऊं । चांदनी में मौन, स्तब्ध पेड़, मंद-मंद हवा, और सोया हुआ पूरा शहर, हाँ कभी-कभी दूधियों कस भोंपू ज़रूर बज उठते थे, लेकिन वे इस मौन को और गहन कर देते थे । जल्दी से 'ब्रश' करता, क्योंकि यह भी बचपन की आदत है । धीरे से घर का दरवाजा खोलता और वैसे ही उसे पुन: बंद भी कर देता ।

उन दिनों / 13.

'सर' के आते ही हमारे 'बेचेलर्स' हॉस्टल का कोरम पूरा हो चुका था । हाँ, कुछ लोग और भी आनेवाले थे, कुछ मित्र मेरे, कुछ रवि के, कुछ 'सर' के परिचित आदि । 'बाई' को बोल दिया गया था , वह हर महीने की पहली तारीख को पैसे ले जाती थी, सारा सामान, सब्जी, आटा, दाल, चांवल, तेल, नमक, शक्कर, चाय, बिस्कुट, और दूसरी ज़रूरी चीज़ें ले आती थी । हाँ, हफ़्ते में एकाध बार 'छुट्टी' देना तो उसका अलिखित नियम ही था, और उस बारे में भी पहले से व्यवस्था रहती थी ।
'सर' को लौटने की कोई जल्दी नहीं थी । रवि और अविज्नान यदि यहाँ न होते तो 'सर' शायद दो तीन दिनों में लौट सकते थे , लेकिन उनके होने से 'सर' का लौटने का अनिश्चित ही था ।
पहले मैं थोड़ा-सा आशंकित और आतंकित भी था, लेकिन फ़िर भी एक गहरी खुशी भी मुझे थी की उनके साथ कुछ दिनों तक रहकर अपने-आप को धो-माँज सकूँगा । फ़िर ख्याल आने लगे :
'विचार' कहाँ से आते हैं ,
वे कहाँ चले जाते हैं ,
- इस पर कोई कहाँ कभी ध्यान देता है ?
- वे तो बस बगूलों की तरह न जाने कहाँ से आया करते हैं,
- वे चारों ओर के वातावरण में उथल-पुथल मचाकर किसी अनिश्चित दिशा में पलायन कर जाते हैं,
- आपके 'स्पेस' की चीज़ों को बेतरतीब कर खो जाते हैं,
- और अपनी जगह किसी नए बगूले को 'गिफ़्ट' कर जाते हैं ।
फ़िर आप व्यवस्थित करते रहिये अपने 'स्पेस' को ,
-अपने 'स्पेस' में पहचान की हद से परे जा चुकी चीज़ों को !
आप व्याकुल हो जाते हैं,
-व्यग्र,
आप थककर पस्त हो जाते हैं,
कभी-कभी आप सो भी जाते हैं,
और फ़िर उठते ही महसूस करते हैं,
-अपने 'स्पेस' को,
-नहीं, वहाँ चीज़ें नहीं होतीं,
-और न उन्हें तरतीब देने की ज़रूरत,
-और फ़िक्र तो हरगिज़ नहीं होती ।
-कतई नहीं होती !
लेकिन तब तक आप भूल चुके होते हैं ।
जागने पर कुछ पलों के उस अपने 'स्पेस' को 'कौन' याद रख सकता है ?
हाँ फ़िर वे बगूले लौट आते हैं एक-एक कर,
- फ़िर 'चीज़ें' इकट्ठा हो जाती हैं ,
-'बेतरतीब' सी, -'स्पेस' में
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तो 'मैं' सोचने लगा । हाँ, रवि और अविज्नान हैं ,तो बातें तो ज़रूर होंगीं । कोई न कोई रास्ता भी ज़रूर निकल आयेगा ।
"क्या हमारे बीच संप्रेषण नहीं था ?"
-मैंने ख़ुद से सवाल किया । मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था । इसीलिए तो मैंने पहले ही कहा था की इस 'विराट' के आगमन के बाद कुछ समय तक तो 'बोलना' ही 'स्तब्ध' हो रहेगा ।
'स्तब्ध',
-'स्थगित' नहीं !
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March 18, 2009

उन दिनों / 12.

बहरहाल गर्गजी, (सर) हमारे बीच थे । अविज्नान तथा रवि से मेरी बातचीत जब भी होती थी, 'सर' का ज़िक्र ज़रूर अनायास उसका हिस्सा होता था । इसके जो भी कारण रहे हों, लेकिन्यः तो तय था की हम चारों का यह समूह सिर्फ़ संयोगवश ही बना हो, इसकी संभावना नगण्य ही जान पड़ती है । हम चारों में कुछ बातें समान थीं । 'सर' के अलावा हम तीनों अपने-अपने ढंग से 'अध्यात्म' से जुड़े थे । और हम तीनों के अध्यात्म का 'शेड' एक दूसरे से थोड़ा अलग अलग भी था । सौभाग्यवश औपचारिक दर्शनशास्त्र का अध्ययन हममें से किसी ने भी नहीं किया था और हम सभी प्रायः उसका मजाक भी उड़ाया करते थे । साहित्य का शौक हम तीनों को था, लेकिन बहुत अधिक नहीं । मैं तो 'लिखने' की हद तक 'गिरा हुआ' था !! रवि साहित्य की उपादेयता खोज रहा था और अविज्नान बौद्ध-धारा तथा उपनिषदों की प्रज्ञा से अभिभूत था । विज्ञान का अध्ययन भी उसने काफी किया था लेकिन वह आज के विज्ञान का मज़ाक ही उड़ाया करता था । कला की समझ दोनों को ही थी लेकिन अविज्नान 'कला के लिए कला' से बिल्कुल असहमत था, जबकि रवि की दृष्टि में साहित्य और कला यदि स्वान्तःसुखाय या 'तपस्या' हों, 'साधना' हों, तो वे मनुष्य की चेतना को आमूलतः 'रूपांतरित' कर सकते हैं । लेकिन इस विषय में, उसकी दृष्टि में, 'कार्य-कारण नियम' का कोई प्रयोजन नहीं था ।उसका कहना था कि कार्य-कारण, सापेक्ष धरातल पर कई चीज़ों की व्याख्या अवश्य करते हैं, लेकिन वह व्याख्या कभी 'पूर्णता' तक नहीं पहुँचती । अविज्नान कहता था कि कार्य-कारण नियम भौतिक स्थान (Space) और काल (Time) अर्थात् 'दिक्काल'-सापेक्ष हैं, जबकि 'दिक्काल', 'व्यक्ति-सापेक्ष' है । "व्यक्ति दिक्काल की उपज है, या 'दिक्काल' व्यक्ति का 'विचार'/ 'निष्कर्ष' / अनुमान' ?" -इस प्रश्न को वह प्रायः उछालता रहता था । उसकी दृष्टि में आज का विज्ञान दिशाहीन और मूल्हीन (rootless) है । धन, प्रतिष्ठा और भौतिक सुरक्षा के प्रति अविज्नान और रवि दोनों ही लापरवाही की हद तक बेफिक्र थे । मुझे पेंशन मिलती थी, रहने के लिए अपना ख़ुद का मकान था, और किताबों की रोयल्टी आदि भी मिल जाती थी । 'सर' को पेशन मिलती थी, और परिवार में उनकी एक बिटिया थी जो स्टेट्स में (नब्बे के दशक में ) 'वेल-सेटल्ड ' थी । वे शायद उसके या किसी के भी बारे में सोचते भी नहीं थे । उनके हृदय का एक कोना 'अजय' या 'राजेश' के लिए सुरक्षित था, और याददाश्त खोने तक वे उसे खोना नहीं चाहते थे । (क्या याददाश्त खोने पर आदमी की इच्छाएँ भी 'खो' जाती हैं ?) यह एक विरोधाभास ही था कि 'अजय' से ही उन्हें जीवन के रहस्य का 'बोध' हो सका था, और वह भी उनकी 'स्मृति' के भीतर है, -पर वस्तुतः कहीं नहीं, इसका भान भी उन्हें स्पष्ट रूप से था । वे 'स्मृति' से परे के उस अनंत- अस्तित्त्व के जीवन-रूपी सागर की अक्सर चर्चा करते थे जिसमें 'अजय' और उसकी स्मृति भी अन्य स्मृतियों की ही तरह क्षणिक तरंगों की तरह उठती-गिरती रहती हैं । यह उनका 'बनाया' या गढ़ा हुआ कोई सिद्धांत या बौद्धिक मंतव्य या मार्ग-दर्शक नीतिवाक्य आदि न था । उन्होंने न तो उपनिषदों का अध्ययन किया था, न दर्शन-शास्त्र का, वे किसी गुरु की शरण में भी कभी नहीं गए । किसी राजनीतिक, साहित्यिक, धार्मिक या सामाजिक / साम्प्रदायिक संस्था या समूह से भी उनका दूर-दूर तक का कोई वास्ता कभी नहीं रहा था । उनके घर 'कल्याण' या ऐसी दूसरी कोई पत्रिका तक मैंने कभी नहीं देखी थी । प्रसंगवश एक बार उन्होंने बतलाया था कि साहित्य और मानव-समाज के सरोकारों के चिंतकों का उन्होंने भरपूर अध्ययन ज़रूर किया था लेकिन उस सबकी व्यर्थता और व्यर्थता ही नही, बल्कि उसके 'खतरों' से भी वे आगाह हो चुके थे । वे जानते थे कि ये सभी चीज़ें जीवन के सरल सत्य से पलायन करने का शक्तिशाली साधन भी बन जाया करती हैं । हाँ, रवि या अविज्नान की तरह विज्ञान और राजनेताओं / राजनीतिज्ञों की विद्वत्ता और तथाकथित प्रतिबद्धता का उन्होंने शायद ही कभी उपहास किया हो । कम से कम मैंने तो यही महसूस किया कि उस बारे में वे कभी सोचते तक नहीं थे । उन्हें जीवन में कोई दु:ख नहीं था। पर उन्होंने न तो कभी गीता पढी, न उपनिषद पढ़े, और न वे कोई कर्मकांड आदि करते थे । शायद संस्कृत से अपरिचय और अन्य बातें भी इसके मूल में कारण रही होंगीं । उन्होंने साहित्यिक चीज़ों, हिन्दी-अंग्रेजी की साहित्यिक विधाओं का अच्छा-खासा अध्ययन किया था श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं के हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद भी पढ़े थे, लेकिन वह सब बस रुचिवश ही पढ़ा था । वे उन्हें वहीं तक रखते थे ।
इस प्रकार जहाँ अविज्नान में कोई बारूद भरी हुई थी, जिसे वह ख़ुद भी नाम देने में असमर्थ था, वहीं रवि थोड़ा 'कूल' था । वैसे अविज्नान भी बहुत संतुलित और संयमित था, लेकिन रवि की अपेक्षा अधिक सक्रिय (pro-active ?) ज़रूर था । हम चारों इस मायने में अनोखे थे, कि किसी भी परम्परा के पिछलग्गू तो कतई नहीं थे । न हमें किसी परम्परा को महत्त्व देना ही पसंद था । यहाँ एक ख़तरा था और यही हमारा उल्लास भी था । हमारे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं था, या कहें कि प्रकटतः तो कदापि नहीं था । हम जीवन के साथ-साथ अपनी रौ में आगे बढ़ रहे थे । फ़िर भी इस मानव-समाज में रहते हुए यदि हम चिंतन की उन्हीं धाराओं में पड़े रहते जिनमें तथाकथित महान या सफल मनुष्य भी अनचाहे ही पड़े रहते हैं, तो यह आश्चर्य न होता । नहीं, हम न तो धारा के विरुद्ध थे और न धारा की दिशा ही में थे । हमें धारा में फेंका ज़रूर गया था लेकिन हम सबने अपने-आपको ये-कें-प्रकारें धारा से बाहर निकाल लिया था । धाराएँ ग़लत या सही हैं, इस पर हमारा कोई आग्रह न था, हमें बस यह लगता था की किसी भी धारा में बँधकर न सोचा जाए । अतः हम चारों अपने-अपने ढंग से अपने आसपास के जीवन को जानने-समझने की उत्कंठा में अपने प्रयास कर रहे थे । हममें कोई 'गुरु' या 'शिष्य' न था,- या कहें हम सभी एक-दूसरे के गुरु तथा एक-दूसरे के शिष्य थे । प्रश्न उठता है कि और बाकी लोगों से हमारा क्या संबंध था ? तो इसका उत्तर यही होगा कि बाकी लोगों से उन्हीं विषयों पर बातचीत होती थी, जिन पर आपस में संप्रेषण सम्भव होता था । और इसीलिये हम चारों का मिलना भी नियति या अज्ञात की एक असाधारण योजना ही रहा होगा, -शायद एक बिरला संयोग-मात्र ।

March 11, 2009

उन दिनों / 11.

उसके कुर्त्ते में कोई कीड़ा चला गया था, उसने कुर्त्ता उतारा । मैं चकित हुआ, "कुर्त्ता उतारने की क्या ज़रूरत पड़ गयी !" -मैंने मन ही मन सोचा, पर कहा कुछ नहीं । जब उसने पीठ पर हाथ ले जाकर एक छोटा सा रेंगने-उड़नेवाला कीड़ा पकड़ा, तो मैंने देखा । वह चींटी के आकार का एक कीड़ा वहाँ था जिसे उसने सावधानी से फूँक मारकर उड़ा दिया था ।
यह प्रसंग जैसे उसकी बात को बल प्रदान करने के लिए ही अवतरित हुआ था ।
"देखिए," -उसने कहा, : "हम मनुष्य 'सोचते' हैं । सोचने से पहले हमारे पास 'भाषा' होती है । इस कीड़े के पास कोई भाषा होती होगी ?" -उसने पूछा ।
"क्या कह सकते हैं ? शायद उसकी भी अपनी भाषा होती हो !"
"हम अपनी बात करें । हमारे पास किसी वस्तु, स्थान, घटना या भावना के लिए कोई शब्द होता है । वह शब्द उस वस्तु, स्थान, घटना या भावना के विकल्प के रूप में हमारे मस्तिष्क में अंकित हो जाता है । वह बस वस्तु का विकल्प-मात्र होता है, वस्तु की एक 'प्रतिमा' भर होता है, वह सचमुच किसी वस्तु, स्थान, घटना या भावना का कार्य नहीं कर सकता । ऐसे सारे शब्दों को किसी क्रम में सँजोकर हम उसमें कोई 'अर्थ' आरोपित करते हैं । वह 'अर्थ' किसी वस्तु, स्थान, घटना या भावना का संकेत तो देता है, लेकिन उनका 'विकल्प' नहीं हो सकता । इस तरह हमारी एक 'भाषा' जन्म लेती है । हम एक दूसरे से सीखकर इसे लगातार संशोधित और परिवर्त्तित करते रहते हैं । क्या कीड़ों, या पशुओं में यह प्रक्रिया हो सकती होगी ?" -उसने पूछा ।
"हाँ, हो सकती है, पर तब वे किसी वस्तु, स्थान, घटना या भावना के विकल्प के रूप में शब्द के बजाय किसी दूसरी अभिव्यक्ति या इंगित का इस्तेमाल कर सकते हैं । जैसे इस कीड़े का उदाहरण लें । बाहर के समस्त प्रभावों को यह जानता है । जानता है अर्थात् इस रूप में, कि यह उन्हें किन्हीं अंशों में महसूस कर सकता है । हालाँकि यह उनका 'नामकरण' नहीं करता कि यह 'गंध' है, यह 'स्पर्श' है, यह ऊष्णता या शीतलता की अनुभूति है, यह कठोर या कोमल है, यह मधुर या कटु आदि है, लेकिन उसे भी चीज़ें दिखलाई देती हैं, सुनाई देती हैं, गंध, सुगंध, या दुर्गन्ध का भान होता है । फ़िर अपनी सहज-प्रवृत्ति के अनुसार वह इन सबका 'अनुकूल' और 'प्रतिकूल', 'आकर्षक' और 'विकर्षक' में वर्गीकरण कर लेता है । और यह जानना भी दिलचस्प होगा की एक बड़ा हिस्सा फ़िर भी उसके लिए 'अज्ञात' या 'रहस्यमय', नया, या 'अबूझ' रह जाता होगा । इस प्रकार के 'वर्गीकरण' से मस्तिष्क चित्रों, ध्वनियों, स्पर्शों, गंधों, और ऐसी ही तमाम अन्य अनुभूतियों का एक नक्शा बना लेता है । और ज़ाहिर है कि यह अनुमान भर नहीं है, इसका प्रमाण विज्ञान भी बारम्बार देता रहता है । इसका ख़ास सबूत तो यही है कि जीव निरंतर 'सीखते' हैं । चाहे छिपकिली, मेंढक, खरगोश, काक्रोच हो, या मनुष्य । अपने 'अनुभवों' का नामकरण किए बिना ही वे सीखते हैं । 'जीवन' की सुरक्षा के लिए वे सीखते हैं । अधिक 'अनुकूल' की प्राप्ति हो, और प्रतिकूल का सामना कर सकें, इसके लिए प्राणिमात्र 'सीखता' है । यह 'सीखना', 'सोचना' तो नहीं' होता ? -या होता है ?
"नहीं होता । "
"अर्थात् इस सीखने के लिए जीव, 'स्मृति' का इस्तेमाल करते हैं , -उससे 'अतीत' और 'भविष्य' की 'कल्पना' करते हैं । यह 'कल्पना' शायद चित्रों के रूप में, उस भाषा में होती होगी " -मैंने पूछा ।
"हाँ । घटनाओं का प्रभाव चित्रों और स्मृतियों के रूप में सुरक्षित रहता है । इन सारे प्रभावों की एक प्रणाली (network) मस्तिष्क में बन जाती है, और उन्हीं प्रभावों से फलित एक मानक तर्क सरणि (standard of reasoning) भी विकसित हो जाती है । क्या इस तर्क सरणि का अपना कोई 'नियामक' होता है ? इसी तर्क सारिणी में से दो अनुमान पैदा होते हैं - एक 'मैं', तथा दूसरा 'यह', जिसे शास्त्रीय भाषा में कहें, तो क्रमशः 'अहं', और 'इदं' कहा जा सकता है । ये दोनों प्रत्यय इस तर्क सारिणी (network) से उत्पन्न दो अनुमान (assumptions) भर होते हैं । प्रश्न यह है कि क्या जीव में कोई ऐसा स्वतंत्र नियामक या नियामक-तत्त्व, सेंसर या कंट्रोलर होता है, जो इन दो अनुमानों से पूर्व स्वतंत्र रूप से विद्यमान रहता हो ?"
"हम इस पर और गौर करें ऐसा मुझे लगता है । " -मैंने कहा ।
"चलिए ठीक है । "
मस्तिष्क अनुभूतियों का वर्गीकरण कर एक प्रणाली विकसित कर लेता है, इसे हम 'विचार' या 'बुद्धि' कह सकते हैं । पशु-पक्षी शायद किसी दूसरे तरह की ऐसी ही प्रणाली विकसित कर लेते हैं, जिससे उन्हें जीवन की अनुकूलता चुनने और प्रतिकूलता से बचाव करने, या उसका सामना करने में मदद मिलती हो । लेकिन यह तो वैज्ञानिक सत्य है कि उनके पास शब्द-आश्रित वैसी कोई 'भाषा' नहीं होती, जैसी कि हम 'मनुष्यों' के पास हुआ करती है । उनके शब्दों के अभिप्राय प्रायः उनकी भावनाओं को ही अधिक अभिव्यक्त करते हैं, -जैसे कि भय, निमंत्रण, आदि । उदाहरण के लिए, पशु-पक्षी, कीड़े, विभिन्न तरीकों से प्रजनन के लिए अपने साथी को आवाज़ के विशेष आरोह-अवरोह और स्वरों आदि के द्वारा निमंत्रित करते हैं । भय की परिस्थिति में एक-दूसरे को विशेष प्रकार से चिल्लाकर संकेत देते हैं, जैसे बिल्ली या बाघ या सर्प को देखकर गिलहरियाँ, चिडियाँ आदि । शायद गंध के माध्यम से भी बहुत से जीव एक-दूसरे को इशारे करते हैं । लेकिन उनकी भाषा उतनी सुगठित, विकसित और अमूर्त नहीं होती, जितनी की मनुष्य की भाषा हुआ करती है । अमूर्त्त से मेरा मतलब यह है, कि हम विभिन्न वस्तुओं, स्थानों, घटनाओं, और भावनाओं को शब्दों से चिन्हित (चित्रित) कर देते हैं, उनके लिए हमने शाब्दिक विकल्प चुन रखे होते हैं । पशु-पक्षी इस प्रकार से विकल्प नहीं चुनते । उनका 'शब्द-कोष' अत्यन्त सीमित होता है , और उसे 'मूर्त्त' या 'finite' कहा जा सकता है । फ़िर हम 'सोचना' विकसित कर लेते हैं, - हम कविता, कहानी, लेख, नाटक, आदि 'रच' सकते हैं । कुछ पशु-पक्षी या कीड़े एक निश्चित उतार-चढ़ाव के कम्पन भी पैदा कर लेते हैं, जिन्हें 'सरगम' (स्वर-सप्तक) के स्वरों से व्यक्त भी किया जा सकता है । लेकिन बस, इतना ही । "

"इसमें 'अहं' और 'इदं' की क्या भूमिका है ?"

"मैं उसी बिन्दु पर आ रहा हूँ । मेरा प्रश्न यह है कि अनुभव करने की मूल-शक्ति, जो किसी जीवित पिंड में व्यक्त हो उठती है और जिससे हम कुछ पिंडों (bodies) को 'जड़', (inert /insentient) तथा अन्यों को 'चेतन' कहते हैं, वह शक्ति रसायनों (या पंचतत्त्वों) के मेल (संयोग) का परिणाम होती है, या उनके विशिष्ट 'संयोजन' में वह शक्ति 'जागृत' (manifest) भर हो उठती है ? क्योंकि मुझे लगता है कि विज्ञान और अध्यात्म का टकराव इसी बिन्दु पर होता है । यदि वह शक्ति पहले से विद्यमान लेकिन अप्रकट है, और किसी जैव-प्रणाली के सक्रीय होने पर प्रकट / जागृत / व्यक्त हो उठती है, तो उस शक्ति के स्वरुप पर विचार करना आवश्यक है । दूसरी ओर, यदि वह शक्ति जैविक रसायनों से ही उत्पन्न एक शक्ति है, तो हमें अपने 'श्रेष्ठ' या 'चेतन' होने का दंभ छोड़ना होगा । तब जीवन में किसी चीज़ का कोई मूल्य नहीं रह जाता है, और आशा-निराशा, सुख-दु:ख आदि तथा अन्य संवेदन कोई मायने नहीं रखते । तब कुछ भी ठीक या गलत नही है, क्योंकि कोई पैमाना ही नहीं रहता । पाप-पुण्य, नैतिकता आदि के प्रश्न अप्रासंगिक हो जाते हैं ।"

" मैं सोचता हूँ कि जैसे एक प्राथमिक (primary) सेल (cell) होता है, जिसमें सल्फ्यूरिक अम्ल से भरे जार में हम एक ताम्बे की, तथा दूसरी ज़स्ते की छड़ रखकर उन छड़ों से जैसे बिजली बना सकते हैं, उस ढंग से इस बारे में सोचें । विद्युत् या विद्युत्-धारा तो पहले ही से उन रसायनों (ताँबा, ज़स्ता, और सल्फ्यूरिक अम्ल ) में विद्यमान है । उनकी आपसी प्रतिक्रया में तो वह सिर्फ़ व्यक्त (manifest) भर होती है । क्या यह अनुभूति की शक्ति भी वैसी ही चीज़ नहीं हो सकती ? "

"हमारी समस्या यह है : हम यह नही देख पाते हैं कि वह शक्ति हमसे पूर्व ही विद्यमान हो सकती है , और गणितीय उपपादन (mathematical induction) के माध्यम से हम यह अनुमान लगा सकते हैं , कि वह सदैव से है, -क्योंकि, 'सदैव' की 'अनुभूति' के पूर्व भी उसका होना आवश्यक है। दूसरी ओर, 'सदैव' उस अनुभूति के अभाव में होता होगा इसका प्रमाण हमारे पास हो ही नहीं सकता । अतः वह अनुभूति-शक्ति, बीज-रूप में अव्यक्त के रूप में, पहले ही से है, और उसके अभाव में अन्य कुछ हो ही नहीं सकता । उसी शक्ति में और उसी शक्ति से सब कुछ घटित होता है । अब पुनः 'अहं तथा 'इदं' पर लौटें ।

अनुभूति की यही शक्ति वृहत्तर-अर्थ में 'चेतना' या 'Consciousness' है । यह अव्यक्त तथा व्यक्त इन दोनों ही रूपों में हो सकती है । प्रसुप्त एवं जागृत दोनों ही रूपों में हो सकती है । किसी insentient (जड) पिंड में यह प्रसुप्त भर होती है, किंतु sentient (चेतन) में 'व्यक्त' या प्रकट रूप ले लेती है । 'मृत' हम उसे कह सकते हैं, जहाँ यह इस प्रकार से विलुप्त हो गयी हो कि उस जैव-प्रणाली में पुनः प्रकट न हो सकती हो । क्या इस शक्ति को साकार या निराकार में बाँटाजा सकता है ? शायद वैसा करना हमारे लिए सम्भव नहीं होगा । यह शक्ति जहाँ प्रकट होती है, वह प्रारंभ में अवश्य ही एक छोटा सा जैव-कोष (life-cell / living-cell) भर होता है । किंतु उसमें उस कोष (cell) के विकसित होने का पूरा नक्शा , खाका (map) होता है। और वह इतना सटीक होता है कि उसे वैज्ञानिक यंत्रों के द्वारा सुनिश्चित रूप से जाना भी जाता है । तो प्रश्न यही है कि क्या उस शक्ति में वह विशिष्ट जानकारी भी नहीं छिपी हुई होती है, जो उस कोष को विशेष रूप, आकार आदि प्रदान करती है ? क्या यह जानकारी वैज्ञानिक भाषा या किसी मानवीय भाषा जैसी किसी भाषा में होती है ? यह तो तय है कि सिद्धांततः, एक पत्ते के छोटे-से-छोटे सेल से संपूर्ण वृक्ष की रचना की जा सकती है । क्या इसे वैज्ञानिक तय करते हैं कि वह वृक्ष कैसा होगा ? वे तो सिर्फ़ उस सेल में मौजूद उस अदृश्य या अबूझ भाषा में लिखी गयी जानकारी को बाहर आने का रास्ता भर देते हैं ! क्या उस सेल में 'अहं' और 'इदं' का विचार, कल्पना, या जानकारी पहले से विद्यमान होती है ? या यह उस चेतन-शक्ति के 'व्यक्त' होने के बाद (afterwards) होता है ?"

"हाँ," -मैं मंत्रमुग्ध सा उसकी दलील सुन भर रहा था ।

"तो यह 'मैं', एक 'विचार' भर होता हो, कहीं ऐसा तो नहीं ? वह जीवनी-शक्ति (Life-Force) जिससे जीवन में सब कुछ होता है, क्या अचेतन (insentient) है ? "

"वह अचेतन कैसे हो सकती है ? "

"फ़िर अगर वह 'चेतन' है, तो क्या उसमें 'अहं' या मैं की भावना हो सकती है ? 'मैं' की भावना तो मस्तिष्क के विकास के दौरान अस्तित्त्व में आनेवाली उस बुद्धि से ही उत्पन्न होती है । "

"हाँ",-लेकिन अन्य भावनाओं से इस भावना का क्या सम्बन्ध हो सकता है ? या कोई संबंध ही नहीं होता ?"

"देखिए, जब मस्तिष्क की बुद्धि विकसित हो जाती है, तो वह संपूर्ण अस्तित्त्व का 'मैं' और 'मैं नहीं' ('me' and 'not-me') में वर्गीकरण कर देती है । यह उस जीव के शरीर में स्थित और व्यक्त जीवनी-शक्ति पर बुद्धि का प्रथम प्रभाव हुआ । जीव के आनेवाले जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल के लक्ष्य को चुनने के बाद अन्य प्रभाव भी एकत्रित होते हैं, जैसे लोभ, भय, सुख-दू:ख की प्रतीति या अनुभूति आदि । फ़िर ये प्रभाव और भी जटिल या क्लिष्ट या मिश्रित हो जाते हैं, जिन्हें हम 'complex' कहें । ये ग्रंथियाँ या मनोग्रंथियाँ हुईं । अतः चेतना अर्थात् जीव में प्रकट और स्थित जीवनी-शक्ति पर 'अहं'-'इदं' की 'प्रतीति' के पश्चात् ये सारे विभिन्न प्रभाव (conditionings) होते हैं । 'अहं'-'इदं' सबसे पहला प्रभाव या (conditioning) है । फ़िर हमारे पर्यावरणीय और सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, प्रभाव भी होते हैं, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक प्रभाव भी होते हैं , जो अपने-आप में अत्यन्त विस्तृत विषय है । लेकिन चेतना (consciousness) मूलतः एक स्वतंत्र तत्त्व है । "

"क्या इसे ईश्वर कह सकते हैं ?"

"क्या इसके अतिरिक्त ईश्वर किसी अन्य रूप में कहीं हो सकता है ? -उसने प्रतिप्रश्न किया ।

"और फ़िर यदि हम उसे ईश्वर कहें भी तो क्या उसकी पूजा-आराधना करने से हम उससे 'संपर्क' कर सकेंगे ?" -उसने एक और सवाल दाग़ दिया ।

"तो क्या हम यह समझें की ईश्वर नामक कोई सत्ता नहीं है ? "

"मुझे लगता है की इस प्रश्न का उत्तर मनुष्य की बुद्धि से परे है । या यूँ कहें की पहले यह तय कर लिया जाए की 'ईश्वर' से हमारा क्या तात्पर्य है !"

"अच्छा, यदि हम यह कहें की इस सृष्टि का स्वामी ही ईश्वर है तब ? "

"तब यह 'चेतन-शक्ति', Life-Force, या (consciousness) ही इस सृष्टि की स्वामिनी या स्वामी है । लेकिन वह इस सृष्टि से अभिन्न भी है । नहीं, हम यह नहीं कह सकते की 'वह' सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त है, बल्कि -'यह सृष्टि 'उसमें' फ़ैली हुई है, ऐसा कहना ही अधिक उपयुक्त होगा । और यही सत्य भी है । "

॥ ॥ ॥ ॥ ॥

उन दिनों / 10.

हमारी उस दिन की बातें सत्य और उसके स्वरूप, सत्य की पहचान या बोध, तथा उसके आविष्कार के संबंध में हो रही थीं ।
"क्या आपको लगता है की विज्ञान किसी दिन परम सत्य का आविष्कार या उद्घाटन कर सकेगा ? " -उसने प्रश्न किया ।
"तुम्हें क्या लगता है ?"
"विज्ञान बुद्धि के दायरे में कार्य करता है । वह अस्तित्त्व-मात्र को तीन में बाँटता है, : दृष्टा, दृश्य, और दर्शन । अंग्रेजी में कहें, तो, : the observer, the observed, और the observation. वह observation व 'प्रयोग' याने कि 'experiment' पर यकीन करता है । यह भी 'श्रद्धा' का ही एक प्रकार हुआ न ?"
श्रद्धा के इस रूप से मेरा परिचय अभी-अभी हुआ था । मुझे गीता याद हो आई - "यो यच्छ्रद्धः स एव सः ।"
"हाँ", मैंने प्रकटतः इतना ही कहा ।
"लेकिन इसमें ग़लत क्या हुआ ?" -मैंने पूछा ।
"मैं नहीं कहता कि ग़लत है, या नहीं, पहले हम इस तथ्य पर तो सहमत हो जाएँ कि विज्ञान की अपनी एक 'approach' है ।
"सो ?"
"सो यही कि मनुष्य-मात्र किसी न किसी प्रकार की श्रद्धा से स्वाभाविक रूप से बँधा हुआ होता है । "
"भई, शुरूआत करने के लिए कुछ न कुछ तो स्वीकार करना ही होता है न !"
"और फ़िर प्रयोग और अवलोकन से उसे सत्य या असत्य के रूप में ग्रहण किया जाना होता है । "
"हाँ । "
"लेकिन जो प्रारंभ में स्वीकार किया था, उसकी प्रामाणिकता की परिक्षा किए बिना ही ?" -उसने पूछा ।
"तुम यह कह रहे हो कि जो प्रमाण हम स्वीकार करते हैं, उन प्रमाणों की सत्यता भी प्रमाणित होना चाहिए ?"
"हाँ ।"
"तो यह तो एक अंतहीन दुश्चक्र होगा । "
"क्यों ?"
"नहीं होगा ?"
"हम इसे समझने की कोशिश करें ? "-उसने चुनौती पेश की ।
"ठीक है । " -मेरी उत्सुकता जागृत हो उठी ।
"देखिये पश्चिम का दृष्टिकोण मूलतः विभाजनपरक है, हर चीज़ को तोड़कर देखने का है, और वह बुद्धि का एक ऐसा आयाम है, जिसमें अपने कुछ 'सत्य' निर्धारित किए जाते हैं । वे 'सत्य' इन्द्रिय-ज्ञान, तथा इन्द्रिय-ज्ञान पर आधारित तर्क-निष्पत्तिजन्य 'बुद्धि' से सुसंगति भी ज़रूर रखते हैं, लेकिन मनुष्य की यह बुद्धि केवल शब्द-आश्रित बुद्धि होती है, इसलिए वह सत्य के एक ही पक्ष को, खासकर 'सापेक्ष' पक्ष को ही ग्रहण कर पाती है । अब ज़रा हम मनुष्य की इस 'बुद्धि' की तुलना अन्य प्राणियों की 'बुद्धि' से करें ।

March 09, 2009

उन दिनों / 9.

मैं नियति के इस संयोग पर चकित था । कल्पना भी नहीं थी कि "एक बार मिल तो लें !" -'राजेश' की उस एक पंक्तिवाला विज्ञापन इतना भविष्य-दर्शी होगा ! अविज्नान से कल की मेरी लम्बी बातचीत जिस तरह एकाएक समाप्त या खंडित होकर रह गयी थी, वह भी एक अजीब बात थी । मैं नहीं जानता कि अब आगे क्या होगा । क्या इस चौकड़ी के लिए मुझे 'इवेंट -मैनेजमेंट' का कोई अध्याय पढ़ना होगा ?
गर्गजी अर्थात् श्री रेवाशंकर गर्ग मेरी तरह ही एक रिटायर्ड व्यक्ति थे । उम्र में मुझसे बड़े, लेकिन रिटायर हुए मुझसे अनेक वर्षों बाद । मैंने कहीं जमकर नौकरी नहीं की, इसलिए अक्सर 'रिटायर्ड' जैसा जीवन जीता रहा । नौकरी करते हुए भी साहित्य में टांग अदाता रहा । उससे मुझे जेबखर्च ज़रूर मिल जाता था वरना सरकारी नौकरी में तो घर -गृहस्थी चलाना ही बहुत कठिन था । तात्पर्य यह , कि 'सर' भले ही बिना कोई प्रोग्राम तय किए यहाँ आए हों, उनके जाने की तारीख तो हमें ही तय करना थी । वे मेहमान ही नहीं, बहुत ख़ास मेहमान थे ,और ज़ाहिर है, मेहमान आते अपनी मर्जी से हैं, लेकिन विदा मेजबान की मर्जी से होते हैं , उससे पहले नहीं ।
यूँ तो रवि और अविज्नान दोनों अनिकेत थे, उनका कहीं न तो तय मुकाम या ठिकाना था और न आमदनी का ऐसा कोई ज़रिया, कि एक सुनिश्चित ढंग की जिंदगी जी सकें । दोनों अभी ३५-४० के बीच की उम्र के रहे होंगे ।
अविज्नान से मेरी मुलाक़ात पुरी के समुद्र-तट पर हुई थी, जहाँ मैंने दो दिन नंदी -lodge में गुजारे थे । उसके संस्कृत-ज्ञान से मैं चकित था, उसके 'पश्चिमी' होने के कारण मेरा यह आश्चर्य और भी गहरा था, लेकिन इस बारे में उसका बस यही कहना था कि उसने 'जाति-स्मरण' के प्रयोगों से अपने पिछले जन्मों के बारे में जाना, और उसके पिछले जन्मों में सीखा ज्ञान, जो उसे विस्मृत हो चुका था, इन प्रयोगों से पुनः लौट आया । मुझे तो उसके इस सारे वार्तालाप पर कतई भरोसा नहीं हो रहा था । उसने अपना नाम अविज्नान रखा, या उसके माता-पिता द्वारा यह नाम उसे दिया गया था, यह पूछने पर वह कहता, -"संस्कृत में मेरा नाम 'अविज्नान' लिखा जा सकता है, लेकिन "ज्ञा > जानाति" अर्थात् 'जानता है', इस दृष्टि से 'ज्ञ' का वास्तविक रूप 'ज्न' है, और इसलिए मेरा नाम अविज्ञान अर्थात् 'अविज्नान' हुआ । इसलिए शुद्धता के लिए मैं अपना नाम 'अविज्नान' लिखता हूँ । "
"लेकिन तुम्हें पता है क्या कि 'अविज्ञान' का क्या अर्थ होता होगा ?"
"हाँ, और उस दृष्टि से भी मैं तथाकथित 'विज्ञान' से अपनी अलग पहचान बनाना चाहता हूँ । "
"क्यों ?"
"देखिये आज का विज्ञान या साइन्स विश्लेषणात्मक है, विश्लेषण बुद्धि का रास्ता है, उसके अपने प्रयोग और उपयोग हैं, लेकिन जब निरपेक्ष सत्य के संबंध में उसे इस्तेमाल किया जाता है, तो किसी परिणाम पर नहीं पहुंचा जा सकता । "

March 08, 2009

उन दिनों / 8.

रवि, रेवाशंकरजी गर्ग (सर) और मैं ! हम तीनों उस ड्राइंग रूम में बैठे थे ।
"आराम से बैठिए । " - मैंने अनुरोध किया ।
"कल यहाँ आया था, काम तो कुछ ख़ास नहीं था, लेकिन आपके बहाने काम निकाला और काम के बहाने आपसे मिल लिया । " वे हँसते हुए कहने लगे ।
"आप रवि को जानते हैं ?" -मैंने रवि का परिचय देना चाहा ।
"जी, मुझे रवि कहते हैं । " -रवि ने हाथ बढ़ाया ।
उन्होंने उसके हाथ को दूर से ही स्पर्श भर किया ।
ये 'सर' हैं ।
वे मुझे स्थिर दृष्टि से देख रहे थे । बस स्नेह भरी एक सरल सी दृष्टि, जिसमें इनकी आँखों में बहुत हल्की सी मुस्कान थी । और था एक उमंग भरा मौन ।
"आपके बारे में बहुत कुछ बतलाया है कौस्तुभजी ने । अब मैं आपको छोड़ने वाला नहीं हूँ । " -रवि ने कहा ।
"भई, तीन का आँकड़ा तो वैसे भी अशुभ होता है । " -सर बोले ।
"हाँ, इसलिए सिर्फ़ मैं और कौस्तुभजी ही नहीं, बल्कि अविज्नान भी आपके आसपास मंडराता रहेगा, ताकि अशुभ भी अधूरा न रहे । "रवि हँसते-हँसते कहने लगा ।
" फ़िर कोई बात नहीं, पूरी चांडाल- चौकड़ी हो जाएगी यह भी खूब रही । " -सर बोले ।
"अविज्नान शायद आपके मित्र हैं ? "-उन्होंने रवि से पूछा ।
"हाँ, मेरे भी, और कौस्तुभजी के भी । "
"यहीं रहते हैं ? "

March 07, 2009

उन दिनों / 7.

"अतः इन शुद्ध इन्द्रिय अनुभवों में से वह "जो है", जो कुछ भी इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है, अर्थात् जो भी इन्द्रिय-गम्य है, जिसे हम 'observed' कहें, उसका एक बहुमाध्यम-युक्त चित्र (multi-media) उसके मस्तिष्क में बनता है , और उस चित्र में अभी "जो है" , उसका शुद्धतम चित्रण होता है । 'समय' गुजरने के साथ-साथ , (हालाँकि न तो भौतिक, और न मानसिक, या भौतिक निष्कर्ष-गत रूप में अभी 'समय' नामक कोई वस्तु उसके लिए है !) विभिन्न 'अनुभवों' का 'क्रम' , 'स्मृति' को जन्म देता है और स्मृति फ़िर मनोगत निष्कर्ष के रूप में 'समय' को जन्म देती है । इस प्रकार "जो है",- 'observed', 'समय' और 'स्थान' के रूप में शिशु के 'मस्तिष्क' में जड़ें जमा लेता है । यह समय और स्थान "जो है" के ही, दो आयाम भर होते हैं । नामकरण तो अभी भी शुरू नहीं हुआ होता, अभी तो मस्तिष्क विभिन्न चित्रों को काट-छाँट रहा होता है, और (इन्द्रिय-अनुभवों के ) चित्रों के रूप में इन्द्रिय-अनुभवों की सीडी बना रहा होता है । क्या इस समय "मैं" जैसी कोई चीज़ कहीं होती है ?"
"नहीं होती । "
"इसके बाद ध्वनियों और उनके साहचर्य में रहनेवाले अनुभवों का वर्गीकरण मस्तिष्क करता है । इसे हम अनुभवों का वर्गीकरण भी कह सकते हैं । सुखद और दु:खद, अनुकूल और प्रतिकूल का वर्गीकरण भी मस्तिष्क करता है । यह सब एक स्वाभाविक, एकदम प्राकृतिक प्रक्रिया है - इसमें कोई स्वतंत्र नियामक (sensor) कहीं नहीं होता, जो इसे प्रेरित या निर्देशित करता हो ।"
"हाँ । "
"इसके पश्चात् "भाषा'' का आगमन होता है, : पूर्व-अनुभवों से अगले अनुभवों की 'तुलना' का कार्य शुरू होता है । अब मस्तिष्क, शब्द-विशेष को 'अनुभव की स्मृति' के विकल्प के रूप में प्रयुक्त करने लगता है । यह अनुभव वैसे तो शुद्ध इन्द्रिय-अनुभव होता है , लेकिन शब्द-विशेष के विकल्प को अपनाने के बाद मस्तिष्क 'भावनात्मक'-अनुभवों की स्मृति के विकल्प की तरह से भी शब्दों का इस्तेमाल करने लगता है । वास्तव में, हम अपने 'अनुभव' को 'जानते' हैं, या कि 'अनुभव' की स्मृति को ? और 'जानने' से हमारा क्या अभिप्राय होता है ? क्या यह 'जानना' जानकारी या सूचना-रूपी ज्ञान होता है ? "
"नहीं, यह 'जानना' कोई अलग चीज़ है । - मैं सूत्र को आगे बढाता हूँ ।
वैसे तो उसकी बातों में मैं इतना तल्लीन था, कि "जानना" भर ही शेष था, और मुझे उत्तर देना है, इसकी कल्पना तक विदा हो चुकी थी ।
"तो", - उसने आगे कहा, - यह 'जानना' अभी ऐसा है, जैसा कि उस शिशु का 'जानना' होता है, जिसने अभी इन्द्रिय-अनुभवों का 'चित्रण' या वर्गीकरण नहीं किया होता है । "
"हाँ , -मैं सहमत हूँ । "
"तो क्या हम यह कह सकते हैं कि उस शिशु में 'समय', स्थान', और इन्द्रिय-अनुभवों की कल्पित सत्यता में जो 'क्रम' का ख़याल पैदा हुआ है, उसमें 'जो है' की 'छवि' को ही वह एक 'संसार' के रूप में देखने लगा है ?"
"हाँ, यह तो बिल्कुल ही स्पष्ट सी बात है ।"
"फ़िर इस सारे 'संसार' के 'विकल्प' की तरह से, या उसकी पृष्ठभूमि में कोई सापेक्षतः एक 'स्थिर' वस्तु भी है, ऐसा एक निष्कर्ष भी स्वाभाविक रूप से उसके निर्दोष चित्त में जन्म लेता है । अर्थात् वह, या उसका मस्तिष्क यह मान लेता है कि इस परिवर्त्तनशील संसार में एक अपरिवर्त्तनशील चीज़ भी है, जो परिवर्त्तन-रहित है ?"
"हाँ । "
"देखिये , अभी तक 'मन' जैसी कोई चीज़ नही है । "
"हाँ, नहीं है, -'मन' जैसी कोई चीज़ अभी तक । "
"और 'मन' के 'स्वामी' जैसी भी कोई चीज़ नहीं है ।"
"यदि 'मन' नहीं, तो मन का स्वामी भी नहीं ! " - मैं कहता हूँ ।
हम बातें ही कर रहे हैं कि फ़ोन की घंटी बजने लगती है । वह फ़ोन उठाता है लेकिन तुंरत ही मुझे दे देता है ।
सर का फ़ोन है ।
"हाँ भई यहाँ आया था, सोचा मिलता चलूँ !" -बिल्कुल पिछली बार की तरह वे कहते हैं । उस समय तो मैं अपने घर में बैठा हुआ कुछ लिख रहा था, और आज पुरी के उस यूरोपियन से चर्चा कर रहा हूँ । मेरी आंखों के सामने वे दृश्य घूम जाते हैं, जब वे मेरे घर पहली बार आए थे । किसी भाँति अपने-आप को संयत कर कहता हूँ, - "जी, हम इंतज़ार ही कर रहे हैं । हम लेने आ जाएँ ? "
"नहीं-नहीं, मैं मार्केट से ही फ़ोन कर रहा हूँ, बस ऑटो में ही बैठा हूँ, यूँ समझ लो ।
"जी । "
फ़ोन डिस्कनेक्ट हो जाता है ।
अब हम कुछ बातें नहीं कर सकेंगे । इस विराट के आगमन के बाद कुछ समय तक तो बोलना ही स्तब्ध रहेगा ।
॥ ॥ ॥ ॥ ॥

March 06, 2009

उन दिनों / 6.

"सबसे पहले तो यह समझना या तय करना ज़रूरी है कि जिसे तुमने "मैं" कहा वह कोई जड़ वस्तु है या चेतन तत्त्व है । अभी तो हम उसके स्वरुप के ही बारे में किसी निश्चित परिणाम पर नहीं पहुँच सके हैं । तुमने जैसा कहा था, यदि "चेतना" शब्द को विचार, भावनाएँ, स्मृति, बुद्धि, संस्कार, आदि के अर्थ में इस्तेमाल करें तो यह प्रश्न उठता है कि उनसे पृथक् कोई "मैं" यदि है, तो उसका स्वरूप क्या होगा ? क्या दो "मैं" होते हैं ? हमारा अपना अनुभव या प्रतीति इस बारे में क्या है ? जिसे भी हम "मैं" कहते हैं वह संख्या की दृष्टि से एक है, या अनेक ? यह तो निर्विवाद है कि विचार, भावनाएँ, स्मृति, बुद्धि, संस्कार इत्यादि अनेक होते हैं, क्या इन्हें हम मन की "वृत्ति" अर्थात् विभिन्न वृत्तियाँ कह सकते हैं ? हमारी समस्या शायद यह है कि जिस चीज़ से हमारा पाला पड़ा है, अर्थात् "मन" नामक वस्तु, उसमें ढेरों अलग अलग चीज़ें मिली होती हैं, और उनमें से हरेक को हम कोई नाम दे सकते हैं । उन नामों का बातचीत में इस्तेमाल कर हमें तसल्ली हो जाती है कि हम उन सबको भली भाँति जानते हैं । तो मुझे लग रहा है कि पहले हम यह तय कर लें कि "मैं" उन ढ़ेर सारी चीज़ों में से ही कोई एक चीज़ है, या वह सम्मिलित रूप से वे सभी चीज़ें है, या फ़िर, एक वक्त में वह उनमें से कोई एक चीज़ होता है, या वह उनमें से कोई भी चीज़ नहीं होता है । अभी हम यह मानकर चल रहे हैं कि चेतना उनमें से कोई नहीं है, क्योंकि चेतना हमेशा 'observer' या 'दृष्टा' होती है, -क्या 'observer' या 'दृष्टा' की अनुपस्थिति में किसी अन्य वस्तु का प्रमाण सम्भव है ? मैं इस वक्तव्य के दूसरे पक्ष पर भी बाद में कहूंगा ही, कि क्या दृष्टा जिन चीज़ों को प्रमाणित करता है, - अर्थात् - दृश्य वस्तुएँ,- क्या उनसे पृथक् भी किसी दृष्टा का स्वतंत्र अस्तित्त्व सम्भव है ? तो तुम्हारे प्रश्न के प्रत्युत्तर में मैं पूछना चाहूंगा कि "मैं", 'दृष्टा' होता है, या दृश्य होता है ? या वह विभिन्न विचारों से पैदा हुआ एक अन्य विचार-मात्र होता है , जो "स्वतंत्र विचारक" की हैसियत पा लेता है, - और 'वैसा' प्रतीत भर होता है ? "
-मैंने गेंद वापस उसके पाले में कर दी थी । "
"मुझे तो लगता है कि ऐसा ही है, और यदि यह 'लगना' एक 'बौद्धिक' निर्णय न होकर सत्य के 'दर्शन' (revealation) के रूप में हो, तो "मैं" नामक कोई स्वतंत्र सत्ता कहीं होती ही नहीं ! लेकिन बोलने में तो यह वक्तव्य बड़ा विचित्र सा लगता है न ? विचारों से फलित एक तथाकथित स्वतंत्र 'विचारक' , एक स्वतंत्र 'दृष्टा' इतना शक्तिशाली हो जाता है कि उसके परिप्रेक्ष्य में बाकी चीज़ें 'दृश्य' हो जाती हैं, और वह 'स्वयं' 'चेतन' हो जाता है । शायद इसे उस उदाहरण से कह सकते हैं, कि जैसे किसी यंत्र में हर हिस्से का अपना एक अलग नाम, और रंग-रूप होता है , लेकिन उसे इंगित कर हम कहते हैं कि यह फलाँ यंत्र है, -जैसे सायकिल ।

इसमें हैंडिल, घंटी, पैडल, पहिए, ट्यूब-टायर, सीट, इत्यादि होते हैं । सभी को मिलाकर सायकिल कह सकते हैं । कैसे ? मान लीजिये आपने उसका एक पहिया निकाल दिया, तो हम कहेंगे कि 'वह' पहिया 'इस' सायकिल का है । फ़िर, हमने दूसरा पहिया भी अलग कर दिया, क्रमशः हैंडिल, पैडल, सीट, घंटी, आदि अलग-अलग कर दिए तो वह सायकिल कई हिस्सों में बँट कर भी हमारे मन में एक ही रहती है । लेकिन हमारे 'मन' के रूप में जो यंत्र हमारे भीतर होता है, उसमें इस से कुछ अलग होता है , वहाँ 'जाननेवाला' और 'जिसे जाना जा रहा होता है', वे दोनों ही 'मन' नामक वस्तु में इस तरह एकाकार , घुले-मिले होते हैं कि 'जाननेवाले' तत्त्व का स्वरूप 'जानना' एक पेंचीदा सवाल है । जब हम सायकिल को जानते हैं तो हमें पक्का पता होता है कि 'हम' सायकिल नहीं हैं, लेकिन 'मन' को या ख़ुद को 'जानने' की कोशिश में ऐसा नहीं होता । 'मैं' -विचारों, भावनाओं, स्मृतियों, बुद्धि, संस्कारों आदि सब चीज़ों से बनी एक स्मृति या संवेदन होता है । "

"अच्छा, यह संवेदन या observation , अनुभूति है, या नहीं ?"

"इसे इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता । यदि हम बुद्धि, भावना, स्मृति, विचार, संस्कार आदि को अनुभूति कहें तो यह 'observation' , -वैसी कोई चीज़ हरगिज़ नहीं है । हम यह कह सकते हैं कि बुद्धि, विचार, भावना, स्मृति, संस्कार, आदि संवेदन / अनुभूति से पैदा होनेवाली प्रतिक्रियाएँ भर हैं ।

एक छोटे शिशु का उदाहरण लें - अभी उसमें इन्द्रियों (senses) का कार्य शुरू ही हुआ होता है, उसकी आँखें अभी विभिन्न वस्तुओं का चित्र भर बनाती हैं, उसके कान अभी विभिन्न ध्वनियाँ सुन भर रहे होते हैं, उसकी जीभ अभी विभिन्न स्वादों को चख भर रही होती है, उसकी त्वचा अभी विभिन्न स्पर्शों को 'ग्रहण' भर कर रही होती है, उसकी नाक अभी भिन्न-भिन्न गंधों को 'ग्रहण' भर कर रही होती है, लेकिन अभी उसके भीतर ऐसा कोई 'केन्द्र' नहीं होता जो उन विभिन्न शुद्ध इन्द्रिय-अनुभवों को सुखद या दुःखद कह सके । या होता है ?"

"ठीक है, आगे कहो । "